इस अंक के रचनाकार

इस अंक के रचनाकार आलेख खेती-किसानी ले जुड़े तिहार हरे हरेलीः ओमप्रकाश साहू ' अंकुर ' यादें फ्लैट सं. डी 101, सुविधा एन्क्लेव : डॉ. गोपाल कृष्ण शर्मा ' मृदुल' कहानी वह सहमी - सहमी सी : गीता दुबे अचिंत्य का हलुवा : राजेन्द्र प्रसाद काण्डपाल एक माँ की कहानी : हैंस क्रिश्चियन एंडर्सन अनुवाद - भद्रसैन पुरी कोहरा : कमलेश्वर व्‍यंग्‍य जियो और जीने दो : श्यामल बिहारी महतो लधुकथा सीताराम गुप्ता की लघुकथाएं लघुकथाएं - महेश कुमार केशरी प्रेरणा : अशोक मिश्र लाचार आँखें : जयन्ती अखिलेश चतुर्वेदी तीन कपड़े : जी सिंग बाल कहानी गलती का एहसासः प्रिया देवांगन' प्रियू' गीत गजल कविता आपकी यह हौसला ...(कविता) : योगेश समदर्शी आप ही को मुबारक सफर चाँद का (गजल) धर्मेन्द्र तिजोरी वाले 'आजाद' कभी - कभी सोचता हूं (कविता) : डॉ. सजीत कुमार सावन लेकर आना गीत (गीत) : बलविंदर बालम गुरदासपुर नवीन माथुर की गज़लें दुनिया खारे पानी में डूब जायेगी (कविता) : महेश कुमार केशरी बाटुर - बुता किसानी/छत्तीसगढ़ी रचना सुहावत हे, सुहावत हे, सुहावत हे(छत्तीसगढ़ी गीत) राजकुमार मसखरे लाल देवेन्द्र कुमार श्रीवास्तव की रचनाएं उसका झूला टमाटर के भाव बढ़न दे (कविता) : राजकुमार मसखरे राजनीति बनाम व्यापार (कविता) : राजकुमार मसखरे हवा का झोंका (कविता) धनीराम डड़सेना धनी रिश्ते नातों में ...(गजल ) बलविंदर नाटक एक आदिम रात्रि की महक : फणीश्वर नाथ रेणु की कहानी से एकांकी रूपान्तरणः सीताराम पटेल सीतेश .

शनिवार, 28 फ़रवरी 2015

फरवरी 2015 से अप्रैल 2015

सम्‍पादकीय
आलेख
कवि और कविता के बारे में - डॉ. सुरेन्‍द्र कुमार
उपनिवेशवाद विरोधी संघर्ष और रंगभूमि - अरमान अंसारी 
आधुनिक गद्य का विकास और प्रथम हिन्‍दी कहानी - यशवंत
छत्‍तीसगढ़ी '' कथा - कंथली '' में लोक - प्रतिरोध के स्‍वर - सुरेश सर्वेद

आलोचात्‍मक आलेख 
प्रभा खेतान के नाम एक खत : डॉ. अर्चना रानी 
शोध लेख
छत्तीसगढ़ के सामंती रियासतों एवं जमीदारियों में जनचेतना के विकास में सतनाम पंथ का योगदान : पी.डी. सोनकर
गांधी: नारी विषयक दृष्टिकोण - शोधार्थी : सुमन 
वारिस शाह की हीर: राखी वर्मा 

कहानी
फर्क - सुरजीत सिंह वरवाल
श्‍वान निन्‍द्रा - मनीष कुमार सिंह
जूते की जोड़ी - सपना मांगलिक
धुरी - महावीर रवांल्‍टा
रूपये का रिश्‍ता -  आशीष आनन्‍द आर्या 

व्‍यंग्‍य
स्‍वर्गवासी - नर्कवासी - कुबेर

लघुकथा
मंगल सूत्र - डॉ. रामसिंह यादव 

लोक कथा 
महराज के बेटा : वीरेन्‍द्र ' सरल '

गीत / गजल / कविता
नवगीत : सुमन खिला रही है - रामकुमार भुआर्य '' आकुल ''
नवगीत : कैसा यह दौर - मुकुंद कौशल
नवगीत : पुरवा कहती है - सुधा शर्मा
छत्‍तीसगढ़ी गीत - हमर गंवई गांव म - गणेश यदु
मुक्‍तक : पांच मुक्‍तक - श्‍याम '' अंकुर ''
कविता : अनुठा है मेरा मामला - केशव शरण
कविता : चिट्ठियां - राहुल देव
कविता : ऑंचल - ज्ञानिक वर्मा
गजल : उनकी यादों - चॉंद ' शेरी ' 
गजल : फूलचंद गुप्‍ता की चार रचनाएं
के.के. सिंह मयंक की दो रचनाएं
धर्मेन्‍द्र निर्मल की गजलें
गरमी के चारगोडिया : आनन्‍द तिवारी पौराणिक

साहित्यिक - सांस्‍कृतिक गतिविधियॉं
अाकांक्षा को '' परिकल्‍पना सार्क सम्‍मान''
तीन मई को साकेत  परिषद की वार्षिकोत्‍सव एवं सम्‍मान समारोह 
संवेदनाओं के स्‍वर का लोकार्पण
अम्बिका प्रसाद दिव्‍य पुरस्‍कार घोषित

वारिस शाह की हीर

राखी वर्मा

            ऐतिहासिक निष्‍कर्षों पर खरी उतरने वाली प्रेम-कहानियाँ संवेदनशील हदय की ऐसी अमिट छाप होती है जिन्हें लोग सदियों तक याद रखते हैं। बात नारी की हो या पुरूष की, आत्मा की हो या परमात्मा की, अतीत की हो या वर्तमान की, कहानियाँ इनके बिना अधूरी ही रहती है। ऐसी ही कुछ कहानियाँ लैला - मजनू, शीरी - फरहाद, शशि - पुन्नू एवं हीर - रांझा की हैं जो आज भी जनमानस के हृदय में अपना स्थान बनाए हुए हैं। वारिस शाह की हीर ऐसी ही अद्वितीय प्रेम कहानी है।
            वारिस शाह का जन्म गुजराँवाला जिले में शेखू पुरे के समीप के गॉंव जंडियाला शेरखान में हुआ। उनकी प्रारम्भिक शिक्षा जंडियाला में ही हुई। इनके जन्म के साल की प्रामाणिकता नहीं है। वह 1704, 1722, 1730, 1735, 1738 ई. अनुमानित किया गया। दरबार वारिस शाह के बाहर की पत्थरशिला पर अरबी भाषा में इनका जन्म 1722 ई. तथा मृत्यु 1798 ई. में लिखी हुई मिली है। इन्होंने अपनी उच्च शिक्षा कसूर आकर मौलाना हाफिज गुलाम मुर्तजा सेली और उनके शागिर्द बन गए। बाद में वे पाकपटन में बाबा फरीद की गद्दी पर बैठे। इन्हें आध्यात्मिक तथा दार्शनिक ज्ञान प्राप्त हुआ। एक आंतरिक साक्ष्य के अनुसार ही का किस्सा 1766 ई. में मुकम्मल हुआ। इस तिथि के बारे में वारिस शाह ने स्वयं लिखा है। सन ग्यारह सौ अस्सीया नबी हिजरत, लम्मे देस दे विचतियार होई। हीर-रांझाा की प्रेम कहानी पर प्रथम काव्य ग्रंथ रचने का श्रेय अकबर के समकालीन दामोदर कवि (1572) ई. को दिया जाता है। इसके बाद लगभग अगले 250 वर्षों में इस प्रेम कहानी पर मुकबल, वारिस शाह, गुरदास, हामिदशाह, हाशिम, फजलशाह, हजारासिंह इत्यादि ने लगभग तीस के करिब किस्से लिखे। इन सबमें सबसे अभूतपूर्व तथा अधिक प्रसिद्धि पाने वाले वारिस शाह ही रहे हैं।
           हीर-रांझा एक ऐसी प्रेम कहानी है जिसमें वारिस शाह ने अपने समय के पंजाब तथा पारिवारिक-सामाजिक रिश्तों का वर्णन प्रभाव-पूर्ण ढंग से किया है। हीर-रांझा के बिछड़़़ने और मरने के बाद भी आज तक यह कसक पंजाबियों के हृदय के तारों को उद्वेलित कर देती है। इनकी हीर के नाटकीय भाषा, अलंकार और अन्योक्ति की नवीनता काव्य को उत्कृष्ट कोटि की श्रेणी में रखती है। इश्क मजाजी (लौकिक प्रेम) से इश्क हकीकी (अलौकिक प्रेम) की व्याख्याँ मन का छू लेती है।
कहानी शुरू होती है धीदों के पिता के जमीन बांटने से। पिता तो मर गया किन्तु सबसे छोटे बेटे धीदों रांझा पर परेशानियों का पहाड़ टूट पड़ा क्योंकि बड़े भाई ने लालच और रिश्वत से अन्य भाइयों को अपने तरफ कर धीदों को बंजर जमीन देना ही ठीक समझा।
'हजरत काजी ते पैंच सहाय सारे भाइयां जिमी नूं कछ पवाया ई
बढी दे के भुऐं दे बणे वारिस, बंजर जिमी रंझेरे नूं आया ई
(हीर-वारिस शाह, नामवर सिंह, पृष्ठ 17)
         यहाँ भाइयों का लालच और ईर्ष्या दिखाई देती है जो आज भी है। संयुक्त परिवार एकल परिवार में परिवर्तित होकर रिश्तों-नातों को तवज्जों देना भूल सा गया है। प्रेम लुप्त होता जा रहा है। वारिस शाह ने समाज को देखते हुए इस किस्से को काव्य में पिरोया। कनफटे नाथ-संप्रदाय में दीक्षित हो कर रांझा गाँव को छोड़कर बाँसुरी बजाते हुए ही के गाँव पहुँचा। वहाँ पर गाय-भैंस चराने का काम करने लगा। हीर उसकी बाँसुरी की आवाज पर मुग्ध हो गई। दोनों में प्रेम हो गया। प्रेम ज्यादा दिन टिक न सका क्योंकि हीर के ईर्ष्यालु चाचा कैदों ने हीर के माता-पिता को उसकी शादी के लिए तैयार किया। तक उन्होंने हीर का विवाह सैदा खेडें़ से मुकर्रर कर हीर-रांझे के प्रेम को नकार दिया। हीर की स्थिति ऐसी हुई जैसे आग की लपटों ने उसे जला दिया हो-
'लै बे रांझिया वाह मैं लाय थकी, मेरे बस की गल बेबस होई काजी मापियां भइयों बन टोरी, साडी तैंडडी दोसती भस होई घर रवेडियां दे नहीं बसणा मैं, साडी इन्हांनाल खडखस होई जहां जीवांगे मिलेंगे सब मेले हाल साल ता दोसती होई
(हीर-वारिस शाह, नामवर सिंह पृष्ठ - 68)
           दिन गुजरते गए और एक दिन ऐसा आया जब प्रेम फकीर रांझा हीर के ससुराल पहुँच गया। प्रेम का अंकुर दोनों के हृदय में फूट पडा और दोनों हीर के गाँव आए जहाँं माता-पिता ने उन्हें विवाह की अनुमति दी। परन्तु नियति को यह मंजूर नहीं था कि दोनों प्रेमी मिले। विवाह के दिन ही चाचा कैदों ने हीर के भोजन में जहर डाल दिया और उसकी मृत्यु हुई। धीदों रांझा पर यह सब देखकर ऐसा कहर टूटा कि उसने भी जहरीला लड्डू खाकर अपनी हीर के बगल में ही दम तोड़ दिया। दोनों के इस भयावह अंत ने सभी की रूह को कपाँ दिया।
           खुशियों भरी आशा दिखते-दिखते भी वारिस की हीर का अंत दुख भरा है। कहानी दुखांत है। पंजाबी समाज का ब्यौरा और ईर्ष्या के परिणाम के साथ-साथ नाथपंथियों के प्रभाव का भी चित्रण है। इस किस्से से पंजाब जुदाइयों का देश लगता है और शायद ही कोई धरा ऐसी होगी जिसने इतनी जुदाइयाँ देखी हों। यह प्रेम काव्य सूफी प्रेम दर्शन से प्रभावित है जिसे सूफी दार्शनिकता से समन्वित करके जीवन मूल्य के रूप में स्थापित किया। प्रेम और सौन्दर्य पाठक के मन पर एक ऐसी गहरी छाप छोड़ता है जिसमें प्रेम की मधुरता हृदय के तारों को छन छन करती अपूर्व आनन्द की तृप्ति कराती प्रतीत होती है। प्रकृति के स्वरूप को वारिस ने बडे प्रभावी ढंग से दिखाया है। हीर की प्रासंगिकता आज भी बनी हुई है। लालच और ईर्ष्या का भाव जैसा हीर में दिखाया है कहीं न कहीं आज के रिश्ते-नातों में भी प्रत्यक्ष रूप में विद्यमान है। प्रेम भाव जिसकी कोई सीमा नहीं है, कोई भेद नहीं है। उसमें अमीरी-गरीबी, जातिगत भेदभाव पहले की तरह आज की पीढी को भी सामना करना पड़ रहा है।
पता 
पी.एच.डी. दिल्ली विश्वविद्यालय
निवास स्थान: आर जैड ई 171 न्यू रोशन पुरा
नजफगढ, नई दिल्ली 110043

हमर गंवई गॉंव म

गणेश यदु
चहके चिरइया, बिहिनिया अंगना अउ दुवार म। 
सरग - सुख पावंय जम्‍मों, अमरइया खेतखार म।। 
हमर गंवई गॉंव म...... 

छनर - छनर पइरी बाजय, पनिहारिन के पॉंव म। 
पंडरू - बछरू- पठरू बोलयं, महतारी के नांव म।।
खेलइया लइका निकरगे, खोर भिनसार म
हमर गंवई गॉंव म ...... 

बबा के खांसी - खोखली, लइका के तोतरी बोली। 
पिंजरा के सुवा बोले, संगी के हांसी ठिठोली।। 
सरी सुख ह अमाये हे, दाई के दुलार म 
हमर गंवई गॉंव म ......... 

अंगाकर चीला अउ चाहा, बनावत हे बहुरिया। 
गोसानिन संसो करय, भुखागे होही नंगरिहा।। 
रोटी - अथान धर के,  रेंगय, मेड़पार म 
हमर गंवई गॉंव म ......... 

बर अउ पीपर के छंइया, गॉंव म तीरथ - धाम हे।
पबरित नंदिया के पानी, गॉंव म बुता काम हे।। 
नइ जावन कहूं डहर दूसर के रूजगार म 
हमर गंवई गॉंव म ......... 

