इस अंक के रचनाकार

इस अंक के रचनाकार आलेख खेती-किसानी ले जुड़े तिहार हरे हरेलीः ओमप्रकाश साहू ' अंकुर ' यादें फ्लैट सं. डी 101, सुविधा एन्क्लेव : डॉ. गोपाल कृष्ण शर्मा ' मृदुल' कहानी वह सहमी - सहमी सी : गीता दुबे अचिंत्य का हलुवा : राजेन्द्र प्रसाद काण्डपाल एक माँ की कहानी : हैंस क्रिश्चियन एंडर्सन अनुवाद - भद्रसैन पुरी कोहरा : कमलेश्वर व्‍यंग्‍य जियो और जीने दो : श्यामल बिहारी महतो लधुकथा सीताराम गुप्ता की लघुकथाएं लघुकथाएं - महेश कुमार केशरी प्रेरणा : अशोक मिश्र लाचार आँखें : जयन्ती अखिलेश चतुर्वेदी तीन कपड़े : जी सिंग बाल कहानी गलती का एहसासः प्रिया देवांगन' प्रियू' गीत गजल कविता आपकी यह हौसला ...(कविता) : योगेश समदर्शी आप ही को मुबारक सफर चाँद का (गजल) धर्मेन्द्र तिजोरी वाले 'आजाद' कभी - कभी सोचता हूं (कविता) : डॉ. सजीत कुमार सावन लेकर आना गीत (गीत) : बलविंदर बालम गुरदासपुर नवीन माथुर की गज़लें दुनिया खारे पानी में डूब जायेगी (कविता) : महेश कुमार केशरी बाटुर - बुता किसानी/छत्तीसगढ़ी रचना सुहावत हे, सुहावत हे, सुहावत हे(छत्तीसगढ़ी गीत) राजकुमार मसखरे लाल देवेन्द्र कुमार श्रीवास्तव की रचनाएं उसका झूला टमाटर के भाव बढ़न दे (कविता) : राजकुमार मसखरे राजनीति बनाम व्यापार (कविता) : राजकुमार मसखरे हवा का झोंका (कविता) धनीराम डड़सेना धनी रिश्ते नातों में ...(गजल ) बलविंदर नाटक एक आदिम रात्रि की महक : फणीश्वर नाथ रेणु की कहानी से एकांकी रूपान्तरणः सीताराम पटेल सीतेश .

सोमवार, 16 नवंबर 2015

नवम्‍बर 2015 से जनवरी 2015


आलेख
ढोला - मारू की कथा - महावीर सिंह गेहलोत
छत्‍तीसगढ़ की लोकगाथा: लोरिक चंदा - डॉ. सोमनाथ यादव
कहानी
जेल - मुंशी प्रेमचंद
कर्जा - रवि श्रीवास्‍तव 
सड़ांध - डॉ. संजीत कुमार
पीपल का पेड़ - डॉ. गीता गीत
दर्द - रवि मोहन शर्मा
विस्‍थापित - कामिनी कामायनी
जिजीविषा- ज्‍योतिर्मयी पंत
आग - श्‍वेता मिश्रा
अर्धांगिनी - सीमा सचदेव
छत्‍तीसगढ़ी कहानी
बनिहार - दीनदयाल साहू
व्‍यंग्‍य
अपना - अपना लोकतंत्र - शशिकांत सिंह '' शशि ''
गीत / गजल / कविता / मुक्‍तक
' अंकुर ' की दो गज़लें
होना चाहिए था ( गजल )- जगन्‍नाथ ' विश्‍व'
मालुम था ( गजल) - जगन्‍नाथ ' विश्‍व'
दो गज़लें : इब्राहीम कुरैशी
अशोक ' अंजुम ' की पांच गज़लें
उसकी अतलांत गहराईयों में ( कविता ) : रोजलीन
करवा चौथ ( कविता ) : मुकेश गुप्‍ता
शुल से पत्‍थर नुकीेले ( कविता) : प्रभुदयाल श्रीवास्‍तव
बारिस ( कविता ): हरदीप बिरदी
मुक्‍तक : पं. गिरिमोहन गुरू ' नगरश्री' 
डॉ.पीसीलाल यादव की  तीन छत्‍तीसगढ़ी गीत
पुस्‍तक समीक्षा
छत्‍तीसगढ़ी उपन्‍यास '' दिन बहुरिस '' म लोक संस्‍कृति

समीक्षा : देवचंद बंजारे
साहित्यिक - सांस्‍कृतिक गतिविधियां
इंटरनेट की दुनिया में तेजी से पांव पसार रही है हिन्‍दी: यादव
कुमारी स्‍मृति और राहुल वर्मा की पुस्‍तक का विमोचन

सम्‍पादकीय


मंगलवार, 10 नवंबर 2015

ढोला - मारू की कथा

महावीर सिंह गेहलोत

          वैदिक काल से लोक शब्द प्रचलित है। ऋग्वेद के पुरुष - सूक्त में यह शब्द आया है। वैदिक काल में ही वेद और लोक शब्दावली अपनी - अपनी पृथक सत्ता स्पष्ट कर देती है। पाणिनि ने वेद और लोक शब्दों के भिन्न - भिन्न स्वरुपों का बोध कराया है। नाट्य शास्त्रकार भरत मुनि, नाट्यधर्मी और लोकधर्मी प्रवृतियों को भिन्न बताते उनका उल्लेख करते हैं। महाभारत में व्यास जी स्पष्ट कर देते हैं कि प्रत्यक्षदर्शी लोक ही सारे विश्व को सर्वप्रकार से देखने वाला होता है, प्रत्यक्षदर्शी लोकानां सर्वदर्शी भवेन्तर:। इसी प्रकार गीता ;15 -18 में भी वेद और लोक का महत्व अलग - अलग प्रतिपादित किया गया है, अतो़स्मि लोके वेदे च प्रचित: पुरुषोत्तम:। भारतीय चिन्तन में श्लोक शब्द के तात्पर्य को संगत रूप से स्पष्ट करने वाला एक अन्य शब्द जन है।
          जन का प्रयोग अथर्ववेद के पृथिवी सूक्त में देखा जा सकता है जनं विभ्रति बहुया विवाचसं। नाना धर्माणं पृथिवी यथोकसम् 45।  यही मानव मात्र की ओर इंगित करने वाला जन शब्द सम्राट अशोक के सप्तम और अष्टम शिलालेखों में स्थान पाता है जहां सम्राट जनपदवासियों से सम्पर्क करने निकलता है। यह जन उस साम्राज्य के सारे निवासी हैं जो नगर, ग्राम आदि में बसते हैं। इस विवेचन से यह निष्कर्ष सहज में ही निकलता है कि लोक और जन का अर्थ सारे निवासियों से है जो कहीं भी बसते हों।
2. लोक साहित्य..
इस विशाल मानव समाज में एक शिष्ट वर्ग अपने आचार, विचार, संस्कार और औपचारिक बंधनों के कारण सामान्य जन समाज से अलग पड़ता हुआ, नागर वर्ग से संबोधित होने लगता है। इसे आभिजात्य वर्ग भी कह सकते हैं। इस वर्ग के लिए कुछ कार्यकलापों का खुला प्रदर्शन वर्जित होता है। यह वर्ग स्वनिर्मित अनुशासन के नियमों से बंधा रहता है।
इस वर्ग का पहिनावा, भाषा, साहित्य और जीवनचर्या एक विशेष ढांचे में बंध जाती है। अर्थात ऐसे वर्ग का साहित्य रीतिबद्ध और शास्त्र सम्मत होता है। इस आभिजात्य साहित्य के ठीक समानान्तर लोक समुदाय का साहित्य भी प्रवाहित होता रहता है, जो निसन्देह स्वच्छंद, निरंकुश, सहज और नैसर्गिक भावों से रस - सिक्त रहता है। सच तो यह है कि लोक - साहित्य कोई आभिजात्य साहित्य के विपरीत नहीं होता है। वह लोक समुदाय के एक घटक का साहित्य है जो शिष्ट वर्ग द्वारा सृजित होता है। अपनी रीतिबद्धता के कारण आभिजात्य साहित्य के नाम से संबोधित होता है। इस परिपाटीजन्य व्यक्तिगत साहित्य से भिन्न लोकसाहित्य होता है जो शास्त्र सम्मत पांडित्य की चेतना अथवा अहंकार से शून्य रहता है। तर्क और कसौटी से कोसों दूर रहता हुआ, इन्द्रियों के सभी सुखों को भोगता हुआ, वह युग प्रवाह में बहता रहता है। परम्परागत विश्वासों व मान्यताओं को सहज भाव से स्वीकार करते, अपने विचारों को गीतों, कथाओं तथा प्रदर्शनकारी - कलाओं के माध्यम से प्रकट करता रहता है। इस भांति लोक अपना गतिशील जीवन बिताता है। वह किसी आदिम भाव के खूंटे से बंधा नहीं रहता है।
          लोक चिंतन व जीवन में शनै: शनै: मृदु परिवर्तन भी होता रहता है क्योंकि श्लोक जड़ नहीं, वह एक विशाल जीवंत समूह है। हर युग में होने वाले इस मृदु परिवर्तन को उस युग के लोक साहित्य में आंक सकते हैं। परिनिष्ठित साहित्य के साथ - साथ लोक साहित्य भी विस्मृत होता, खंडित होता और परिवर्द्धित होता प्रवाहमान रहता है। यह लोक साहित्य और प्रदर्शनकारी कलाओं की परम्परा, अपने युग का दर्पण होती है। अभी भारतीय लोक साहित्य के संग्रह और परिचय का प्रयास मात्र हुआ है, उसका युग परक इतिहास लिखना भविष्य के आधीन है।
3 लोक कृतिकार
          यह भ्रान्त धारणा घर कर गई है कि लोक रचनाओं का कोई रचनाकार नहीं होकर, वह रचना लोकरचित होती है। इस सृजन और सृजक की ऊहापोह का समाधान भी आवश्यक है। लोकरचना का सृजक कोई समूह नहीं हो सकता। भावोन्माद में आकर कोई सृजक अपनी अनुभूति शब्दों अथवा प्रदर्शन द्वारा व्यक्त करता है। वह अनुभूति स्वाभाविक, सहज और अहैतुकी होने पर लोक समूह द्वारा अपना ली जाती है, तब वह सृजन, लोक - मानस की अभिव्यक्ति बन जाता है। उसका उत्सव सृजक विस्मृत हो जाते हैं और सारा लोक समुदाय उसे अंगीकार कर एंव पूर्णरूपेण अपनत्व प्रदान कर, सृजक के स्थान पर आ बैठता है। आरम्भ में जो व्यक्तिपरक रचना रही थी वह फिर लोक मुख में स्थान पाकर सर्वजनीन बन जाती है। फिर युग प्रवाह में वह रचना बहती रहती है। वाचिक परम्परा के कारण उसके अंग संवर्धन द्वारा पुष्ट होते हैं तो उसके शुष्क अंश टुट भी गिरते हैं। लोकानुभूति और लोकाभिव्यक्ति के कारण वह रचना सदैव हरी रहती है। अपने इन गुणों के कारण वह इतनी सक्षम होती है कि लोक मानस का अटूट अंग बन जाती है। उसके चिंतन में वह एकाकार हो जाती है।
4. लोक तत्व
          लोक समुदाय का एक मानस होता है। वह अपनी रुचि अथवा व्यवहार में आदिम, जंगली अथवा ऐन्द्रिक नहीं होता है। वह तो गतिशील तथा जीवंत समूह के कार्यकलापों को संचालित करता है। उसमें सहज विवेक एवं मंगल की भावना भी रहती है। वह अनायास ही, अनजाने अपना परिष्कार करता रहता है। उसमें कुछ ऐसे परम्परा जन्य व्यवहार और विश्वास अपना स्थान बनाये रहते हैं जो उसकी सहज प्रकृति व तर्क के अभाव में अपनी स्थिति को कालांतर में अधिक सुदृढ़ बना लेते हैं। उदाहरण के लिए शकुन के विश्वास को ही लें तो यह प्रकट होता है कि शकुन केवल विश्वास के कारण जीवन में जमे हुए हैं जबकि तर्क से यह सारे असंगत हैं। लोक विश्वासों के आधार पर ही कवि प्रसिद्धियाँ टिकी हैं। न किसी ने चकोर का अंगार भक्षण करना देखा है और न उसे रात्रि को चन्द्र की ओर टकटकी लगाए। सहज मानवी व्यवहारों के कारण ऋतु अनुकूल, पर्व और उत्सवों का आयोजन होता है जो लोक मानस द्वारा संचालित होता है। यह सब लोक तत्व के परिचायक हैं जिनमें रीति - रिवाजों के भूले व विस्मृत उपकरणों के कुछ अवशेष भी देखने को मिलते हैं। लोक साहित्य अर्थात वाचिक परम्परा में जीवित रही रचनाओं में ऐसे अवशेष व तत्व बहुलता से मिलते भी हैं।
5. लोक काव्य का शिल्प
          लोक साहित्य का काव्यशिल्प निरन्तर उपेक्षा का विषय रहा है। यह सच है कि यह साहित्य रीतिबद्ध नहीं होता है। न तो उसमें छंद की मात्राओं का विधान है और न गणों का। उसकी अभिव्यक्ति अनायासित होती है, पर होती है सहजता में। उसमें गेयता होती है, टेर होती है,और शब्दों की ठुमक होती है। क्या यह गुण उसे जीवित नहीं रखते हैं? वह लोक का कंठहार क्यों है? क्या यह गुण उस नैसर्गिक शिल्प की ओर इंगित नहीं करते हैं, जिसमें मौलिकता, नूतनता और मर्मस्पर्शी संवेदना कूट कूट कर भरी है ? वन पुष्प की ताजगी सुन्दरता, मोहकता एवं विचित्र अज्ञात सुवास को इसलिए नहीं नकार सकते कि वह किसी वाटिका अथवा पुष्पदान में स्थित नहीं है। नगर की सोलह श्रृंगार से सज्जित सुन्दरी के समकक्ष क्या किसी अल्हड़ अज्ञात यौवना ग्रामीण, मैली वेशभूषा वाली युवती को रूप का पात्र नहीं गिन सकते। सौन्दर्य अथवा उसका शिल्प रीतिबद्ध रचनाओं में शास्त्रीय होगा परन्तु लोक रचनाओं में वह सहज एवं नैसर्गिक आभा एवं चटक लिए होगा जो सदैव नित नूतन होगा। अतएव लोक साहित्य निरलंकृत और भले ही अनगढ़ हो परन्तु उसमें मानव भावों की अभिव्यक्ति जिस सरलता और लय से प्रकट होती है, वह रसात्मकता अन्यत्र दुर्लभ है। सच तो यह है कि लोक काव्य का निरलंकरण ही उसका अलंकरण है। क्या सचमुच में अलंकार सौन्दर्य की वृद्धि करते हैं? यह प्रश्नचिह्न महाकवि बिहारी ने लगा ही रखा है। उसने अपनी सतसई में आभूषणों के द्वारा नारी की सौन्दर्य साधना को नकारा है।अतएव लोक काव्य का शिल्प - सौष्ठव का लेखाजोखा आवश्यक और अनिवार्य है। ऐसा करते समय आलोचना का मापदंड कोई रीतिबद्ध शास्त्र तो अवश्य नहीं होगा।
2. ढोला - मारू का कथानक
1. कथासार
          इस प्रेम वार्ता का कथानक, सूत्र में इतना ही है कि पूंगल का राजा अपने देश में अकाल पड़ने के कारण मालवा प्रान्त में परिवार सहित जाता है। उसकी शिशु वय की राजकुमारी मारवणी का बाल - विवाह, मालवा के साल्हकुमार ढोला से कर दिया जाता है। सुकाल हो जाने से पूंगल का राजा लौट कर घर आ जाता है। साल्हकुमार वयस्क होने पर अपनी पत्नी को लिवाने नहीं जाता है। उसे इस बाल विवाह का ज्ञान भी नहीं होता है। इस बीच साल्हकुमार का विवाह मालवाणी से हो जाता है जो सुन्दर और पति - अनुरकता है। मालवणी को मारवणी सौत के होने का ज्ञान है और पूंगल का कोई संदेश अपने मालवा में आने नहीं देती है। कालांतर में मारवणी मारू अंकुरित यौवना होती है। उस पर यौवन अपना रंग दिखाता है। इधर स्वप्न में उसे प्रिय का दर्शन भी हो जाता है। पर्यावरण से सभी उपकरण उसे विरह का दारुण दुख देते हैं। पपिहा, सारस एवं कुञ्ज पक्षीगण को वह अपनी विरह व्यथा सम्बोधित करती है। पूंगल के राजा के पास एक घोड़ों का सौदागर आता है और मालवा के साल्हकुमार की बात करता है। यह सूचना सुनकर मारवणी और व्यथित हो जाती है। साल्हकुमार को बुलावा ढाढियों माँगणहार के द्वारा भेजा जाता है। यह गाने बजाने वाले चतुर ढाढी गन्तव्य स्थान पर पहुँचकर, साल्हकुमार ढोला को मारवणी की स्थिति का पूरा ज्ञान करा देते हैं। ढोला पूंगल हेतु प्रस्थान करना चाहता है परन्तु सौत मालवणी उसे बहाने बनाकर रोकती रहती है। मालवणी की ईर्ष्या, चिन्ता, उन्माद, कपट, विरह और असहाय अवस्था का वर्णन दूहों में विस्तार से हुआ है। अन्त में ढोला प्रस्थान कर ही देता है और पूंगल पहुँच जाता है। ढोला और मारवणी का मिलन होता है। सुख विलास में समय व्यतीत होता है। फिर पति - पत्नी अपने देश लौटते हैं तो मार्ग में ऊमर सूमरा के जाल से तो बच जाते हैं परन्तु एक नई विपदा उन्हें घेर लेती है। रात्रि को रेगिस्तान का पीवणा सर्प मारवणी को सूंघ जाता है। मारवणी के मृत प्राय अचेतन शरीर को देखकर स्थिति विषम हो जाती है। विलाप और क्रन्दन से सारा वातावरण भर जाता है। तब शिव - पार्वती प्रकट होकर मारवणी को जीवित करते हैं। ढोला मारू सकुशल अपने घर पहुंचते हैं। आनन्द से जीवन व्यतीत करते हैं। वहां पर चतुर ढोला, सौतिहा डाह की नोंक झोंक का समाधान भी करता है। मारवणी को अधिक प्यार व स्नेह समर्पित करता है।
2 कथा के रूपांतर
          ढोला - मारू की प्रेम कथा में समय - समय पर अंश जुड़ते गए। वाचिक परम्परा में ऐसा होना स्वाभाविक ही है। कुछ प्रतियों में धुर संबंध के दोहे मिलते हैं। इस शीर्षक से ही स्पष्ट है कि पहिले के सबंध की कथा इनका विषय है। प्रस्तावना रूप यह दोहे मारु मारवणी के पिता पिंगल राजा के विवाह की कथा कहते हैं। जालोर की राजकन्या सुन्दरी उमा का वरण, अपने पौरुष से करके गुजरात के राजकुमार रणधवल की मांग का हरण करते हैं। जालोर का राजा सामंतसी का नामोल्लेख हुआ है। यह सारा वर्णन इतिहास विरुद्ध है। एक रूपांतर में पंक्ति आई है - धण भटियाणी मारवणि, ढोलो कूरम राण। इससे मारवणी जाति में भाटि और ढोला कछवाहा वंश के कहे जा रहे हैं, परन्तु इतिहास इन तथ्यों का समर्थन नहीं करता है। रूपांतरों में निश्चित सम्वत् आदि के उल्लेख भी हैं जो किसी प्रकार से इतिहास सम्मत नहीं है। इसी भांति ऊमर - सूमरा का प्रसंग है जो मूल कथा में घट बढ़कर स्थान पा जाता है। वार्ता की रोचकता, रोमांस, कौतूहलता और चातुर्य के प्रदर्शन हेतु उमरा सूमरा का प्रसंग भले ही उपयोगी हो परन्तु इतिहास इसकी साक्षी नहीं भरता है। राजस्थान की कथ्य परम्परा अथवा हस्तलिखित प्रतियों में ढोला - मारू की बात के रूपांतर, प्रेमकथा के मूल रूप को स्थित रखकर अन्य कथाओं को जोड़कर वार्ता का विस्तार अवश्य करते हैं। परन्तु इस वार्ता के जो अन्य प्रादेशिक रूप मिलते हैं, वे ढोला मारवणी के प्रेम कथा के सहारे, उनके माता- पिता, भाई, सेवकों आदि को भी पात्र बनाकर कथा का नया ताना - बाना बिछाकर, जादू, घात - प्रतिघात, छल - कपट व षडयंत्र का सहारा लेकर कथा को एक नया रूप दे देते हैं। ब्रज, पंजाब, हरियाणा सहित, छत्तीसगढ़,मध्य भारत सहित और भोजपुरी लोक साहित्य में राजस्थान की यह बात अपने में बहुत कुछ नल दमयन्ती के प्रसिद्ध पौराणिक कथानक को भी समेट लेती है। वास्तव में राजस्थान की यह बात इन प्रदेशों के कथा साहित्य में खो सी गई है और केवल ढोला - मारू के पात्र नाम, कुछ साम्य का आभास मात्र दिलाते हैं। सही अर्थों में राजस्थान में मिलने वाले रूपांतर ही ढोला - मारू की मूल अथवा आदिम कथा के प्रति निष्ठावान हैं।
3. अवांतर कथायें
          रूपांतर तो मूल कथानक में विस्तार करके उसे नया रूप देते हैं। यह फेर काल, समय, और क्षेत्र, सीला भूमि से संबंधित रहता है परन्तु अवांतर कथायें, नये प्रसंगों अथवा समानान्तर कथाओं को जोड़कर, मूल कथा को पुष्ट संवर्द्धन मात्र करती हैं। उदाहरण के लिए ऊमर - सूमरा के प्रसंग का उल्लेख ऊपर कर चुके हैं। ऊमर - सूमरा के संबंध में एक अलग से लोक कथा है और यह ऐतिहासिक व्यक्ति भी है। वह रसिक और नारी सौन्दर्य का लुब्ध भ्रमर है। यह ऊमर - सूमरा का व्यक्तित्व चित्रण है। हमारे कथानक की मारवणी अद्वितीय सुन्दरी है और जब ऐसा है तो उसके सौन्दर्य की सार्थकता अथवा साख की साक्षी हेतु ऊमर - सूमरा के आकर्षित होने का प्रसंग जोड़ दिया गया। लोक काव्य के कथानकों में ऐसा सहजता से होता है। मर्यादाओं में सीमित शास्त्र सम्मत प्रेम कथा में भी सुन्दरी के पद्म स्वरूप मुखमंडल की सौरभ के कारण, काले भौंरों की पंक्तियाँ जैसे उसे आ घेरती हैं। इस कथा के अन्य रूपान्तरों में ढोला और भाट का संवाद विस्तार से है। यही स्थिति ढोला और गड़रिये के संवाद की है। संदेशवाहक ढाढियों को साल्ह कुमार तक पहुंचने हेतु कई अवरोधक फाँदने पड़े, पराए देश में सहायक खोजने पड़े आदि की प्रसंग वार्तायें ही अवान्तर कथायें हैं जो अपने आप में पूर्ण हैं। उन्हें हटा भी दिया जाऐ तो मूल कथा का सूत्र भंग नहीं होता और संलग्न रखने से कथा को पुष्टि मिलती है।
4. मूल कथा का स्वरूप
          इस लोक काव्य का क्या मूल रूप था,  यह खोजना कठिन है। जिस कथा का उत्स काल की पर्तों में खो गया हो, उसका आदि खोजना असम्भव सा है। परन्तु प्रस्तुत ढोला - मारू दूहा नामक कृति के जितने राजस्थानी परम्परा के रूपान्तर मिले हैं उनमें एक लाक्षणिक तथ्य उजागर होता जान पड़ता है। यदि विचारार्थ यह कहें कि यह तो प्रसंगात्मक गीतों का संग्रह है जिसमें प्रसंगों के कथा सूत्र को अथ से इति तक अक्षुण्ण रखने का ध्यान रखा गया है, तो कैसा? इस विचारधारा को एक अन्य दृष्टान्त से बल मिलता है। महाकवि सूरदास के पदों को प्रसंगानुसार इसी शती में जमाकर जब प्रकाशित किया गया तो वह पदावली भागवत पुराण का अनुसरण करने वाली दीख पड़ी और भावावेश में कुछ कह भी बैठे कि यह भागवत पुराण का उल्था है। हमारी इस धारणा की स्थापना हेतु हमें कोई हठ अथवा आग्रह नहीं है परन्तु इस कृति का वाचिक परम्परा में जब सामना होता है तब मारवणी के विरह संदेश और मालवणी के विरह रुदन के प्रसंग ही उपस्थित होते हैं।

