महावीर सिंह गेहलोत
वैदिक काल से लोक शब्द प्रचलित है। ऋग्वेद के पुरुष - सूक्त में यह शब्द आया है। वैदिक काल में ही वेद और लोक शब्दावली अपनी - अपनी पृथक सत्ता स्पष्ट कर देती है। पाणिनि ने वेद और लोक शब्दों के भिन्न - भिन्न स्वरुपों का बोध कराया है। नाट्य शास्त्रकार भरत मुनि, नाट्यधर्मी और लोकधर्मी प्रवृतियों को भिन्न बताते उनका उल्लेख करते हैं। महाभारत में व्यास जी स्पष्ट कर देते हैं कि प्रत्यक्षदर्शी लोक ही सारे विश्व को सर्वप्रकार से देखने वाला होता है, प्रत्यक्षदर्शी लोकानां सर्वदर्शी भवेन्तर:। इसी प्रकार गीता ;15 -18 में भी वेद और लोक का महत्व अलग - अलग प्रतिपादित किया गया है, अतो़स्मि लोके वेदे च प्रचित: पुरुषोत्तम:। भारतीय चिन्तन में श्लोक शब्द के तात्पर्य को संगत रूप से स्पष्ट करने वाला एक अन्य शब्द जन है।
जन का प्रयोग अथर्ववेद के पृथिवी सूक्त में देखा जा सकता है जनं विभ्रति बहुया विवाचसं। नाना धर्माणं पृथिवी यथोकसम् 45। यही मानव मात्र की ओर इंगित करने वाला जन शब्द सम्राट अशोक के सप्तम और अष्टम शिलालेखों में स्थान पाता है जहां सम्राट जनपदवासियों से सम्पर्क करने निकलता है। यह जन उस साम्राज्य के सारे निवासी हैं जो नगर, ग्राम आदि में बसते हैं। इस विवेचन से यह निष्कर्ष सहज में ही निकलता है कि लोक और जन का अर्थ सारे निवासियों से है जो कहीं भी बसते हों।
2. लोक साहित्य..
इस विशाल मानव समाज में एक शिष्ट वर्ग अपने आचार, विचार, संस्कार और औपचारिक बंधनों के कारण सामान्य जन समाज से अलग पड़ता हुआ, नागर वर्ग से संबोधित होने लगता है। इसे आभिजात्य वर्ग भी कह सकते हैं। इस वर्ग के लिए कुछ कार्यकलापों का खुला प्रदर्शन वर्जित होता है। यह वर्ग स्वनिर्मित अनुशासन के नियमों से बंधा रहता है।
इस वर्ग का पहिनावा, भाषा, साहित्य और जीवनचर्या एक विशेष ढांचे में बंध जाती है। अर्थात ऐसे वर्ग का साहित्य रीतिबद्ध और शास्त्र सम्मत होता है। इस आभिजात्य साहित्य के ठीक समानान्तर लोक समुदाय का साहित्य भी प्रवाहित होता रहता है, जो निसन्देह स्वच्छंद, निरंकुश, सहज और नैसर्गिक भावों से रस - सिक्त रहता है। सच तो यह है कि लोक - साहित्य कोई आभिजात्य साहित्य के विपरीत नहीं होता है। वह लोक समुदाय के एक घटक का साहित्य है जो शिष्ट वर्ग द्वारा सृजित होता है। अपनी रीतिबद्धता के कारण आभिजात्य साहित्य के नाम से संबोधित होता है। इस परिपाटीजन्य व्यक्तिगत साहित्य से भिन्न लोकसाहित्य होता है जो शास्त्र सम्मत पांडित्य की चेतना अथवा अहंकार से शून्य रहता है। तर्क और कसौटी से कोसों दूर रहता हुआ, इन्द्रियों के सभी सुखों को भोगता हुआ, वह युग प्रवाह में बहता रहता है। परम्परागत विश्वासों व मान्यताओं को सहज भाव से स्वीकार करते, अपने विचारों को गीतों, कथाओं तथा प्रदर्शनकारी - कलाओं के माध्यम से प्रकट करता रहता है। इस भांति लोक अपना गतिशील जीवन बिताता है। वह किसी आदिम भाव के खूंटे से बंधा नहीं रहता है।
लोक चिंतन व जीवन में शनै: शनै: मृदु परिवर्तन भी होता रहता है क्योंकि श्लोक जड़ नहीं, वह एक विशाल जीवंत समूह है। हर युग में होने वाले इस मृदु परिवर्तन को उस युग के लोक साहित्य में आंक सकते हैं। परिनिष्ठित साहित्य के साथ - साथ लोक साहित्य भी विस्मृत होता, खंडित होता और परिवर्द्धित होता प्रवाहमान रहता है। यह लोक साहित्य और प्रदर्शनकारी कलाओं की परम्परा, अपने युग का दर्पण होती है। अभी भारतीय लोक साहित्य के संग्रह और परिचय का प्रयास मात्र हुआ है, उसका युग परक इतिहास लिखना भविष्य के आधीन है।
3 लोक कृतिकार