पता 
सम्‍बलपुर 
जिला - कांकेर (छ.ग.) 494633 
मोबा: 07898950591

पांच मुक्‍तक



श्‍याम ' अंकुर '
(1)
कोयलिया का गान गया।
हंसों का बलिदान गया।।
झूठों को अब मान मिला ।
सच्‍चों का सम्‍मान गया।।

 (2)
चाहे शबरी नाम मिले।
या केवट का काम मिले।।
जिसके मन में मैल भरा।
उसको कैसे राम मिले ।।
(3)
घर ' ऑगन यूं सून किया है।
जख्‍मी यह कानून किया है।।
जिसके सिर पे ताज उसी ने।
अरमानों का खून किया है।।
(4)
' अंकुर ' धाब छिपाये कैसे।
मन की पीर बताये कैसे ।।
बैरी जब मधुमास हुआ।
खुशियॉं भी मुस्‍काये कैसे।।

(5)
रूठा वह मधुमास गया।
दूर बहुत उल्‍लास गया।।
कुछ भी ' अंकुर ' शेष नहीं।
मन का जब विश्‍वास गया।।

पता -
हठीला भैरूजी का टेक 
मण्‍डोला वार्ड,  बारां - 325205 
मोबाईल : 09461295238

मंगल सूत्र

डॉ रामसिंह यादव 

             पारो चरित्रवान गरीब सुन्‍दर जवान युवती थी। वह ज्‍यादा पढ़ी लिखी नहीं थी। मॉंं -बाप ने उसकी शादी बचपन में ही कर दी थी। कुछ वर्षों बाद उसका दुर्भाग्‍य ही था कि उसके पति का निधन एक दुर्घटना में हो गया। तब तक पारो एक बेटा और एक बेटी का मॉं बन चुकी थी। अब तो पारो के लिए मुसबतेंं खड़ी हो गई। बच्‍चों और बूढ़ी सास के भरण पोषण की जिम्‍मेदारी उस पर आ पड़ी थी। वह एक पोहा फैक्‍ट्री में काम करने लगी। उसी से उसके परिवार का पालन पोषण होने लगा। 
          एक दिन उसकी बूढ़ी सास राजूबाई ने उसकी लावण्‍यता यौवन का उभार, सादगी को विधवा साड़ी में देखा। उसने कहा - बहू, यह सच है कि तू विधवा है। आजकल जमाना खराब है। महिलाओं, युवतियों की सुरक्षा नहीं हो पा रही है। अकेली औरत का जीना मुश्किल हो गया है। तेरी सुरक्षा इसी में है कि विधवा होते हुए भी तू मंगल सूत्र पहने रहना। इससे तेरी सुरक्षा होगी। 
        सास की मंगल सूत्र वाली बात को पारो ने गंभीरता से लिया। समझा। उसकी आंखों में आंसू आ गये।अज्ञात घटना से बचने उसने उतार चुकी मंगल सूत्र को पुन: धारण कर लिया।

पता 
14,उर्दूपुरा,उज्‍जैन 
मोबा: 09669300515

स्‍वर्गवासी - नर्कवासी

                                                                  कुबेर

                                                         लेखक परिचय 



सन 2012 में जिला प्रशासन व्‍दारा  मुक्तिबोध सम्‍मान से सम्‍मानित श्री कुबेर का जन्‍म 16 जून 1956 में राजनांदगांव (छ.ग.) जिले के ग्राम भोडि़या, में हुआ। वे शास. उच्‍च.माध्‍य.शाला कन्‍हारपुरी में व्‍याख्‍याता के पद पर कार्यरत हैं। अब तक भूखमापी यंत्र (कविता संग्रह), उजाले की नीयत( कहानी संग्रह), भोलापुर के कहानी ( छत्‍तीसगढ़ी कहानी संग्रह ) कहा नहीं (छत्‍तीसगढ़ी कहानी संग्रह), छत्‍तीसगढ़ी कथा - कंथली ( संकलन अउ लेखन ), माइक्रो कविता और दसवॉं रस ( व्‍यंग्‍य संग्रह ) पुस्‍तकें प्रकाशित हो चुकी है। और कितने सबूत चाहिए ( कविता संग्रह ), सोचे बर पड़हिच् ( छत्‍तीसगढ़ी कविता संग्रह ) प्रकाशन की प्रक्रिया में है। उनकी अनेक रचनाएं अनेक पत्र - पत्रिकाओ में प्रकाशित हो चुकी है एवं अनेक कहानियों का प्रसारण आकाशवाणी रायपुर व्‍दारा प्रसारित हो चुकी है। श्री कुबेर साकेत साहित्‍य परिषद सुरगी व्‍दारा प्रकाशित  स्‍मारिका वर्ष 2006 से 2012 तक एवं शास. उच्‍च. माध्‍य. शाला कन्‍हारपुरी व्‍दारा प्रकाशित पत्रिका ' नव - बिहान ' का वर्ष 2010 एवं 2011 में सम्‍पादन कर चुके हैं।

व्‍यंग्‍य


    उस दिन मैं काफी देर तक सोता रहा। और जब मेरी नींद खुली, मेरे कानों में ढेर सारी महिलाओं और इक्का-दुक्का मर्दों के रोने-कलपने की आवाजें आ रही थी। ऐसा तो किसी के मरने के बाद होता है। मुझे आश्चर्य हुआ। हमारे परिवार में अस्वस्थ तो कोई नहीं था।
   मैंने अनुभव किया, मेरा फोम का मुलायम गद्दा बड़ा सख्त हो गया है और  मुलायम रजाई की जगह मैं अजीब तरह के कपड़े ओढ़ा हुआ हूँ। एक जोरदार अंगड़ाई लेकर आँखें मलता हुआ मैं बैठ गया। पता चला, मैं जमीन पर सोया हुआ था। मेरे सामने सजी हुई एक अर्थी पड़ी थी। परिवार और गाँव के सारे लोग आसपास बैठे हुए थे। बहुत सारे मित्र और रिश्तेदार भी उपस्थिति थे। आँख मलते हुए चेहरे पर मैंने धूल की मोटी परत का अनुभव किया था। मैंने अपने हाथों को देखा। हाथों में गुलाल लगे हुए थे। मुझे आश्चर्य हुआ। क्या मेरा ही मातम मनाया जा रहा था?
   माहौल अचानक बदल गया। सबके चेहरे पर आश्चर्य और अविश्वास की मिलीजुली खुशियाँ तैरने लगी। मेरे परिवार वालों, रिश्तेदारों और मित्रों से भी अधिक खुशी कचरूमल सेठ के चेहरे पर दिखी। कचरूमल गाँव का सबसे बड़ा सेठ है। वह गाँव भर को अनाज, कपड़े और किराने के सामान बेचा करता है। उनके सूदखोरी के बोझ से सारा गाँव दबा हुआ है। मैं भी हजारों से दबा हुआ हूँ।
   लोग मेंरे भाग्य को सराह रहे थे और मुझे लंबी उम्र की दुआएँ दे रहे थे। दुआएँ देने वालों में मेरे स्कूल के मेरे सहयोगी शिक्षक भी थे। इनमें सबसे आगे खातू गुरूजी थे। सोकर उठते वक्त मैंने गौर किया था, तब खातू गरूजी वहाँ नहीं दिखे थे। उनका न दिखना स्वाभाविक ही था। ये मेरे उन चाहने वालों में से हैं जो दिन में सौ-सौ बार मेरे मरने की कामनाएँ किया करते हैं। परन्तु अभी वे कहने लगे - ’’सर! आपके पुनः जी उठने से आज मुझे जो खुशी मिली है, उतनी तो जिंदगी में कभी नहीं मिली थी। बधाई हो सर।’’
   और नित्यकर्मों से निपटकर जब मैं बैठक में लौटा तो मेरे आसपास लोगों की भीड़ पुनः जमा हो गई। जमा होने वालों में एक डेरहा बबा हैं जो रामचरित मानस का पाठ सुने बिना भोजन ग्रहण नहीं करते हैं। ’हम बदलेंगे, युग बदलेगा, का नारा लगाने वाले रामसरन जी हैं। पिछले चालीस साल से वे इस नारे का निरंतर, विधि पूर्वक जाप कर रहे हैं, पर आज तक न तो वे खुद बदल सके और न ही युग बदला। मुसुवा राम सहित और भी बहुत लोग थे जो त्रिवेणी में डुबकी लगा आये थे। वैतरणी, चौरासी लाख योनी और सरग-नरक को मानने वाले अनेक लोग थे पर सबसे आगे था गाँव के मंदिर का पुजारी जो सूदखोर ही नहीं नंबर एक के नीयतखोर भी हैं। सूदखोरी के मामले में ये दूसरे नंबर पर हैं।
   पुजारी जी बड़े धैर्यवान व्यक्ति हैं, धीरज धारण करते हुए उन्होंने पूछा - ’’क्या हुआ था बेटा?’’
मैंने कहा - ’’मैं तो मजे से सोया हुआ था। बढ़िया-बढिय़ा सपने देख रहा था। मुझे क्या पता क्या हुआ था?’’
    ’’सुबह जब तुम देर तक सोकर नहीं उठे तो हम लोगों ने देखा, तुम्हारी साँसें बंद थी। नाड़ी-गति भी रुक गई थी। शरीर बरफ के समान ठंडा पड़ गया था। हम लोगों ने समझा, कि तुम सदा के लिए सो चुके हो।’’ पुजारी जी ने फिर कहा।
   रामसरन ने कहा - ’’हमें भी पता है कि तुम सपने देख रहे होगे, पर क्या-क्या देखा कुछ याद भी है? यमदूत देखे होगे, वैतरणी पार किये होगे। चित्रगुप्त के दरबार में हाजिर किये गये होगे। चित्रगुप्त ने तुम्हारा बही-खाता देखा होगा। तुम्हारे दिन पूरे नहीं हुए थे इसलिए उन्होंने तुम्हें वापस धरती पर धकेल दिया होगा।’’
मैंने मन में कहा, दिन में कई-कई बार मरने वाले लोग ऐसे ही सपने देखा करते होंगे। फिर ऊपर से कहा -           ’’अरे हमारी ऐसी किस्मत कहाँ भैया, जो हमारे लिए यमदूत आएँ। बहरहाल, बड़े मंत्री जी के कमाण्डो आये थे लाल बत्ती वाली गाड़ी में। कहने लगे - ’’जल्दी चल साले, मंत्री जी अभी बुला रहे हैं।’’
    बड़े मंत्री का नाम सुनते ही मुझे बेहोशी आने लगी। कमाण्डों के पास ए. के. 47 था, साले की गाली सुन लेने में ही भलाई थी। डरते-डरते मैंने पूछा - ’’भाई! किसलिए?’’
     ’’अनाप-शनाप लिख-लिखकर खूब छपवाने लगे हो। बड़ा लेखक जो बनने चले हो न। कुछ इनाम-विनाम नहीं लोगे?’’
    और फिर इनाम-विनाम का नाम सुनकर मैं पूरी तरह बेहोश होकर गिर गया। वो मुझे घसीटकर ले जाने लगे। लाल बत्ती वाली गाड़ी में बैठने की मेरी भी बड़ी इच्छा थी, सोचा आज इसका भी आनंद मिल जायेगा। पर मेरी ऐसी किस्मत कहाँ। उन्होंने कहा - ’’अबे लल्लू ! कहाँ चले? हट साले। तुझे तो पीछे रस्सी से बांधकर घसीटते हुए ले जायेंगे।’’
     ’’उन्होंने मेरे हाथ-पैर बांधकर गाड़ी के पीछे बंपर से बांध दिया। गाड़ी हजारों मील की स्पीड से दौड़ने लगी और देखते ही देखते अंतरिक्षयान में तब्दील हो गई।’’
    पुजारी ने कहा - ’’हरे! हरे! बड़ी तकलीफ हुई होगी वैतरणी पार करने में। गऊ दान किया था कि नहीं? अब की बार जरूर कर देना।’’
    मैंने कहा - ’’वैतरणी? अरे पुजारी जी, रास्ता तो यही था, बड़े-बड़े गड्ढों वाली, जो इस गाँव को राजमार्ग से जोड़ता है। बीच का वही बरसाती नाला था जिसमें पिछले साल पुल बनवाया गया था और जो पहली बरसात में ही राम नाम सत्त् हो गया था। ऐसे रास्तों पर शायद आप लोगों को तकलीफ नहीं होती होगी, हमको तो रोज ही होती है। रोज-रोज देखकर दिल जलाने में और आने-जाने में जो तकलीफ होती है, वही आज भी हुई।’’
   रामसरण के मन में जिज्ञासाएँ उछाल मार रही थी। पूछा - ’’अच्छा! अच्छा! ये तो बताओ, चित्रगुप्त के दरबार में पहुँचकर क्या हुआ?’’
   मैंने कहा - ’’अरे भैया, कुछ मत पूछो। लोगों की बड़ी भीड़ थी वहाँ। लंबी-लंबी लाइनें लगी हुई थी। बड़ी-बड़ी मूछों वाला और भयानक चेहरे वाला आदमी मेन गेट के सामने आरामदायी कुर्सी पर बैठा था। उसके पीछे दो दरवाजे थे, एक सरग वाला और दूसरा नरक वाला।’’
  ’’सही कहते हो भैया, सरग और नरक के दरवाजे अलग-अलग तो होंगे ही। वह आदमी खाता-बही देख-देखकर लोगों को सरग या नरक की ओर भेज रहा होगा। है न?’’ पुजारी जी ने अपने पारंपरिक ज्ञान की पुष्टि के लिए मेरी ओर कातर निगाहों से देखा।
   ’’खाता-बही नहीं, थैलियाँ देख-देखकर। जिनके हाथों में चढ़ावे के लिए सोने-चाँदी की थैलियाँ होती थी उनके लिए सरग के द्वार खोले जाते। बाकी के लिए नरक के द्वार तो खुले ही थे।’’
   मेरे प्रत्यक्ष अनुभव से पुजारी जी को बड़ी निराशा हुई। उसने प्रतिवाद किया - ’’बेटा क्या कहते हो? धन-दौलत, महल-अटारी तो सब यहीं रह जाता है। थैली की बातें कुछ समझ में नहीं आई। अच्छा यह तो बताओ, फिर तुम्हारा क्या हुआ?’’ पुजारी जी ने दूसरा प्रश्न किया।
   ’’कर्म जब साथ में जाता है तो उसका फल साथ में क्यों नहीं जायेगा पुजारी जी। यहाँ के कर्म का फल वहाँ मिलता है कि नहीं? आदमी यहाँ जो-जो और जितना-जितना कमाता है, वहाँ के हिसाब से वही चीजें वहाँ फिर मिल जाती हैं। रही मेरी बात, तो मेरे लिए भी नरक के ही द्वार खुले थे। थैला मेरे पास भी कहाँ से आता। पिछले दिनों पार्ट फायनल निकलवाया था, वो सब तो कचरूमल के थैले में समा गया था। यहाँ क्या है अपने पास, जो वहाँ वापस मिलता। पर किस्मत अच्छी थी मेरी जो उसने मुझे पहचान लिया।’’
    ’’अरे! किसने? चित्रगुप्त ने। भैया! वो तो सबको ही पहचान लेते हैं। अंतरजामी जो ठहरे।’’ पुजारी जी ने फिर अपना पौराणिक ज्ञान बघारा।
   ’’मुझे इस टोका-टाकी पर बड़ा क्रोध आया। मैंने कहा - ’’अंतर-फंतरजामी कुछ नहीं पुजारी जी, उनके पास फोटो वाला वोटर लिस्ट था। एक बहुत बड़ा सुपरकंप्यूटर था जिसके स्क्रीन में वही वोटरलिस्ट दिख रहा था। समझे? और जिसे तुम बार-बार चित्रगुप्त कह रहे हो, जिसने मुझे देखते ही पहचान लिया था, वह कोई और नहीं, मेरा ही पढ़ाया हुआ गब्बर सिंह था। समझे?’’
   ’’गब्बर सिंह?’’
   ’’आप उसे नहीं जानते पुजारी जी, दिमाग पर नाहक जोर मत डालो। जब मैं शहर के स्कूल में पढ़ाता था तब की बात है यह। बड़ा उधमी बालक था वह। भगवान जाने, मेट्रिक कैसे पास कर लिया। वैसे नकल-चकल करने में बड़ा माहिर था वह। तब मैं उसे बड़ा नालायक समझता था। पर आज वही, मेरा सबसे अधिक लायक शिष्य साबित हुआ। देखते ही पहचान लिया। कुर्सी से उठकर बड़ी श्रद्धा से दोनों हाथ जोड़कर उसने मुझे प्रणाम किया। उनकी ऐसी गुरूभक्ति देखकर मेरी तो आँखें भर आयी। उसने कहा - ’’ओ हो, हो .... गुरू देव! आप कैसे? ठीक-ठाक तो है न? रिटायर हो गये क्या?’’
  तभी मुझे बांधकर लाने वाले कमांडो में से एक ने कहा - ’’हें, हें ...। भाई! बड़े साहब ने इनको स्पेशली बुलवाया है न। वहाँ के पण्डे-पुजारी और नेता लोग रोज इनके बारे में बड़ी-बड़ी शिकायतें लिखकर भेज रहे हैं, इसलिए।’’
   उसने उस कमाण्डो को धमकाते हुए कहा - ’’हुकुमचंद! हुकुमचंद ही बनकर रहो साले। .........चंद बनने की कोशिश मत करो। ले ही आये हो तो इन्हें यहाँ थोड़ा घुमा-फिरा दो और इज्जत के साथ वापस छोड़ आओ, समझे। ये हमारे गुरूदेव है। बड़े साहब से हम बात कर लेंगे।’’
   पुजारी जी ने पूछा - ’’तो कहाँ-कहाँ घूमे बेटा! सरग में घूमे कि नरक में?’’
   ’’चूकना क्यों, दोनों जगह घूमा।’’
   डेरहा बबा ने पूछा - ’’लतखोर राम बड़ा धर्मात्मा था बेचारा। जीवन भर राम का नाम जपता रहा। पंडितों और संतों की संगति करता रहा। पेटला महराज का सबसे बड़ा चेला था। सरग में आराम से रह रहा होगा। है न?’’
    ’’आराम से ही है बाबा जी, नरक में है तो क्या हुआ, यहाँ से तो लाखों गुना आराम है वहाँ।’’
’’आँय! एक तरफ कहते हो नरक में है और फिर कहते हो बड़े आराम से है? बात थोड़को समझ में नहीं आई। ऐसा धर्मात्मा आदमी और नरक में है? तो सरग में कौन लोग हैं?’’
    ’’यहाँ आदमी योनी में जनम लिया था वह पर जीया कैसे, जानवरों वाली जिंदगी? और जिंदगी भर खाया क्या, शाक-भाजी और सूखी रोटी? रहा कहाँ, दड़बे के समान झोपड़ी में? सबसे बड़े नरक की सजा तो यहाँ से भोग कर गया है वो। और हाँ, वो पेटला महराज है न, उसी के सामने रहता है, पर सरग में। लतखोर राम जब भी देखता है उसे, सौ-सौ गालियाँ बकता है। अपनी बुद्धि को कोसता है कि क्यों उस दुष्ट की बातों में आकर जिंदगी को नरक बना डाला।’’
   मेरी बातें सुनकर सारे लोग निराश और दुखी दिखाई देने लगे। पुजारी जी, डेरहा बबा, रामसरण और मुसुवा राम, चारों आपस में कुछ कानाफूसी करने लगे।  कह रहे होंगे - ’आदमी सरक गया है, बहकी-बहकी बातें कर रहा है। भूत-प्रेत का मामला भी हो सकता है। पहले ओझा से झड़वाना पड़ेगा।’ और सभी लोग उठ-उठकर जाने लगे। जाते-जाते पुजार जी ने कहा - ’’बेटा! अभी बीमारी से उठे हो, थके-थके से लग रहे हो। बाद में आयेंगे तब बात करेंगे। अभी आराम करो।’’
   और थोड़ी देर बाद जब वे लौट कर आये तो सचमुच गाँव का ओझा सबसे आगे था। मैंने खुद से कहा - ’’अब भुगतो बेटा, सच बोलने की सजा।’’
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पता 
व्‍याख्‍याता, 
शा.उच्‍च्‍.माध्‍य.शाला कन्‍हारपुरी 
वार्ड - 28, राजनांदगांव ( छ.ग.)
मो. 9407685557