छत्‍तीसगढ़ की लोकगाथा: लोरिक चंदा

डॉ. सोमनाथ यादव

          छत्तीसगढ़ी लोक - साहित्य की विधाओं में लोकगाथाओं का प्रमुख स्थान है। गाथाओं का रचना काल 1100 से 1500 तक माना गया है। अत: छत्तीसगढ़ी लोकगाथाओं में मध्य युगीन स्थितियों का ही चित्रण मिलता है। इससे वर्णित घटनाओं के आधार पर ही इतिहासकारों ने छत्तीसगढ़ी लोकगाथाओं का निर्माण काल मध्ययुग माना है। इसी काल में अनेक छत्तीसगढ़ी लोकगाथाओं की रचना हुई तथा आज भी ये पीढ़ी - दर - पीढ़ी मौखिक रूप से चली आ रही है।
          छत्तीसगढ़ की लोकगाथाओं के पात्र प्राय:आदर्श के प्रतीक और लोकार्थ सर्वे भवन्तु सुखिन: को निनादित करते हैं। आंचलिक चरित्र - सृष्टि.रंजित पात्र प्राय:जातीय गौरव और अंचल को महिमा मंडित करते हैं। अन्य लोकगाथाओं को छत्तीसगढ़ी लोकगाथाकार तभी अपनाता है,जब वह उसे अपने परिवेश व मानसिकता के अनुरूप उचित प्रतीत पाता है। लोकगाथाकार अपनी रूचित और युग के अनुसार उसमें परिवर्तन - परिवर्धन करता चला जाता है जिसमें संगीत की विविधता, नृत्य की आंशिक छटा और भाव - प्रणवता का त्रिकोणात्मक रूप उपलब्ध होता है। छत्तीसगढ़ी लोकगाथाओं में अलौकिकता, आंचलिक देवी - देवता, जादू - टोना, तंत्र - मंत्र, टोटका आदि विविध रूप मिलते हैं। लोक गाथाओं की प्रवृत्ति एवं विषय की दृष्टि से डॉ. नरेन्द्र देव वर्मा ने छत्तीसगढ़ी लोकगाथाओं का 3 भागों में वर्गीकारण किया है। प्रेम प्रधान गाथाएं, धार्मिक एवं पौराणिक गाथाएं तथा वीरगाथाएं। छत्तीसगढ़ी लोकगाथाओं के अंतर्गत लोरिक चनैनी की गाथा अधिक प्रचलित है। छत्तीसगढ़ी गद्य में इसकी कथा को सर्वप्रथम सन् 1890 में श्री हीरालाल काव्योपध्याय ने चंदा के कहानी के नाम से प्रकाशित किया था। वही बेरियर एल्विन ने सन् 1946 में लोकगाथा के छत्तीसगढ़ी रूप को अंग्रेजी में अनुवाद करके अपने ग्रंथ फोक सांग्स आफ छत्तीसगढ़ में उद्भूत किया है।
           लोरिक चंदा निश्चित रूप से ऐतिहासिक पात्र है। इस तथ्य के प्रमाण में यह तर्क दिया जा सकता है कि लोक में रचे - बसे होने के कारण और छत्तीसगढ़ में इसकी गाथा और स्थान नामों के संदर्भ में लोकमानस आस्थावान है। ऐसा लगता है इसकी मूलकथा और घटना - प्रसंग छत्तीसगढ़ की ही है। मैं जब इस लोकगाथा के संकलन - संपादन के मध्य अन्वेषण यात्रा में संलग्न था, तब लोकगाथा गायकों के अतिरिक्त अनेक लोकसाहित्य - मर्मज्ञों, लोककलाकारों ने यह राय दी कि रायपुर जिलांतर्गत आरंग एवं रींवा और उसके मध्य की लीलाभूमि लोरिक चंदा के प्रेम प्रसंग की साक्षी है। वास्तव में स्थान - नाम में निहित घटना - कथा ही जनश्रुति और लोककथा बनकर लोकमानस में प्रचलित और प्रतिष्ठित होती है। इसे इतिहास ना मानकर केवल कल्पना की सामग्री समझना गलत है। जिस तथ्य को लोग अनेक पीढ़ियों से मान रहे है और युग उसे गाथा रूप में स्वीकृत कर रहे हैं। वह लोकगाथा अथवा साहित्य कदापि भ्रामक नहीं हो सकता। वास्तव में लोरिक चंदा की गाथा छत्तीसगढ़ी लोकमानस के लिए वह प्रेरक प्रसंग है जिसे चमत्कार बुद्धि का पुट देकर अलौकिक बनाया गया है।
          लोरिक और चंदा की कहानी लोकगीत के मादक स्वरों में गूंथी हुई है जिसे अंचल के लोग '' चंदैनी '' कहते है। चंदैनी से पता चलता है कि रींवा लोरिक का मूल गांव था या कम से कम इस गांव से उसका गहरा संबंध था। चंदैनी का एक टुकड़ा ही प्रमाण स्वरूप है.
बारह पाली गढ़ गौरा, सोलह पाली दीवना के खोर
अस्सीपाली पाटन, चार पाली गढ़ पिपही के खोर
          चंदैनी लोकगीत नाट्य ही लोरिक चंदा और रींवा के गहरे संबंध का पुखता ऐतिहासिक प्रमाण है। अगर गहरी पुरातात्वीय पड़ताल हो तो संभव है और प्रमाण मिले। अस्तु यह निश्‍चित है रींवा लोरिक नगर था। लोकगीतात्मकता प्रणय गाथा चंदैनी तथा कुछ और माध्यमों से इतिहास के जो पन्ने खुलते हैए उनके अनुसार.वर्तमान मे आरंग विकासखंड मुख्यालय है। यह रायपुर जिले के तहत है और राजमार्ग क्रमांक छह पर स्थित है। इसके नामकरण के संबंध में यह जनयुक्ति प्रचलित है कि यह राजा मोरध्वज का नगर था। उनकी भगवान श्रीकृष्ण ने परीक्षा ली थी। इस महादानी राजा ने भगवान और उनके साथ आये भूखे शेर को जो छद्म रूप था. अपना पुत्र ही दान कर दिया गया। राजा ने अतिथियों के मांग पर स्वयं अपनी धर्मपत्नी सहित पुत्र को आरे से चीरकर उसका भोजन बनाया। चूंकि आरे से राजा  मोरध्वज को अपने पुत्र को चीरना पड़ा थाए अतएव उसी वक्त इस नगर का नाम ष्ष्आरंगष्ष् पड़ा। मगर लोरिकचंदा की कथा के अनुसार आरंग का पूर्वनाम '' गढ़गौरा'' था। यहां राजा महर का राज्य था। राजा महर के चार पुत्र क्रमश: इदेचंद्र, बिदेचंद, महादेव और सहदेव थे। राजा की एकमात्र पुत्री चंदा थी जो सबकी लाडली थी। ग्राम रीवां गढ़गोरा के राजा महर के अधीन था। चूंकि रींवा आरंग से आठ किलोमीटर की दूरी पर स्थित हैए अतएव यह संभव प्रतीत होता है।
          कथानुसार एक रोज पनागर नामक राज्य से बोड़रसाय अपनी पत्नी बोड़नीन तथा भाई कठावत और उसकी पत्नी खुलना के साथ गढ़गौरा अर्थात् आरंग आयें। उन्होंने राजा महर को एक '' पॅंड़वा '' ( भैंस का बच्चा ) जिसका नाम सोनपड़वा रखा गया था। भेंट किया, इस भेंट से राजा महर अति प्रसन्न हुए और बोड़रसाय को बदले में रीवां राज्य दे दिया। बोड़रसाय राऊत अपने परिवार सहित रींवा राज्य में राज करने लगा। इसी बोड़रसाय का एक पुत्र था। बावन और सहोदर का पुत्र था - लोरिक। संयोग की बात है कि राजा महर की लाडली बेटी और बोड़रसाय का पुत्र बावन हम उम्र थे। राजा महर ने बावन की योग्य समझकर चंदा से उसका विवाह कर किया, पर कुछ समय व्यतीत हो पाया था कि बावन किसी कारणवश नदी तट पर तपस्या करने चला गया। संभवत: बावन निकटस्थ महानदी पर तपस्थार्थ गया हो। उधर राजा महर का संदेश आया कि चंदा का गौना करा कर उसे ले जाओ। इस विकट स्थिति में राजा बोड़रसाय को कुछ सूझ नहीं रहा था। अंतत: इस विपदा से बचने का उन्हें का ही उपाय नजर आया। लोरिक, जो कि बावन का चचेरा भाई थाए दूल्हा बनाकर गौना कराने भेज दिया। लोकगीत नाट्य चंदैनी में लोरिक का रूप बड़ा आकर्षण बताया गया है। लोरिक सांवले बदन का बलिष्ठ शरीर वाला था। उसके केश घुंघराले थे, वह हजारों में अलग ही पहचाना जाता था। लोरिक गढ़गौरा चला गया और सभी रस्मों को निपटाकर वापसी के लिए चंदा के साय डोली में सवार हुआ। डोली के भीतर जब चंदा ने घूंघट हटाकर अपने दूल्हे को निहारा तो उसके रूप में एक अज्ञात व्यक्ति को देखकर वह कांप उठी। चंदा इतनी भयभीत हो गई कि वह तत्क्षण डोली से कूदकर जंगल की ओर भाग गयी। लोरिक भी घबरा गया और चंदा के पीछे भागा। उसने चंदा को रोका और अपना परिचय दिया। अब जब संयत होकर चंदा ने लोरिक को देखा, तब वह उस पर मुग्ध हो गयी। लोरिक सीधे उसके मन में समाता चला गया। लोरिक का भी लगभग यही हाल था। यह चंदा के धवल रूप को एकटक देखता रहा गया। दोनों अपनी समस्या भूलकर एक.दूसरे के रूप - जाल में फंस गये। वही उनके कोमल और अछूतेे मन में प्रणय के बीच पड़े। दोनों ने एक दूसरे से मिलने का और सदा संग रहने का वचन किया।
          लोरिक चंदा में महाकाव्य सदृश मंगलाचरण से गाथा का प्रारंभ होता है। कवि इस लोकगाथा के माध्यम से सरस्वती और उसकी बहन सैनी का स्मरण करते है। उनके अनुसार सरस्वती को नारियल और गुड़ तथा सती सैनी को काजल की रेख भेंट करेगा।
सारद सैनी दोनों बहिनी ये रागी,
नइते कउन लहुर कउन जेठ
कौन ला देवउ मेहा गुड़ अउ नरियर
कोने काजर के रेख
मइया ल देवंव मेहा गुड़ अउ नरियर
सति काजर के रेख।
          गुरू बैताल और चौसठ जोगिनी के साथ ठाकुर देवता, साहड़ा देवता को उनके रूचि के अनुरूप लोकगाथाकार संतृप्त करना चाहता है.
अखरा के गुरू बैताले ला सुमरो,
नइते पल भर सभा म चले आव,
चौसठ जोगिनी जासल ला सुमरव
नइते भुजा में रहिबे सहाय
गांव के ठाकुर देवता ला सुमरव
नइते पर्रा भर बोकरा ला चढ़ाव
गांव के साहड़ा देवता ला सुमरव
नइते कच्चा गो - रस चड़ाव
         
          इसके बाद लोक गाथाकार आत्मनिवेदन का आश्रय.ग्रहण करता है। वह लोरिक चंदा की सुरम्य प्रणय गाथा को सुखे मीठे गुड़ अथवा गन्ने के रस की तरह अत्यन्त मीठा एवं सरस स्वीकारता है। यह सुन्दर गाथा जो कोई भी श्रोता श्रवण करेगा। वह प्रेम के पावन सरिता में अवगाहन करके जीवन की जटिलता दूर कर सकने में समर्थ होगा।
खावत मीठ गुड़ सुखरी ये रागी
नइते चुहकत मीठ कुसियार,
सुनत मीठ मोर चंदैनी ये रागी,
नइते कभुना लागे उड़ास          
          लोकगाथाएं मंगलाचरण के पश्चात् प्रबंध.काव्य.सदृश आत्मनिवेदन की शैली में गाथाओं की विशिष्टता को सूत्रपात के रूप में प्रस्तुत करता है। उसके द्वारा प्रयुक्त उपमान आंचलिक और मौलिक ही नहीं, अपितु लोक से रचे - बसे भी हैं। इसके पश्चात् कथा की शुरूआत को लोकगाथाकार बहुत ही सहज, सरल ढंग से प्रस्तुत करता है-
राजा महर के बेटी ये ओ
लोरिक गावत हंवव चंदा
ये चंदा हे तोर
मोर जौने समे के बेटा म ओ
लोरिक गावत हंवव चंदा
ये चंदा हे तोर।
          