यह भ्रान्त धारणा घर कर गई है कि लोक रचनाओं का कोई रचनाकार नहीं होकर, वह रचना लोकरचित होती है। इस सृजन और सृजक की ऊहापोह का समाधान भी आवश्यक है। लोकरचना का सृजक कोई समूह नहीं हो सकता। भावोन्माद में आकर कोई सृजक अपनी अनुभूति शब्दों अथवा प्रदर्शन द्वारा व्यक्त करता है। वह अनुभूति स्वाभाविक, सहज और अहैतुकी होने पर लोक समूह द्वारा अपना ली जाती है, तब वह सृजन, लोक - मानस की अभिव्यक्ति बन जाता है। उसका उत्सव सृजक विस्मृत हो जाते हैं और सारा लोक समुदाय उसे अंगीकार कर एंव पूर्णरूपेण अपनत्व प्रदान कर, सृजक के स्थान पर आ बैठता है। आरम्भ में जो व्यक्तिपरक रचना रही थी वह फिर लोक मुख में स्थान पाकर सर्वजनीन बन जाती है। फिर युग प्रवाह में वह रचना बहती रहती है। वाचिक परम्परा के कारण उसके अंग संवर्धन द्वारा पुष्ट होते हैं तो उसके शुष्क अंश टुट भी गिरते हैं। लोकानुभूति और लोकाभिव्यक्ति के कारण वह रचना सदैव हरी रहती है। अपने इन गुणों के कारण वह इतनी सक्षम होती है कि लोक मानस का अटूट अंग बन जाती है। उसके चिंतन में वह एकाकार हो जाती है।
4. लोक तत्व
लोक समुदाय का एक मानस होता है। वह अपनी रुचि अथवा व्यवहार में आदिम, जंगली अथवा ऐन्द्रिक नहीं होता है। वह तो गतिशील तथा जीवंत समूह के कार्यकलापों को संचालित करता है। उसमें सहज विवेक एवं मंगल की भावना भी रहती है। वह अनायास ही, अनजाने अपना परिष्कार करता रहता है। उसमें कुछ ऐसे परम्परा जन्य व्यवहार और विश्वास अपना स्थान बनाये रहते हैं जो उसकी सहज प्रकृति व तर्क के अभाव में अपनी स्थिति को कालांतर में अधिक सुदृढ़ बना लेते हैं। उदाहरण के लिए शकुन के विश्वास को ही लें तो यह प्रकट होता है कि शकुन केवल विश्वास के कारण जीवन में जमे हुए हैं जबकि तर्क से यह सारे असंगत हैं। लोक विश्वासों के आधार पर ही कवि प्रसिद्धियाँ टिकी हैं। न किसी ने चकोर का अंगार भक्षण करना देखा है और न उसे रात्रि को चन्द्र की ओर टकटकी लगाए। सहज मानवी व्यवहारों के कारण ऋतु अनुकूल, पर्व और उत्सवों का आयोजन होता है जो लोक मानस द्वारा संचालित होता है। यह सब लोक तत्व के परिचायक हैं जिनमें रीति - रिवाजों के भूले व विस्मृत उपकरणों के कुछ अवशेष भी देखने को मिलते हैं। लोक साहित्य अर्थात वाचिक परम्परा में जीवित रही रचनाओं में ऐसे अवशेष व तत्व बहुलता से मिलते भी हैं।
5. लोक काव्य का शिल्प
लोक साहित्य का काव्यशिल्प निरन्तर उपेक्षा का विषय रहा है। यह सच है कि यह साहित्य रीतिबद्ध नहीं होता है। न तो उसमें छंद की मात्राओं का विधान है और न गणों का। उसकी अभिव्यक्ति अनायासित होती है, पर होती है सहजता में। उसमें गेयता होती है, टेर होती है,और शब्दों की ठुमक होती है। क्या यह गुण उसे जीवित नहीं रखते हैं? वह लोक का कंठहार क्यों है? क्या यह गुण उस नैसर्गिक शिल्प की ओर इंगित नहीं करते हैं, जिसमें मौलिकता, नूतनता और मर्मस्पर्शी संवेदना कूट कूट कर भरी है ? वन पुष्प की ताजगी सुन्दरता, मोहकता एवं विचित्र अज्ञात सुवास को इसलिए नहीं नकार सकते कि वह किसी वाटिका अथवा पुष्पदान में स्थित नहीं है। नगर की सोलह श्रृंगार से सज्जित सुन्दरी के समकक्ष क्या किसी अल्हड़ अज्ञात यौवना ग्रामीण, मैली वेशभूषा वाली युवती को रूप का पात्र नहीं गिन सकते। सौन्दर्य अथवा उसका शिल्प रीतिबद्ध रचनाओं में शास्त्रीय होगा परन्तु लोक रचनाओं में वह सहज एवं नैसर्गिक आभा एवं चटक लिए होगा जो सदैव नित नूतन होगा। अतएव लोक साहित्य निरलंकृत और भले ही अनगढ़ हो परन्तु उसमें मानव भावों की अभिव्यक्ति जिस सरलता और लय से प्रकट होती है, वह रसात्मकता अन्यत्र दुर्लभ है। सच तो यह है कि लोक काव्य का निरलंकरण ही उसका अलंकरण है। क्या सचमुच में अलंकार सौन्दर्य की वृद्धि करते हैं? यह प्रश्नचिह्न महाकवि बिहारी ने लगा ही रखा है। उसने अपनी सतसई में आभूषणों के द्वारा नारी की सौन्दर्य साधना को नकारा है।अतएव लोक काव्य का शिल्प - सौष्ठव का लेखाजोखा आवश्यक और अनिवार्य है। ऐसा करते समय आलोचना का मापदंड कोई रीतिबद्ध शास्त्र तो अवश्य नहीं होगा।