धुरी

महावीर रवांल्टा
लेखक परिचय
 
    श्री महावीर रवांल्‍टा का जन्‍म अविभाजित उत्‍तरप्रदेश के उत्‍तरकाशी जनपद के एक गॉंव में 10 मई 1966 को हुआ। वे वर्तमान में प्राथमिक स्‍वास्‍थ केन्‍द्र आसकोट ( उत्‍तरकाशी ) में कार्यरत हैं। वे इसके पहले स्‍पेशल पुलिस फोर्स की सुदूर सीमा चौकियों में अपनी सेवा दे चुके हैं। अब तक उनकी अनेक रचनाएं देश के विभिन्‍न पत्र - पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी है एवं अनेक रचनाओं का प्रसारण आकाशवाणी एवं दूरदर्शन से प्रसारित हो चुकी हैं। लोक साहित्‍य मे गहरी रूचि रखने वाले श्री रवांल्‍टा जी अनेक नाटकों में अभिनय एवं अनेक नाटकों का लेखन व निर्देशन भी कर चुके हैं। उन्‍हेें अखिल भारतीय स्‍तर के अनेक पुरस्‍कार व सम्‍मान मिल चुके हैं। उनकी पंगडण्‍डी के सहारे, एक और लड़ाई, टुकड़ा - टुकड़ा यथार्थ, तेजसिंह लड़ते रहो, जहर का संघात, भण्‍डारी उदास क्‍यों है, त्रिशंकु, सफेद घोड़े का सवार, खुले आकाश का सपना, आकाश तुम्‍हारा होगा, ननकू नहीं रहा, विनय का वादा, आदि अनेक कृतियॉं प्रकाशित हो चुकी है।



 कहानी

       आज पुष्पा के एक प्रश्र ने सदा ही संयत रहने वाली निर्मला को विचलित कर दिया था। क्यों न विचलित होती, प्रश्र ही कुछ ऐसा था। जैसे किसी ने खौलते हुए पानी उसके देह में उड़ेल दिया हो।
       - बताओ न।'' पुष्पा की जिद्द अब भी जारी थी। और उसके पास सिवा चुप्पी के दूसरा कोई चारा न था। पुष्पा कुंवर चाचा के सबसे छोटे बेटे की पत्नी है। उसका ब्याह हुए अभी साल भर ही हुआ है। लेकिन अपने गुण व व्यवहार से उसने सभी का दिल जीत लिया है। पर सास ... ऐसा नहीं है कि सास - बहू के बीच कटुता है लेकिन सास तो सास ठहरी, उसमें माँ खोजने और पाने में देर तो होती ही है। सास किसी माँ की तरह उस पर स्नेह बरसाती है। उसे दुलारने - पुचकारने के साथ थोड़ी हँसी - ठिठोली भी कर लेती है।
      चाचा के घर मेले - त्यौहार व दूसरे मौकों पर आने - जाने पर पुष्पा से उसकी निकटता बढ़ी, पहले अपने पति के ताऊ की बेटी यानि उसकी बड़ी बहन होने के नाते पुष्पा उसका सम्मान करती थी। लेकिन फिर वह उससे ऐसी घुली - मिली कि निर्मला ही ससुराल में उसकी चहेती हो गई। जब भी चाचा के घर उसका जाना होता पुष्पा चहक उठती और फिर उसी के इर्द - गिर्द चहकती महकती रहती।
       कभी - कभार सास व जेठानी को उसका यूं मंडराना कुछ अजीब सा लगता और फिर वे घुमा फिरा कर इस पर छींटाकसी भी करती कि घर व रिश्तेदारी में निर्मला के सिवा और भी बहुत सारे लोग हैं। जैसे कि जेठ खुशहाल जो बैंक में नौकरी करते हैं महेश जो ठेकेदारी करते हैं। उसका पति जो फौज में है। बड़ी बेटी रुपा उसके बाद सुलक्षणा और फिर दक्षिणा यानि उसके सास - ससुर के तीन बेटे हुए तीन बेटियाँ।
       घर के एक कमरे में वह अपने पलंग पर निर्मला के साथ बैठी थी। इस छोटे से कमरे में उसी के दहेज का सामान रखा है। पलंग, टीवी, सोफा, ड्रेसिंग टेबल, सन्दूक, सिलाई मशीन वगैरह। यही उसका शयन, आराम व श्रृंगार कक्ष है। यानि यही वह जगह है जहाँ काम व रसोई के बाद उसका सारा समय गुजरता है। वैसे सास के रहते उसे न रसोई की चिन्ता और न ही घर खेती की। वे ही सारी रुप रेखा बनाने के बाद बहुओं के बीच काम का बंटवारा करती है। और लगभग  कठिन सा लगने वाला काम अपने पास रख लेती है।
      बरांडे की एक ओर '' कठबाड़ '' कर बने इस कमरे से बाहर का दृश्य देखा जा सकता है। सामने का खुला आकाश, उससे सटी छोटी - बड़ी पहाड़ियाँ व उनके निचले समतल हिस्से में घने चीड् व बॉज, बुराश के छिटपुट पेड़। जंगल से नीचे की ओर उतरते ही सीढ़ीनुमा खेत दिखते हैं जो फसल व घास से घिरे - भरे रहते हैं। दूसरी ओर क्यांरी जमीन है। जिसमें धान की रोपाई कर चारधान की खासी उपज होती है। दूसरी बार गेहूँ की लेकिन पुष्पा के कमरे से यह दृश्य नहीं दिखता।
- कल रात तुम्हारे भैया और हम सब बहुत देर तक बैठे गपशप करते रहे।'' निर्मला ने उसका ध्यान बाँटने की गरज से बताया था।
- हाँ, तुम बता तो रही थी फिर तो रात भर चाय का दौर भी चला होगा ?''
-हाँ।''
- हम भी बड़ी देर बैठे रहे। रुपा, जेठऊ आई थी। साथ में भाई जी भी थे। सबेरे मुँह अँधेरे ही चली गई।'' पुष्पा बताने लगी।
- क्यों ?'' निर्मला की उत्कंठा जागी।
- पता नहीं, पर कह रही थी कि बूबा को देखने का मन था इसलिए चली आई। वैसे इन दिनों ससुर जी की तबीयत भी कुछ ठीक नहीं रहती। वक्त बेवक्त खाँसी के दौरे पड़ते रहते हैं और फिर खाँसते - खाँसते ऐसी हालत हो जाती है कि अब मरे कि तब मरे पुष्पा की घरवालों की राजी खुशी से जुड़ी एक बड़ी चिन्ता उजागर हुई थी।''
- बुढ़ापे में यह सब तो होता ही है। निर्मला ने उसे जैसे ढाढस देना चाहा था। फिर उम्र का अनुभव कि बुढ़ापे में तो यह सब लाजमी है। इसे देख स्वीकार कर ही आगे बढ़ा जा सकता है।''
- हाँ, जेठऊ, बताओ न।'' पुष्पा एक बार फिर पुछने लगी तब निर्मला चौंकी। अजीब लड़की है यह भी। तालाब में जल की तरंगें शान्त नहीं होती तब तक दूसरा ढेला फेंक देती है।
- क्या बताऊं ?'' बनावटी झुंझलाहट के साथ बोल पड़ी थी निर्मला।
- वही जो मैं पूछ रही हूं।'' उसके पूछने में अब किसी जिद्दी व हठी लड़की का सा भाव था। बिना उत्तर ....? वह साधारण बात न थी वह तो .... वह तो पूरे जीवन का विस्तार है उसकी चाची का। उसका चरित्र इच्छा अनिच्छा व स्त्री सुलभ आकांक्षा की एक बन्द किताब है जिसेे खोलना उतना आसान नहीं जितना पुष्पा का प्रश्‍न पूछना कि वह अपने आपमेंं ही बुरी तरह छटपटा पड़ी थी। दिल पर असध्य बोझ था। एक ओर पुष्पा का प्रश्‍न तो दूसरी ओर चाची ... चाचा .... उनका हरा भरा संसार। वही संसार जिसका एक हिस्सा अब पुष्पा भी बन चुकी है। पर पुष्पा ...? वह यह जानकर क्या करेगी? उसके मन में यह बात कैसे आई? अपनी ही सास के जीवन के अतीत में जाने का उसका प्रयोजन ? क्या हासिल होगा उसे यह जानकर कि ... एक बार पूरी तरह आँखें मूंद गई थी निर्मला की और उसने लेटने की चेष्ठा की थी तब पुष्पा ने उसके सिरहाने तकिया रख दिया था। उसने तकिये पर अपना सिर टिका दिया। लेकिन मन ... वह तो ... वहां उथल - पुथल मची हुई थी, उसका ब्याह हुए करीब पच्चीस बरस हो गयें और करीब बीस बरस वह अपने मायके में रहीं, पली - पढ़ी। अब तीन बच्चों की माँ निर्मला अपने में भी काफी बदलाव महसूस करने लगी है। पहले की तरह शरीर साथ नहीं देता। हफ्ते के दो - चार दिनों जी मिचलाना, चक्कर आना आम बात है। नींद कभी ठीक आती है तो कभी कई - कई दिनों के लिए उससे जैसे किनारा कर लेती है। तब वह किताबों व टी.वी. का सहारा लेकर समय काटने का यत्न करती है लेकिन यह सब भी तभी तक है जब तक शरीर स्वस्थ हो वही साथ न दे तो सब कुछ गड़बड़ाने लगता है। डॉक्टरी जाँच में बताते हैं कि लो ब्लड प्रेशर है। कुछ खाओ, पिओ। कुछ खाती है तो पेट गड़बड़ाने लगता है। अब करें तो क्या करे। बच्चे कभी उसका साथ दे देते हैं तो कभी उसकी हंसी उड़ाने लगते हैं - मम्मी, यह कोई बात हुई। हर हफ्ते तुम्हें कोई न कोई बीमारी पकड़ लेती है,और हम ... । चेहरे पर मायूसी लिए अखिल एक दिन कॉलेज से आकर खाने के लिए कुछ न मिलने पर झुंझला उठा था।
- तुझे भूख लगी होगी।'' उसकी स्थिति समझ निर्मला तुरन्त बोल पड़ी थी - अभी पराठे सेंक देती हूं'' और वह बिस्तर से उठने का प्रयत्न करने लगी थी।  '' रहने दो मम्मी, मैं चाची के यहाँ खा लूंगा। तुमने दवा ले ली कि नहीं ?'' माँ की स्थिति को देख अखिल ने किसी बुजुर्ग की तरह उससे बोला था। सुनकर उसे कुछ संतोष हुआ था कि बच्चे भी माँ - बाप की विवशता को आसानी से समझ लेते हैं,और उनके दु:ख दर्द के साझेदार भी बनना चाहते है। आज सुबह से ही उसका बदन दुख रहा था। बच्चे सुबह घर से निकले थे तो रात की बची रोटी व सब्जी खाकर गये थे। उसकी देवरानी सुनीता ही उसे एक कप चाय बनाकर दे गई थी फिर ऐसी बेचैनी रही कि वह चाहते हुए भी बिस्तर नहीं छोड़ सकी, अब उमेश भी आता ही होगा। भूख उस पर सवार होगी तो वह किसी की नहीं सुनता। माँ उसकी आदत जानती हैं- ऐ बोई।'' कहती हुई वह उठी और रसोई की ओर बढ़ी। टोकरी में रखे आलू बैगन काटकर उसकी सब्जी छौंकी और फिर आटा गूंथने लगी। कुछ ही देर में खाना तैयार हुआ।उमेश आया। आते ही उसने किताबें एक ओर फेंकी और खुद रसोई की ओर बढ़ता हुआ बोला - माँ, कुछ है ?'' वह समझती है। भूखी पेट खाना माँग रही है।
- आज तेरी पसंद का आलू बतायू बना है।'' माँ ने कहा तब सुनकर उसके चेहरे पर खुशी चमकी। मुँह में पानी आने लगा।
- ला, जल्दी दे माँ।'' उसके कहते ही सब्जी - रोटी उसके सामने थी।
- भाई जी। खाते हुए उसे ध्यान आया।''
- अपनी चाची के घर खा रहा होगा। उसे भूख लगी थी और तब तक मैं खाना नहीं पका सकी थी, अब तू खा।'' माँ ने वात्सल्य से उसके सिर पर हाथ फेरते हुए कहा।
- एकदम पेटू है उमेश।'' कहता हुआ रोटी के बीच सब्जी रखकर खाने लगा। इसी बीच अखिल भी आ गया था। वह भी रसोई में घुसा और उमेश को खाते देख माँ से बोला - माँ, मुझे भी दे।''
- पर तू चाची के घर ....।''
- भात था एकदम ठण्डा और सब्जी कुचाई की।''
- वह तो तुझे अच्छी नहीं लगती।'' कहते हुए माँ ने उसके लिए रोटी सब्जी परोसी और वे दोनों खा कर खेलने चले गये।
      मन मार कर उसने भी एक रोटी के ऊपर सब्जी रख कर खा ली फिर बरांडे में आकर बाहर का दृश्य देखने लगी। उसकी नजर उस पगडंडी की ओर गई जो शहर को जाती है। इसी पगडंडी से उसके पति का आना जाना है। वे इंटरमीडिएट कॉलेज में प्रवक्ता है। और महीने में एक दो बार उनका घर आना - जाना रहता है। इन्हीं दिनो वे घर की सारी व्यवस्था का जायजा लेने के साथ ही अपने परिवार के दु.ख - सुख व सुविधाओं की पड़ताल भी कर लेते हैं।
- जेठऊ, कहाँ खो गई।'' उसे हिलाते हुए पुष्पा बोली थी। गोरा रंग, सुवा नाक, बड़ी आँखें, बीच की कद काठी, यही हुलिया है पुष्पा का। घर की दोनों बहूओं पर वह उन्नीस नहीं, बीस पड़ती है।
- हाँ तो बताओ न जेठऊ ? '' इस बार पुष्पा ने जोर देकर पूछा तब उसे यकीन हो गया था कि  अब उससे पीछा नहीं छुड़ा सकती। '' देवी मुझे माफ कर '' उसने मन ही मन उच्चारा।
- हाँ बोलो, तुम क्या पूछ रही थी।'' उसने अनजान सा बनकर उससे पूछा था।
- यही कि रुपा जेठऊ किसकी तरह दिखती है।'' पूछते हुए उसकी आँखें निर्मला के चेहरे पर टिक गई थी।
- रुपा ....? वह बिल्कुल अपनी दादी पर गई है।'' उसने बताया था।
- बिलकुल गलत, वह अपनी दादी पर नहीं जितारु पर गई है।'' वह किसी मुँह फट जिद्दी की तरह बोली थी। सुन कर पल भर को निर्मला का चेहरा उतर गया था। उसे विश्वास नहीं था कि एक दिन पुष्पा से उसे यह भी सुनने को मिलेगा।
- चुप ...।'' अपने मुँह पर ऊंगली रखते हुए उसने पुष्पा को टोका था - '' तुम्हें यह किसने बताया ?''
- जितारु की घरवाली ने।'' वह आगे कुछ कहती तभी निर्मला बोल पड़ी थी -उसके कहे पर तुमने यकिन कैसे कर लिया।'' उसने झुठलाने के लिहाज से अपना आखिरी दाँव फेंका था।
- तुम्हेें नहीं लगता कि जेठऊ हू - ब - हू जिताऊ पर गई है। वही शक्ल सूरत, वैसी ही कद काठी। यहॉं तक कि हाव भाव भी उसके जैसे। छि: छि: सासूजी को भी एक वही मिला था।'' वितृष्णा से मुंह बनाती हुई बोली।
- सच कहा तुमने पर यह हम तुम सोचती हैं लेकिन उनकी विवशता ...।''
- क्या विवशता हो सकती है? कौन सी परिस्थिति रही कि ...।'' पुष्पा सुनने के लिए उतावली सी जान पड़ती थी और निर्मला थी कि जैसे किसी अग्रिपरीक्षा से गुजर रही हो। बोली - तुम सुनना ही चाहती है तो सुनो ...।''
- जी।''
      निर्मला की जुबान पर ठहरा हुआ अतीत किसी वेगवती नदी की तरह उफनता हुआ बाहर निकल पड़ा - विवाह के वर्षों बाद भी घर में बच्चे की किलकारी न गूंजती देख चाचा यानि कुंवरसिंह की पत्नी विमला ने ही उन्हें सलाह दी थी कि वे अपने लिए कोई दूसरी औरत तलाश ले। पहले चाची की बात पर वे '' हाँ'' ''  हूं '' करते रहे पर कर कुछ नहीं पाए। ऐसे में एक दिन चाची ने ही उनके सामने प्रस्ताव रखा कि वे राजी हो तो क्यों न वह अपनी छोटी बहन का हाथ ही उनके लिए माँग ले, चाचा को भला क्या आपत्ति हो सकती थी। वैसे भी अँधे को भला क्या चाहिए था, सिर्फ दो आँखें। ऐसे में मधुली का अधेड़ उम्र के कुंवरसिंह के साथ उस समय हुआ जब वे निराशा के धुंध में घिरे हुए थे।
      विमला ने अपनी छोटी सी उम्र की बहन मधुली का विवाह अपने पति के साथ कर अपने त्याग का परिचय तो दिया ही कुल को एक वारिस देने का बन्दोबस्त भी कर दिया था लेकिन उनके चेहरे तब मुरझाने लगे जब पाँच साल बाद भी उनके सूने घर में बच्चे की किलकारी नहीं गूँजी। वे देवी - देवताओं के शरण में जाने लगे और तभी देवता ने एक बार प्रसन्न होकर उन्हें ज्यूँदेल दिए कि उनकी खाली झोली भर जायेगी। इसी बीच जंगल जाते आते, घास लकड़ी लाते मधुली की जिताऊ से ऐसी निकटता बढ़ी कि ... कुछ महीने बाद उसके पेट का आकार बढ़ने लगा तब विमला व कुंवरसिंह के बुझे चेहरे खिलने लगे। मधुली उन्हें पहले से कहीं ज्यादा प्यारी व सुन्दर लगने लगी। मधुली ने पहली बार कन्या को जन्म दिया इसी का नाम रखा गया रुपा। उसके जन्म पर घर में खूब खुशियाँ मनाई गयी।
      जिताऊ अपनी जुबान पर उसका नाम आते ही वितृष्णा से भर उठा था निर्मला का मन - '' चाची को भी एक यही मिला था अपना सर्वस्व लुटाने के लिए। छि: एक छोटी जाति के आदमी के साथ ...यह सब कैसे कर लिया होगा चाची ने ...।'' सोचते हुए उसके शरीर पर असंख्य चीटियाँ एक साथ रेंगने लगती। फिर सुखपाल ... वह भी उनकी झोली में एक बेटा डाल गया। ये चाची भी ... उफ्। '' गहरी सांस लेने लगी निर्मला।
       - चाची ने जो कुछ किया अपने घर के भले के लिए किया। तुम उसकी स्थिति समझ सकती हो।'' लम्बी उच्छवास भरते हुए निर्मला ने पुष्पा के सामने कहा तब वह भी एकदम खामोश हो गयी थी। चेहरे पर उदासी घिर आयी थी। '' अब तुम्हीं बताओ पुष्पा, अगर चाची ने ऐसा न किया होता तो घर का सूनापन इन्हें खा जाता। उसकी सूनी कोख ... उसे ही कोसती रहती जीवन भर। स्त्री के मन को आज तक भला कौन समझ सका है।'' निर्मला उठ कर पलंग पर भीत का सहारा लेकर बैठ गयी थी। उसने अपनी वंश बेल बढ़ाने के लिए घर से बाहर कदम रखा और वह सब कुछ पा ही लिया जिसकी उन्हें दरकार थी। तुम्हीं कहो अगर चाचा को वह इतना खुशहाल परिवार न देती तो क्या उसे घर में वही सम्मान मिलता जो आज मिल रहा है ? बड़ी चाची को नहीं देखती जो अपनी उपेक्षा का दंश वर्षों से झेलती आ रही है। पर घर के संवरण व खुशहाली के लिए वह अपने सारे दु:ख दर्द भूल जाती है। मोह माया है ही इतनी भ्रामक कि इसमें इंसान उलझा ही रहता है और सारी उम्र किसी भ्रम के सहारे जीता जाता है। आत्ममुग्धता से सराबोर एक दंभ उसके साथ होता है कि उसने जीवन में वह सब कुछ पा लिया जिससे उसकी वैतरणी पार हो जायेगी ... पत्नी ... संतान ... घर ... संपत्ति और माया के इसी तिलिस्म में वह भटकता ही रहता है।'' वह अविरल बोलती जा रही थी।
- सच कहा जेठऊ ?''
- चाची ने बहुत नीचे गिरकर बहुत ऊपर की बात सोची। वही सारे घर की खुशियों की नींव है। वह एक ऐसा खेत हो गई जिसमें बीज किसी और का पड़ा और फसल किसी और की हुई।''
        सुनकर पुष्पा की आँखें एकदम भींग गई थी। वह व्यर्थ ही सास के बारे में अपनी सोच व आक्षेप के जाले बुन रही थी। अपने पति व खानदान की खुशियों के लिए उसने अपनी ही आत्मा को मार डाला। इतने नीचे गिर गई कि ... पर वह भी खुशहाल जीवन जी रही है। कोई संताप अथवा पछतावा उसके चेहरे पर नजर नहीं आता तो सिर्फ जीवन में सब कुछ पा लेने का गहरा संतोष ... परिवार की खुशहाली की चमक। उसकी बातें सुनकर अब कहने सुनने को कुछ और उसके पास नहीं रह गया था।
- पुष्पा ...।'' भीतर से सास का स्वर था।
- जी ।''
- तब से बैठी हो, उठो मैंने तुम्हारे लिए '' बाठी '' बनाया है। निर्मला को भी बुला लो, उसे भी खिलाओ।''
        वे दोनों उठ कर रसोई की ओर बढ़ी जहाँ सास उनका बेसब्री से इंतजार कर रही थी। थालियों में बाठी के बीच परोसे घी की गंध उनके नथुनों में घुसकर उन्हें बेचैन किए जा रही थी....।