          प्राय: समीक्षक लोरिक चंदा को वीराख्यानक लोकगाथा के अंतर्गत स्वीकार करते हैं। यदि लोरिक केवल वीर चरित्र होता तो इसे राजा या सामंत वर्ग के प्रतिनिधि के रूप में चित्रित किया जाता। महाकाव्य अथवा लोकगाथाओं में वीर लोकनायक प्राय: उच्च कुल अथवा नरेशी होते हैं। इस आधार पर लोरिक वीर होते हुए भी सामान्य यदुवंशियों के युद्ध कौशल का प्रतीक है। उसके रूप और गुण से सम्मोहित राजकुमारी चंदा अपने पति और घर को त्यागकर प्रेम की ओर अग्रसित होती है। इस दोनों के मिलन में जो द्वन्द और बंधन है, उसे पुरूषार्थ से काटने का प्रयास इस लोकगाथा का गंतव्य है। इस आधार पर उसे प्रेमाख्यानक लोकगाथा के अंतर्गत सम्मिलित करना समीचीन प्रतीत होता है।
          उपर्युक्त गाथाओं से स्पष्ट है कि लोरिक चंदा की गाथा अत्यंत व्यापक एवं साहित्यिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है। यद्यपि इसे अहीरों की जातीय धरोहर माना जाता है तथापि यह संपूर्ण हिन्दी प्रदेश की नहीं वरन् दक्षिण भारत में भी लोकप्रिय एवं प्रचलित है। श्री श्याम मनोहर पांडेय के अनुसार '' बिहार में मिथिला से लेकर उत्तरप्रदेश और छत्तीसगढ़ में इसके गायक अभी भी जीवित है '' वे प्राय: अहीर है जिनका मुख्य धंधा दूध का व्यापार और खेती करना है। लोरिक की कथा लोकसाहित्य की कथा नहीं है, बल्कि इस कथा पर आधारित साहित्यिक कृतियां भी उपलब्ध है। विभिन्न क्षेत्रों में प्रचलित '' लोरिकी '' लोकगाथा के नाम एवं कथा में अंतर सर्वाधिक व्यापक रूप से '' भोजपुरी'' में उपलब्ध होता है जहां यह लोकगाथा चार खंडों में गायी जाती है। '' लोरिक'' की लोकगाथा का दूसरा भाग, '' लोरिक एवं चनवा का विवाह '' भोजपुरी क्षेत्र के अतिरिक्त अन्य प्रदेशों में भी प्रचलित है। मैथिली और छत्तीसगढ़ी प्रदेशों में तो यह अत्यधिक प्रचलित है। विभिन्न प्रदेशों में प्रचलित '' लोरिक '' की कथा में परिलक्षित साम्य - वैषम्य अधोलिखितानुसार है-
'' भोजपुरी रूप में चनवा का सिलहर बंगाल से लौटकर अपने पिता के घर गउरा आना वर्णित है। छत्तीसगढ़ी रूप में भी यह समादृत है, परन्तु कुछ विभिन्नताएं है। इसमें चनैनी का अपने पिता के घर से पति वीरबावन के घर लौटना वर्णित है। अन्य रूपों में यह वर्णन अलभ्य है।''
          भोजपुरी रूप में चनैनी को मार्ग में रोककर बाठवा अपनी पत्नी बनाना चाहता है, परन्तु वह किसी तरह गउरा अपने पिता के घर पहुंच जाती है। बाठवा गउरा में आकर उसको कष्ट देता है, राजा सहदेव भी बाठवा से डरता है। मंजरी के बुलाने पर लोरिक पहुंचता है और बाठवा को मार भगाता है। जिसकी सब लोग प्रशंसा करते हैं।
          छत्तीसगढ़ी रूप में यह कथा वर्णित है परन्तु उसमें थोड़ा अंतर है महुआ बाठवा मार्ग में चनैनी को छेड़ता है। लोरिक वहां आकर उसे मार भगाता है। लोरिक की वीरता देखकर वह मोहित हो जाती है, लोरिक को वह अपने महल में बुलाती है। शेष अन्य रूपों में वह वर्णन नहीं मिलता।
          भोजपुरी में राजा सहदेव के यहां भोज है, चनवा लोरिक को अपनी ओर आकर्षित करती है। रात्रि में लोरिक रस्सी लेकर चनवा के महल के पीछे पहुंचता है। जहां दोनों का मिलन वर्णित है। छत्तीसगढ़ में भोज का वर्णन नहीं मिलता। परन्तु रात्रि में लोरिक उसी प्रकार रस्सी लेकर जाता है और कोठे पर चढ़ता है तथा दोनों मिलकर एक रात्रि व्यतीत करते है।
          श्री हीरालाल काव्योपाध्याय द्वारा प्रस्तुत छत्तीसगढ़ी कथायान '' लोरिक'' में भी इसका वर्णन है परन्तु कुछ भिन्न रूप में इसमें चंदा चनैनी का पति वीरबावन महाबली है, जो कुछ महीने सोता और छह महीने जागता है। उसकी स्त्री चंदा, लोरी से प्रेम करने लगती है। वह उसे अपने महल में बुलाती है और स्वयं खिड़की से रस्सी फेंककर ऊपर चढ़ाती है। मैथिली तथा उत्तरप्रदेश की गाथा में यह वर्णन प्राप्त नहीं होता।
          भोजपुरी लोकगाथा में रात्रि व्यतीत कर जब लोरिक चनैनी के महल सें जाने लगता है। तब अपनी पगड़ी के स्थान पर चनैनी का चादर बांधकर चल देता है। धोबिन उसे इस कठिनाई से बचाती है। वेरियर एल्विन द्वारा प्रस्तुत छत्तीसगढ़ी रूप में यह वर्णन नहीं है परन्तु काव्योपाध्याय द्वारा प्रस्तुत गाथा में यह अंश उसी प्रकार वर्णित है। शेष अन्य रूपों में यह वर्णन नहीं मिलता।
          चनैनी के बहुत मनाने पर लोरिक का हरदी के लिए पलायन की घटना सभी क्षेत्रों की गाथा में उपलब्ध है।
          लोरिक को मार्ग में मंजरी और संवरू रोकते है। छत्तीसगढ़ी रूप में भी यह वर्णित है, परन्तु केवल संवरू का नाम आता है। शेष रूपों में यह नहीं प्राप्त होता है।
          भोजपुरी रूप में लोरिक मार्ग में अनेक विजय प्राप्त करता है तथा महापतिया दुसाध को जुए और युद्ध में भी हराता है, छत्तीसगढ़ी तथा अन्य रूपों में इसका वर्णन नहीं हैं।
          भोजपुरी में लोरिक अनेक छोटे - मोटे दुष्ट राजाओं को मारता है। मार्ग में चनवा को सर्प काटता है। परन्तु वह गर्भवती होने के कारण बच जाती है। बेरियर एल्विन द्वारा संपादित छत्तीसगढ़ी में लोरिक को सर्प काटता है तथा चनैनी शिव पार्वती से प्रार्थना करती है। लोरिक पुन: जीवित हो जाता है। शेष रूपों में यह वर्णन नहीं प्राप्त होता।
          भोजपुरी के अनुसार लोरिक की हरदी के राजा महुबल से बनती नहीं थी। महुबल ने अनेक उपाय किया, परन्तु लोरिक मरा नहीं। अंत में महुबल ने पत्र के साथ लोरिक की नेवारपुर '' हरवा - बरवा''  दुसाध के पास भेजा। लोरिक वहां भी विजयी होता है। अंत में महुबल को अपना आधा राजपाट लोरिक को देना पड़ता है और मैत्री स्थापित करनी पड़ती है।
          मैथिली गाथा के अनुसार हरदी के राजा मलबर (मदुबध) और लोरिक आपस में मित्र है। मलबर अपने दुश्मन हरबा - बरवा के विरूद्ध सहायता चाहता है। लोरिक प्रतिज्ञा करके उन्हें नेवारपुर में मार डालता है।
          एल्विन द्वारा प्रस्तुत छत्तीसगढ़ी रूप में यह कथा विशिष्ट है इसमें लोरिक और करिंधा का राजा हारकर लोरिक के विरूद्ध षड़यंत्र करता है और उसे पाटनगढ़ भेजना चाहता है। लोरिक नहीं जाता।
          भोजपुरी रूप में कुछ काल पश्चात् मंजरी से पुन: मिलन वर्णित है। छत्तीसगढ़ी रूप में हरदी में लोरिक के पास मंजरी की दीन - दशा का समाचार आता है। लोरिक और चनैनी दोनों गउरा लौट आते है। उत्तरप्रदेश के बनारसी रूप में भी लोरिक अपनी मां एवं मंजरी की असहाय अवस्था का समाचार सुनकर चनैनी के साथ गउरा लौटता है। शेष रूपों में यह वर्णन नहीं मिलता।
          भोजपुरी रूप सुखांत है। इसमें लोरिक अंत में मंजरी और घनवा के साथ आनंद से जीवन व्यतीत करते है। मैथिली रूप में भी सुखांत है परन्तु उसमें गउरा लौटना वर्णित नहीं है। एल्विन द्वारा प्रस्तुत छत्तीसगढ़ी रूप में लोरिक अपनी पत्नी व घर की दशा से दुखित होकर सदा के लिए बाहर चला जाता है। छत्तीसगढ़ में काव्योपाध्याय द्वारा प्रस्तुत रूप का अंत इस प्रकार से होता है -
लोरी चंदा के साथ भागकर जंगल के किले में रहने लगता है। वहां चंदा का पति वीरबावन पहुंचता है। उससे लोरी का युद्ध होता है। वीरबावन हार जाता है और निराश होकर अकेले गउरा में रहने लगता है।
          लोकगाथा के बंगला रूप में वर्णित '' लोर'' मयनावती तथा चंद्राली वास्तव में भोजपुरी के लोरिक मंजरी और चनैनी ही है। बावनवीर का वर्णन छत्तीसगढी़ रूप में भी प्राप्त होता है। बंगला रूप में चंद्राली को सर्प काटता है। भोजपुरी रूप में भी गर्भवती चनैनी को सर्प काटता है। दोनों रूप में वह पुन: जीवित हो जाती है। बंगला रूप में मयनावती के सतीत्व का वर्णन है। भोजपुरी में भी मंजरी की सती रूप में वर्णन किया गया है। लोकगाथा का हैदराबादी रूप छत्तीसगढ़ी के काव्योपाध्य के अधिक साम्य रखता है।
          श्री सत्यव्रत सिन्हा द्वारा उल्लेखित उपर्युक्त साम्य वैषम्य के सिवाय भी लोरिक लोकगाथा में कतिपय अन्य साम्य वैषम्य भी परिलक्षित होते है। यथा - गाथा के भोजपुरी रूप में मंजरी द्वारा आत्महत्या करने तथा गंगामाता द्वारा वृद्धा का वेष धारण कर मंजरी को सांत्वना देने, गंगा और भावी ( भविष्य ) का वार्तालाप, भावी का इन्द्र एवं वशिष्ठ के पास जाना आदि घटनाओं का वर्णन है जो गाथा के अन्य रूपों में प्राप्त नहीं है। इसी प्रकार मंजरी के मामा शिवचंद एवं राजा सहदेव द्वारा मंजरी के बदले चनवा के साथ विवाह करने पर दुगुना दहेज देने का वर्णन अन्य क्षेत्रों के '' लोरिक ''में अप्राप्त है।
          '' लोरिक'' लोकगाथा के बंगाली रूप में एक योगी द्वारा चंद्राली के रूप में वर्णन सुनकर उसका चित्र देखकर लोरिक को चंद्राली के प्रति आसक्त चित्रित किया गया है। यहां बावनवीर (चंद्राली का पति ) को नपुंसक बताया गया है। मैनावती पर राजकुमार दातन की अनुरक्ति तथा उसे प्राप्त करने के लिए दूतियों को भेजने का वर्णन है तथा मैनावती द्वारा शुक्र और ब्राम्हण द्वारा लोरिक के पास संदेश प्रेषित करने का वर्णन प्राप्त होता है जो कि अन्य लोकगाथाओं में नहीं है। गाथा के हैदराबादी रूप में ही बंगाली रूप की भांति उस देश के राजा का मैना पर मुग्ध होना वर्णित है।
          '' लोरिक'' गाथा के उत्तरप्रदेश (बनारसी रूप) में प्रचलित चनवा द्वारा लोरिक को छेड़खानी करने पर अपमानित करना तथा बाद में दोनों का प्रेम वर्णित है। इस प्रकार लोरिक द्वारा सोलह सौ कन्याओं के पतियों को बंदी जीवन से मुक्त कराने का वर्णन है, जो अन्य क्षेत्रों के '' लोरिक ''लोकगाथा में उपलब्ध नहीं है। गाथा के छत्तीसगढ़ी रूप में चनैनी और मंजरी दोनों सौत के बीच मार - पीट एवं विजयी मंजरी द्वारा लोरिक के स्वागतार्थ पानी लाने तथा पानी के गंदला होने पर लोरिक का विरक्त होकर घर छोड़ चले जाने का वर्णन है। आज के इस प्रगतिशील दौर में भी जब प्रेमी हृदय समाज के कठोर - प्रतिबंध तोड़ते हुए दहल जाते है। तब उस घोर सामंतवादी दौर में लोरिक और चंदा ने सहज और उत्कृष्ट प्रेम पर दृढ़ रहते हुए जाति, समाज, धर्म और स्तर के बंधन काटे थे। लोरिक चंदा छत्तीसगढ़ी लोकमानस का लोकमहाकाव्य है, जिसे प्रेम और पुरूषार्थ की प्रतिभा के रूप में छत्तीसगढ़ी जन प्रतिष्ठित किये हुये है। इसलिए वे आज छत्तीसगढ़ के आदर्श प्रेमी है और गीत बनकर लोगों के हृदय में राज कर रहे हैं।
1 प्रेस क्‍लब भवन
ईदगाह मार्ग, बिलासपुर(छ.ग)