2. ढोला - मारू का कथानक
1. कथासार
इस प्रेम वार्ता का कथानक, सूत्र में इतना ही है कि पूंगल का राजा अपने देश में अकाल पड़ने के कारण मालवा प्रान्त में परिवार सहित जाता है। उसकी शिशु वय की राजकुमारी मारवणी का बाल - विवाह, मालवा के साल्हकुमार ढोला से कर दिया जाता है। सुकाल हो जाने से पूंगल का राजा लौट कर घर आ जाता है। साल्हकुमार वयस्क होने पर अपनी पत्नी को लिवाने नहीं जाता है। उसे इस बाल विवाह का ज्ञान भी नहीं होता है। इस बीच साल्हकुमार का विवाह मालवाणी से हो जाता है जो सुन्दर और पति - अनुरकता है। मालवणी को मारवणी सौत के होने का ज्ञान है और पूंगल का कोई संदेश अपने मालवा में आने नहीं देती है। कालांतर में मारवणी मारू अंकुरित यौवना होती है। उस पर यौवन अपना रंग दिखाता है। इधर स्वप्न में उसे प्रिय का दर्शन भी हो जाता है। पर्यावरण से सभी उपकरण उसे विरह का दारुण दुख देते हैं। पपिहा, सारस एवं कुञ्ज पक्षीगण को वह अपनी विरह व्यथा सम्बोधित करती है। पूंगल के राजा के पास एक घोड़ों का सौदागर आता है और मालवा के साल्हकुमार की बात करता है। यह सूचना सुनकर मारवणी और व्यथित हो जाती है। साल्हकुमार को बुलावा ढाढियों माँगणहार के द्वारा भेजा जाता है। यह गाने बजाने वाले चतुर ढाढी गन्तव्य स्थान पर पहुँचकर, साल्हकुमार ढोला को मारवणी की स्थिति का पूरा ज्ञान करा देते हैं। ढोला पूंगल हेतु प्रस्थान करना चाहता है परन्तु सौत मालवणी उसे बहाने बनाकर रोकती रहती है। मालवणी की ईर्ष्या, चिन्ता, उन्माद, कपट, विरह और असहाय अवस्था का वर्णन दूहों में विस्तार से हुआ है। अन्त में ढोला प्रस्थान कर ही देता है और पूंगल पहुँच जाता है। ढोला और मारवणी का मिलन होता है। सुख विलास में समय व्यतीत होता है। फिर पति - पत्नी अपने देश लौटते हैं तो मार्ग में ऊमर सूमरा के जाल से तो बच जाते हैं परन्तु एक नई विपदा उन्हें घेर लेती है। रात्रि को रेगिस्तान का पीवणा सर्प मारवणी को सूंघ जाता है। मारवणी के मृत प्राय अचेतन शरीर को देखकर स्थिति विषम हो जाती है। विलाप और क्रन्दन से सारा वातावरण भर जाता है। तब शिव - पार्वती प्रकट होकर मारवणी को जीवित करते हैं। ढोला मारू सकुशल अपने घर पहुंचते हैं। आनन्द से जीवन व्यतीत करते हैं। वहां पर चतुर ढोला, सौतिहा डाह की नोंक झोंक का समाधान भी करता है। मारवणी को अधिक प्यार व स्नेह समर्पित करता है।
2 कथा के रूपांतर
ढोला - मारू की प्रेम कथा में समय - समय पर अंश जुड़ते गए। वाचिक परम्परा में ऐसा होना स्वाभाविक ही है। कुछ प्रतियों में धुर संबंध के दोहे मिलते हैं। इस शीर्षक से ही स्पष्ट है कि पहिले के सबंध की कथा इनका विषय है। प्रस्तावना रूप यह दोहे मारु मारवणी के पिता पिंगल राजा के विवाह की कथा कहते हैं। जालोर की राजकन्या सुन्दरी उमा का वरण, अपने पौरुष से करके गुजरात के राजकुमार रणधवल की मांग का हरण करते हैं। जालोर का राजा सामंतसी का नामोल्लेख हुआ है। यह सारा वर्णन इतिहास विरुद्ध है। एक रूपांतर में पंक्ति आई है - धण भटियाणी मारवणि, ढोलो कूरम राण। इससे मारवणी जाति में भाटि और ढोला कछवाहा वंश के कहे जा रहे हैं, परन्तु इतिहास इन तथ्यों का समर्थन नहीं करता है। रूपांतरों में निश्चित सम्वत् आदि के उल्लेख भी हैं जो किसी प्रकार से इतिहास सम्मत नहीं है। इसी भांति ऊमर - सूमरा का प्रसंग है जो मूल कथा में घट बढ़कर स्थान पा जाता है। वार्ता की रोचकता, रोमांस, कौतूहलता और चातुर्य के प्रदर्शन हेतु उमरा सूमरा का प्रसंग भले ही उपयोगी हो परन्तु इतिहास इसकी साक्षी नहीं भरता है। राजस्थान की कथ्य परम्परा अथवा हस्तलिखित प्रतियों में ढोला - मारू की बात के रूपांतर, प्रेमकथा के मूल रूप को स्थित रखकर अन्य कथाओं को जोड़कर वार्ता का विस्तार अवश्य करते हैं। परन्तु इस वार्ता के जो अन्य प्रादेशिक