पता 
'' संभावना '' - महरगाँव
पत्रालय- मोल्टाड़ी, पुरोला
उत्तरकाशी (उत्तराखंड) - 249185
मो.- 09411834007,8894215441  

गांधी : नारी विषयक दृष्टिकोण

शोधार्थी : सुमन 

मैं स्त्री के हृदय में प्रविष्ट होने के लिए मानसिक रूप से एक स्त्री ही बन चुका हूँ -
                                                                                                                   महात्मा गाँधी
      भारतीय जीवन शैली, भारतीय संस्कृति, भारतीय परंपरा, राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन में राष्ट्रपिता मोहनदास करमचंद गाँधी का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। भारतीय - समाज की परिकल्पना वह राम - राज्य के आधार पर करते है। वह एक ऐसे समाज के निर्माण का स्वप्न देखते थे जिसमें न्याय, समानता व शांति भारतीय समाज की प्रमुख धरोहर हो। गाँधी जी के अनुसार भारत में न्याय, समानता व शांति तब तक स्थापित नहीं हो सकती जब तक स्त्रियां को भी अपने अधिकार और कर्तव्यों का ज्ञान न हो। महिला अधिकारों के विषय में उनके विचार एवं योगदान इनमें से एक है।
      गाँधी पुत्र और पुत्री के साथ एक समान व्यवहार करने में विश्वास करते थे। महिलाओं से संबंधित मुद्दों को उठाने वाले महात्मा गाँधी पहले व्यक्ति नहीं थे। उनसे पहले अनेक समाज - सुधारकों ने समाज में स्त्रियों की स्थिति सुधारने के प्रयत्न किए। सांस्कृतिक पुनर्जागरण और भारत में स्वतंत्रता के लिए राजनीतिक आंदोलन सदी के अंत में ही शुरू हो गया था। गाँधी के पर्दापण से पहले  महिलाओं के प्रति समाज - सुधारकों का रवैया सहानुभूतिपूर्ण होने के साथ - साथ संरक्षणात्मक था।' भारतीय राजनीति में गाँधी के पर्दापण के साथ महिलाओं के विषय में एक नए नजरिये की शुरूआत हुई। नारी के संबंध में गाँधी की समन्वित सोच व सम्मानपूर्ण भाव का आधार उनकी माँ और बहन रही। गाँधी ने अपनी रचनाओं में अपनी माँ का सर्वाधिक जिक्र किया है। बारबर साउथर्ड के अनुसार गाँधी की नारीवादी सोच में दो तत्वों की सर्वाधिक भूमिका है - ' पहला, हर स्तर पर तथा हर मायने में स्त्री-पुरूष समानता तथा दोनों के विशिष्ट लैंगिक भिन्नता के मद्देनजर उनके सामाजिक दायित्वों में भिन्नता''
      रोजमर्रा की जिंदगी में गाँधी ने झांसी की रानी के चित्रण की अपेक्षा सीता-द्रोपदी के चित्रण पर ज्यादा बल दिया है। 'गाँधी महिलाओं को एक ऐसी नैतिक - शक्ति के रूप में देखना चाहते थे जिनके पास अपार नारीवादी साहस हो।'  गाँधी के अनुसार स्त्री और पुरूष दोनों समान है दोनों की भावनाएँ समान है।
      धर्मग्रंथों में स्त्रियों की स्वतंत्रता से संबंधित बातों का गाँधी विरोध करते है। उनके अनुसार इन ग्रन्थों में कही गई बातें देवताओं की नहीं है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि वे ग्रंथ भी एक पुरूष द्वारा ही लिखे गए है। धर्मग्रन्थों पर टिप्पणी करते हुए गाँधी ने कहा कि स्मृतियों में लिखी सारी चीजे दैव वाणी नहीं है तथा उनमें भटकाव व त्रुटियों का होना सहज संभाव्य है।'' गाँधी के अनुसार ' पुरूषों ने स्त्री को अपनी कठपुतली के रूप में इस्तेमाल किया है। निस्संदेह इसके लिए पुरूष ही जिम्मेदार है लेकिन अंतत: महिलाओं को यह स्वयं निर्धारित करना होगा कि वह किस प्रकार रहना चाहती है उनका मानना है कि 'यदि महिलाओं को विश्व में महत्वपूर्ण भूमिका निभानी है तो उन्हें पुरूषों को आकर्षित एवं खुश करने के लिए सजना - संवरना बंद कर देना चाहिए और आभूषणों से दूर रहना चाहिए।''
      आमतौर पर भारतीय - समाज में एक धारणा यह व्याप्त है कि पुरूष स्त्रियों से हमेशा सर्वश्रेष्ठ होते है। यह स्त्रियों की दयनीय स्थिति होती है कि उन्हें अपने से कम बौद्धिक क्षमता वाले पुरूष के साथ रहना पड़ता है। महिला पुरूष की साथी है जिसे ईश्वर ने एक समान मानसिक वृत्ति दी है। उसे भी पुरूष की तरह हर कार्य में हिस्सा लेने का अधिकार है। फिर भी समाज में मौजूद रीति-रिवाजों के कारणों एक अज्ञानी और अयोग्य पुरूष भी महिलाओं पर अपना प्रभुत्व बनाए रखता है। पुरूष स्त्री पर अपना पूर्ण अधिकार रखता है। गाँधी इस विचारधारा का विरोध करते है- 'यह हमारी सामाजिक-व्यवस्था की सहज अवस्था ही होनी चाहिए। महज एक दूषित रूढ़ि और रिवाज के कारण बिल्कुल ही मूर्ख और नालायक पुरूष भी स्त्रियों से बड़े माने जाते है,यद्यपि वे इस बड़प्पन के पात्र नहीं होते और न वह उन्हें मिलना चाहिए। जॉन स्टुअर्ट मिल और गाँधी के विचारों में काफी समानता मिलती है। मिल के अनुसार 'जब मानसिक तौर पर श्रेष्ठतर व्यक्ति अपने कमतर व्यक्ति को अपने एकमात्र अंतरंग साथी के रूप में चुनता है, तो इस संबंध के दुष्प्रभावों से भी वह अछूता नहीं रह सकता।
      भारतीय समाज में आज भी पुत्रियों से ज्यादा पुत्रों को महत्व दिया जाता है। आज भी कन्या - शिशु की गर्भ में ही हत्या कर दी जाती है। यह सामाजिक विषमता महात्मा गाँधी को बहुत कष्ट पहुँचाती थी। उनके अनुसार 'पारिवारिक संपत्ति में बेटा और बेटी दोनों का एक समान हक होना चाहिए। उसी प्रकार, पति की आमदनी को पति और पत्नी की सामूहिक संपत्ति समझा जाना क्योंकि इस आमदनी के अर्जन में स्त्री का भी प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से योगदान रहता है। भारतीय समाज में विवाह के समय लड़कियों का कन्यादान यानी दान किया जाता है। गाँधी ने इस विचारधारा की काफी आलोचना की है। उनके अनुसार एक बेटी को किसी की संपत्ति समझा जाना सही नहीं है।
      1921 में महात्मा गाँधी ने कहा कि पुरूषों द्वारा स्वनिर्मित सम्पूर्ण बुराइयों में सबसे प्रणित, वीभत्स व विकृत बुराई है उसके द्वारा मानवता के आधे ( बेहतर ) हिस्से जो कि मेरे लिए स्त्री जाति है न कि कमजोर व पिछड़ी जाति, को उसके न्याय - संगत अधिकार से वंचित करना। महिलाओं के प्रति सहानुभूति रखते हुए गाँधी कहते है कि - यदि मैं स्त्री के रूप में पैदा होता तो मैं पुरूषों द्वारा थोपे गए किसी भी अन्याय का जमकर विरोध करता तथा उनके खिलाफ विद्रोह का झंडा बुलंद करता। गाँधी स्त्रियों की शिक्षा के पक्षधर है। किन्तु शिक्षा के स्तरो में भिन्नता होनी चाहिए। प्रकृति ने स्त्री और पुरूष को एक दूसरे से भिन्न बनाया है इसलिए उनके लिए शिक्षा भी भिन्न होनी चाहिए। गाँधी मेरे सपनों का भारत में लिखा है- 'दम्पत्ति के बाहरी कार्यों के लिए पुरूष सर्वोपरि है। बाहरी कार्यों का विशेष ज्ञान उसके लिए जरूरी है। भीतरी कामों में स्त्री की प्रधनता है। इसलिए गृह - व्यवस्था, बच्चों की देखभाल, उनकी शिक्षा वगैरा के बारे में स्त्री को विशेष ज्ञान होना चाहिए।
      एक समाज-सुधारक के रूप में, गाँधी ने स्त्री - उत्थान के लिए भरसक प्रयत्न किए। उन्होंनेे बार - बार यही स्पष्ट करे का प्रयत्न किया कि स्त्रियाँ किसी भी दृष्टि में पुरूषों से हीन नहीं है। और 'यह झूठी अफवाह प्राचीन रचनाओं द्वारा उड़ाई गई है जिसके लेखक भी पुरूष ही थे।
      गाँधी जी दहेज - प्रथा के खिलाफ थे। दहेज - प्रथा एक ऐसी सामाजिक बुराई है जिसने भारतीय - महिलाओं के जीवन के पददलित बना दिया। गाँधी इसे 'खरीद - बिक्री' का कारोबार मानते है। उनके अनुसार 'कोई भी युवक, जो दहेज को विवाह की शर्त रखता है, अपनी शिक्षा को कलंकित करता है,अपने देश को कलंकित करता है और नारी - जाति का अपमान करता है।
      गाँधी जी ने अपने वक्तव्य में कहा यदि मेरे पास मेरी देख - रेख में कोई लड़की होती तो मैं उसे जीवन - भर कुंवारी रखना पसंद करता बजाय इसके कि उसे ऐसे व्यक्ति को सौंपता जो उसे अपनी पत्नी बनाने के एवज में एक पाई जाने की अपेक्षा रखता।
      बाल - विवाह भारतीय समाज की ऐसी कुप्रथा है जिसने लड़कियों का बचपन छीन लिया। जिस आयु में लड़कियों को विवाह का अर्थ भी नहीं पता होता उस आयु में वह विवाह के परिणय - सूत्र में बांध दी जाती है। गाँधी जी बाल - विवाह के विरोधी थे। शारदा अधिनयम में शादी की उम्र 14 साल तक बढ़ाने का प्रस्ताव रखा गया तब गाँधी को महसूस हुआ कि 'यह 16 या 18 साल तक बढ़ा देनी चाहिए। वहीं गाँधी का एक आग्रह है कि 'अगर बेटी बाल - विधवा हो जाए तो दूसरी शादी करा देनी चाहिए। जब कोई स्त्री पुनर्विवाह करना चाहती थी तो उसे जाति से बाहर कर दिया जाता था। किन्तु गाँधी पुनर्विवाह के पक्षधर थे। उन्होंने विभिन्न समुदायों को संबोधित करते हुए कहा था कि 'यदि कोई बाल - विधवा पुनर्विवाह की इच्छुक हो तो उसे जातिच्युत या बहिष्कृत नहीं करें।