कर्जा

रवि श्रीवास्‍तव
       लहराती फसल कितना सुकून देती है। रमेश अपने बेटे से कहता हुआ खेत को देख रहा था। हर तरफ  से घूम कर अपनी फसल को देखा। मन में सोच रहा कि भगवान तेरा शुक्रिया कैसे अदा करूं। तभी पीछे से एक आवाज आती है- अरे रमेश क्या बात है, आज अपने बेटे को खेत दिखाने लेकर आए हो। पीछे मुडकर देखा तो सुखीराम खड़ा था। किसान हर सुबह आंख खुलते ही सबसे पहले अपनी फसल के दर्शन करना चाहता है। वैसे आप को बता दे नाम तो सुखीराम है, पर जिंदगी में सुख तो था नही बस राम ही राम था। हां भाई सुखीराम, मैंने सोचा चलो बेटे सूरज को भी अपनी मेहनत दिखा लाते हैं।
       अब क्या था दो किसान आपस में मिल गए थे। बस खेती किसानी की बात शुरू। सुखीराम इस बार की फसल तो अच्छी है, हां भाई मेहनत करते हैं तो क्यों नही होगी। दोनों हंस पड़ते है। हसें भी क्यो न उनकी मेहनत रंग दिखा रही थी? गांवों में जो हमेशा होता आया है। दो लोग मिल गए तो दो दिन गांव के लोगों का हाल चाल पूछना शुरू हो जाता है। अच्छी बात नही तो कम से कम बुराई ही करने लगते हैं।
       फलाने ने ऐसा काम किया, ढमाके के लड़के ने तो नाक ही कटा ली है। बगल के गांव की नीच जाति की लड़की को लेकर शहर भाग गया है। ऐसी ही कुछ बातें रमेश और सुखीराम के बीच चल रही थी। तभी रमेश ने सूरज से कहा तुम घर चले जाओं, स्कूल जाना है। मां से कहना मैं देर से घर आऊंगा। खेत का कुछ काम निपटा के आऊंगा। सूरज का स्कूल घर से करीब 5 किलोमीटर दूर था।
       आठवीं कक्षा में सूरज पढ़ता था। उसके बाद फिर तो पढ़ाई के लिए और दूर जाना पड़ेगा। रमेश ने कहा था कि इस बार उसे इस बार साइकिल दिला देगा। सूरज पढ़ने में भी काफी अच्छा था। इसलिए रमेश भी उसे आगे पढ़ाना चाहता था। सूरज ने भी अपने पिता से कह दिया था कि इतनी दूर पैदल स्कूल जाने में काफी परेशानी होती है। एक साईकिल दिला दो।
       - '' अरे भाई सुखीराम इस बार का क्या हिसाब किताब है। का बताइ रमेश भैइया अगर सब कुछ बढिया रहैल तो खाने के तंगी न होई। कर्जा भी चुकाइ देबय। यारए किसानों की जिंदगी भी अजीब है। जैसे लोग जुआ खेलते हैं। वैसे ही हम फसल उगाने के लिए जुआ खेलते हैं। कम बारिश तो पानी के लिए तरसे। बेमौसम हुई तो फसल बर्बाद। अरे रमेश भईया जो किस्मत मा लिखा होत है वो तो हो के रहे।''
       - '' भगवान पर किसका बस हवय। सो तो है भइया। वैसे इस बार कितना कर्जा है तुम्हार। पिछली बार नुकसान खाने के बाद इस बार ज्यादा कर्जा लेने की हिम्मत नही हुई। फिर भी इस बार का 20 हजार और पिछली बार का 15 हजार बाकी है। अरे सुखीराम पिछली बार का भी बकाया है।''
       - '' हां भइया। फसल भी ज्यादा ठीक नही थी। फिर भी कर्जा चुकाने लायक थी। अरे भाई परेशान होने की जरूरत नही है सब ठीक हो जाएगा। मैने भी इस बार ज्यादा कर्जा ले लिया है। खेत में पानी के लिए पम्पिंग सेट ले लिया है। और बोरिंग भी कराई। बैंक से मैने पचास हजार का कर्ज लिया और मुखिया जी से 20 हजार का। अरे रमेश भइया मुखिया जी से भी कर्ज ले लिया है। हां ब्याज पर दिया है। बीबी की तबियत ख़राब हो गई थी। तो उधार लिया था ब्याज पर। चलो भइया अब घर चलते हैं। धूप भी तेज हो गई है। घर मलकिन इंतजार कर रही होंगी।''
- '' चलो सुखीराम चलो ।''
       रमेश और सुखीराम अपनी लहराती फसल को देख चेहरे पर खुशी लेकर एक गीत गुनगुनाते हुए जा रहे थे। जो कि वो हमेशा कहते थे। कुछ इस तरह से दृअब बन जावेए हम भी तौ सेठए कर्जा चुकाइ देब, कर्जा चुकाइ देब, रंग लाई है मेहनत, लहराइ रहा खेत, कर्जा चुकाइ देब, कर्जा चुकाइ देब। सर पर गउंछा बांधे दोनो किसान अपने घर के लिए निकल पड़ते हैं। अच्छा राम राम भइया। राम - राम।
       फसल कटने में बस कुछ दिन ही शेष रह गए थे। कुछ लोगों की फसल कटनी भी शुरू हो गई थी। किसानों की फसल कटने लगती है तब से उसके दिल में जबरजस्त उत्साह होने लगता है। बस वो यही सोचता है कि जल्दी से फसल घर आ जाए।
        रमेश जैसे ही सड़क से घर की तरफ  मुड़ता है। सामने नीले रंग की खड़ी कार की झलक मिलती है। घर के सामने कार देख चौक जाता है। मन में सोचता है कौन आया होगा। वैसे ही गांवों ने कार कहा ज्यादा देखी जाती हैं। कुछ सम्पन्न लोगों को छोड़कर। लेकिन ये कार दूर से ही चमचमा रही थी। रमेश सोच पड़ा में था। उसके किसी रिश्तेदार की तो होगी नही।
       वह अच्छे से जानता था कि सबकी हालत क्या है। साइकिल खरीदने के लिए तो उधार लेना पड़ता है। तो कार कौन लेकर आ सकता है उसके घर। एक तरफ  उसे डर था कि कही बैंक को लोग तो नही हैं। अभी से लोन के लिए परेशान करने आ रहे हैं। वो जल्दी से घर पहुंचना चाहता है, तभी ओ रमेश भइया का हाल चाल है। बस बढ़िया है भइया। हालचाल पूछने वाला कोई और नही गांव के अध्यापक महोदय थे।
        - '' भइया आपका लड़का पढ़ने में काफी तेज है। उसे आगे तक पढ़ाना ताकि गांव के साथ - साथ आप का नाम रोशन कर सके। ''
- '' जरूर भइया। चले भइया थोड़ा जल्दी म है घर पर कोई आवा अवैह।''
- '' ठीक है, पर हमार ई बात जरूर याद रखना।''
- '' ठीक है।''
        - '' अरे रमेश '' रामू काका की पुकार - '' मुखिया जी का लड़का आपका इंतजार कर रहा है। बहुत देर से आया हुआ है। जाओ जल्दी से।'' रमेश जैसे ही घर के पास पहुंचता है। जिस कार के बारे में वो सोच रहा था, जो उसके लिए रहस्य बना हुआ था उसका पर्दाफाश हो चुका था। वो चमचमाती नीले रंग की कार गांव के मुखिया की थी। अपने बेटे को जन्मदिन पर उपहार में दी थी।
        वही कार लेकर अपने दोस्तों के साथ वह घूमता था। और वही कार लेकर आज रमेश के घर पर आया था। मुखिया के लड़के का दोस्त कहता है। लो आ गए महराज। बड़ी देर से इंतजार था। प्रकट तो हो गए। मुखिया का लड़का कहता हैए रमेश भाई पिता जी ने भेजा है।
       - '' उधार में जो रूपया लिया था आज उसका एक महीना पूरा हो गया है। 10 टका ब्याज मिलाकर 22 हजार हो गया है।''
        रमेश तो हक्का बक्का रह गया। पैसे का इंतजाम वो कर नही पाया था। क्या जवाब दे वो। दबे मन से रमेश ने बोला - '' भइया कुछ दिन और दे दो।''
       तभी मुखिया के लड़के ने कहा - '' मूलधन नही तो ब्याज ही दे दो भाई।''
    - '' नही है भइया।'' रमेश ने अपनी घरैतिन से बात की। उसने जोड़.तोड़ के 500 रूपए बचा रखे थे। इज्जत को बचाते हुए उसने ये मुखिया के लड़के को पैसे दिए। 500 रूपए देख लड़के ने अकड़ कर कहा - '' भीख नही मांग रहा हूं। कर्जा मांग रहा हूं।''
       रमेश ने कहा साहब - '' अभी इतना ही है, अगले महीने धीरे - धीरे सारा चुका दूंगा। बड़े घराने के लड़के क्या जाने गरीबों का हाल। बस मुखिया जी ने कार खरीद दी और वसूली का काम पकड़ा दिया। वसूली करो और जेब खर्च चलाओं।'' रमेश का इतना कहना कि '' अगले महीने से सब ठीक हो जाएगा। '' उतने मे आग बबूला होकर कहा  - '' क्या अगले महीने तेरी लाटरी निकलने वाली है। अभी तो जा रहा हूं पर अगले महीने से कम से कम ब्याज का पैसा तो लेकर जाऊंगा।'' कार को उसने ऐसे मोड़ा जैसे किसी टैलेंट शो में अपना हुनर दिखा रहा हो।
       गाड़ी घूमी बड़ी तेजी से घूंऊऊऊऊ और एक दो तीन हो गई। रमेश वही काफी देर तक खड़ा रहा। सोच रहा था भगवान जिसे पैसा देते हो उसे थोड़ी सी इंसानियत भी दे दिया करो। 20 साल का लड़का आज इस तरीके से बात कर रहा था। रमेश की पत्नी ने कहा - '' क्या सोच रहे हो। चलो हाथ पैर धो लो, खाना लगा देती हूं। हम गरीबों की किस्मत में तो ये सब ऊपर से लिखा होता है। जी तोड़ मेहनत करो फिर भी खाने के लाले पड़े रहते है।'' इतना कहकर वह अंदर चली जाती है।
रमेश हाथ पैर धोकर वापस आता है। और खाने बैठ जाता है। दोनों आपस में बात करने लगते हैं। रमेश कहता है कि इस बार की अपनी फसल काफी अच्छी है। पूरा कर्जा खतम कर देबय। सूरज का साइकिल दिला देबय। मुखिया का भी और बैंक का भी लोन चुका देबय। बस कुछ दिनों की बात हैं। फसल पक रही है। बैंक से याद आया। कितना मुश्किल होता है लोन पास करवाना।'' रमेश अपनी घरैतिन को बता रहा है। बैंक वाले ने कितना दौड़ाया था।
       हर साल फसल की पैदावार ठीक से सिंचाई न होने से खराब हो जाती थी। रमेश जिसे लेकर काफी चिंतित रहता था। एक दिन वो बाजार गया हुआ था।
       वहां एक नुक्कड़ नाटक के जरिए सरकार खेती किसानी की जानकारी दी जा रही थी। कुछ सरकारी लोग वहां खड़े थे। रमेश भी देख रहा था। जब नाटक खत्म हो गया तो वो सरकारी अफसर से खेती के बारे में बात करना चाहता था।
       पर एक डर था उसके मन में पता नही क्या बोलेंगे। कही फटकार दिया तो भरे बाजार झेप जाएगे। फिर भी रहा न गया। आखिर हिम्मत कर के उसने उस सरकारी अफसर से बात कर ली।
रमेश - '' साहब एक सवाल हैए बुरा न मानों तो कहें ''
       सरकारी अफसर - '' बड़े प्यार से बुरा क्यों मानेगें, आप सबकी सहायता के लिए तो हम यहां आएं हैं। बताओं क्या जानना चाहते हो बेझिझक।''
       रमेश- '' साहब, हम खेती तो करते हैं ,फसल शुरू में सही रहती है। लेकिन बाद में पानी की कमी से पैदावार कम हो जाती है। साहब इ परेशानी बहुतय बड़ी है हमरे लिए। मेहनत से हम नही पीछे हटते। पर हर साल इस वजह से गच्चा खा जाते हैं। इय परेशानी हमरे नही करीब - करीब सारे गांव की हैं। नहर का जो पानी आता है उसे दबंग लोग जब तक अपनी खेतों की सिंचाई नही कर लियत हम गरीबों को नही दियत। जब हमार सबकय नम्बर आवत है तो नहरिया टूट जात है। मतलब पानी कम होइय जात है जो कि खेत तक नही पहुंच पावत है। साहब ईकय लिए कौनौं जानकारी हुअय तो बताइ दियव आप।''
       सरकारी अफसर- '' ये तो बहुत बड़ी परेशानी है कि नहर का पानी आप सबकों नही मिल पाता है। ज्यादा घबराने की जरूरत नही है रमेश, सरकार एक योजना चला रही है। बैक से लोन पास करा कर एक पंपिंगसेट खरीद लो और बोरिंग करा लोए मेहनत करो फसल अच्छी होगी तो बैंक का लोन चुका देना। इसके लिए अपनी किसान बही लेकर बैंक जाओं और दिखाकर लोन पास करा लो।''
        रमेश- '' धन्यवाद साहब जीए इतना कछु बतावय के लिए।''
       सरकारी अफसर - '' अरे ये तो मेरा काम है भाई। सरकारी स्कीम को किसानों तक पहुंचाना।''
       अब क्या था रमेश के मन में उस सरकारी अफसर की बात बैठ गई थी। जल्दी से सब्जी खरीदी और घर वापसी करने लगा। रास्ते भर बस यही बात सोच रहा था। जो सरकारी अफसर ने बताई थी।
घर पहुंचाते ही रमेश ने थैला अपनी पत्नी को पकड़ाया। और कहा आज वो बहुत खुश है। तभी आवाज आती है चिल्लाने की - '' सब्जी क्या लाए हो। जो कहा गया था वो नही लाए। घर में आलू एक भी नही है। और लाए भी नही हो। इतनी क्या खुशी बट रही थी। जो सिर्फ  प्याज और टमाटर भर ले आए हो। अब खाओ इसे कच्चे। खाना नही पकाऊंगी।''
       रमेश बुत की तरह चुप - चाप खड़ा सुन रहा था। सुने भी क्यों नही उसे इतनी खुशी थी सरकारी अफसर की बात से कि वह आलू की जगह प्याज भर ले आया था।
       अब उसके घर की गृहमंत्री नाराज थी। घर के गृहमंत्री पर आखिर किसका बस चलता है। ज्यादा बोल दो तो खाना नही बनेगा। रात में फिर तारे गिनने पड़ेगें। थोड़ी देर बाद जब रमेश की घरैतिन का गुस्सा शांत हुआ तो रमेश से पूछा कर बात थी।
       रमेश ने कहा- '' नाराज हुअय से पहले तो दुसरव की सुन लिया करव। माना कि हम आलू लाऊव भूल गइन रहय । लेकिन हुआ कुछ सरकारी अफसर खेती की जानकरिया दियत रहे। उनहिन का सुनत रहिन और फिर जल्दी -जल्दी मा भूल गइन।''
       रात में दोनों बात कर रहे थे, वही जो सरकारी अफसर ने कहा था। अब क्या था, रमेश का सपना पूरा होने वाला था। बस यही सपने देख कर वह उस रात ठीक से सो नही पाया था।
       सुबह उठते ही वह खेत की तरफ गया तो वहां सुखीराम से मुलाकात हुई। उसने बाजार वाली पूरी बात बताई। सुखीराम ने कहा - '' भइया अगर ऐसा होय जात तो बहुतय बढ़िया रहत।''
       - '' लेकिन भइया हमरे पास ज्यादा जमीन नही हवय सो हम का करब लोन लय के। रमेश भइया तुमहरे पास तो हवय तुम लय लियव। हमरो काम चल जाए। और कमाई का धंधा भी बन जाएगा।''
       - '' देखिथय सुखीराम भइया।''
       दूसरे दिन किसान बही लेकर रमेश बैंक जाता है। लोन के बारे में पता करता है। सारी जानकारी लेकर वापस आता है।
       तीसरे दिन सारे कागज लेकर घर से खुशी - खुशी निकलता है। जैसे आज ही सब कुछ काम कराकर पैसा लेकर आएगा। और कल सारा सामान खरीद कर काम शुरू करा देगा।