रूप मिलते हैं, वे ढोला मारवणी के प्रेम कथा के सहारे, उनके माता- पिता, भाई, सेवकों आदि को भी पात्र बनाकर कथा का नया ताना - बाना बिछाकर, जादू, घात - प्रतिघात, छल - कपट व षडयंत्र का सहारा लेकर कथा को एक नया रूप दे देते हैं। ब्रज, पंजाब, हरियाणा सहित, छत्तीसगढ़,मध्य भारत सहित और भोजपुरी लोक साहित्य में राजस्थान की यह बात अपने में बहुत कुछ नल दमयन्ती के प्रसिद्ध पौराणिक कथानक को भी समेट लेती है। वास्तव में राजस्थान की यह बात इन प्रदेशों के कथा साहित्य में खो सी गई है और केवल ढोला - मारू के पात्र नाम, कुछ साम्य का आभास मात्र दिलाते हैं। सही अर्थों में राजस्थान में मिलने वाले रूपांतर ही ढोला - मारू की मूल अथवा आदिम कथा के प्रति निष्ठावान हैं।
3. अवांतर कथायें
रूपांतर तो मूल कथानक में विस्तार करके उसे नया रूप देते हैं। यह फेर काल, समय, और क्षेत्र, सीला भूमि से संबंधित रहता है परन्तु अवांतर कथायें, नये प्रसंगों अथवा समानान्तर कथाओं को जोड़कर, मूल कथा को पुष्ट संवर्द्धन मात्र करती हैं। उदाहरण के लिए ऊमर - सूमरा के प्रसंग का उल्लेख ऊपर कर चुके हैं। ऊमर - सूमरा के संबंध में एक अलग से लोक कथा है और यह ऐतिहासिक व्यक्ति भी है। वह रसिक और नारी सौन्दर्य का लुब्ध भ्रमर है। यह ऊमर - सूमरा का व्यक्तित्व चित्रण है। हमारे कथानक की मारवणी अद्वितीय सुन्दरी है और जब ऐसा है तो उसके सौन्दर्य की सार्थकता अथवा साख की साक्षी हेतु ऊमर - सूमरा के आकर्षित होने का प्रसंग जोड़ दिया गया। लोक काव्य के कथानकों में ऐसा सहजता से होता है। मर्यादाओं में सीमित शास्त्र सम्मत प्रेम कथा में भी सुन्दरी के पद्म स्वरूप मुखमंडल की सौरभ के कारण, काले भौंरों की पंक्तियाँ जैसे उसे आ घेरती हैं। इस कथा के अन्य रूपान्तरों में ढोला और भाट का संवाद विस्तार से है। यही स्थिति ढोला और गड़रिये के संवाद की है। संदेशवाहक ढाढियों को साल्ह कुमार तक पहुंचने हेतु कई अवरोधक फाँदने पड़े, पराए देश में सहायक खोजने पड़े आदि की प्रसंग वार्तायें ही अवान्तर कथायें हैं जो अपने आप में पूर्ण हैं। उन्हें हटा भी दिया जाऐ तो मूल कथा का सूत्र भंग नहीं होता और संलग्न रखने से कथा को पुष्टि मिलती है।
4. मूल कथा का स्वरूप
इस लोक काव्य का क्या मूल रूप था, यह खोजना कठिन है। जिस कथा का उत्स काल की पर्तों में खो गया हो, उसका आदि खोजना असम्भव सा है। परन्तु प्रस्तुत ढोला - मारू दूहा नामक कृति के जितने राजस्थानी परम्परा के रूपान्तर मिले हैं उनमें एक लाक्षणिक तथ्य उजागर होता जान पड़ता है। यदि विचारार्थ यह कहें कि यह तो प्रसंगात्मक गीतों का संग्रह है जिसमें प्रसंगों के कथा सूत्र को अथ से इति तक अक्षुण्ण रखने का ध्यान रखा गया है, तो कैसा? इस विचारधारा को एक अन्य दृष्टान्त से बल मिलता है। महाकवि सूरदास के पदों को प्रसंगानुसार इसी शती में जमाकर जब प्रकाशित किया गया तो वह पदावली भागवत पुराण का अनुसरण करने वाली दीख पड़ी और भावावेश में कुछ कह भी बैठे कि यह भागवत पुराण का उल्था है। हमारी इस धारणा की स्थापना हेतु हमें कोई हठ अथवा आग्रह नहीं है परन्तु इस कृति का वाचिक परम्परा में जब सामना होता है तब मारवणी के विरह संदेश और मालवणी के विरह रुदन के प्रसंग ही उपस्थित होते हैं।
जन का प्रयोग अथर्ववेद के पृथिवी सूक्त में देखा जा सकता है जनं विभ्रति बहुया विवाचसं। नाना धर्माणं पृथिवी यथोकसम् 45। यही मानव मात्र की ओर इंगित करने वाला जन शब्द सम्राट अशोक के सप्तम और अष्टम शिलालेखों में स्थान पाता है जहां सम्राट जनपदवासियों से सम्पर्क करने निकलता है। यह जन उस साम्राज्य के सारे निवासी हैं जो नगर, ग्राम आदि में बसते हैं। इस विवेचन से यह निष्कर्ष सहज में ही निकलता है कि लोक और जन का अर्थ सारे निवासियों से है जो कहीं भी बसते हों।
2. लोक साहित्य..