      गाँधी के आह्वान पर कुछ महिलाओं ने चरखा को अपनी जीविका का साधन बनाया। परन्तु गाँधी इन महिलाओं को कांग्रेस में शामिल करने के विरोध में थे। उनके अनुसार इन कार्यों से पहले इन महिलाओं का सुधार ज्यादा जरूरी था।
      अस्पृश्यता जैसी कुप्रथा को हटाने के लिए गाँधी ने महिलाओं से आग्रह किया कि 'आप सफाई करने वाला को सिर्फ  इसलिए 'अछूत न समझे कि वह सफाई का काम करते क्योंकि सच्चाई तो यह है कि हर माँ अपने बच्चों के लिए ऐसे कार्य करती है।
      गाँधी के पास ऐसे कई प्रश्न आते थे जो लैंगिक समस्याओं से जुड़े होते थे। इन सब प्रश्नों का उत्तर उन्होंने 'हरिजन' में देना शुरू किया। गाँधी के अनुसार, लैंगिक इच्छाओं को गर्भ - निरोधक का इस्तेमाल करके पूरा करना अप्राकृतिक है और परिवार के आध्यात्मिक विकास के लिए नुकसानदायक है। 'विशुद्ध रूप से आध्यात्मिक और नैतिक आधारों पर वे जन्म - नियंत्रण के अस्वाभाविक तरीकों के, विशेषकर इस उद्देश्य से किए गए गर्भपातों और गर्भ - नियंत्रक गालियों के प्रयोग के बिल्कुल विरूद्ध थे। जन्म - नियंत्रण के अस्वाभाविक तरीकों की अपेक्षा वे यौन - संबंधी आत्म - संयम को अधिक महत्व देते थे।'' गाँधी का विश्वास था कि पति - पत्नी के बीच कोई भी शारीरिक संबंध केवल संतान प्राप्ति के लिए उचित है। इसके बिना यह एक पाप है जो अनैतिक है और जो समाज के लिए भी हानिकर साबित हो सकता।
गाँधी के अनुसार अपनी वासना पर नियंत्रण किए बिना एक पुरूष अपने उपर शासन नहीं कर सकता और अपने उपर शासन किए बगैर स्वराज संभव नहीं है। साम्प्रदायिक एकता, खादी, गाँवों का पुनर्निमाण जैसे मुद्दे आत्मा की शुद्धि और आध्यात्मिक शक्ति के बिना पूरा करना मुमकिन नहीं हो सकता।
      गाँधी को इस बात पर पूरा यकीन था कि आर्थिक रूप से स्वतंत्रता महिला सशक्तिकरण में अहम भूमिका अदा कर सकती है। वह महिलाओं को चरखा काटने के लिए प्रेरित करते थे। 1919 में नाडियाड में महिलाओं को संबोधित करते हुए उन्होंने जोर देते हुए कहा - आपके पास 2 या 3 घन्टे ऐसे होते है जब आपके पास करने के लिए कुछ नहीं होता। आप उसे मंदिरों में पूजा - अर्चना में बिताते है। मंदिरों में मालाजाप धर्म है परन्तु वर्तमान समय में भक्ति का असली कपड़े के इस कार्य में निहित है, जो भी पैसों को ध्यान में रखकर कटाई कार्य करेगा उसे प्रति पाउण्ड ;सूत 2 आना मिलेगा और पैसे की एक - एक पाई उपयोगी और हितकारी है। कमाई का यह श्रेष्ठ जरिया है।
भारत की महिलाओं के प्रति गाँधी का सबसे बड़ा योगदान यह रहा कि उन्होंने भारतीय - महिलाओं को राजनीतिक आंदोलन का एक मुख्य हिस्सा बनाया।1921 के असहयोग आंदोलन में गाँधी ने महिलाओं को अपने साथ जोड़ा। गाँधी के अनुसार चूँकि 'महिलाएँ त्याग और अहिंसा की अवधारणा है इसलिए वे खादी काटने जैसे शांत और धीमी गति के कार्य के लिए ज्यादा उपयुक्त है।Ó24 परिवार को स्वदेशी जैसे कार्यों के लिए एकत्रित करने का कार्य महिलाओं को दिया गया क्योंकि उनके अनुसार 'महिलाओं का अपने बच्चों पर अधिक नियंत्रण होता है।
      अंग्रेजी सरकार के कानूनों के विरूद्ध गाँधी ने नमक बनाने का निर्णय किया। इस आंदोलन में हजारों की संख्या में महिलाएँ दांडी मार्च में भाग लेने के लिए एकत्रित हुई। 'महिला-संगठनों ने भी इसमें सक्रिय भूमिका निभाई।
      जब 1921 में महिलाओं के मताधिकार का मुद्दा उठा तो उन्होंने इसका पूरा समर्थन किया और ये तर्क दिया कि दांडी मार्च की सफलता में महिलाओं की उत्साहपूर्ण व सक्रिय भागीदारी की निर्णायक भूमिका निभाई थी। महात्मा - गाँधी को यह भलीभाँति ज्ञात था कि अगर किसी देश की आधी जनता देश के बड़े आंदोलन से दूर रहेगी तो देश का आंदोलन कभी सफल नहीं हो सकता। उन्होंने कहा - मैं इस बात से खुश होउँगा तथा इस बात को चाहूँगा कि भविष्य की मेरी सेवा में महिलाओं की प्राबल्यता सुनिश्चित हो। ऐसे किसी भी संघर्ष का मैं अधिक साहस व जोश से मुकाबला कर सकूँगा जिसमें पुरूषों की भूमिका कमतर व महिलाओं की महतर हो। गाँधी जी का मानना था कि सांप्रदायिकता जैसी समस्या को खत्म करने में महिलाएँ अपना महत्वपूर्ण योगदान दे सकती है। उनके अनुसार महिलाओं को पुरूषों के लिए तब तक खाना बनाना बंद करना होगा जब तक वे इन दंगों को समाप्त करने का वचन न दें।
      निष्कर्षत: गाँधी स्त्री - पुरूष के आपसी संबंधों, समानता पर सूक्ष्म दृष्टि रखते है। गाँधी ने महिलाओं की राजनीतिक, सामाजिक स्वतंत्रता पर अपने विचार प्रकट किए है। गाँधी के अनुसार स्त्री और पुरूषों में कर्मों का विभाजन पुराने समय से चल रहा है। उनके अनुसार महिलाओं का काम है घर संभालना और पुरूषों का काम है कमाना। आज के समय स्त्रियाँ उनके इस विचार से सहमत नहीं होंगे। महिलाओं के अधिकारों के बारे में संवेदनशील होने के बावजूद गाँधी ने महिलाओं की समस्याओं को राजनीतिक मंच प्रदान नहीं किया। कोई संगठन नहीं बनाया। परन्तु गाँधी ने महिलाओं के सशक्तीकरण के लिए जो प्रयास किए थे, उनका कभी महत्व कम नहीं हो सकता। उन्होंने भारत में महिलाओं को एक नई दिशा दिखाई। हमें उसी दिशा में चलते हुए बदलते समय में उनके विचारों को अपनाना आर समझना होगा।
संदर्भ ग्रंथ
: संदर्भ ग्रन्थ :
1.गाँधी अध्ययन, मनोज सिन्हा, पृष्ठ 120
2.बारबरा साउथर्ड, केमिनिज्म ऑफ  महात्मा गाँधी,गाँधी मार्ग, वॉल्यूम 13, नं. 17, अक्टूबर 1981,पृष्ठ 403
3. गाँधी अध्ययन, मनोज सिन्हा, पृष्ठ 121
4 वूमेने इन स्मृतिज, हरिजन, 28 नवंबर, 1936
5 हरिजन, जनवरी 25,1936,CW Vol.LXH.पृष्ठ 157
6 गाँधी इन सीलोन, इ द वूमेन, गाँधी श्रृंखला Vol.11, हिंगोरानी,ए.कराची,1943,पृष्ठ 195
7 गाँधी - मेरे सपनों का भारत, पृष्ठ 124
8 मिल - द सब्जेक्शन ऑफ  वूमेन, पृष्ठ 98
9 नवजीवन, 13 जुलाई, 1924, CW 94Vol.24 पृष्ठ 381, 82
10 गाँधी अध्ययन, मनोज सिन्हा, पृष्ठ 122
11 यंग इंडिया, 9 दिसम्बर, 1927
12 गाँधी - मेरे सपनों का भारत, पृष्ठ 125
13 गाँध्ी - मेरे सपनों का भारत, पृष्ठ 237
14 गाँधी - मेरे सपनों का भारत, पृष्ठ 126
15 यंग इंडिया, फरवरी, 14, 1929
16 मधु , किश्वर, गाँधी एण्ड वीमेन, मानुषी ट्रस्ट, 1986, पृष्ठ 6
17 यंग इंडिया, अक्टूबर 14, 1926, CW Vol.31 पृष्ठ 493
18 गुजरात नवजीवन, 12 अक्टूबर, 1919
19 गाँधी अध्ययन, मनोज सिन्हा, पृष्ठ 126
20 Vol.31Interview withMargarel Sanger, Harijan,21 january CWMG.LXII.pp.156.60
21 गाँधी अध्ययन, मनोज सिन्हा, पृष्ठ 128
22 तेंदुलकर, डी जी, महात्मा, प्रकाशन विभाग,Vol.A पृष्ठ 63
23 पुष्पा जोशी, गाँधी ऑन वूमन, नवजीवन पब्लिशिंग हाउस, अहमदाबाद, 1988, पृष्ठ 30-311
24 गाँधी अध्ययन, मनोज सिन्हा, पृष्ठ 125
25 वही, पृष्ठ 125
26 वही, पृष्ठ 125
27 बारबरा साउथर्ड,फेमिनिज्म ऑफ  महात्मा गाँधी, गाँधी मार्ग, वॉल्यूम 13, नं. 17, अक्टूबर 1981, पृष्ठ 485
28 गाँधी अध्ययन, मनोज सिन्हा, पृष्ठ 12

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गुरुवार, 26 फ़रवरी 2015

कैसा यह दौर

मुकुंद कौशल

चीखें चित्कारें हंगामे पुरज़ोर।
कृत्रिम आरोपों का ओर न छोर।।
बहरों की बस्ती में
सिसक रही भाषाएं।
लुटे हुए आँगन से
अब कैसी आशाएँ।

        बासंती मौसम की
        आँखों में पानी है
        दुख से तो मानव की
        मित्रता पुरानी है।
साँझ तो अभागन है विधवा है भोर।

प्रतिपीड़ित पीढ़ी पर
प्रश्नों के ढेर।
कौन राम खाएगा
शबरी के बेर।
        हमसे तो अपनी ही
        पूजा भी रुठी है।
        अपनों की परिभाषा
        सौ प्रतिशत झूठी है।
दंशित है अपना हर एक पौर - पौर।

पता -
एम - 516, पद्नाभपुर
दुर्ग - 491001 (छग)
मोबाईल : 9329416167 

अनूठा है मेरा मामला

केशव शरण

मंडी का
वह सांढ़
जानता है
ट्राली या बैलगाड़ी पर लदे
बोरों में क्या जा रहा है
उस हिसाब से
वह छोड़ देगा
या मुँह मारकर
बोरा फाड़ देगा

      मंदिर के बंदर जानते हैं 
      किसका थैला छीनना चाहिए

जेबकतरा जानता है
किसकी जेब में पैसा है

     ठग जानता है
     कौन ग़रज़मंद है
     और लोभी

डोरे डालने वाला जानता है
कौन पटेगी

    पतन जानता है
    कौन अहंकारी है

ईर्ष्या जानती है
कौन असमर्थ है

    सच जानता है
    कौन झूठा है

अनूठा है लेकिन मेरा मामला
मैं नहीं जानता
कौन है मेरा शत्रु
मेरे शुभचिन्तकों के बीच