       बैंक पहुंचते ही रमेश ने मैनेजर से मिलना चाहा। लेकिन मैनेजर साहब बिना काम के व्यस्त थे। तीन - चार घण्टे के लम्बे इंतजार के बाद रमेश का नम्बर आया।
       रमेश ने बैंक मैनेजर के पूरे कागज दिखाए। और कहा - '' साहब लोन चाहिए।''
       बैंक मैनेजर उसे ऊपर से नीचे तक देखता रहा। और बोला - '' कितना चाहिए।''
       रमेश ने - '' कहा साहब 50 हजार लोन कर दियव।''
       बैंक मैनेजर - '' चलो कल आना।''
       रमेश उठा और चलता बना। बाहर आकर सोचा कल क्यों बुलाया है।
       दूसरे दिन रमेश फिर बैंक पहुंचा, फिर से वही फरमान।
       अब लगातार वह बैंक जाता रहा और वही फरमान सुनता रहा।
       एक दिन उसने पूछा - '' साहब कितना दौड़ाओंगे, लोन काहे पास नही कर रहे हो।''
       बैंक मैनेजर - '' रमेश तुम्हारे कागज तो सही हैं पर हमें जो कागज मिलना चाहिए वो नही हैं।''
       नादान रमेश मैनेजर की बात को नही समझ सका। और फिर फरमान सुन वापस आ जाता है। धीरे.धीरे इस बात को महीने बीतने वाले हैं। रात को सारी बात उसने अपनी पत्नी को बताई।उसकी पत्नी को सारी बात समझ में आ गई। उसने कहा - '' मैनेजर पैसा मांग रहा है। हमें इसलिए आजकल लगा रखा है।''
       अगले दिन रमेश फिर बैंक पहुंचा। तो चपरासी ने कहा - '' फिर आ गए। लोन ऐसे पास नही होता। कुछ पाने के लिए कुछ खोना पड़ता हैं। नही तो चक्कर लगाते रहो।''
       रमेश अब पूरी तरह समझ चुका था कि पैसे देने पड़ेगे।
       मैनेजर रमेश को देखते ही मिलने से मना कर दिया था। रमेश ने जैसे - तैसे मिलने का एक मौका खोज लिया। रमेश -'' साहब हमें समझ आ गया।''
       बैंक मैनेजर - '' चलो देर से ही पर अकल तो आई।''
       रमेश - '' साहब लोन पास करने में कितने रूपए देने पड़ेगें।''
       बैंक मैनेजर - '' 50 हजार का लोन है तो 15 हजार देना पड़ेगा।''
       रमेश - '' साहब गरीब हैं इतना नही दे पाएगें।''
       बैंक मैनेजर - '' देखो रमेश ये तो बहुत कम है। नही तो लोग आधा लेते हैं। हम तो फिर भी 15 ही मांग रहे हैं। सोच लो आज ही पास कर दूंगा। वरना एक हफ्ते की छुट्टी पर जा रहा हूं।''
       रमेश ने कहा- '' ठीक है साहब कर दो पास।'' फटाफट दस्खत किए गए पेपर पर और 50 हजार रमेश को दिए गए। जिसमें से 15 हजार काट लिए गए।
       रमेश उस पैसे को लेकर घर आता है। और पत्नी से कहता है कि 50 में से 35 हजार मिले 15 हजार बैंक मैनेजर ने ले लिया। सरकारी स्कीम के बावजूद ये हाल है बैंकों का। अगले दिन से बोरिंग का काम शुरू करा देता है। बोर होने के बाद पम्पिंग सेट खरीदता है। रूपए तो कम पड़ गए थे। तो रमेश पत्नी के गहने के सुनार के यहां गिरवी रख देता है।
       अब अपनी फसल को रमेश पानी ठीक तरीके से दे पा रहा था। और दूसरों के खेत में पानी लगाने के लिए उसने उसे कारोबार बना लिया। जिससे उसने पत्नी के गहने तो गिरवी से छुड़ा लिए थे। लेकिन गांव के लोगों के पास स्कीम पहुंचते ही सबने रमेश की तरह लोन पास करवा कर अपना खुद का बोर और पम्पिंग सेट खरीद लिया।
       रमेश का व्यापार थम सा गया बस अपने काम के लिए रह गया था। साग सब्जी का खर्च जो उससे निकल आता था वह भी बंद हो गया।
       रमेश ये सारी बातें अपनी अर्धागिंनी को बता रहा था। कि स्कूल से सूरज वापस आता है। रमेश के गले लगकर कहता है, पिता जी आज मैं बड़ा खुश हूं। रमेश क्यों भाई क्या हो गया। हेड़ मास्टर ने सबके सामने मुझे शाबासी दी। स्कूल में अधिकारी लोग आए थे। वो मेरी कक्षा में आए और कविता सुनाने को कहा था। मैने झट से उठकर कविता सुना दी। रमेश कौन सी सुनाई थी।
       अरे आप को नही पता जो आप रोज गातें हैं। रमेश अंजान बनकर कौन सी है जरा हमें भी तो सुना दो।
सूरज ठीक है सुनाता हूं। अब बन जा बे हम भी तौ सेठ कर्जा चुकाइ देबए कर्जा चुकाइ देब, रंग लाई है मेहनत, लहराइ रहा खेत, कर्जा चुकाइ देब, कर्जा चुकाइ देब।
       रमेश -वाह क्या बात है सूरज।
       सूरज - पिता जी स्कूल बहुत दूर है, आने जाने में समय भी लगता है और मै थक भी जाता हूं।
       रमेश - बस कुछ दिन की बात है बेटा। फसल कटते ही साइकिल दिला दूंगा। सूरज खेलने चला जाता है।
       रमेश अपनी पत्नी से कहता है - अरे सुखीराम भी मिला था। हमने फसल की सिचांई में उसकी मद्द की थी। उसकी भी फसल काफी अच्छी है। काफी खुश था। लेकिन उस बेचारे ने भी 20 हजार खेती के उधार लिए हैं। और 15 हजार बैंक का पिछला बाकी है। बेचारा हमेशा दुखी रहता है।
      खाने के लाले पड़ जाते हैं उसके। इस बार फसल अच्छी है वो भी अपना कर्जा चुका देगा। पिछली बार तो गल्ला मण्डी में खुले में उसका अनाज पड़ा रहा। और बारिश में भीग गया था। जिसे फिर मण्डी में खरीदा भी नही गया।
       वह दर दर भटकता रहा। अनाज कही नही खरीदा गया। सारा अनाज सड़ चुका था। सुखीराम जिसे बेचकर अपना कर्जा उतारना चाहता था वो तो हुआ नही। ब्लकि खाने के लिए खरीदना पड़ रहा था। किस्मत की मार तो देखो।
       रमेश की पत्नी ने कहा होनी को कौन टाल सकता है। इस बात को दो तीन दिन बीत गए थे। रमेश तीन दिन से खेत नही गया। उसकी तबियत खराब है। सूरज खेत देखकर चला आता है। दोपहर को एक आवाज आती है। रमेश भइया ओ रमेश भइया। रमेश बाहर जाता है तो देखता है सुखीराम होता है। का बात है भइया आजकल खेत नही आवत हो।
       रमेश- अरे भइया दो - तीन दिन से तगड़ा बुखार था। इसलिए नही जात रहिन। सूरज का भेज दियत रहिन देख आवत रहा।
       सुखीराम - भइया अगल - बगल के फसल कट गई है। अपनव फसलिया पक गई है, लोग मशीन से कटवाय रहे। हम सोच रहिन अपनव फसल मशीन से कटवाय लिया जाए। मौसम का कौनौ भरोसा नही ना।
रमेश - हां काहे नही, बस थोड़ा तबियत सही होय जाय।
       - ठीक है भइया, तो दोइ दिन बाद मशीन आए तो फसल कटा दिया जाए। अच्छा भइया जयराम। जयराम सुखीराम।
        रात का खाना खाकर रमेश सोया हुआ था। हजारों ख्वाइशें लेकर नींद से सोया रमेश की आंख अचानक तेज आवाज से खुलती है। वह चौंक जाता हैं। बाहर आकर देखता है तो उसके पैरों को तले की जमीन खिसक जाती है। वह एक बुत की तरह खड़ा रहता है।
       उसकी पत्नी उसके पीछे खड़ी है। आधी रात में उसके आँखों से आंसू छलक रहे थे। उसे सुखीराम की इक बात याद आती है। मौसम का कौनौ भरोसा नही ना।
       ये तेज आवाज पानी बरसने के साथ तेज हवा की थी। साथ में ओले भी गिर रहे थे। बस रमेश के दिल में अपने खेत के बारे में चिंता सता रही थी। आखिर लहराती फसल जिसे वह एक हफ्ते पहले करीब देखा था। वो बर्बाद हो रही थी।
       उसकी पत्नी भगवान को मनाने में लगे थी। बारिश को बंद कर तो प्रभु। पर भगवान भी जैसे किसी जिद पर अड़े थे। बारिश रूकने का नाम नही ले रही थी।
      चार घण्टे लगातार बारिश और ओले के बाद भगवान को थोड़ी दया आई। सुबह करीब 6 बजे बारिश तो कम हो गई थी। पर हवा चल रही थी। सभी किसान सुबह होते ही खेत की तरफ  भागते नजर आए।
रमेश भी खराब तबियत में अपनी फसल देखने भागता हुआ खेत पहुंचा। वहां खड़े किसानों के दिल से खून के आंसू गिर रहे थे। जो तन मन धन से फसल उगाने में मेहनत की थी सारी एक दिन के अंदर चौपट हो चुकी थी।
रमेश अपने खेत के पास पहुंचता है। फसल की हालत देखकर वही गिर पड़ता है। कल तक जो फसल लहरा रही थी। आज वो पानी में तैर रही थी।
      सुखीराम भी वही था। रमेश को सभांलते हुए घर लेकर आता है। उसकी हालत काफी खराब होती है। बस एक ही बात कह रहा था। बर्बाद हो गइन, बर्बाद हो गइन।
       बुखार भी तेज हो गया था। डॉक्टर को बुलाया गया। दवा देकर डॉक्टर चला गया और कहा रमेश का ख्याल रखना। काफी आघात दिल पर लगा है।
       उस रात रमेश सो नही पा रहा था। बस बैंक के लोन कैसे चुकाऊंगा। मुखिया का कर्जा कैसे दूंगा। सूरज के लिए वादा किया था। साइकिल लाने का वो कहा से लाऊंगा। जिस फसल पर नाज था वो तो अब रही नही।
दूसरे दिन लोगों में ख़बरे आ रही थी। फसल खराब और कर्जा होने से फलाने ने आत्महत्या कर ली है। रमेश के दिल में ये बाद बैठती जा रही थी। मुखिया के बेटे का अल्टीमेटम भी मिल चुका था। बैंक लोन की भी वसूली होने वाली थी। दिन.रात बस यही सोचता रहा। आखिर करे तो क्या।
       उस रात रमेश के सब्र की आखिरी रात थी। उसने सबके सो जाने के बाद वही काम किया जिसका डर था। बाहर गया रस्सी उठाई और कमरे में फंदा बनाया। खुदकुशी के पूरे विचार से वो आगे बढ़ता रहा। उसने फंदे को तैयार कर लिया था।
       बस देर थी गले में पहनने की। बिना सोच विचार के कि मेरे जाने के बाद इस परिवार पर क्या गुजरेगी। जो कर्जा लिया उसके लिए ये कितना परेशान होगें।
       गले में फंदा जैसे ही डाला, एक बिल्ली ने सारा प्लान चौपट कर दिया। दूध रखे बर्तन को गिरा दिया। जिससे सूरज की आंख खुल गई थी।
       वो अंधेरे मे देखता हुआ पहुंचा तो सामने अपने पिता को फंदे पर देखता हुआ जोर से चिल्लाया - पिता जी ये क्या कर रहे हैं। मां देखों पापा को। फांसी लगा रहे हैं। रमेश की पत्नी नींद से उठकर भागती हुई वहा पहुंची।
तभी सूरज अपने पिता से कह रहा था, पिता जी हमे साइकिल नहीं चाहिए। हम पैदल रोज स्कूल जाएगें। हम पढ़ाई भी छोड़ देगें। कर्जा चुकाने के लिए कंमाएगें। आप पिता जी परेशान मत हो। ऐसा काम मत करो। उधर रमेश की पत्नी बिलखती रोती कहती है। आप तो फांसी लगा लोगे पर हमारा क्या होगा। कभी सोचा है, हमें लोग कितना परेशान करेंगे। मुखिया का लड़का और बैंक वाले हमारा जीना हराम कर देगें। आप तो चले जाएगें। मुझे अपनी परवाह नही है मैं भी जान दे सकती हूं। पर सूरज का ख्याल है दिल मे। जो हमारा आंखों का तारा है। हम भी आप के साथ मजदूरी करेंगे। और कर्जा चुका देगें।
        रमेश के आखों में आसूं बहते जा रहे थे। आज वह अपने आप को काफी नीचा महसूस कर रहा था। सोच रहा था कि मैने कितना गलत कदम उठा लिया था। लोग मेरे परिवार पर हसंते। और परेशान करते। मै मेहनत मजदूरी करूंगा। सारा कर्जा चुकाऊंगा। जीवन एक बार ही मिलता है। पर आज मुझे दोबारा से मिला जिसका फायदा उठाऊंगा।
       धीरे - धीरे रमेश के खुदकुशी के प्रयास की बात आग की तरह आग में फैल गई थी। लोग रमेश के घर आने लगे थे। उसे समझाने। सुखीराम भी आया था। उसने कहा कि भइया मुझे देखों हर बार किस्मत लेकर रोता हूं। पर जीता हूं कमजोर नही हूं कि खुदकुशी कर लूं।
       आप भी कमजोर मत बनों। इस बार नही तो अगली बार। खेती तो जुए का खेल है। इस बार रोज कमाएगें। और मजदूरी कर कर्जा भी चुकाएगे। मेहनत से क्या डरना।
       रमेश की आंख में आंसू थे। वो वही सुखीराम है जिसे नाम के अनुसार कभी सुख नही मिला। फिर भी कितना खुश है।
       तभी दूर से गांव के मुखिया जी आते दिखाई दिए। उन्हें भी ये खबर पता चल चुकी थी। रमेश ने मुखिया को आते देखा तो सोचा ये देखो कर्जा वसूलने वाले रहे हैं।
       मुखिया - का रे रमेशवा, इ का सुन रहिन है तू फांसी लगा रहा था। अबे फसल बर्बाद हुई है और तू अपना परिवार बर्बाद कर रहा है। फसल का तुमहरी ही खराब हुई बहुतन की खराब भय, सब फांसी लगा लेहियव तो खेती किसानी कौन करे। पूरे गांव की फसल खराब हुई है। सुखीराम को देखो दो साल से मेहनत मजदूरी कर कर्जा चुकाय रहा और परिवार का पेट भी पाल रहा है। तोहसे य उम्मीद नही थी। अपने बीबी और बच्चे का ख्याल तो कर लो।
       रमेश झट से उठता है और मुखिया के पैर पकड़कर माफी मांगता है। और कहता है हम मेहनत और ज्यादा करके आप का कर्जा चुका देबय।
       मुखिया - अरे नहीं पहले तू बैंक का लोन भर दिया। हमरे कर्जा की चिंता न करा। जब होगा तो दे देना वो भी बिना ब्याज के। उस दिन मेरा लड़का तुहरे हियासे कर्जा वसूल को लौटा रहा था। तो कार का एक्सीडेंट हो गया। जिसमें मेरा लड़का अब चल नही सकता। बहुत हो गया।
       सूत का पैसा हमने सबके सूत मांफ कर दिए है। जब जिकरे पास होगा। हमरा मूलधन वापस कर दे बस। इतना कहकर मुखिया वहां से चलते बने।
       रमेश मन में सोच रहा था। कितनी बड़ी गलती की थी उसने। सूरज की तरफ  देखकर कहता है - वाह पुततर तुने तो मुझे दुसरी जिंदगी दी है। इस बार साइकिल तो तोहरे लिए हम लाएंगे चाहे जितनी मेहनत करनी पड़े। और बैंक का लोन भी।
       सुखीराम की तरफ देखते हुए कहता हैं - किस्मत में जो नहीं, उस पर काहे का खेद, ए रंग लाएगी मेहनत। लहराइगा खेत, कर्जा चुकाइ देब, कर्जा चुकाइ देब।
       दोनो हंसने लगे। रमेश को अपनी गलती का ऐहसास हो चुका था।