इस विशाल मानव समाज में एक शिष्ट वर्ग अपने आचार, विचार, संस्कार और औपचारिक बंधनों के कारण सामान्य जन समाज से अलग पड़ता हुआ, नागर वर्ग से संबोधित होने लगता है। इसे आभिजात्य वर्ग भी कह सकते हैं। इस वर्ग के लिए कुछ कार्यकलापों का खुला प्रदर्शन वर्जित होता है। यह वर्ग स्वनिर्मित अनुशासन के नियमों से बंधा रहता है।
इस वर्ग का पहिनावा, भाषा, साहित्य और जीवनचर्या एक विशेष ढांचे में बंध जाती है। अर्थात ऐसे वर्ग का साहित्य रीतिबद्ध और शास्त्र सम्मत होता है। इस आभिजात्य साहित्य के ठीक समानान्तर लोक समुदाय का साहित्य भी प्रवाहित होता रहता है, जो निसन्देह स्वच्छंद, निरंकुश, सहज और नैसर्गिक भावों से रस - सिक्त रहता है। सच तो यह है कि लोक - साहित्य कोई आभिजात्य साहित्य के विपरीत नहीं होता है। वह लोक समुदाय के एक घटक का साहित्य है जो शिष्ट वर्ग द्वारा सृजित होता है। अपनी रीतिबद्धता के कारण आभिजात्य साहित्य के नाम से संबोधित होता है। इस परिपाटीजन्य व्यक्तिगत साहित्य से भिन्न लोकसाहित्य होता है जो शास्त्र सम्मत पांडित्य की चेतना अथवा अहंकार से शून्य रहता है। तर्क और कसौटी से कोसों दूर रहता हुआ, इन्द्रियों के सभी सुखों को भोगता हुआ, वह युग प्रवाह में बहता रहता है। परम्परागत विश्वासों व मान्यताओं को सहज भाव से स्वीकार करते, अपने विचारों को गीतों, कथाओं तथा प्रदर्शनकारी - कलाओं के माध्यम से प्रकट करता रहता है। इस भांति लोक अपना गतिशील जीवन बिताता है। वह किसी आदिम भाव के खूंटे से बंधा नहीं रहता है।
लोक चिंतन व जीवन में शनै: शनै: मृदु परिवर्तन भी होता रहता है क्योंकि श्लोक जड़ नहीं, वह एक विशाल जीवंत समूह है। हर युग में होने वाले इस मृदु परिवर्तन को उस युग के लोक साहित्य में आंक सकते हैं। परिनिष्ठित साहित्य के साथ - साथ लोक साहित्य भी विस्मृत होता, खंडित होता और परिवर्द्धित होता प्रवाहमान रहता है। यह लोक साहित्य और प्रदर्शनकारी कलाओं की परम्परा, अपने युग का दर्पण होती है। अभी भारतीय लोक साहित्य के संग्रह और परिचय का प्रयास मात्र हुआ है, उसका युग परक इतिहास लिखना भविष्य के आधीन है।
3 लोक कृतिकार
यह भ्रान्त धारणा घर कर गई है कि लोक रचनाओं का कोई रचनाकार नहीं होकर, वह रचना लोकरचित होती है। इस सृजन और सृजक की ऊहापोह का समाधान भी आवश्यक है। लोकरचना का सृजक कोई समूह नहीं हो सकता। भावोन्माद में आकर कोई सृजक अपनी अनुभूति शब्दों अथवा प्रदर्शन द्वारा व्यक्त करता है। वह अनुभूति स्वाभाविक, सहज और अहैतुकी होने पर लोक समूह द्वारा अपना ली जाती है, तब वह सृजन, लोक - मानस की अभिव्यक्ति बन जाता है। उसका उत्सव सृजक विस्मृत हो जाते हैं और सारा लोक समुदाय उसे अंगीकार कर एंव पूर्णरूपेण अपनत्व प्रदान कर, सृजक के स्थान पर आ बैठता है। आरम्भ में जो व्यक्तिपरक रचना रही थी वह फिर लोक मुख में स्थान पाकर सर्वजनीन बन जाती है। फिर युग प्रवाह में वह रचना बहती रहती है। वाचिक परम्परा के कारण उसके अंग संवर्धन द्वारा पुष्ट होते हैं तो उसके शुष्क अंश टुट भी गिरते हैं। लोकानुभूति और लोकाभिव्यक्ति के कारण वह रचना सदैव हरी रहती है। अपने इन गुणों के कारण वह इतनी सक्षम होती है कि लोक मानस का अटूट अंग बन जाती है। उसके चिंतन में वह एकाकार हो जाती है।
4. लोक तत्व