पता -
एस 2/ 564, सिकरौल
वाराणसी - 221002
मोबा: 0941529137

उनकी यादों का

                चाँद ' शेरी'
उनकी यादों का जो पलकों पै बसेरा होगा।
जगमगाते हुए दीपों में सबेरा होगा।।
प्यार की बीन पे नाच उठे जो नागिन की तरह
मीत उस गाँव की गोरी का सपेरा होगा।
ऐ - ग़ज़ल जिसने हसीं नक्श उभारे तेरे
माहिरे - फ़न वो अजन्ता का चितेरा होगा
काफिले को था यहीं जिस की निगाहेबानी पर
क्या ख़बर थी वो निगहेवां ही लुटेरा होगा
था वहाँ नामों - निशां भी न शजर का कोई
हमने सोचा था वहाँ साया घनेरा होगा
जिनके ज़ेहनों में न दर है न दरीचा कोई
उनके आगे तो अँधेरा ही अँधेरा होगा
कब किसी का ये जहाँ हो के रहा है ' शेरी'
फिर तुझे कैसे यक़ीं है कि ये तेरा होगा


पता -
के 30 आईपीआई ए
रोड नं. 1, कोटा - 5 (राजस्थान)
मोबाईल : 09829098530

सुमन खिला रही है

  • रामकुमार भूआर्य ' आकुल '
नयनों से अश्रु की धार बहती जा रही है।
आ जा ये सिसकियाँ, तुम्हें बुला रही है।।

        दिल ने तुम से नाता जोड़ा, मन का मेरे मीत हुए तुम
        मेरे भाव शब्द हैं मेरे, गीत मेरे संगीत हुए तुम
        धड़कन मेरी सरगम छेड़ें, धुन सुना रही है।
        आ जा ये सिसकियाँ, तुम्हें बुला रही है।।

कभी चुभन है, कभी घुटन है, तनहा हूं तनहाई है
तुझमें मैं हूं मुझमें तुम हो, तू मेरी परछाई है
विरहिन यह जिंदगी, हर दिन जला रही है।
आ जा ये सिसकियाँ, तुम्हें बुला रही है।।

        मिला नहीं क्यों अपना जबकि, जनम - जनम का नाता है
        ये तन तो माटी है ,तनहा आता है फिर जाता है
        स्मृतियों की इस झील में तू ही सुमन खिला रही है।
        आ जा ये सिसकियाँ, तुम्हें बुला रही है।।

पता  
दल्ली रोड, बालोद (छग)
लोक स्वास्थ्य यांत्रिकी विभाग
पेट्रोल पम्प के आगे
मोबाईल : 08305381289

मंगलवार, 24 फ़रवरी 2015

फ़र्क

सुरजीत सिंह वरवाल

            '' जानवर '' प्राय: ये शब्द बहुत जाना पहचाना है। ये शब्द जितना सरल, स्पष्ट  है उतना ही रहस्यमय। क्योंकि जो चीज जितनी सरल और स्पष्ट होती हैं उसे समझना भी उतना ही कठिन होता हैं। जानवर, मनुष्य की उत्पति के समय से ही उसका साथी रहा है। इसके पीछे कई किंवदंतिया भी बनी है जैसे आज जो हम भोजन या अन्न खा रहे है वो असल में भगवान ने जानवर, कुत्तो को दिया था। मनुष्य के आग्रह करने पर कुतो ने वो अन्न आदमी को दिया तथा वचन लिया कि हम मिल बाँट कर खायेगे और आप को भी भर पेट खिलायेगे आदि आदि ....कारण जो भी रहा हो लेकिन आज मनुष्य धीरे - धीरे अपने कर्तव्यों से विमुख होता जा रहा है।
         ग्रामीण परिवेश में तो पाले जाने वाले जानवरों की संख्या, उस घर के मनुष्य सदस्यों से भी अधिक होती है। वहां उनका रख रखाव, लालन - पालन उसी आत्मीयता और देख - रेख से होता है, जैसे कि लालन - पालन उस घर के मनुष्यों का होता है। जानवर और मनुष्य दोनों ही एक दूसरे के प्रति वफादार होते हैं। एक दूसरे की जरूरतों को पूरा करते है। वहां जानवर मनुष्यों पर बोझ नहीं होता परन्तु शहरों में प्राय: जानवरों का पालन आत्मीयता से नहीं बल्कि स्वार्थ और अपने वैभव को दिखाने के लिए अधिक किया जाता है। उन्हें जानवरों से अपने बच्चों से आत्मीयता बहुत कम होती है। आज प्रतिस्पर्धा की दौड़ ने मनुष्य को इतना स्वार्थी और आत्मकेंद्रित बना दिया हैं कि उसे अपने खून के रिश्ते भी नज़र नहीं आते। शहरों में बहुत कम ऐसे खुशनसीब जानवर होंगे। जिन्हें अपने मालिक से सच्ची आत्मीयता लगाव और अपनापन नसीब होता होगा ।
       '' दादी '' काम में ही दिन रात लगी रहती थी। ग्रामीण परिवेश में, संस्कृति में अपना सम्पूर्ण जीवन बिताया। दादी को सभी की चिंता रहती थी। यूं कहे कि सभी को साथ लेकर चलने वाली थी तो  कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। बच्चे शहरी परिवेश में पले और बड़े हुए थे। दादी का सभी सम्मान और आज्ञा का पालन करते थे। दादी पारिवारिक समृद्धि और पोता - पोतियों से अलंकृत थी। समृद्धि और वैभव ये दो शब्द ऐसे है जो मनुष्य को अस्तित्वहीन बनाते है। दादी ग्रामीण और पुराने ख्यालो की थी इसलिए ये विकार उन पर अपनी छाप नहीं छोड़ सके। लेकिन दादी के ये युवा पीढ़ी के नए विचारों की श्रृंखला के बच्चे इन सब से कैसे बच सकते थे। अत: उन्हें भी कई प्रकार के नए - नए शौंक लगने लगे । ऐसा ही शौंक  उन्हें लगा, वह था जानवर पालने का ।
      दादी के बच्चों ने भी अपना शौंक पूरा किया। एक दिन बाजार से विदेशी नस्ल की सुन्दर लाल सफेद कुतिया खरीद कर घर ले आए। उसके आने से घर के सदस्यों में बढ़ोतरी हो गयी। बच्चों को जैसे एक नया साथी मिल गया। वह अवस्था में अभी छोटी थी। अत: बच्चे आसानी से उससे घुल.मिल गए। वह भी बच्चों को आसानी से पहचानने लगी थी। उसके कोमल बालो वाले शरीर पर बच्चे प्यार से हाथ फेरकर जब खुश होते तो वह भी पूंछ हिलाकर और कूं - कूं करके उनकी ख़ुशी में शामिल हो जाती। जब बच्चे अपने खाने की चीजें बड़ो से चुराकर उसे चोरी से खिलाते तो वह भी इस प्यार के बदले उन्हें चूम - चूम कर और चाट - चाटकर अपना प्यार उन पर लुटाती।
      शहरों में घर प्राय: बहुत छोटे होते है। जो बड़े होते है उनको कोठी का रूप दे दिया जाता है। ये मकानों की भी अजब कहानी है, अधिकांश व्यक्ति अपने स्टैंडर्ड को मेंटेन करने के लिए अपने मकानों को शाही बनाने में लगे रहते है। शहरी घरों में प्राय: आँगन नहीं होते और अगर होते भी हैं तो बहुत छोटे। दादी के घर में खुशकिस्मती से आँगन था। लेकिन इतने बड़े परिवार में आँगन, सबके निर्वाह के लिए कम पड़ जाता था। फिर भी यह उस परिवार वालों की दरियादिली थी कि उन्होंने आँगन के मुख्य द्वार के एक कोने में उसके रहने - सोने के लिए एक छोटे से घर का प्रबंध कर दिया था।
      मोर्निंग वाक के लिए जब दादी के बच्चे जाते तो '' शायना '' के गले में पट्टा बांधकर उसे भी अपने साथ ले जाते। जब भी कोई पुराना परिचित व्यक्ति '' शायना ''को पहली बार देखकर पूछता, तब बच्चे छाती चौंड़ी करके गर्व के साथ '' शायना'' की विदेशी नस्ल, उसकी कीमत और उसके लालन - पालन व रख - रखाव पर होने वाले खर्च का बखान करते। शायद ऐसा करने से उन्हें '' शायना '' के साथ अपनी आत्मीयता का आभास होता हो। लेकिन सुनने वालों को तो यह उनके वैभव और समृद्धि प्रचार का माध्यम अधिक लगता था।
      समय बीतता गया और वक्त की सुई धीरे - धीरे घुमती रही। वक्त के साथ - साथ बच्चे और '' शायना'' भी बड़ी हुई, परन्तु बच्चे और '' शायना'' की बढ़त अनुपात में काफ़ी अंतर था। यह अंतर प्राकृतिक था। जहाँ बच्चे थोड़े ही बड़े हुए थे वही '' शायना'' जवान हो गयी थी। ये सृष्टी का नियम हैं कि कोमलता और मुलायमपन बाल्य अवस्था में ही रहता है। जैसे - जैसे उम्र में बढ़ोतरी होती जाती है उतनी ही आत्मकेन्द्रीयता तथा स्वार्थ भरने लगता है चूँकि '' शायना '' जवान हो गयी थी अब वह उतनी कोमल और मुलायम नहीं थी। बच्चे अब उससे पहले जैसा रोमांच और जुड़ाव नहीं करते थे। बच्चों के मन में '' शायना'' के प्रति अब पहले जैसी दिलचस्पी नहीं रह गयी थी। इसके विपरीत '' शायना'' का लगाव बच्चों के प्रति रत्तिभर भी कम नहीं हुआ था, बल्कि और ज्यादा बढ़ गया था। बच्चो को देखते ही वह पहले से भी ज्यादा तेजी से पूछ हिल्लाती, कूं.कूं करती हुई दौड़कर उन्हें चाटने लगती, बच्चे उसकी पूछ हिलाने या चाटने में पहले जैसा प्यार अनुभव न कर पाते। वह उसे हाथ से झिड़कते हुए कहते जा - जा शायना जा काम करने दे परेशान मत कर।'' जानवर प्रेम का भूखा होता है उसे किसी प्रकार का लालच नहीं होता और न ही कोई स्वार्थ शायद ये बात आज तक मनुष्य जाति नहीं समझ पाई। अब पूरे घर के सदस्यों को शायना में से अन्य जानवरों की तरह आने वाली गंध महसूस होने लगी थी। शायना अब बड़ी हो गई थी इसलिए अब लार भी ज्यादा टपकती थी, जो घर वालों को बिल्कुल भी पसंद नहीं थी। पर वह बेजुबान जानवर घरवालों की इस नापसंदगी को समझ नहीं पा रही थी। इसलिए वह भी लार टपकाने में कोई कटौती नहीं कर रही थी। अगर जानवरों में जुबान होती तो निश्चित ही संघर्ष छिड़ जाता। सृष्टि  का नियम है कि जब तक हम दूसरे को परेशान या उसके क्षेत्र में प्रवेश नहीं करेंगे तो सामने वाला हमें कुछ नहीं कहेगा लेकिन अगर हम किसी को कष्ट देंगे तो हमें मुंहँ की खानी  पड़ेगी
     समय एक सा नहीं रहता  शायद शायना के भाग्य  में भी दुर्दिन लिखे थे। एक दिन बच्चों ने पुरी के साथ बासी रोटी और बासी सब्जी खिला दी। शायना ने बड़े प्यार से खाई रात में जब सभी सो गए तो शायना ने तेज़ - तेज़ कुकियाना शुरू कर दिया। नींद टूटी, घर वाले शोर सुनकर एक दम दौड़े। आँगन में रोशनी की। पता चला कि शायना के पेट में दर्द होने की वजह से चिल्ला रही थी। शायद उसे बदहज़मी हो गयी थी। जिसका प्रमाण वह घर में दो - तीन जगह उल्टी और दस्त करके दे चुकी थी। घर की गृहणियों  ने नाक मुहँ सिंकोड़े। उसके दस्त ठीक होने तक घर के बाहर बाँध दिया गया। कितनी बड़ी ट्रेजड़ी है कि मनुष्य जाति जो भी प्यार करती हैं उसमें स्वार्थ छिपा होता हैं लेकिन जानवर जो प्यार करता है उसमें नि:स्वार्थता रहती है। घर में कोई बच्चा बीमार हो जाता है या कोई सदस्य बीमार हो जाता है तो हम रात दिन एक कर देते है और तब तक चैन नहीं मिलता जब तक वह ठीक ना हो जाये। लेकिन प्रेम को महसूस करने की क्षमता जानवरों में मनुष्य से ज्यादा होती है। शायना की यह क्षमता काम कर रही थी। बहरी और आन्तरिक परिवर्तन उसे साफ महसूस हो रहा था। हांलांकि खाना टाइम पर मिलता था। लेकिन दवा दारू ना हो पाने के कारण काफ़ी दुबली हो गयी थी। अब उसे सुबह की भोर से साक्षात्कार भी नहीं करवाया जा रहा था। लगभग उस पर ध्यान देना बंद कर दिया गया। अब धीरे. धीरे उसमें से आने वाली गंध दिक्‍कतें पैदा कर रही थी। घर वाले उससे घृणा करने लगे। अगर शायना का मन कुछ पल के लिए उनके पास जाने को होता तो आगे से फटकार पड़ती। उसे अपने जीवन का यह परिवर्तन विस्मित किये था। इसी बीच उसके भाग्य ने फिर करवट बदली और मुसीबतों का पहाड़ उसके सिर आ धमका एक ऐसी दुर्भाग्यपूर्ण घटना उसके साथ घटी जिसने उसका जीवन तबाह करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। वह गर्भवती हो गई। घरवालों को जब यह पता चला तो वे नाना प्रकार की भविष्यगत कल्पनाएँ करने लगे। जो शायना के लिए तकलीफ़देह हो सकती थी। गृहणियों ने तर्क दिए कि ये अगर घर में ब्या गई तो चारों तरफ ये और इसके बच्चे गंदगी फैलायंगे।  