जेल

मुंशी प्रेमचंद

          मृदुला मैजिस्ट्रेट के इजलास से जनाने जेल में वापस आयी, तो उसका मुख प्रसन्न था। बरी हो जाने की गुलाबी आशा उसके कपोलों पर चमक रही थी। उसे देखते ही राजनैतिक कैदियों के एक गिरोह ने घेर लिया और पूछने लगीं - कितने दिन की हुई?
          मृदुला ने विजय - गर्व से कहा - मैंने तो साफ. साफ  कह दिया, मैंने धरना नहीं दिया। यों आप जबर्दस्त हैं, जो फैसला चाहें, करें। न मैंने किसी को रोका न पकड़ा, न धक्का दिया, न किसी से आरजू - मिन्नत ही की। कोई गाहक मेरे सामने आया ही नहीं। हॉँ, मैं दूकान पर खड़ी जरूर थीं। वहॉ कई वालंटियर गिरफ्तार हो गये थे। जनता जामा हो गयी थी, मैं भी खड़ी हो गयी। बस, थानेदार ने आ कर मुझे पकड़ लिया।
क्षमादेवी कुछ कानून जानती थीं। बोलीं - मैजिस्ट्रेट पुलिस के बयान पर फैसला करेगा। मैं ऐसे कितने ही मुकदमे देख चुकी।
          मृदुला ने प्रतिवाद किया - पुलिसवालों को मैंने ऐसा रगड़ा कि वह भी याद करेंगे। मैं मुकदमे की कार्रवाई में भाग न लेना चाहती थी, लेकिन जब मैंने उनके गवाहों को सरासर झूठ बोलते देखा तो मुझसे जब्त न हो सका। मैंने उनसे जिरह करनी शुरू की। मैंने भी इतने दिनों घास नहीं खोदी है। थोड़ा -सा कानून जानती हूं, पुलिस ने समझा होगा, यह कुछ बाेलेगी तो है नहीं, हम जो बयान चाहेंगे, देंगे। जब मैंने जिरह शुरू की, तो सब बगलें झाँकने लगे। मैंने तीनों गवाहों को झूठा साबित कर दिया। उस समय जाने कैसे मुझे चोट सूझती गई। मैजिस्ट्रेट ने थानेदार को दो तीन बार फटकार भी बतायी। वह मेरे प्रश्नों का ऊल - जलूल जवाब देता था, तो मैजिस्ट्रेट बोल उठता था - वह जो कुछ पूछती हैं, उसका जवाब दो। फजूल की बातें क्यों करते हो। तब मियाँ जी का मुँह जरा - सा निकल आता था। मैंने सबों का मूँह बंद कर दिया। अभी साहब ने फैसला तो नहीं सुनाया, लेकिन मुझे विश्वास है, बरी हो जाऊँगी। मैं जेल से नहीं डरती। लेकिन बेवकूफ  भी नहीं बनना चाहती। वहाँ हमारे मंत्री जी भी थे और बहुत - सी बहनें थीं। सब यही कहती थी, तुम छूट जाओगी।
          महिला उसे द्वेष - भरी आंखों से देखती हुई चली गयी। उनमें किसी की मियाद साल - भर की थीं, किसी की छह मास की। उन्होंने अदालत के सामने जबान ही न खोली थीं। उनकी नीति में यह अधर्म से कम न था। मृदुल पुलिस से जिरह करके उनकी नजरों में गिर गयी थी। सजा हो जाने पर उसका व्यवहार क्षम्य हो सकता था, लेकिन बरी हो जाने में तो उसका कुछ प्रायश्चित ही न था।
          दूर जा एक देवी ने कहा -  इस तरह तो हम लोग भी छूट जाते। हमें तो यह दिखाना है, नौकरशाही से हमें न्याय की कोई आशा ही नहीं।
          दूसरी महिला बोली - यह तो क्षमा माँग लेने के बराबर है। गयी तो थी धरना देने, नहीं दुकान पर जाने का काम ही क्या था। वालंटियर गिरफ्तार हुए थे आपकी बला से। आप वहॉँ क्यों गयी। मगर अब कहती है, मैं धरना देने गयी ही नहीं। यह क्षमा माँगना हुआ, साफ !
         तीसरी देवी मुंह बनाकर बोली - जेल में रहने के लिए बड़ा कलेजा चाहिए। उस वक्त तो वाह - वाह लूटने के लिए आ गयीं, अब रोना आ रहा है ऐसी स्त्रियों को तो राष्ट्रीय कामों के नजीक ही न आना चाहिए। आंदोलन को बदनाम करने से क्या फायदा।
          केवल क्षमादेवी अब तक मृदुला के पास चिंता में डूबी खड़ी थीं। उन्होंने एक उद्दंड व्याख्यान देने के अपराध में साल - भर की सजा पायी थीं दूसरे जिले से एक महीना हुआ यहाँ आयी थीं। अभी मियाद पूरी होने में आठ महीने बाकी थे। यहाँ की पंद्रह कैदियों में किसी से उनका दिल न मिलता था। जरा - जरा सी बातों के लिए उनका आपस में झगड़ना, बनाव - सिंगर की चीजों के लिये लेडीवार्डरों की खुशामदें करना,घरवालों से मिलने के लिए व्यग्रता दिखलाना उसे पंसद न था। वही कुत्सा और कनफुसकियॉ जेल के भीतर भी थी। वह आत्माभिमान, जो उसके विचार में एक पोलिटिकल कैदी में होना चाहिए, किसी में भी न था। क्षमा उन सबों से दूर रहती थी। उसके जाति - प्रेम का वारापार न था। इस रंग में पगी हुई थी, पर अन्य देवियॉं उसे घमंडिन समझती थीं और उपेक्षा का जवाब उपेक्षा से देती थीं। मृदुला को हिरासत में आये आठ दिन हुए थे। इतने ही दिनों में क्षमा को उससे विशेष स्नेह हो गया था। मृदुल में वह संकीर्णत और ईर्ष्या न थी, न निन्दा करने की आदत न श्रृंगार की धुन, न भद्दी दिल्लगी का शौक। उसके हृदय में करूणा थी, सेवा का भाव था। देश का अनुराग था। क्षमा न सोचा था। इसके साथ छह महीने आनन्द से कट जायेगें लेकिन दुर्भाग्य यहाँ भी उसके पीछे पड़ा हुआ था। कल मृदृल यहाँ से चली जाएगी। फिर अकेली हो जाएगी। यहॉँ ऐसा कौन है, जिसके साथ घड़ी भर बैठकर अपना दु:ख - दर्द सुनायेगी, देश चर्चा करेगी या यहॉ तो सभी के मिजाज आसमान पर हैं।
मृदुला ने पूछा - तुम्हें तो अभी आठ महीने बाकी है, बहन!
          क्षमा ने हसरत के साथ कहा - किसी न किसी तरह कट ही जाएँगे बहन! पर तुम्हारी याद बराबर सताती रहेगी। इसी एक सप्ताह के अन्दर तुमने मुझ पर न जाने क्या जादू कर दिया। जब से तुम आयी हो, मुझे जेल,जेल मालूम न होता था। कभी - कभी मिलती रहना।
          मृदुला ने देखा - क्षमा की आंखे डबडबायी हुई थीं। ढाढ़सा देती हुई बोली - जरूर मिलूंगी दीदी ! मुझसे तो खुद न रहा जाएगा। भान को भी लाऊँगीं। कहूँगी - चल, तेरी मौसी आयी है, तुझे बुला रही है। दौड़ा हुआ आयेगा। अब तुमसे आज कहती हूँ बहन, मुझे यहाँ किसी की याद थी, तो भान की। बेचरा - रोया करता होगा। मुझे देखकर रूठ जायेगा। तुम कहाँ चलीं गयी? मुझे छोड़कर क्यों चली गयी? जाओ, मैं तुमसे नहीं बोलता। तुम मेरे घर से निकल जाओ। बड़ा शैतान है बहन! छन भर निचला नहीं बैठता। सवेरे उठते ही गाता है् झन्ना ऊँता लये अमाला, छोलाज का मन्दिर देल में है। जब एक झंडी कन्धे पर रखकर कहता है। ताली छलाब पानी हलाम है तो देखते ही बनता है। बाप को तो कहता है - तुम गुलाम हो। वह एक अँगरेजी कम्पनी में है। बार - बार इस्तीफा देने का विचार करके रह जाते हैं। लेकिन गुजर - बसर के लिए कोई उद्यम करना ही पड़ेगा। कैसे छोड़े। वह तो छोड़ बैठे होते। तुमसे सच कहती हूँ, गुलामी से उन्हें घृणा है। लेकिन मैं ही समझाती रहती हूँ, बेचारे कैसे दफ्तर जाते होंगे। कैसे भान को सॅभालते होंगे। सास जी के पास तो रहता ही नहीं। वह बेचारी बुढ़ी, उसके साथ कहॉँ - कहाँ दौड़ें! चाहती है कि मेरी गोद में दबक कर बैठा रहे। और भान को गोद से चिढ़ है। अम्माँ मुझ पर बहुत बिगड़ेगी। बस यही डर लग रहा है। मुझे देखने एक बार भी नहीं आयें। कल अदालत में बाबू जी मुझसे कहते थे, तुमसे बहुत खफा है। तीन दिन तक तो दाना - पानी छोड़े रहीं। इस छोकरी ने कुल- मरजाद डूबा दी। खानदान में दाग लगा दिया। कलमुँही। न जाने क्या - क्या बकती रहीं। मैं उनकी बातो को बुरा नहीं मानती। पुराने जमाने की हैं। उन्हें कोई चाहे कि आकर इन लोगों में मिल जाएँ तो उसका अन्यय है। चल कर मनाना पड़ेगा। बड़ी मिन्नतों से मानेंगी। कल ही कथा होगी, देख लेना। ब्राह्राण खायेंगे। बिरादरी जमा होगी। जेल प्रायश्चित तो करना ही पड़ेगा। तुम हमारे घर दो - चार दिन रह कर देखना तब जानोगी बहन! मैं आकर तुम्हें ले जाऊँगी।
          क्षमा आनन्द के इन प्रसंगो से वंचित है। विधवा है, अकेली है। जलियानवाला बाग में उसका सर्वस्व लुट चुका है। पति और पुत्र दोनों ही की आहुति जा चुकी है। अब कोई ऐसा नहीं, जिसे वह अपना कह सके। अभी उसका हृदय इतना विशाल नहीं हुआ है कि प्राणी मात्र को अपना समझ सके। इन दस बरसों से उसका व्यथित हृदय जाति सेवा में धैर्य और शांति खोज रहा हैं जिन कारणें ने उसके बसे हुए घर को उजाड़ दिया, उसकी गोद सूनी कर दी। उन कारणों का अन्त करने उनको मिटाने, में वह जी - जान से लगी हुई थीं। बड़े - से - बड़े बलिदान तो वह पहले ही कर चुकी थी। अब अपने हृदय के सिवाय उसके पास होम करने को और क्या रह गया था? औरों के लिए जाति - सेवा सभ्यता का एक संस्कार हो, या यशोपार्जन का एक साधन। क्षमा के लिए तो यह तपस्या थी और वह नारीत्व की सारी शक्ति और श्रद्धा के साथ उसी साधना में लगी हुई थी। लेकिन आकाश में उड़ने वाले पक्षी को भी तो अपने बसेरे की याद आती ही है। क्षमा के लिए वह आश्रय कहाँ था? यही वह अवसर थे, जब क्षमा भी आत्म - संमवेदना के लिए आकुल हो जाती थी। यहॉँ मृदुल को पाकर वह अपने को धन्य मान रही थी,पर यह छाँह भी इतनी जल्दी हट गयी!
          क्षमा ने व्यथित कंठ से कहा - यहाँ से जाकर भूल जाओगी मृदुला। तुम्हारे लिए तो रेलगाड़ी का परिचय है और मेरे लिए तुम्हारे वादे उसी परिचय के वादे हैं। कभी भेंट हो जाएगी तो या तो पहचानोगी ही नहीं या जरा मुस्कराकर नमस्ते करती हुई अपनी राह चली जाओगी। यही दुनिया का दस्तूर है। अपने रोने से छुट्टी ही नहीं मिलती, दूसरों के लिए कोई क्यों कर रोये। तुम्हारे लिए तो मैं कुछ नहीं थी। मेरे लिए तुम बहुत अच्छी थी। मगर अपने प्रियजनों में बैठकर कभी - कभी इस अभागिनी को जरूर याद कर लिया करना। भिखारी के लिए चुटकी भर आटा ही बहुत है।
          दूसरे दिन मैजिस्ट्रेट ने फैसला सुना दिया। मृदुल बरी हो गयी। संध्या समय वह सब बहनों से गले मिलकर रोकर - रुलाकर चली गयी। मानो मैके से विदा हुई हो।
2
          तीन महिने बीत गये। पर मृदुल एक बार भी न आयी। और कैदियों से मिलने वाले आते रहते थे किसी - किसी के घर से खाने - पीने की चीजें और सौगाते आ जाती थी लेकिन क्षमा का पूछने वाला कौन बैठा था? हर महिने के अन्तिम रविवार को प्रात: काल से ही मृदुल की बाट जोहने लगती। जब मुलाकात का समय निकल जाता, तो जरा देर रोकर मन को समझा लेती - जमाने का यही दस्तूर है।
          एक दिन शाम को क्षमा संध्या करके उठी थी कि देखा - मृदुला सामने चली आ रही है। न वह रूप - रंग है, न वह कांति। दौड़कर उसके गले से लिपट गयी ओर रोती हुई बोली - यह तेरी क्या दशा है मृदुला! सूरत ही बदल गयी। क्या, बीमार है क्या?
          मृदुला की आँखों से आँसुओं की झाड़ी लगी थी। बोली- बीमार तो नहीं हूँ बहन, विपत्ति से बिंधी हुई हूँ। तुम मुझे खूब कोस रही होगी। उन सारी निठुराइयों का प्रायश्चित करने आयी हूँ। और सब चिंताओं से मुक्त होकर आया हूँ।
          क्षमा काँप उठी। अंतस्तल की गहराइयों से एक लहर - सी उठती हुई जान पड़ी। जिसमें उनका अपना अतीत जीवन टूटी हुई नौकाओं की भांति उतराता हुआ दिखायी दिया। रूँधे हुए कंठ से बोली - कुशल तो है बहन, इतनी जल्दी तुम यहाँ फिर क्यों आ गयीं? अभी तो तीन महीने भी नहीं हुए।
          मृदुल मुस्कराई पर उसकी मुस्कराहट में रुदन छिपा हुआ था। फिर बोली - अब सब कुशल है। बहन, सदा के लिए कुशल है। कोई चिंता ही नहीं रही। अब यहॉँ जीवन पर्यन्त रहने को तैयार हूँ। तुम्हारे स्नेह और कृपा का मूल्य अब समझ रही हूँ।
          उसने एक ठंडी साँस ली और सजल नेत्रों से बोली - तुम्हें बाहर की खबरे क्या मिली होंगी! परसों शहरों मे गोलियों चली। देहातों में आजकल संगीनों की नोक पर लगान वसूल किया जा रहा है। किसानों के पास रूपये हैं नहीं, दें तो कहाँ से दें। अनाज का भाव दिन - दिन गिरता जाता है। पौने दो रूपये में मन भर गेहूँ आता है। मेरी उम्र ही अभी क्या है, अम्माँ जी भी कहती है कि अनाज इतना सस्ता कभी नहीं था। खेत की उपज से बीजों तक के दाम नहीं आते। मेहनत और सिंचाई इसके ऊपर। गरीब किसान लगान कहाँ से दें? उस पर सरकार का हुक्म है कि लगान कड़ाई के साथ वसूल किया जाए। किसान इस पर भी राजी हैं कि हमारी जमा - जथा नीलाम कर लो, घर कुर्क कर लो, अपन जमीन ले लो, मगर यहाँ तो अधिकारियों को अपनी कारगुजारी दिखाने की फिक्र पड़ी हुई है। वह चाहे प्रजा को चक्की में पीस ही क्यों न डाले। सरकार उन्हें मना न करेगी। मैंने सुना है कि वह उलटे और शाह देती है। सरकार को तो अपने कर से मतलब हैं प्रजा मरे या जिये, उससे कोई प्रयोजन नहीं। जमींनदारों ने तो लगान वसूल करने से इन्कार कर दिया है। अब पुलिस उनकी मदद पर भेजी गयी है। भैरोगंज का सारा इलाका लूटा जा रहा है। मरता क्या न करता, किसान भी घर - बार छोड़ - छोड़कर भागे जा रहे हैं। एक किसान के घर में घूसकर कई कांस्टेबलों ने उसे पीटना शुरू किया। बेचारा बैठा मार खाता रहा। उसकी स्त्री से न रहा गया। शामत की मारी कांस्टेबलों को कुवचन कहने लगी। बस, एक सिपाही ने उसे नंगा कर दिया। क्या कहूँ बहन, कहते शर्म आती है। हमारा ही भाई इतनी निर्दयता करें। इससे ज्यादा दु:ख और लज्जा की और क्या बात होगी? किसान से जब्त न हुआ। कभी पेट भर गरीबों को खाने को तो मिलता ही नहीं। इस पर इतना कठोर परिश्रम, न देह में बल है, न दिल में हिम्मत। पर मनुष्य का हृदय ही तो ठहरा। बेचारा बेदम पड़ा हुआ था। स्त्री का चिल्लाना सुनकर उठ बैठा और उस दुष्ट सिपाही को धक्का देकर जमीन पर गिरा दिया। फिर दोनों में कुश्तम - कुश्ती होने लगी। एक किसान किसी पुलिस के आदमी के साथ इतनी बेअदबी करे, इसे भला वह कहीं बर्दास्त कर सकती है। सब कांस्टेबलों ने गरीब को इतना मारा कि वह मर गया।
क्षमा ने कहा - गॉँव के और लोग तमाशा देखते रहे होंगे?
        मृदुल तीव्र कंठ से बोली- बहन, प्रजा की तो हर तरह से मरन हैं अगर दस- बीस आदमी जमा हो जाते, तो पुलिस कहती- हमसे लड़ने आये हैं। डंड़े चलाने शुरू करती और अगर कोई आदमी क्रोध में आकर एकाध कंकड़ फेंक देता, तो गोलियाँ चला देती। दस - बीस आदमी भुन जाते। इसलिए लोग जमा नहीं होते। लेकिन जब वह किसान मर गया तो गाँव वालो को तैश आ गया। लाठियाँ ले - लेकर दौड़ पड़े और कांस्टेबलों को घेर लिया। सम्भव है दो - चार आदमियों ने लाठियॉँ चलायी भी हो। कांस्टेबलों ने गोलियाँ चलानी शुरू की। दो - तीन सिपाहियों को हल्की चोटे आयी। उसके बदले में बारह आदमियों की जानें ले ली गयी और कितनों ही के अंगभंग कर दिये गये इन छोटे - छोटे आदमियों को इसलिए तो इतने अधिकार दिये गये हैं कि उनका दुरुपयोग करें। आधे गॉँव का कत्लेआम करके पुलिस विजय के नगाड़े बजाती हुई लौट गयी। गाँव वालो की फरियाद कौन सुनता! गरीब है, अपंग है, जितने आदमियों को चाहो, मार डालो। अदालत और हाकिमों से तो उन्होने न्याय की आशा करना ही छोड़ दिया। आखिर सरकार ही ने तो कांस्टेबलों को यह मुहिम सर करने के लिए भेजा था। वह किसानों की फरियाद क्यों सुनने लगी। मगर आदमी का दिल फरियाद करने किये बगैर नहीं मानता। गांव वालों ने अपने शहरों के भाइयों से फरियाद करने का निश्चय किया। जनता और कुछ नहीं कर सकती। हमदर्दी तो करती है। दु:ख - कथा सुनकर आंसू तो बहाती है। दुखियारों को हमदर्दी के आंसू भी कम प्यारे नहीं होते। अगर आस - पास के गँवो के लोग जमा होकर उनके साथ रो लेते तो गरीबों के आँसू पूछ जाते। किन्तु पुलिस ने उस गॉँव की नाकेबंदी कर रखी थी। चारो सीमाओं पर पहरे बिठा दिये गये थे। यह घाव पर नमक था मारते भी हो और रोने भी नहीं देते। आखिर लोगों ने लाशे उठायीं और शहर वालों को अपनी विपत्ति की कथा सुनाने चले। इस हंगामे की खबर पहले ही शहर में पहुँच गयी थी। इन लाशों को देखकर जनता उत्तेजित हो गयी और जब पुलिस के अध्यक्ष ने इन लाशों का जुलूस निकालने की अनुमति न दी, तो लोग और भी झल्लायें। बहुत बड़ा जमाव हो गया। मेरे बाबूजी भी इसी दल में थे। और मैंने उन्हें रोका। मत जाओ, आज का रंग अच्छा नहीं है। तो कहने लगे - मैं किसी से लड़ने थोड़े ही जाता हूँ। जब सरकार की आज्ञा के विरूद्ध जनाजा चला तो पचास हजार आदमी साथ थे। उधर पॉँच सौ सशस्त्र पुलिस रास्ता रोके खड़ी थी। सवार, प्यादे, सारजट। पूरी फौज थी। हम निहत्थों के सामने इन नामर्दो को तलवारे चमकाते और झंकारते शर्म भी नहीं आती! जब बार - बार पुलिस की धमकियों पर भी लोग न भागे, तो गोलियॉँ चलाने का हुक्म हो गया। घंटे भर बराबर फायर होते रहे, घंटे भर तक ! कितने मरे, कितने घायल हुए, कौन जानता है। मेरा मकान सड़क पर है। मैं छज्जे पर खड़ी, दोनों हाथों से दिल, थामे कांपती थी। पहली बाढ़ चलते ही भगदड़ पड़ गयी। हजारों आदमी बदहवास भागे चले आ रहे थे। बहन! वह दृश्य अभी तक आखों के सामने है। कितना भीषण, कितना रोमांचकारी और कितना लज्जास्पद! ऐसा जान पड़ता था कि लोगों के प्राण आँखों से निकल पड़ते है, मगर इन भागने वालो के पीछे वीर व्रतधारियों का दल था। जो पर्वत की भांति अटल खड़ा छातियों पर गोलियाँ खा रहा था और पीछे हटने का नाम न लेता था बन्दूकों की आवाजें साफ  सुनायी देती थीं और हर धायँ - धायँ के बाद हजारों गलों से जय की गहरी गगन -भेदी ध्वनि निकलती थी। उस ध्वनि में कितनी उत्तेजना थी! कितना आकर्षण! कितना उन्माद! बस, यही जी चाहता था कि जा कर गोलियो के सामने खड़ी हो जाऊँ हँसते - हँसते मर जाऊँ। उस समय ऐसा भान होता था कि मर जाना कोई खेल है। अम्माँ जी कमरे में भान को लिए मुझे बार - बार भीतर बुला रही थीं। जब मैं न गयी, तो वह भान को लिए हुए छज्जे पर आ गयी। उसी वक्त दस - बारह आदमी एक स्टे्रचर पर ह्रदयेश की लाश लिए हुए द्वार पर आये। अम्माँ की उन पर नजर पड़ी। समझ गयी। मुझे तो सकता - सा हो गया। अम्माँ ने जाकर एक बार बेटे को देखा, उसे छाती से लगाया, चूमा, आशीर्वाद दिया और उन्मत्त दशा में चौरास्ते की तरफ  चली। जहां से अब भी धायँ और जय की ध्वनि बारी - बारी से आ रही थी। मैं हतबुद्धि सी खड़ी कभी स्वामी की लाश को देखती थीए कभी अम्माँ को। न कुछ बोली, न जगह से हिली, न रोयी, न घबरायी। मुसमें जेसे स्पंदन ही न था। चेतना जैसे लुप्त हो गयी हो।
         क्षमा - तो क्या अम्माँ भी गोलियों के स्थान पर पहुंच गयी?
        मृदृला - हाँ, यही तो विचित्रता है बहन! बंदूक की आवाजें सुनकर कानों पर हाथ रख लेती थीं, खून देखकर मूर्छित हो जाती थीं। वही अम्माँ वीर सत्याग्रहियों का सफे को चीरती हुई सामने खड़ी हो गयी और एक ही क्षण में उनकी लाश भी जमीन पर गिर पड़ी। उनके गिरते ही योद्धाओं का धैर्य टूट गया। व्रत का बंधन टूट गया। सभी के सिरों पर खून दृसा सवार हो गया। निहत्थे थे, अशक्त थे, पर हर एक अपने अंदर अपार शक्ति का अनुभव कर रहा था पुलिस पर धावा कर दिया। सिपाहियों ने इस बाढ़ को आते - देखा तो होश जाते रहे। जाने लेकर भागे, मगर भागते हुए भी गोलियाँ चलाते जाते थे। भान छज्जे पर खड़ा था न जाने किधर से एक गोली आकर उसकी छाती में लगी। मेरा लाल वहीं पर गिर पड़ा, सांस तक न ली। मगर मेरी आँखों में अब भी आँसू न थे। मेने प्यारे भान को गोद में उठा लिया। उसकी छाती से खून के फव्वारे निकल रहे थे। मैंने उसे जो दूध पिलाया था, उसे वह खून से अदा कर रहा था। उसके खून से तर कपड़े पहने हुए मुझे वह नशा हो रहा था जो शायद उसके विवाह में गुलाल से तर रेशमी कपड़े पहनकर भी न होता। लड़कपन, जवानी और मौत! तीनों मंजिलें एक ही हिचकी में तमाम हो गयी। मैंने बेटे को बाप की गोद में लेटा दिया। इतने में कई स्वयं अम्मां जी को भी लाये। मालूम होता था, लेटी हुई मुस्करा रही है। मूझे तो रोकती रहती थीं ओर खुद इस तरह जाकर आग में कूद पड़ी, मानो वह स्वर्ग का मार्ग हो! बेटे ही के लिए जीती थीं, बेटे को अकेला कैसे छोड़तीं।
          जब नदी के किनारे तीनों लाशें एक ही चिता में रखी गयीं, तब मेरा सकता टुटा, होश आया। एक बार जी में आया चिता में जा बैठूं सारा कुनबा एक साथ ईश्वर के दरबार में जा पहुंचे। लेकिन फिर सोचा - तूने अभी ऐसा कौन काम किया है, जिसका इतना ऊँचा पुरस्कार मिले? बहन चिता की लपटों में मुझे ऐसा मालुम हो रहा था कि अम्मॉ जी सचमुच भान को गोद में लिए बैठी मुस्करा रहीं है और स्वामी जी खड़े मुझसे कह रहे हैं, तुम जाओ और निश्चित होकर काम करो। मुझ पर कितना तेज था। रक्त और अग्नि ही में तो देवता बसेत हैं।
          मैंने सिर उठाकर देखा। नदी के किनारे न जाने कितनी चिताएँ जल रही थीं। दूर से वह चितवली ऐसी मालूम होती थी, मानो देवता ने भारत का भाग्य गढ़ने के लिए भट्टियॉँ जलायीं हों।
          जब चितां राख हो गयी तो हम लोग लौटे लेकिन उस घर मे जाने की हिम्मत न पड़ी। मेरे लिए अब वह घर, घर न था! मेरा घर तो अब यह है, जहाँ बैठी हूं या फिर वही चिता। मैंने घर का द्वार भी न खोला। महिला आश्रम में चली गयी। कल की गोलियों में कांग्रेस कमेटी का सफाया हो गया था। यह संस्था बागी बना डाली गयी थी। उसके दफ्तर पर पुलिस ने छापा मारा और उस पर अपना ताला डाल दिया। महिला आश्रम में भी हमला हुआ। उस पर अपना ताला डाल दिया। हमने एक वृक्ष की छॉँह में अपना नया दफ्तर बनाया और स्वच्छंदता के साथ काम करते रहे। यहाँ दीवारें हमें कैद न करी सकती थीं। हम भी वायु के समान मुक्त थे।
संध्या समय हमने एक जुलूस निकालने का फैसला किया। कल के रक्तपात की स्मृति, हर्ष और मुबारकबाद में जुलूस निकालना आवयश्क था। लोग कहते हैं, जुलूस निकालने से क्या होता है? इससे यह सिद्ध होता है कि हम जीवित हैं, अटल हैं और मैदान से हटे नहीं है। हमें अपने हार न मानने वाले आत्मभिमान का प्रमाण देना था। हमें यह दिखाना था कि, हम गोलियों और अत्याचार से भयभीत होकर अपने लक्ष्य से हटने वाले नहीं और हम उस व्यवस्था का अन्त करके रहेंगे, जिसका आधार स्वार्थ - परता और खून पर है। उधर पुलिस ने भी जुलूस को रोककर अपनी शक्ति और विजय का प्रमाण देना आवश्यक समझा। शायद जनता को धोखा हो गया हो कि कल की दुघर्टना ने नौकरशाही का नैतिक ज्ञान जाग्रत कर दिया है इस धोखे को दूर करना उसने अपना कर्त्तव्य समझा। वह यह दिखा देना चाहती थी कि हम तुम्हारे ऊपर शासन करेंगे। तुम्हारी खुशी या नाराजगी की हमें परवाह नहीं हैं। जुलूस निकालने की मनाही हो गयी। जनता को चेतावनी दी गई गयी कि खबरदार जुलूस में न आना, नहीं दुर्गति होगी। इसका जनता ने वह जवाब दिया। जिसने अधिकारयों की आंखे खोल दी होगी। संध्या समय पचास हजार आदमी जमा हो गये। आज का नेतृत्व मुझे सौंपा गया था। में अपने ह्रदय में एक विचित्र बल उत्साह का अनुभव कर रही थी। एक अबला स्त्री जिसे संसार का कुछ ज्ञान नहीं, जिसने कभी घर से बाहर पॉव नहीं निकाला, आज अपने प्यारों के उत्सर्ग की बदौलत उस महान पद पर पहुँच गयी थी जो बड़े - बड़े अफसरों को भी बड़े - से - बड़े महाराजा को भी प्राप्त नहीं। मैं इस समय जनता के ह्रदय पर राज कर रही थी। पुलिस अधिकारियों की इसीलिए गुलामी करती है कि उसे वेतन मिलता है। पेट की गुलामी उससे सब कुछ करवा लेती है। महाराजा का हुक्म लोग इसलिए मानते है कि उससे उपकार की आशा या हानि का भय होता है। यह अपार जन - समुह क्या मुझसे किसी फायदे की आशा रखता था, उसे मुझसे किसी हानि का भय था? कदापि नहीं। फिर भी वह कड़े - से कड़े हुक्म को मानने के लिए तैयार था इसलिए कि जनता मेरे बलिदानों का आदर करती थीं, इसलिए कि उनके दिलों में स्वाधीनता की जो तड़प थी, गुलामी के जंजीरों को तोड़ देने की जो बेचैनी थी। मैं उस तड़प और बैचैनी की सजीव मूर्ति समझी जा रही थीं निश्चित समय पर जुलूस ने प्रस्थान किया। उसी वक्त पुलिस ने मेरी गिरफ्तारी का वारंट दिखाया। वारंट देखते ही तुम्हारी याद आयी। अब मुझे तुम्हारी जरूरत है। उस वक्त तुम मेरी हमदर्दी की भूखी थीं। अब मैं सहानुभूति की भिक्षा मांग रही हूं। मगर मुझमें अब लेशमात्र भी दुर्बलता नहीं हैं मैं चिंताओं से मुक्त हूं। मैजिस्ट्रेट जो कठोर से कठोर दंड प्रदान करे उसका स्वागत करूंगी। अब मैं पुलिस के किसी आक्षेप का असत्य आरोपण का प्रतिपाद न करूंगी, क्योंकि मैं जानती हूँ मैं जेल के बाहर रहकर जो कुछ कर सकती हूं, जेल के अन्दर रहकर उससे कहीं ज्यादा कर सकती हूँ। जेल के बाहर भूलों की सम्भावना है, बहकने का भय है, समझौते का प्रलोभन है, स्पर्धा की चिन्ता है, जेल सम्मान और भक्ति की एक रेखा है, जिसके भीतर शैतान कदम नहीं रख सकता। मैदान में जलता हुआ अलाव वायु में अपनी उष्णता को खो देता है। लेकिन इंजिन में बन्द होकर वही आग संचालक शक्ति का अखंड भंडार बन जाती है।
          अन्य देवियाँ भी आ पहुंचीं और मृदृला सबसे गले मिलने लगी। फिर भारत माता की जय की ध्वनि जेल की दीवारों को चीरती हुई आकाश में जा पहुँची।