लोक समुदाय का एक मानस होता है। वह अपनी रुचि अथवा व्यवहार में आदिम, जंगली अथवा ऐन्द्रिक नहीं होता है। वह तो गतिशील तथा जीवंत समूह के कार्यकलापों को संचालित करता है। उसमें सहज विवेक एवं मंगल की भावना भी रहती है। वह अनायास ही, अनजाने अपना परिष्कार करता रहता है। उसमें कुछ ऐसे परम्परा जन्य व्यवहार और विश्वास अपना स्थान बनाये रहते हैं जो उसकी सहज प्रकृति व तर्क के अभाव में अपनी स्थिति को कालांतर में अधिक सुदृढ़ बना लेते हैं। उदाहरण के लिए शकुन के विश्वास को ही लें तो यह प्रकट होता है कि शकुन केवल विश्वास के कारण जीवन में जमे हुए हैं जबकि तर्क से यह सारे असंगत हैं। लोक विश्वासों के आधार पर ही कवि प्रसिद्धियाँ टिकी हैं। न किसी ने चकोर का अंगार भक्षण करना देखा है और न उसे रात्रि को चन्द्र की ओर टकटकी लगाए। सहज मानवी व्यवहारों के कारण ऋतु अनुकूल, पर्व और उत्सवों का आयोजन होता है जो लोक मानस द्वारा संचालित होता है। यह सब लोक तत्व के परिचायक हैं जिनमें रीति - रिवाजों के भूले व विस्मृत उपकरणों के कुछ अवशेष भी देखने को मिलते हैं। लोक साहित्य अर्थात वाचिक परम्परा में जीवित रही रचनाओं में ऐसे अवशेष व तत्व बहुलता से मिलते भी हैं।
5. लोक काव्य का शिल्प
लोक साहित्य का काव्यशिल्प निरन्तर उपेक्षा का विषय रहा है। यह सच है कि यह साहित्य रीतिबद्ध नहीं होता है। न तो उसमें छंद की मात्राओं का विधान है और न गणों का। उसकी अभिव्यक्ति अनायासित होती है, पर होती है सहजता में। उसमें गेयता होती है, टेर होती है,और शब्दों की ठुमक होती है। क्या यह गुण उसे जीवित नहीं रखते हैं? वह लोक का कंठहार क्यों है? क्या यह गुण उस नैसर्गिक शिल्प की ओर इंगित नहीं करते हैं, जिसमें मौलिकता, नूतनता और मर्मस्पर्शी संवेदना कूट कूट कर भरी है ? वन पुष्प की ताजगी सुन्दरता, मोहकता एवं विचित्र अज्ञात सुवास को इसलिए नहीं नकार सकते कि वह किसी वाटिका अथवा पुष्पदान में स्थित नहीं है। नगर की सोलह श्रृंगार से सज्जित सुन्दरी के समकक्ष क्या किसी अल्हड़ अज्ञात यौवना ग्रामीण, मैली वेशभूषा वाली युवती को रूप का पात्र नहीं गिन सकते। सौन्दर्य अथवा उसका शिल्प रीतिबद्ध रचनाओं में शास्त्रीय होगा परन्तु लोक रचनाओं में वह सहज एवं नैसर्गिक आभा एवं चटक लिए होगा जो सदैव नित नूतन होगा। अतएव लोक साहित्य निरलंकृत और भले ही अनगढ़ हो परन्तु उसमें मानव भावों की अभिव्यक्ति जिस सरलता और लय से प्रकट होती है, वह रसात्मकता अन्यत्र दुर्लभ है। सच तो यह है कि लोक काव्य का निरलंकरण ही उसका अलंकरण है। क्या सचमुच में अलंकार सौन्दर्य की वृद्धि करते हैं? यह प्रश्नचिह्न महाकवि बिहारी ने लगा ही रखा है। उसने अपनी सतसई में आभूषणों के द्वारा नारी की सौन्दर्य साधना को नकारा है।अतएव लोक काव्य का शिल्प - सौष्ठव का लेखाजोखा आवश्यक और अनिवार्य है। ऐसा करते समय आलोचना का मापदंड कोई रीतिबद्ध शास्त्र तो अवश्य नहीं होगा।
2. ढोला - मारू का कथानक
1. कथासार