जो  शायना कभी उनके वैभव और प्रतिष्ठा में चार चाँद लगाती थी वही आज उनकों सबसे बड़ी मुसीबत नज़र आने लगी थी। तर्क आने लगे जहाँ - तहां हग मूत दिया करेंगी। आने जाने वालों पर अन्यास भौंका  करेगी। रात दिन शोर मचा कर नींद हराम कर देगी। सर्वसम्‍मति से शायना को घर से बाहर निकाल कर छोड़ देने का प्रस्ताव पास हुआ। शायना को बाहर का रास्ता दिखा दिया गया। यही फ़र्क हैं कि  मनुष्य अपने स्वार्थो में इतना अँधा हो जाता है कि किसी के अरमानों का खून करके भी उसे कोई फ़र्क नहीं पड़ता। परन्तु शायना ने घर छोड़ना स्वीकार नहीं किया। जहाँ मनुष्य का प्रेम क्षणिक, दिलबहलाव, स्वार्थ और दिखावे के लिए होता है, वहीँ पशु का प्रेम निश्छल, निस्वार्थ,स्थाई, सहज और सरल होता है।  निश्चित रूप से इसका कारण वह इंसानी दिमाग ही होता है। जो पशुओं में नहीं होता। ये वही है जिसके होने से एक इन्सान - इन्सान और जिसके न होने से पशु - पशु बनता है। इसी के बलबूते पर मनुष्य अपने सारे स्वार्थ साधते हुए झूठ और आडम्‍बरों का पुलिंदा खड़ा करता है। दूसरी और पशु जिसके न होने से जीवन पर्यंत सच्चा और स्वार्थ हीन बना रहता है।
        शायना  पहले की भॉंति ही घर के बाहर पड़ी रही। घर का बचा -  खुंचा जूठा खाना मिल ही जाता था। अगर फिर भी कोई कसर रह जाती तो आस पड़ोस में मुँह मार कर पूरी कर लेती थी।  इसी तरह गर्भावस्‍था के दिन बीतने लगे। और वह भी दिन आ गया जब वह माँ बनी।  शायना ने उसी दरवाजे पर तीन पिल्‍लों को जन्म दिया। पड़ोसियों और दादी को उसकी इस अवस्था पर दया आ गयी। उन्होंने शायना के खाने का अच्छा इंतजाम कर दिया। परन्तु जिस चीज की जरूरत शायना को इस अवस्था में खाने से भी ज्यादा थी, उस पर किसी का ध्यान नहीं गया। वह थी सुरक्षा  प्राय: देसी और आवारा जानवरों को गलियों में जीवन यापन करने की आदत होती है। फिर भी वह इस अवस्था में सहज नहीं हो पाते। उनकी प्रवृत्ति आक्रमक हो जाती है। फिर शायना तो विदेशी नस्ल की पालतू थी। वह अपनी तरफ से सब कुछ ठीक रखने की पूरी कोशिश कर रही थी। जानवरों का स्वभाव मनुष्य से भिन्न होता है। जहाँ मनुष्य दूसरों को अपने मज़े और मनोरंजन के लिए भी तकलीफ पहुंचाता रहता है। वही जानवर सिर्फ तब ही किसी पर हमला करता है जब उसे उससे असुरक्षा का भय होता हैं। शायना को अभी तक किसी से असुरक्षा महसूस नहीं हो रही थी। इसलिए वह शांत थी। धीरे - धीरे सारे लोग शायना को अकेला छोड़ अपने - अपने काम धंधें में लग गये। लेकिन शायना ज्यादा देर तक अकेली नहीं रह पाई। बड़ों के जाते ही धीरे - धीरे बच्चों की सेना ने घेर लिया। इस सेना में पॉंच - छ: साल से लेकर पन्‍द्रह - सोलह साल के बच्चे थे। शुरू में शायना शांत रही, लेकिन जैसे - जैसे इन बच्चों का हो हल्ला और छेड़खानी बढ़ती गई। वैसे - वैसे उसे बच्चों की असुरक्षा महसूस होने लगी। लिहाजा उसने बिना काटे भोंकना शुरू कर दिया, लेकिन बच्चों की गतिविधियों में कोई अंतर नहीं आया। बल्कि बच्चें उसे चिड़ाते हुए शायना के बच्चों से और ज्यादा छेड़खानी करने लगे। यह देख शायना के अन्दर गुस्सा भरता जा रहा था। इसी बीच एक चौदह साल का बच्चा दिलेरी दिखाते हुए शायना के बच्चे को उठाने आया। बस फिर क्या था - शायना ने उसके बाजू को नोच लिया। यह बात जंगल में आग की तरह पूरे मोहल्ले में फ़ैल गयी। देखते ही देखते उस लड़के के शुभचिंतक हाथों में डंडे,  लाठी ले कर शायना से बदला लेने आ धमके उन्हें दूर से ही आता देख शायना आत्म सुरक्षा के लिए सरपट भागी। शायना आगे थी और शुभचिंतक लोंगो का दल उसके पीछे। शायना भागने में चतुर थी वह भाग कर पास के जंगल में जा छिपी। लेकिन लोगों ने कसम खाई थी कि शायना को इस मोहल्ले में घुसने नहीं देंगे। गलती से अगर घुस भी गयी तो उसके खून से तिलक करके ही दम लेंगे। जानवर स्वभाव से सरल और भोला होता हैं। शायना को भी पूरी दुनिया अपनी जैसी ही देखती थी। उसने सोंचा जब सभी थोड़ी देर में चले जायेगे, तो वह भी अपने बच्चों के पास चली जाएगी। शायद वो इन्सान के इंतकाम से वाकिफ़ नहीं थी। कुछ समय पश्चात जब वो दोबारा मोहल्ले में घुसी तो घात में बेठे इंतकामियों ने उसे फिर से खदेड़ दिया। इस तरह दिन में कोई पांच - छ: बार ऐसी झड़प हुई। शायना बच्चों तक पहुँचनें में सफल न हो सकी। दिन भर की भूख और तपते सूरज की गर्मी के कारण शायना के दो बच्चों ने दम तोड़ दिया। किसी इन्सान ने शायना के बच्चों की परवाह नहीं की। बस बदला - बदला - बदला छाया हुआ था। जब समय ज्यादा हो गया तो शायना अपने आप को न रोक सकी । माँ थी न बच्चों की भूख जानती थी। जान हथेली पर लेकर इस बार मिलने का पक्का इरादा लेकर आई थी। चाहे कुछ भी हो जाये अपने बच्चों से जरुर मिलेगी। भाग्यवश तेज़ी से आँख बचाकर अपने बच्चों तक पहुंची। देखा दो मर चूके थे। जानवर तो थी क्या हुआ, दिल तो उसके पास भी था। वह भी एक माँ का दिल इन्‍सान होती तो शोक को दिल में दफ़न करने की कला जानती होती, लेकिन उसकी पशुवृति ने गला फाड़ कर रोने को मजबूर कर दिया। उसके रोने की देर थी, इंतकाम लेने वाले जान गए की दुश्मन इलाके में आ गया हैं। तुरंत डंडे लेकर दौड़ें शायना ने भींगीं आँखों से एक दृष्टि बच्चों पर डाली। अपने विनाशकों को नजदीक आते देख अंतिम जीवित बचे बच्चे को मुंह में दबाया और दौंड़ लगाई। पूरे दिन की थकी, भूखी और ऊपर से प्रसव की कमजोरी, शायना तेज़ न भाग सकी। अपने दुखों के पहाड़ को दिल में दबाये जब शायना भाग रही थी तब एक इन्तकामी का डंडा कमर पर पड़ा। मुहँ से कूं निकल गई वार हल्का ही था परन्तु इस अवस्था में शायना पर भारी पड़ा। बच्चा छुट कर जमीन पर जा गिरा। मर चूके बच्चों में यह तीसरा जिन्दा जरुर था, लेकिन हालत इसकी भी दयनीय थी। मुहँ से छुटकर जैसे ही जमीन पर गिरा वह भी मर गया। शायना के पास शोक करने का समय नहीं था क्योंकि इंतकामी नजदीक आ चूके थे। इस सृष्टि में औलाद सबको जान से  ज्यादा प्यारी होती हैं। उसकी मौत पर बौखलाहट स्वाभाविक है। शायना भी बौखला गई। करीब तीन - चार व्यक्तियों को काट कर जंगल में भग गई।
        जैसे ही काली रात ने अपना समय छोड़ा और भोर ने दर्शन दिये तो एक कुतिया के पागल होने की खबर फ़ैल गई। जिसकी सुन्दर उपमा दी गई कि उसने अपने बच्चों को ही खा लिया। करीब पन्द्रह व्यक्तियों को भी काट लिया। अब क्या था पूरा मोहल्ला हर कीमत पर उस कुतिया को ढूंढ कर मारने के लिए चल दिया। शायद पूरे मोहल्ले को उस कुतिया से अपने बच्चों की असुरक्षा का डर सता रहा था। ठीक वैसा ही जैसे एक दिन पहले शायना को इंसानों के उन्ही बच्चों से था। आदमियों ने अलग - अलग टोलियों में उसकी खोज शुरू कर दी। शाम होते - होते उनकी खोज खत्म हुई। लगभग  दस आदमियों का दल उसे जंगल से खदेड़कर बस्ती की ओर ले आ रहा था। बस्ती में पहले से तैनात दूसरे दल के लोगों ने अपना मोर्चा सम्भाला। चारों तरफ से शायना को घेर लेने के बाद शराब के नशे में धुत एक सभ्य इज्जतदार और भलेमानस लाठीबाज ने घुमाकर लाठी का एक वार शायना की गर्दन पर किया। एक लम्बी चीख के बाद शायना वही ढेर हो गयी। लोग उस वीर लठैती की वाहवाही करने लगे। उसने भी मुंछों पर ताव दिया। जैसे उसने बहुत वीरों वाला काम किया हो। सभी जश्न और ख़ुशी में डूबे हुए थे, तभी एक चमत्कार हुआ। शायना अचानक उठी और धीरे - धीरे कुकियाती हुई तेजी से भागी। देखते ही देखते लोंगो की रंग में भंग पड़ गई। बच्चे बड़े और जवान सब स्तब्ध और आश्चर्यचकित से उसे भागता देख रहे थे। कुछ के मन में तो यह आश्चर्य भी था कि क्या ये वाकई एक कुतिया थी या कि कोई और क्या उसमे कोई चमत्कारी शक्ति आ गई थी। इस तरह के सारे प्रश्न और आश्चर्य उनकी अपनी मानसिक क्षमता में उपजे थे। फिर एक ना भूलने वाला चमत्कार हुआ। देखते ही देखते जोरो से हवा चलने लगी। चारों तरफ हाहाकार मच गया। देखते ही देखते प्रकृति ने अपना रूप दिखा दिया। अचानक धरती धसने लगी। शाही मकानों की छत उड़ने लगी। सब हक्के - बक्के होकर एक दूसरे को देखने लगे। पल भर में ही सब कुछ धरती में धस गया। सब चीख - चिल्लाहट समाप्त हो गयी। चारों तरफ धुंआ और मिट्टी उड़ रही थी। एक भी मनुष्य जाति का अंश नहीं बचा था। वह अपने मनुष्यत्व की ताकत के आगे, कुदरत के न्याय को भूल गए थे। ये सबक आज कुदरत ने उन्हें उस शायना कुतिया के माध्यम से दिया था, कि ये दुनिया सिर्फ मनुष्यों के लिए नहीं बनी है। इस पर दूसरे प्राणियों और जीव - जंतुओं का भी उतना ही हक़ है, जितना कि मनुष्य का। जिस तरह मनुष्य को जीने के लिए प्यार, सुरक्षा और अपनापन चाहिए, उसी तरह बेजुबान जानवरों को भी। लेकिन कुदरत हर जगह शायना को भेजकर यह सबक सब को नहीं सिखा सकता। बल्कि यह सबक तो उन्हें खुद सीखना होगा। इतनी तरक्की के बाद भी इन्सान यह सबक आज तक नहीं सीख पाया। जबकि जानवर रहते हुए भी जानवरों ने यह सबक पहले सीख लिया। देखते है - इन्सान कब तक यह सबक सीखता हैं और प्रकृति कब तक अपना प्रकोप दिखाती हैं। लेकिन ये तो निश्चित हैं कि इस बार अगर मनुष्य जाति अपनी अति से बाहर गयी तो सृष्टि अंधकारमय होगी।
पता 
जूनियर रिसर्च फेलो विभाग हिंदी
डॉ हरी सिंह गौर केंद्रीय विश्‍वविदयालय
( मध्य प्रदेश ) भारत
ई . मोबाईल - 0919424763585,