पीपल का पेड़

डॉ. गीता गीत

          आज धीरेन्द्र दा के सारे कार्यक्रम सम्पन्न हो गये। एक - एक करके सभी मेहमान जा चुके हैं। सबेरे पंकज भी परिवार सहित अपने मामा ससुर के घर चला गया है। पर जाते- जाते धीरा बौदी से बोल गया है- '' मां, तुम खूब सोच लो, मैं कल आऊंगा। मुझे तुम्हारे फैसले का इंतजार है। तुम सोच समझकर कल अपना फैसला बता देना। इक्का - दुक्का मिलने वालों का क्रम जारी है। फिर भी लग रहा है चारों ओर निस्तब्धता व्याप्त है। शाम घिर आयी है।''
          धीरा घर के आंगन के पीपल के पेड़ की घनेरी छाया तले बने चबूतरे पर बैठी अतीत की यादों में खोई हुई है। उसकी यादों के आकाश में घने बादल छाये हुये हैं। कभी -  कभी बूंदा - बांदी भी शुरू हो जाती है। साड़ी के पल्लू से उन्हें पोंछती हुई धीरा सोचती जा रही है।
पीपल का यह पेड़ धीरेन्द्र और धीरा के प्रेम, आनंद, खुशी और संघर्ष के एक - एक पल का साक्षी है।शादी की 25 वीं सालगिरह पर इस पेड़ पर रंगीन विद्युत झालरों से कितना सुंदर सजाया गया था। बहुत सारे लोगों को आमंत्रित किया गया था। धीरेन्द्र के बहुत सारे मित्र, पड़ोसी और धीरा की भी बहुत सी सहेलियों को बुलाया गया था। धीरा की रिश्ते की ननद काकूली मित्रा बहुत बड़ा केक लेकर आयी थी। सभी के आग्रह पर जब दोनों ने मिलकर केक काटा तब तालियों की गड़गड़ाहट से पीपल प्रांगण गूंज उठा था। धीरेन्द्र के दोस्तों ने दोनों के ऊपर चुनरी तान दी थी और शुभ दृष्टि कार्यक्रम के लिये मजबूर कर दिया। धीरेन्द्र धीरे से मुस्करा दिये और धीरा की ओर देखा- धीरा आज भी सकुचा रही थी ठीक पच्चीस साल पहले की तरह। परंतु दोस्त सहेलियां कहां मानने वाली थीं। ज्यों ही धीरा ने धीरेन्द्र की ओर देखा। सभी हा - हा करके हंस पड़े।
          पच्चीस साल पहले आज ही के दिन जब धीरेन्द्र पाल लंबा - सा टोपोर '' दूल्हे की टोपी'' लगाकर धोती - कुर्ता पहनकर धीरा मजूमदार को ब्याहने आए थे। तब धीरा दुल्हन बनी पान के पत्ते से चेहरा ढके, पटे पर बैठी थी और उसके जामाय बाबू ( जीजा जी) दादा ( बड़े भाई) और दादा के दोस्त लोग उसको मण्डप में लाये थे। धीरेन्द्र खड़े थे और सभी ने सात पाक ( सात फेरे ) करवाये थे। पान के पत्ते से चेहरा ढके धीरा को शुभ दृष्टि के समय धीरेन्द्र की ओर देखने के लिए कहा गया तो उसे बहुत संकोच हो रहा था परंतु पंडित जी बार - बार कह रहे थे कि शुभ दृष्टि है एक दूसरे की ओर देखो। जब उसने पान का पत्ता हटाकर धीरेन्द्र की ओर देखा तो धीरेन्द्र भी मधुर मुस्कान लिए उसी की ओर देख रहे थे। उसको हंसी आ गयी थी। सभी उपस्थित जन ताली बजा - बजाकर हंसन लगे थे हंसी का एक दौर - दौरा सा पड़ गया था।
         बिदाई की बेला में मां सपना और पिता सुजीत मजूमदारए काकूए जेठूए जेठी मांए दादाए जामाय बाबूए दीदी सभी से लिपटकर वह कितना रोई थीण् मायके से विदा होकर दूल्हे की कार जब चौरास्ते से ससुराल के लिए मुड़ी तब उसका रुदन भी थम गया था और वर ;दूल्हेद्ध के साथ ससुराल पहुंचने की खुशी चेहरे पर झलक आई थीण्
ससुराल पहुंचते ही घर के दरवाजे पर सर्वप्रथम बड़ी सी एक मछली के दर्शन कराये गये थेण् यह बंगालियों का एक नियम है कि प्रत्येक शुभ कार्य में मछली जरूर शामिल की जाती हैण् सासुड़ी मां उसे रसोई घर तक ले गई थीण् रसोई घर में सभी बर्तनों में खाद्य सामग्री भरी हुई थीण् गैस पर दूध चढ़ा था जो उफनकर गिर रहा थाण् सासुडी मां बोलीए ष्ष्बोऊमां उफनता दूध देखो.भगवान की कृपा से और तुम्हारे आगमन से हर चीज यहां उफान पर रहेण्ष्ष्
धीरा के आगमन के बाद ससुराल का कपड़े का व्यवसाय बहुत बढ़ाण् धीरेन्द्र के बड़े भाई रामेन्द्र का व्यवसाय थाए परंतु दोनों भाई मिलकर संभालते थेण् घर में सुख शांति थीण् सभी कुछ अच्छा चल रहा थाए तभी एक दिन धीरेन्द्र धीरा को लेकर अकेले ही पिक्चर देखने चले गयेण् जब टॉकीज से लौटकर घर आयेण् बड़े भाई ने डांट दियाण् थोड़ी कहासुनी होते.होते बात इतनी बढ़ गई कि धीरेन्द्र ने क्रोध में आकर घर ही छोड़ दिया और धीरा को लेकर जबलपुर आ गयेण्
कहां कलकत्ता महानगर और कहां यह छोटा सा नगरण् यहां किराए के दो कमरों के मकान में शिफ्ट हुएए एक छोटा कमरा जिसे रसोई घर बनाया गयाण् दूसरे कमरे में बैठक बनाई गई जो रात को बेडरूम बन जाता थाण् पीने के पानी के लिए सड़क के नल पर लंबी कतार पर खड़े होना पड़ता थाण्
धीरेन्द्र हर पल उसे दिलासा देते रहतेए ष्ष्धीरा रानी घबराना नहींण् एक दिन तुम्हारे लिए बहुत बड़ा आलीशन घर बनवाऊंगाण् चारों ओर पेड़ पौधे होंगेण् सामने बड़ा सा बागीचा होगाण् पेड़ पर झूले बंधे होंगेण् तुम झूले में झूलोगी और तुम्हें झूलता देखकर मुझे बहुत खुशी होगीण्ष्ष्
धीरेन्द्र ने कपड़े का धंधा शुरू कियाण् कलकत्ता के दोस्तों से सम्पर्क कर ट्रांसपोर्ट से कपड़े मंगाने लगाण् उसकी मितव्ययता से धंधा खूब चल निकला उसने एक दुकान खरीद लीण् धीरा भी
धीरेन्द्र के कामों में सहयोग करने लगीण्
खाली समय में धीरा और धीरेन्द्र समाज के सांस्कृतिक कार्यक्रमों की प्रस्तुतिए छोटे बच्चों के नाटकए नृत्यए बच्चों का मेकअपए ड्रेसअपए मंच संचालनए पारितोषिक वितरण दोनों की हॉबी बन गईण् बहुत से लोगों से उनका परिचय भी बढ़ गयाण् दोनों पति.पत्नी लोगों के बीच बहुत लोकप्रिय हो गयेण् पंकज के रूप में घर में नए मेहमान ने जन्म लियाण् घर में नन्हीं किलकारियां गूंजने लगीण् पंकज के पहले जन्मदिन पर बहुत बड़ी पार्टी रखी गईण् कितना आनंद और उत्सव बनाया गया थाण् पंकज स्कूल जाने लायक हुआण् उसे शहर के सबसे अच्छे स्कूल में भर्ती कराया गयाण् वक्त गुजरता रहाण्
धीरेन्द्र ने एक बड़ा प्लाट खरीदाए धीरा को वह प्लाट दिखाने ले गयाण् प्लाट में पहले से ही एक पीपल का पेड़ लगा हुआ थाण् धीरेन्द्र ने कहाए ष्ष्इस पीपल के पेड़ को यहां से हटा देंगेण् काफी जगह निकल आएगीण्ष्ष् धीरा तुरंत बोल पड़ीए ष्ष्नहींए आप इस पेड़ को कदापि नहीं हटाऐंगेण् आप जानते हैं कि मेरी मां कहा करती थी कि पीपल पितृ दोष से मुक्त करता हैण् छत्तीस कोटि देवी देवता इस पेड़ पर विश्राम करते हैं और इसकी पत्तियां प्राण वायु देती हैंण् आपने वायदा किया थाए मकान बनवायेंगेए मकान के सामने बागीचा लगवायेंगे और पेड़ पर झूला डलवायेंगेण् मुझे झूला झूलता देख आपको खुशी होगी.देखिए आप अपने वायदे से मुकरना नहींण्ष्ष्
धीरेन्द्र ने बहुत आलीशान मकान बनवायाण् पीपल के पेड़ के चारों तरफ चबूतरा बनायाण् सामने शानदार बगीचाए बगीचे में ही एक तरफ मछली पालने के लिए हौदी बनवायी और पीपल के पेड़ पर झूला डलवा दिया गयाण्
बाउन्ड्री वाल के लिये जब खुदाई हो रही थीए तब नींव के नीचे से हनुमान जी की एक प्रतिमा निकलीण् धीरा.धीरेन्द्र बहुत खुश हुएण्