इस प्रेम वार्ता का कथानक, सूत्र में इतना ही है कि पूंगल का राजा अपने देश में अकाल पड़ने के कारण मालवा प्रान्त में परिवार सहित जाता है। उसकी शिशु वय की राजकुमारी मारवणी का बाल - विवाह, मालवा के साल्हकुमार ढोला से कर दिया जाता है। सुकाल हो जाने से पूंगल का राजा लौट कर घर आ जाता है। साल्हकुमार वयस्क होने पर अपनी पत्नी को लिवाने नहीं जाता है। उसे इस बाल विवाह का ज्ञान भी नहीं होता है। इस बीच साल्हकुमार का विवाह मालवाणी से हो जाता है जो सुन्दर और पति - अनुरकता है। मालवणी को मारवणी सौत के होने का ज्ञान है और पूंगल का कोई संदेश अपने मालवा में आने नहीं देती है। कालांतर में मारवणी मारू अंकुरित यौवना होती है। उस पर यौवन अपना रंग दिखाता है। इधर स्वप्न में उसे प्रिय का दर्शन भी हो जाता है। पर्यावरण से सभी उपकरण उसे विरह का दारुण दुख देते हैं। पपिहा, सारस एवं कुञ्ज पक्षीगण को वह अपनी विरह व्यथा सम्बोधित करती है। पूंगल के राजा के पास एक घोड़ों का सौदागर आता है और मालवा के साल्हकुमार की बात करता है। यह सूचना सुनकर मारवणी और व्यथित हो जाती है। साल्हकुमार को बुलावा ढाढियों माँगणहार के द्वारा भेजा जाता है। यह गाने बजाने वाले चतुर ढाढी गन्तव्य स्थान पर पहुँचकर, साल्हकुमार ढोला को मारवणी की स्थिति का पूरा ज्ञान करा देते हैं। ढोला पूंगल हेतु प्रस्थान करना चाहता है परन्तु सौत मालवणी उसे बहाने बनाकर रोकती रहती है। मालवणी की ईर्ष्या, चिन्ता, उन्माद, कपट, विरह और असहाय अवस्था का वर्णन दूहों में विस्तार से हुआ है। अन्त में ढोला प्रस्थान कर ही देता है और पूंगल पहुँच जाता है। ढोला और मारवणी का मिलन होता है। सुख विलास में समय व्यतीत होता है। फिर पति - पत्नी अपने देश लौटते हैं तो मार्ग में ऊमर सूमरा के जाल से तो बच जाते हैं परन्तु एक नई विपदा उन्हें घेर लेती है। रात्रि को रेगिस्तान का पीवणा सर्प मारवणी को सूंघ जाता है। मारवणी के मृत प्राय अचेतन शरीर को देखकर स्थिति विषम हो जाती है। विलाप और क्रन्दन से सारा वातावरण भर जाता है। तब शिव - पार्वती प्रकट होकर मारवणी को जीवित करते हैं। ढोला मारू सकुशल अपने घर पहुंचते हैं। आनन्द से जीवन व्यतीत करते हैं। वहां पर चतुर ढोला, सौतिहा डाह की नोंक झोंक का समाधान भी करता है। मारवणी को अधिक प्यार व स्नेह समर्पित करता है।
2 कथा के रूपांतर
ढोला - मारू की प्रेम कथा में समय - समय पर अंश जुड़ते गए। वाचिक परम्परा में ऐसा होना स्वाभाविक ही है। कुछ प्रतियों में धुर संबंध के दोहे मिलते हैं। इस शीर्षक से ही स्पष्ट है कि पहिले के सबंध की कथा इनका विषय है। प्रस्तावना रूप यह दोहे मारु मारवणी के पिता पिंगल राजा के विवाह की कथा कहते हैं। जालोर की राजकन्या सुन्दरी उमा का वरण, अपने पौरुष से करके गुजरात के राजकुमार रणधवल की मांग का हरण करते हैं। जालोर का राजा सामंतसी का नामोल्लेख हुआ है। यह सारा वर्णन इतिहास विरुद्ध है। एक रूपांतर में पंक्ति आई है - धण भटियाणी मारवणि, ढोलो कूरम राण। इससे मारवणी जाति में भाटि और ढोला कछवाहा वंश के कहे जा रहे हैं, परन्तु इतिहास इन तथ्यों का समर्थन नहीं करता है। रूपांतरों में निश्चित सम्वत् आदि के उल्लेख भी हैं जो किसी प्रकार से इतिहास सम्मत नहीं है। इसी भांति ऊमर - सूमरा का प्रसंग है जो मूल कथा में घट बढ़कर स्थान पा जाता है। वार्ता की रोचकता, रोमांस, कौतूहलता और चातुर्य के प्रदर्शन हेतु उमरा सूमरा का प्रसंग भले ही उपयोगी हो परन्तु इतिहास इसकी साक्षी नहीं भरता है। राजस्थान की कथ्य परम्परा अथवा हस्तलिखित प्रतियों में ढोला - मारू की बात के रूपांतर, प्रेमकथा के मूल रूप को स्थित रखकर अन्य कथाओं को जोड़कर वार्ता का विस्तार अवश्य करते हैं। परन्तु इस वार्ता के जो