सोमवार, 23 फ़रवरी 2015

आधुनिक गद्य का विकास और प्रथम हिन्‍दी कहानी

यशवंत 

      कहानी प्राचीन से अर्वाचीन क्षण तक लोकप्रिय विधा है। प्राचीन में कथा, बोधकथा एवं मिथक ( अंर्तकथा ) स्वरूप प्रयुक्त हुई। जैसे पंचतंत्र तथा हितोपदेश की कहानियाँ। कहानी मनोरंजन के साथ - साथ, सोचने - समझने हेतु बाध्य संग अपेक्षित उद्देश्य स्थापित करती है। आधुनिक गद्य की प्रथम हिन्दी कहानियाँ निम्नलिखित हैं -
क्र. कहानी का नाम                    कहानीकार                                    वर्ष
1. रानी केतकी की कहानी           इशा अल्ला खाँ                          1798 से 1806
2. इंदुमति                                 किशोरी लाल गोस्वामी               1900
3. गुलबहार                               किशोरी लाल गोस्वामी               1902
4. प्लेग की चुड़ैल                       मास्टर भगवान दास (मिरजापुर)1902
5. ग्यारह वर्ष का समय              रामचन्द्र शुक्ल                          1903
6. पंडित पंडितानी                      गिरिजा दत्त बाजपेयी                 1903
7. दुलाई वाला1                          बंग महिला  (राजेन्द्र बाला घोष) 1907
        ’इंदुमति’ को हिन्दी की प्रथम कहानी माना जाता है, रामचन्द्र शुक्ल के मत से परवर्ती इतिहासकार भी सहमत हैं । ( 2 ) यह सत्य भी है ? इसे ज्ञात करने के पूर्व खड़ी बोली के आधुनिक गद्य विकास को समझना होगा. ’’ खड़ी बोली के बाद प्रारंभिक उन्नायकों में मुंशी सदासुख लाल ' नियाज़ ’ के बाद इंशा अल्ला खाँ का स्थान है। ’रानी केतकी की कहानी’ प्रसिद्ध रचना है। उन्होंने इस रचना का निर्माण अरबी, फारसी, तुर्की शब्दों; ब्रज भाषा और अवधी के शब्दों और संस्कृत के शब्दों से विहिन ठेठ खड़ी बोली में किया है - उन्होंने उद्देश्य की पूर्ति में वे पूर्ण सफल नहीं हो सके। वैसे उनकी भाषा चलती हुई और मुहावरेदार है और चुलबुलापन हल हुए है। ठेठ खड़ी बोली में रचना करने के अतिरिक्त उनका एक और दृष्टि से महत्व है। प्रणामी संप्रदाय, दौलत राम, सदा सुख लाल, लल्लूलाल और सदल मिश्र की रचनाएँ धार्मिक और पौराणिक और एक प्रकार से पुराने ग्रंथों के आधार पर लिखी गई थी। इंशा ने एक भिन्न विषय प्रस्तुत किया. इस प्रकार आधुनिक खड़ी बोली गद्य के विकास में उनका वही स्थान है, जो आदि कालीन साहित्य में अमीर खुसरो का है। ( 3 ) इंशा की मनोहर भाषा-शैली का एक उदाहरण इस प्रकार है - ’’कोई क्या कह सके, जितने घाट दोनों घाट की नदियों में थे, पक्के चांदी के थक्के से होकर हक्का बक्का कर रहे थे। निवाड़ी, फूलनी, बजरी चलकी, मोरपंख, श्याम सुदर, रामसुन्दर और जितनी ढब की नावें थी - सुनहरी, रूपहरी, किसी-किसी में, सौ-सौ लचके खातियाँ, आतियाँ, जातियाँ, फिरतियाँ थी। उन सब पर खचाखच कुजनियाँ, रामजनियाँ, डोमनियाँ भरी हुई अपने-अपने करतबों में नाचती - गाती, बजाती, कूदती, फांदती, धूमें मचातियाँ, अंगड़ातियाँ, जम्हातियाँ, उंगलियाँ नचातियाँ और ढली पड़तियाँ थी.’’( 4)
        आचार्य शुक्ल जी अपने हिन्दी साहित्य के इतिहास में लिखते हैं - ’’संवत् 1860 के लगभग हिन्दी गद्य का प्रवर्तन तो हुआ पर उसके साहित्य की अखण्ड परम्परा उस समय से नहीं चली। इधर-उधर दो-चार पुस्तकें अनपढ़ भाषा में लिखी गई हो पर साहित्य के योग्य स्वच्छ, सुव्यवस्थित कोई पुस्तक संवत् 1941 के पूर्व की नहीं मिलती। संवत् 1860 (सन् 1803) और संवत् 1915 (सन् 1858) के बीच का काल गद्य रचना की दृष्टि से प्रायः शून्य ही मिलता है.’’(5) फोर्ट विलियम कॉलेज की स्थापना (सन् 1800) के साथ ही आगरा कॉलेज तथा दूसरी शैक्षणिक संस्थाओं ने देशी भाषाओं की पदस्थापना कर, देशी भाषा को शिक्षा का माध्यम बनाया। छाप खाने का भी सराहनीय योगदान रहा। जहाँ से महत्वपूर्ण विषयों पर खड़ी बोली गद्य में बहुतायत पुस्तकें प्रकाशित हुई। इनके विषय राजनीति, अर्थशास्त्र, विज्ञान, ज्योतिष, कला-दस्तकारी, स्त्री शिक्षा, इतिहास, भूगोल इत्यादि है। इसाई पादरियों ने सन् 1801 ई. में न्यू टेस्टामेंट ( New Testament ) का हिन्दी अनुवाद प्रकाशित किया। सन् 1801 ई. से सन् 1823 ई. के बीच पश्चिमी हिन्दी सहित अवधी, ब्रज, बघेली, मारवाड़ी और कन्नौजी में लाखों पुस्तकें छापी गई। सन् 1822 ई. में कलकत्ता स्कूल बुक सोसायटी ने ’नीतिकथा’ शिक्षा पुस्तक खड़ी बोली गद्य में लिखा। एक उदाहरण है - ’’कई दिन एक गाँव होकर जाते हमने देखा जो एक बूढ़ा अपने कई पड़ोसियों के साथ इकट्ठे हो एक पेड़ की छाँह में बैठा था, उस प्राचीन मनुष्य के हाथ में कुछ लिखा हुआ था, उसके पड़ोसियों में से कोई वह कागज पढ़ने लगा - ’’6 20 मई सन् 1826 ई. को पं. युगल किशोर शुक्ल ने ’उदन्त मार्तण्ड’ साप्ताहिक पत्र प्रकाशित किया। 9 मई सन् 1829 ई. को ’बंग दूत’ निकाला। सन् 1831 ई. में चैम्बरलैन द्वारा न्यू टेस्टामेंट का अनुवाद इस प्रकार है - ’’हे तुम सब जो परिश्रम करते हो और बोझ वाले होते हो मेरे पास आवो और मैं तुम्हें सुस्तावूँगा। अपनेयों पर मेरा जुलालेवो और मुझसे सीखो जिससे मैं नरम और मन में लघु हूँ और तुम अपने जीवों से विश्राम पावोगे। क्योंकि मेरा जुवा सहज और मेरा भार हल्का है.’’7 जून 8844 ई में ’बनारस अखबार’ तारामोहन मिश्र के संपादकीय में प्रसिद्ध हुआ। यह अखबार राजा शिवप्रसाद सितारेहिंद का था। सन् 1854 ई में ’समाचार सुधा-तर्शण’ प्रकाशित हुआ. इसके एक अंक (सन् 1855 ई) की खड़ी बोली गद्य है - ’’ यह सत्य हम लोग अपनी आँखों से प्रत्यक्ष महाजनों की कोठियों में देखते हैं कि एक की लिखि इुई चिट्ठी दूसरा जल्दी बांच सकता नहीं। पाँच-पाँच आदमी इकट्ठा बैठ के ममा, टटा, घघा, डडा कहिके फेर ’मिट्टी का घड़ा’ बोल के निश्चित करते हैं. क्या दुःख की बात है.’’8 सन् 1864 ई. में ’प्रजामित्र’ सामने आया.
       उपर्युक्त अद्य उदाहरणों सहित राजा लक्ष्मण सिंह (सन् 1826 ई, से सन् 1896 ई.) ने हिन्दी का जो स्वरूप पेश किया। वाह राजा शिवप्रसाद की भाषा में नहीं है। परन्तु राजा लक्ष्मण सिह की भाषा भाषाविज्ञान सम्मत नहीं है। राजा के ’रघुवंश’ की पंक्तियाँ है - ’’जब फूल भी देह के संग से आयु का नाश करने को समर्थ हुए तो हाय मरने वाले दई का साधन और कौन सी वस्तु न होगी.’’9 - अथवा - ’’यम कोमल वस्तु को कोमल ही से मारता है. इससे पहले दृष्टांत पाला लगने से नाश होने वाली कमलिनी मैंने मानी है.’’10
       सन् 1801 ई से सन् 1858 ई. के बीच पादरियों से लेकर गैरपादरियों तक खड़ी बोली गद्य की अखण्ड परंपरा मिलती है। जहाँ आधुनिक गद्य का महासागर मिलता है। हमें जड़बुद्धि होकर नहीं सोचना चाहिए। सकारात्मक पक्षीयता अपनाना चाहिए। आजकल ’’इण्डियन कौंसिल फार हिस्टारिकल रिसर्च के मुखिया भी अपने साक्षात्कारों में मिथकों को इतिहास का स्थानापन्न बनाते दिख रहे हैं.’’11 आ. रामचन्द्र ने ऐसा नहीं किया। सीधे कहा - 1803 से 1858 ई. में हिन्दी साहित्य की अखण्ड परम्परा नहीं चली। जाहिर है, स्वस्थ  हिन्दी खड़ी बोली की गद्य परम्परा उपर्युक्त काल खंड में भी प्रवाह मन थी. यही कहा जा सकता है कि  - आचार्य जी की अपनी सीमा, जिज्ञासा रही होगी. ध्यान नहीं गया होगा! स्पष्ट होता है - ’’श्रीलाल, बंशीधर, कुंजबिहारी चौबे, जवाहर लाल, शिवप्रसाद आदि अनेक लेखकों ने विभिन्न विषयों से संबंधित रचनाओं प्रस्तुत कर खड़ी बोली गद्य का अभूतपूर्व विकास उपस्थित किया। अस्तु, 1803 से 1858 के बीच खड़ी बोली गद्य की परम्परा अखण्ड रूप से मिलती है.’’12
        पुनः आते हैं हिन्दी की मौलिक कहानी पर कि ’इंदुमती’ हिन्दी की प्रथम मौलिक कहानी है या नहीं. ’रानी केतकी की कहानी’ की कमी का उल्लेख पहले हो चुका है। आ. शुक्ल जी लिखते हैं - ’’यदि ’इंदुमती’ किसी बंगला कहानी की छाया नहीं है तो हिन्दी की यही मौलिक कहानी ठहरती है.’’13 शुक्ल जी को ’इंदुमती’ पर बंगला कहानी की छाया है, आशंका है (थी). सावधान नहीं हुआ। ’ग्यारह वर्ष का समय’ (सन् 1903) को ’इंदुमती’ के बाद, तत्पश्चात् ’दुलाईवाली’ (सन् 1907 ई.) को स्थान देते हैं। अपने ’हिन्दी साहित्य का इतिहास’ में ’एक टोकरी भर मिट्टी’ का उल्लेख नहीं कर पाते। आचार्य जी लिखते हैं - ’’भारतेन्दु के समय में ही देश के कोने-कोने में हिन्दी लेखक तैयार हुए जो उनके निधन के बाद भी बराबर साहित्य सेवा में लगे रहे। अपने-अपने विषय क्षेत्र के अनुकूल रूप हिन्दी को देने में सबका हाथ रहा.’’14 परन्तु आचार्य जी माधव राव सप्रे (जन्म 19 जून 1 871) की सूचना प्राप्त नहीं कर सके। उपयुक्त उद्धरण में ’देश के कोने-कोने में हिन्दी लेखक तैयार हुए’, पर चिंतन किया जाय। क्या कारण थे ? उत्तर भारतीय हिन्दी साहित्य परम्परा दक्षिण भारत हेतु साहित्य परम्परा में दक्षिणपंथी थी ? या ’’देश के कोने-कोने में’ का अर्थ केवल उत्तर भारत ही होता है?
     भारतेन्दु (1850 -1885) युग (1850 -1900) में बिलासपुर, पेण्ड्रा (छ.ग.) से माधव प्रसाद सप्रे ने ’छत्तीसगढ़ मित्र’ मासिक पत्र 1900 ई. से प्रकाशित किया. तीन वर्ष प्रसिद्धि पाकर बंद हो गया. ’सरस्‍वती’ और ’छत्तीसगढ़ मित्र’ का प्रकाशन लगभग एक समय और एक समान परिस्थितियों में हुआ। दोनों पत्रिकाओं के उद्देश्य भी एक समान थे। जहाँ ’सरस्वती’ के पीछे नागरी प्रचारणी की संगठनात्मक और आर्थिक शक्ति उपलब्ध थी, वहीं ’छत्तीसगढ़ मित्र’ के पीछे केवल सप्रे जी की समर्पित सामाजिक चेतना और उत्कृष्ट साहित्य सेवा भावना थी.’’15 इसी समय महावीर प्रसाद और सप्रे जी का निकट संबंध भी हुआ। तब तो ’छत्तीसगढ़ मित्र’ का भान आचार्य जी को नहीं रहा होगा? सरस्वती में सप्रे जी के निबंध भी छपे। ’छत्तीसगढ़ मित्र’ में 1901 के ’टोकरी भर मिट्टी’ (एक टोकरी मिट्टी) प्रकाशित हुई, जो ’’कथा साहित्य के क्षेत्र में 1901 ई. में ’छत्तीसगढ़ मित्र’ में प्रकाशित माधव राव सप्रे की कहानी ’टोकरी भर मिट्टी’ मील के पत्थर के रूप में माना जाता है। कथ्य, तथ्य और भाषा-शैली की दृष्टि से कई समीक्षकों ने इसे ही हिन्दी की प्रथम मौलिक कहानी माना है।’’16 आचार्य जी ने भारतेंदु जीवनकाल की 27 पत्रिकाओं का उल्लेख अपने ग्रन्थ में करते हैं।17. परन्तु 1885 ई. से 1900 ई. तक की पत्रिकाओं की सूचना नहीं प्राप्त करते, पर द्विवेदी की संपादित पत्रिका का पूरा ध्यान रखते हैं और देश के कोने-कोने की लेखनी का हवाला देने वाले आचार्य ’छत्तीसगढ़ मित्र’ को गैर हाजिर कर देते हैं।18 हिन्दी साहित्य का इतिहास का पहला संस्करण संवत् 1996 (सन् 1939 ई.) और संशोधित संस्करण संवत् 1997 (सन् 1940 ई.) को प्रकाशित हुआ।
     कहानी के तत्वों के आधार पर ’टोकरी भर मिट्टी’ सटीक बैठती है और जिसे हिन्दी की प्रथम मौलिक कहानी होने का गौरव प्राप्त हो जाता है। परन्तु डॉ. रामनिरंजन परिमलेन्दु जी ने अपनी खोज से सिद्ध किया कि ’आरलेन्स की कुमारी की कहानी’ जिसके कहानीकार बिहारी लाल चौबे है, हिन्दी की प्रथम मौलिक कहानी है। उपर्युक्त कहानी भारतेन्दु द्वारा संपादित ’बाल-बोधनी’ मासिक पत्रिका में सन् 1876 ई. में प्रकाशित हुई। 19. इस तरह हिन्दी गद्य साहित्य में हिन्दी की आधुनिक मौलिक कहानी उन्नीसवीं शताब्दी के साढ़े सात दशक बाद ठहरती है। भारतेन्दु काल का अल्प ज्ञात गद्य साहित्य एक नवीन शोधात्मक दृष्टि के समीक्षाकार डॉ. किशोरी लाल जी को ’आरलेंस की कुमारी की कहानी’ को शीघ्रता से राष्ट्रीय स्तर की हिन्दी साहित्य की पत्रिकाओं में प्रकाशित करवाना चाहिए। जिससे बहस निर्मित हो। विमर्श द्वारा जो निष्कर्ष आयेगा सर्वसम्मति से स्वीकार्य होगा। नहीं तो ’टोकरी भर मिट्टी ’ अपनी मौलिकता के साथ गौरवान्वित हो रही है। नहीं तो डॉ. लक्ष्मी सागर वार्ष्णेय भी ’टोकरी भर मिट्टी का उल्लेख अपने हिन्दी साहित्य का इतिहास ग्रंथ में अवश्य करते। 20 साहित्य इतिहास ही क्या साहित्य लेखन में सनातनी भेदभाव रहा ही है। प्रेमचंद ने कहा है - ’’कहानी का अाधार अनुभूति है.’’21 आ. रामचंद्र शुक्ल और डॉ. लक्ष्मी सागर वार्ष्णेय को हिंदी साहित्य का इतिहास लेखन में प्रमुख गद्य विधा कहानी ’टोकरी भर मिट्टी के लिए सहानुभूति तक नहीं आई। स्वानुभूति का क्या होगा? वंचितों द्वारा लिखा जा रहा साहित्य के प्रति क्या व्यवहार हो रहा होगा, समझा जा सकता है। संज्ञान लिया जा सकता है।
      ’’नव जागरण के भीतर राज भक्ति और देश भक्ति की परंपरा साथ-साथ समानांतर चलती है?’’22 क्या व्यक्ति भक्ति की परंपरा भी साथ-साथ समानांतर नहीं चली? हिंदी प्रदीप मई 1889 अंक के प्रकाशित गुमनाम कवि परसन के गद्य की पंक्तियाँ उपयुक्त है - ’’हमारी निद्रा कुंभकरण की निद्रा से बहुत बढ़ी-चढ़ी है, आप हमें कितनी ही बार-बार गुदगुदाइये, हम कभी न जागेंगे. ’’23 क्यों जागना मनुष्य के फितरत में है, आदमी के नहीं. इंसान और अादमी में काव्यगत अंतर है तो कथा - गाथागत भिन्नता रहेगी क्या ? हाँ, तो कोई बात जरूर है, नहीं तो सवाल कहाँ उठता. अन्वेषण जरूरी है।

- संदर्भ -
1. हिंदी साहित्य का इतिहास - आ. रामचंद्र शुक्ल, पृ. 337
2. भारतेंदु काल का हिंदी गद्य साहित्य: एक नवीन शोधात्मक दृष्टि, डॉ. किशोरी लाल, सम्मेलन पत्रिका, अक्टूबर-दिसंबर 2011, पृ.94
3.  हिंदी साहित्य का इतिहास, डॉ. लक्ष्मी सागर वार्ष्णेय, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, संस्करण 2009, पृ. 240-241
4. वही पृ. 241
5. हिंदी साहित्य का इतिहास - आ. रामचंद्र शुक्ल, पृ. 287
6. हिंदी साहित्य का इतिहास, डॉ. लक्ष्मी सागर वार्ष्णेय, पृ. 242
7. वही पृ. 243
8. वही पृ. 244
9. वही पृ. 245
10. वही
11. हममें से जड़बुद्धि कौन नहीं है - सुभाष तागाड़े, दैनिक देश बंधु रायपुर संस्करण दिनांक 19.12.14 पृ. 04
12. हिंदी साहित्य का इतिहास, डॉ. लक्ष्मी सागर वार्ष्णेय, पृ. 242
13. हिंदी साहित्य का इतिहास - आ. रामचंद्र शुक्ल, पृ. 337
14. वही पृ. 244
15. हमारे प्राचीन गौरव पर टिका है साहित्य का वर्तमान - डॉ. सुशील त्रिवेदी, छत्तीसगढ़ साक्षात्कार, सितंबर-दिसंबर 2014, पृ. 8
16.छत्तीसगढ़ सृजनशीलता के विविध आयाम, डॉ. गोरेलाल चंदेल, इतवारी अखबार, संपादक सुनील कुमार, रायपुर संस्करण दिनांक 14.12.14 से 20.12.14, पृ. 42
17. हिंदी साहित्य का इतिहास - आ. रामचंद्र शुक्ल, पृ. 308
18. वही पृ. 305
19. भारतेंदु काल का अल्पज्ञात हिंदी गद्य साहित्य: एक नवीन शोधात्मक दृष्टि, डॉ. किशोरी लाल, सम्मेलन पत्रिका, भाग 96 संख्या 4 सन् 2011 सम्मेलन मार्ग, इलाहाबाद पृ.95
 20. हिंदी साहित्य का इतिहास, डॉ. लक्ष्मी सागर वार्ष्णेय, संस्करण 2009
21. आधुनिक हिंदी व्याकरण और रचना डॉ. वासुदेव नंदन प्रसाद, भारती भवन पटना, 23 वाँ संस्करण चतुर्थ पुनः मुद्रण पृ. 297
22. जन कवि परसन: हिंदी नवजागरण का लोकपक्ष - समीर कुमार पाठक, तद्भव - अक्टूबर 2014, अंक 30 पृ. 77
23. वही पृ. 78.
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