हनुमान जी की मूर्ति को मकान के अन्दर ही एक कमरे में स्थापित कर दिया गयाण् बहुत धूमधाम से मकान का उद्घाटन किया गयाण् हनुमान जंयती पर विशाल भंडारा रखा गयाण् यह क्रम हमेशा के लिये चालू हो गयाण् बच्चेए बूढ़े जवान सभी धीरेन्द्र को
धीरेन्द्र दा और धीरा को धीरा बौदी ;भाभीद्ध पुकारने लगेण्
पीपल के पेड़ पर झूला डाला गयाण् पंकज और उसका बच्चा पार्टी दिन भर पीपल के इर्द.गिर्द शोर मचातेए झूला झूलते रहतेण् धीरा भी कभी.कभी उनके साथ झूलतीण् उन बच्चों से उनकी ही भाषा में बात करतीण् बच्चों की धमा चौकड़ी उसे बहुत अच्छी लगती थीण्
एक दिन पंकज झूले से गिर गयाण् उसके माथे में बहुत चोट लगीण् न्यूरोसर्जन ने कहाए ष्ष्हम इलाज कर रहे हैं आप दुआ मांगियेण्ष्ष् दोनों पति.पत्नी कितना डर गये थेण् रात.भर दोनों हनुमान जी की स्तुति करते रहेण् सुबह डॉक्टर ने बताया था.पकंज खतरे से बाहर हैण् तब जान में जान आई थीण्
पंकज पढ़ाई में तेज थाण् बारहवीं में जब वह मैरिट लिस्ट में आयाए पंकज के साथ ही माता.पिता की तस्वीर भी दैनिक अखबार में छपी थीण् धीरेन्द्र जहां कहीं भी जातेए अखबार बैग में रख ले जातेण् लोगों को गर्व से दिखाते.देखो यह मेरा बेटा पंकज हैए मैरिट में पास हुआ हैण् लोग ष्मिठाई खिलाओष् कहते और तुरन्त ही बैग से निकालकर मिठाई भी खिलातेण्
पंकज आगे की पढ़ाई के लिये पूना जाना चाहता थाण् धीरा.
धीरेन्द्र दोनों इकलौते बेटे को बाहर नहीं भेजना चाहते थेण् धीरेन्द्र दा ने कहा.ष्ष्बेटा घर की दुकान हैण् मैं कब तक अकेले काम करूंगाण् तुम यहीं रहकर कुछ करोष्ष्.पंकज बोला.ष्ष्बाबा यह कस्बाई शहर हैए यहां कोई स्कोप नहीं है आगे बढ़ने के लियेण् मुझे बाहर जाना ही होगाण्ष्ष् पंकज पूना चला गयाण्
जिस दिन पंकज पूना के लिये रवाना हुआए सारा दिन दोनों पीपल के पेड़ के नीचे बैठे रहेण् धीरेन्द्र ने दुकान तक नहीं खोलीए कई दिनों तक उनसे खाना तक ठीक से नहीं खाया गयाण् पीपल तले बैठकर पंकज की शरारतों को याद कर कभी हंसते और कभी रोने लगते थेण्
पंकज ने पूना से पीण्ईण्टीण् के बाद एम टेक किया और वहीं एक अच्छी कंपनी में चुन लिया गयाण् कंपनी की तरफ से उसे आस्ट्रेलिया भेज दिया गयाण् अब फोन पर ही बातें हो पातीए वह भी बहुत कमय क्योंकि पंकज को काम से फुरसत ही नहीं मिलती थीण् वह हमेशा व्यस्त रहता थाण् धीरा बौदी और धीरेन्द्र दा ने अपना मन अब बेसहारा अनाथ बच्चों की देखरेख और उनकी सहायता में बिताना आरम्भ कियाण् जिस दिन दुकान की छुट्टी रहतीए दोनों ग्रामीण अचलों की ओर निकल जातेण् जहां तक हो सकता जरूरतमंदों की सहायता करतेण् इसी को जीवन का उद्देश्य बना लियाण् अब मन में कोई क्लेश नहीं रहता थाण् सुख और संतोष थाण्
पीपल के पेड़ के पुराने पत्ते पीले होकर झड़ गये हैंण् नई.नई कोपलें फूटी हैंत्र पूरा पेड़ हरियाली से सज गया हैण् ठंडी.ठंडी हवा के झोंके चल रहे हैंण् धीरा बौदी और धीरेन्द्र यादों में खोये हुये हैंण् तभी धीरेन्द्र दा के मोबाइल की घंटी बजीण् साथ की दुकान का अजय भौमिक का फोन थाण् अजय बोला.ष्ष्दादा मेरे साथ एक बच्ची हैण् मैं बहुत परेशानी में हूं आपसे मिलना चाहता हूंण्ष्ष्
धीरेन्द्र दा जानते थे कि अजय भौमिक सज्जन आदमी हैंए सो उन्होंने उसे घर बुला लियाण् अजय भौमिक थोड़ी ही देर में बारह तेरह वर्षीय एक बालिका को लेकर उपस्थित हुआण् उसने संक्षेप में उसकी जो कहानी सुनाई उसे सुनकार धीरेन्द्र दा द्रवित हो गये और उस लड़की को एक रात के लिये अपने घर पर पनाह देने के लिए राजी हो गएण्
रात अधिक हो चुकी थी अजय भौमिक उस लड़की को जिसका नाम सोमा थाए धीरेन्द्र दा के घर छोड़कर चला गयाण्
सुबह नाश्ते के बाद उस लड़की सोमा ने अपनी जो करुण कहानी सुनाई वह रोंगटे खड़ेकर देने वाली थीण्
सोमा के पिता हरियाणा में एक किसान थेण् पांच भाई.बहनों में वह चौथे नम्बर की थीण् गांव के स्कूल में पांचवीं कक्षा में पढ़ती थीण् इस साल फसल अच्छी हुई थीण् पिता ने सोचा था बड़ी बेटी की शादी कर देंगेए तभी बेमौसम की बरसात ने सारी फसल खराब कर दीण् कहीं से कोई सहायता या मुआवजा न मिलने के कारण सोमा के पिता ने आत्महत्या कर लीण् बड़ी बेटी ने कुएं में कूदकर जान दे दीण् सौतेली मां ने कुछ दिनों बाद सोमा को एक बिहारी सेठ के हाथों बेच दियाण् बिहारी उसे बिहार ले गयाण् बिहारी की पत्नी उससे दिन भर काम करवाती थी और भरपेट खाना भी नहीं देती थीण् बिहारी का जवान बेटा सोमा पर बुरी नजर रखता था और उससे छेड़खानी करता रहता थाण् एक दिन मौका पाकर वह वहां से भाग गईण् स्टेशन में एक कोने में दुबकी बैठी थीए तभी एक उत्तर प्रदेशी उसे बहला.फुसलाकर दिल्ली ले गयाण् दिल्ली में सोमा के साथ जो कुछ हुआए उसे बताने की आवश्यकता नहीं हैण् हमारी सरकार बालिका शिक्षा और बालिका रक्षा का डिंडोरा भर पीटती हैण् वास्तव में लड़कियां कहीं भी सुरक्षित नहीं हैंण् दिल्ली से एक बदमाश सोमा को यहां ले आयाण् उसने उसे चहारदवारी में कैद करके रख दियाण् दिनभर वह घर का काम करती और रात को आदमी अपनी मनमानी करताण् एक दिन शाम को मौका पाकर सोमा दीवाल फांदकर वहां से भागीण् मोहल्ले के आवारा लड़कों की नजर उस पर पड़ गईण् वे उसके पीछे दौड़ेण् भागते.भागते वह अजय भौमिक की दुकान में छुप गईण् अजय को देख उसने मुंह पर ऊंगली रखकर चुप रहने का इशारा कियाण् थोड़ी देर में लड़के भी पीछा करते हुये आ पहुंचेण् उन्होंने अजय से पूछा कि किसी लड़की को देखा हैण् अजय पूरा माजरा समझ गये थेण् उसने आगे की ओर इशारा कर दियाण् लड़के आगे भाग गयेण् अजय ने सोमा की कहानी सुनी और उसे धीरेन्द्र दा के पास ले गयाण्
कुछ दिनों बाद धीरेन्द्र दा ने पुलिस एवं कोर्ट की कार्यवाही पूर्ण कर सोमा को अपनी मानस पुत्री बना लियाण् अब धीरेन्द्र दा के घर सोमा पारिवारिक सदस्य जैसी रहती हैण् वह इस घर से और धीरा बौदी से इतना घुलमिल गई है कि कोई कह नहीं सकता सोमा इस परिवार की बेटी नही हैण् उसने बंगला बोलना भी सीख लिया हैण्
एक दिन धीरेन्द्र दा तीन दिन के एक शिशु बालक को घर ले आयेण् पता चला धीरेन्द्र दा के दोस्त के बेटे ने अस्पताल खोला हैण् कोई मां किसी मजबूरी में अपने दुधमुंहे बच्चे को छोड़कर भाग गई हैण् सोमा और धीरा बौदी उसे सहर्ष रखने के लिये तैयार हो गयेण् उस बच्चे को भी कानूनी प्रक्रिया पूरी कर गोदनामा ले लिया गयाण्
उस बच्चे का नामकरण संस्कार आयोजन किया गयाण् उसका नाम रखा गया अजितोषण् सभी उसे जीत कहकर पुकारने लगेण् दोनों बच्चों की परवरिश अच्छे से होने लगीण् पंकज को फोन कर सभी बातों से अवगत करा दिया गयाण् पकंज ने सहर्ष स्वीकृति दे दीण् कहां.ष्ष्मां.बाप आप लोग अकेले थेण् अच्छा हुआ आपको सहारा मिल गयाण्ष्ष्
पंकज की शादी को लेकर दोनों चिंतित हैंण् एक अच्छे घराने की पढ़ी.लिखी संस्कारी लड़की के घरवालो से बातचीत चल ही रही थी कि पंकज का फोन आ गयाण्
आस्ट्रेलिया में ही उसकी मुलाकात नीलिमा से हुईण् नीलिमा भी उसी कंपनी में काम करती है जहां पंकज हैण् दोनों ने प्रेमविवाह कर लिया हैण् धीरेन्द्र थोड़े विचलित जरूर हुए परंतु पंकज से बोलेए ष्ष्एक बार आकर बहू दिखा जाओण्ष्ष्
शादी के दो साल बाद पंकज आयाण् तब तक नीलिमा की गोद में धीरेन्द्र दा की पोती मोना आ चुकी थीण् एक सप्ताह की छुट्टी दोस्तों से मिलने मिलाने में निकल गयीण् फिर जाने वाला दिन भी आ गयाण् पंकज नीलिमा और मोना को लेकर चला गयाण् जितना समय भी मिलाए दोनों दादा.दादी ने मोना को बहुत प्यार कियाण्
सोमा अब पच्चीस साल की हो चुकी हैण् जीत ष्ष्अजितोषष्ष् भी छ: साल का हो गया हैण् जीत क्लास वन पास करके क्लास टू में गया हैण् देखने में बहुत प्यारा हैण् पढ़ने में तेज है धीरेन्द्र दा को वह बाबा और धीरा बौदी को मां कहता हैण् सोमा भी मां.बाबा कहकर ही सम्बोधित करती हैण् घर से बाहर निकलने में अभी सोमा डरती हैण् बाहर सभी लोग उसे भेड़िया जैसे नजर आते हैंण् इसलिये उसे घर पर ही पढ़ाया जाता हैण्
इसी बीच पकंज की एक बेटी टीना ने जन्म लिया हैण् पंकज सबकी फोटो वाट्सअप पर भेज देता हैण् मां.बाबा फोटो देखकर ही संतोष कर लेते हैंण् दोनों पोतियां मोनाए टीना बहुत प्यारी और सुन्दर हैंण् दोनों पंकज पर गई हैंण्
हनुमान जयंती करीब आ गई हैए इसलिये दोनों पति.पत्नी कार्यक्रम संबंधी योजना बना रहे हैंण् एकाएक धीरेन्द्र दा.धीरा बौदी से बोलेए ष्ष्सुनो धीरा एक पते की बात तुमसे कह रहा हूंण् जीवन में सबसे बड़ी खुशी उस काम को करने से होती है जिसे लोग कहते हैं कि तुम कर नहीं पाओगेण् दूसरी बातए साहस और दृढ़ निश्चय जादुई ताबीज हैए जिसके आगे कठिनाइयां दूर हो जाती हैं और बाधाएं उड़न छू हो जाती हैंण् प्रत्येक व्यक्ति को हर परिस्थितियों का सामना करने के लिये तैयार रहना चाहियेण् फिर धीरा को समझाते हुये बोले.देखो जीवन का समापन एक दिन होना ही है.चाहे हम हों या तुम होए दुनिया से जाना ही पड़ता हैण् प्रत्येक व्यक्ति यहां चिंरजीवी होकर नहीं आया हैण् मृत्यु जीवन की अंतिम सच्चाई हैण्ष्ष्
अब तक सुनते.सुनते धीरा का धैर्य जवाब दे गयाण् वह तुनककर बोलीए ष्ष्आज आपको क्या हो गया हैण् इस तरह की बातें क्यों कर रहें होघ् आपकी तबियत तो ठीक हैघ्ष्ष्
ष्ष्हांए मैं ठीक हूं परन्तु तुम्हें कुछ बहुत जरूरी बातें समझाना चाहता हूंण् मैंने वसीयतनामा तैयार कर लिया हैण् तीन लाख रुपये सोमा के नाम के फिक्स कर दिया हैण् जीत के नाम दो लाख फिक्स किया हैण् सोमा की तुम शादी कर देनाण् जीत के बड़े होने तक रुपया कई गुना बढ़ जायेगाण् वह पढ़ाई पूरी कर अपने पैर पर खड़ा हो जायेए मैं यही सोचता हूंण्
ष्ष्पंकज हमारा इकलौता लाड़ला बेटा हैए इसलिये मैंने पूरी जायदाद और दुकान उसके नाम कर दी हैण् मकान तुम्हारे नाम से रहेगाए तुम्हारे बाद पंकज का हो जायेगाण्ष्ष् तभी जीत दौड़कर बाहर आयाण् हाथ पकड़कर दोनों से बोलाए ष्ष्मां.बाबाए आप कितनी रात तक पीपल के नीचे बैठोगेए चलो खाना खाकर सोयेंगेण्ष्ष् जीत की बातों को सुनकर धीरेन्द्र दा बोलेए ष्ष्इसे हमारी कितनी चिंता हैण् चलोण्ष्ष् अंदर जाते हुये पुन: वे धीरा से बोलेए ष्ष्देखोए किसी भी हाल में तुम हनुमान जी का भंडारा नहीं रोकनाण्ष्ष्
उसी रात को धीरेन्द्र दा को ब्रेन हेमरेज का अटैक आ गयाण् उन्हें अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा बहुत से लोग अस्पताल देखने पहुंचेण् ऐसा लग रहा था जैसे मिनी बंगाल बन गया है अस्पतालण् दो दिन बाद धीरेन्द्र की थोड़ी हालत सुधरीण् हनुमान जयंती का भंडारा धीरा बौदी ने कराया और इसी दिन धीरेन्द्र दा को नागपुर भी ले जाया गयाण् जाने क्यों लोगों के मन में यह विश्वास जड़ जमा चुका है कि नागपुर ले जाने से हर बीमारी का अच्छा इलाज हो जाता हैण् धीरेन्द्र दा कुछ.कुछ अच्छे हो गयेण् उन्हें घर लाया गयाण् मिलने जुलने वालों में से किसी ने कहा.ष्ष्हनुमान जी की प्रतिमा को घर के बाहर मंदिर बनाकर रखना चाहियेण्ष्ष् धीरा बौदी ने वही कियाण् हनुमान जी के मंदिर को बाहर पीपल के पेड़ के सामने बनवा दियाण् देखते.देखते एक साल बीत गयाण् पुन: हनुमान जयंती आ गईण् पर दो दिन पहले पुन: धीरेन्द्र दा को अटैक आ गयाण् धीरेन्द्र दा को अस्पताल में भर्ती कर दिया गयाण् धीरा बौदी ने अब भी धीरज नहीं खोयाण् हनुमान जी का भंडारा धूम धाम से कियाण् दो.तीन दिन बाद धीरेन्द्र दा ने यह असार संसार छोड़ दियाण् पंकज एक दिन पहले आ चुका था पिता का क्रियाकर्म उसी ने कियाण् तेरहवीं के कार्यक्रम के बाद वह धीरा से बोला.ष्ष्मां अब तुम यहां अकेले रहकर क्या करोगीघ् मकान.दुकान सब कुछ बेच दो और मेरे साथ पूना चलोण् तुम्हारी बहूमां की भी यही इच्छा है
धीरा रोते हुए बोली.ष्ष्बेटा मैं ष्सोमा और जीतष् को छोड़कर कैसे जा सकती हूंण् तुम्हारे पिता ने उनकी जिम्मेदारी मुझको सौंपी हैण् कहो तो उन्हें भी ले चलते हैंण्ष्ष् पंकज ने कहाए ष्ष्नहीं मां हम उन्हें अपने साथ नहीं रख सकतेण् हमारी स्वयं की दो बेटियां हैंण्क्या आपको अपनी पोतियों से प्यार नहीं हैघ्ष्ष् धीरा बौदी बोली.ष्ष्क्यों नहींए तुम हमारे इकलौते बेटे होण् तुमसे हम बहुत प्यार करते हैं और तुम्हारी बच्चियां हमारी पोतियां हैण् तुम जानते हो नघ् मूलधन से ब्याज ज्यादा प्यारा होता हैण्ष्ष् पंकज बोलाए ष्ष्फिर ये दोनों तुम्हारे कोई नहीं हैंण् ये अनाथ हैंण् मैं सोमा को नारी निकेतन में और जीत को बालनिकेतन में छोड़ आता हूंण् मां तुम कल तक सामान समेटो और हमारे साथ चलोण्ष्ष् धीरा चुप बैठी थी पंकज बोलाए ष्ष्मां तुम्हें एक दिन का समय देता हूंण् आज मैं नीलिमा के मामा के घर जा रहा हूंण् तुम कल अपना फैसला सुना देनाण्ष्ष्
पंकज की बातें सुनकर धीरा अवाक् थीण् उसका दिल बैठा जा रहा थाण् जिस सोमा को कुछ देर न देखने से बैचेनी लगने लगती हैए जिस जीत को खिलाये बिना कौर गले से नहीं उतरताए उन्हें कैसे आश्रम भिजवायेगीण्
पंकज के पास घर.द्वारए नौकरीए संपत्तिए बीबी.बच्चे सब कुछ हैए परंतु सोमा और जीत का उसके सिवाय कोई नहीं हैण् एक.से.एक तूफानी हवा चलने लगीण् धीरा घर के अंदर चली गईण् सोमा और जीत उसका बिस्तर में इंतजार कर रहे थेण् सोते.सोते धीरा ने अपने आप से कहा.ष्ष्वह बहादुर है और लोगों जैसी डरपोक नहींण् तमाम धमकियों और चेतावनियों के बावजूद वह वही काम करेगी जो उसे सही लगता हैण्ष्ष्
सुबह मुंह धोकर जब वह पीपल के पेड़ वाले चबूतरे पर बैठी थीए तभी गेट के पास कार आकर रुकीण् गेट खोलकर पंकज मां के पास आयाण् बोलाए ष्ष्हां मां क्या फैसला लिया तुमनेए शीघ्र बताओघ् तत्काल की टिकिट लेना है ग्यारह बजे की गाड़ी हैण्ष्ष्
धीरा बौदी ने खामोशी तोड़ते हुए कहा.ष्ष्बेटा तुम हमारी एक मात्र संतान होण् तुम्हारे पिता ने पूरी संपत्ति तुम्हें दे दी हैण् तुम हमारी पूरी दुनिया होए पूरा ब्रह्मांड होण् तुम्हारे बिना हमें और किसी चीज से लगाव नहीं हैए परन्तु बेटा ब्रह्मांड और ईश्वर एक दूसरे के पूरक हैंण् ईश्वर के बिना ब्रह्मांड अधूरा हैण् बेटा इन दोनों बच्चों में मुझे ईश्वर दिखाई देते हैंण् मुझे ब्रह्मांड नहीं मिल पायेगा कोई बात नहींण् पर मैं ईश्वर को नहीं छोड़ सकतीण् यही मेरा फैसला है और यह पीपल का पेड़़ इसे भी छोड़कर मैं नहीं जा सकतीण् इस पेड़ में मैं तुम्हारे बाबा की छवि रोज.रोज देखती हूंण्ष्ष्
पंकज गेट खोलकर गाड़ी स्टार्ट करके चला गयाण् धीरा उसे जाता हुआ देख रही थीण् उसकी आंखों से दो बूंद अश्रु जल गिरेण् तभी सोमा और जीत पीपल के पेड़ में डले झूले में झूलने लगेण् जीत पुकारने लगाए ष्ष्मां आओ नाए झूला झूलेंण्ष्ष् धीरा गई सोमा और जीत के साथ झूला झूलने लगीण् मंदिर की घंटी बजीए कई दर्शनार्थी हनुमान जी के दर्शन को आये थेण् दर्शन के बाद वे पीपल के पेड़ के पास आये और बोले.ष्ष्धीरा बौदी आप हिम्मत और साहस रखना हम सब आपके साथ हैंण्ष्ष्
धीरा बौदी ने हनुमानजी और पीपल के पेड़ के दर्शन किये और सेामा और जीत को लेकर घर के भीतर चली गयीण् बाहर पीपल के पत्ते हिलडुलकर संगीत पैदा कर रहे थेण् धीरा के दिल में भी एक संगीत सा बज रहा थाण् जिसक वाद्य यंत्र सोमा और जीत थेण् आज वह उनकी सगी मां बन गयी थी और पीपल का वह पेड़ मानो बाबा बनकर मुस्करा रहा थाण्