अन्य प्रादेशिक रूप मिलते हैं, वे ढोला मारवणी के प्रेम कथा के सहारे, उनके माता- पिता, भाई, सेवकों आदि को भी पात्र बनाकर कथा का नया ताना - बाना बिछाकर, जादू, घात - प्रतिघात, छल - कपट व षडयंत्र का सहारा लेकर कथा को एक नया रूप दे देते हैं। ब्रज, पंजाब, हरियाणा सहित, छत्तीसगढ़,मध्य भारत सहित और भोजपुरी लोक साहित्य में राजस्थान की यह बात अपने में बहुत कुछ नल दमयन्ती के प्रसिद्ध पौराणिक कथानक को भी समेट लेती है। वास्तव में राजस्थान की यह बात इन प्रदेशों के कथा साहित्य में खो सी गई है और केवल ढोला - मारू के पात्र नाम, कुछ साम्य का आभास मात्र दिलाते हैं। सही अर्थों में राजस्थान में मिलने वाले रूपांतर ही ढोला - मारू की मूल अथवा आदिम कथा के प्रति निष्ठावान हैं।
3. अवांतर कथायें
रूपांतर तो मूल कथानक में विस्तार करके उसे नया रूप देते हैं। यह फेर काल, समय, और क्षेत्र, सीला भूमि से संबंधित रहता है परन्तु अवांतर कथायें, नये प्रसंगों अथवा समानान्तर कथाओं को जोड़कर, मूल कथा को पुष्ट संवर्द्धन मात्र करती हैं। उदाहरण के लिए ऊमर - सूमरा के प्रसंग का उल्लेख ऊपर कर चुके हैं। ऊमर - सूमरा के संबंध में एक अलग से लोक कथा है और यह ऐतिहासिक व्यक्ति भी है। वह रसिक और नारी सौन्दर्य का लुब्ध भ्रमर है। यह ऊमर - सूमरा का व्यक्तित्व चित्रण है। हमारे कथानक की मारवणी अद्वितीय सुन्दरी है और जब ऐसा है तो उसके सौन्दर्य की सार्थकता अथवा साख की साक्षी हेतु ऊमर - सूमरा के आकर्षित होने का प्रसंग जोड़ दिया गया। लोक काव्य के कथानकों में ऐसा सहजता से होता है। मर्यादाओं में सीमित शास्त्र सम्मत प्रेम कथा में भी सुन्दरी के पद्म स्वरूप मुखमंडल की सौरभ के कारण, काले भौंरों की पंक्तियाँ जैसे उसे आ घेरती हैं। इस कथा के अन्य रूपान्तरों में ढोला और भाट का संवाद विस्तार से है। यही स्थिति ढोला और गड़रिये के संवाद की है। संदेशवाहक ढाढियों को साल्ह कुमार तक पहुंचने हेतु कई अवरोधक फाँदने पड़े, पराए देश में सहायक खोजने पड़े आदि की प्रसंग वार्तायें ही अवान्तर कथायें हैं जो अपने आप में पूर्ण हैं। उन्हें हटा भी दिया जाऐ तो मूल कथा का सूत्र भंग नहीं होता और संलग्न रखने से कथा को पुष्टि मिलती है।
4. मूल कथा का स्वरूप
इस लोक काव्य का क्या मूल रूप था, यह खोजना कठिन है। जिस कथा का उत्स काल की पर्तों में खो गया हो, उसका आदि खोजना असम्भव सा है। परन्तु प्रस्तुत ढोला - मारू दूहा नामक कृति के जितने राजस्थानी परम्परा के रूपान्तर मिले हैं उनमें एक लाक्षणिक तथ्य उजागर होता जान पड़ता है। यदि विचारार्थ यह कहें कि यह तो प्रसंगात्मक गीतों का संग्रह है जिसमें प्रसंगों के कथा सूत्र को अथ से इति तक अक्षुण्ण रखने का ध्यान रखा गया है, तो कैसा? इस विचारधारा को एक अन्य दृष्टान्त से बल मिलता है। महाकवि सूरदास के पदों को प्रसंगानुसार इसी शती में जमाकर जब प्रकाशित किया गया तो वह पदावली भागवत पुराण का अनुसरण करने वाली दीख पड़ी और भावावेश में कुछ कह भी बैठे कि यह भागवत पुराण का उल्था है। हमारी इस धारणा की स्थापना हेतु हमें कोई हठ अथवा आग्रह नहीं है परन्तु इस कृति का वाचिक परम्परा में जब सामना होता है तब मारवणी के विरह संदेश और मालवणी के विरह रुदन के प्रसंग ही उपस्थित होते हैं।
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