इस अंक के रचनाकार

इस अंक के रचनाकार आलेख खेती-किसानी ले जुड़े तिहार हरे हरेलीः ओमप्रकाश साहू ' अंकुर ' यादें फ्लैट सं. डी 101, सुविधा एन्क्लेव : डॉ. गोपाल कृष्ण शर्मा ' मृदुल' कहानी वह सहमी - सहमी सी : गीता दुबे अचिंत्य का हलुवा : राजेन्द्र प्रसाद काण्डपाल एक माँ की कहानी : हैंस क्रिश्चियन एंडर्सन अनुवाद - भद्रसैन पुरी कोहरा : कमलेश्वर व्‍यंग्‍य जियो और जीने दो : श्यामल बिहारी महतो लधुकथा सीताराम गुप्ता की लघुकथाएं लघुकथाएं - महेश कुमार केशरी प्रेरणा : अशोक मिश्र लाचार आँखें : जयन्ती अखिलेश चतुर्वेदी तीन कपड़े : जी सिंग बाल कहानी गलती का एहसासः प्रिया देवांगन' प्रियू' गीत गजल कविता आपकी यह हौसला ...(कविता) : योगेश समदर्शी आप ही को मुबारक सफर चाँद का (गजल) धर्मेन्द्र तिजोरी वाले 'आजाद' कभी - कभी सोचता हूं (कविता) : डॉ. सजीत कुमार सावन लेकर आना गीत (गीत) : बलविंदर बालम गुरदासपुर नवीन माथुर की गज़लें दुनिया खारे पानी में डूब जायेगी (कविता) : महेश कुमार केशरी बाटुर - बुता किसानी/छत्तीसगढ़ी रचना सुहावत हे, सुहावत हे, सुहावत हे(छत्तीसगढ़ी गीत) राजकुमार मसखरे लाल देवेन्द्र कुमार श्रीवास्तव की रचनाएं उसका झूला टमाटर के भाव बढ़न दे (कविता) : राजकुमार मसखरे राजनीति बनाम व्यापार (कविता) : राजकुमार मसखरे हवा का झोंका (कविता) धनीराम डड़सेना धनी रिश्ते नातों में ...(गजल ) बलविंदर नाटक एक आदिम रात्रि की महक : फणीश्वर नाथ रेणु की कहानी से एकांकी रूपान्तरणः सीताराम पटेल सीतेश .

मंगलवार, 10 नवंबर 2015

जेल

मुंशी प्रेमचंद

          मृदुला मैजिस्ट्रेट के इजलास से जनाने जेल में वापस आयी, तो उसका मुख प्रसन्न था। बरी हो जाने की गुलाबी आशा उसके कपोलों पर चमक रही थी। उसे देखते ही राजनैतिक कैदियों के एक गिरोह ने घेर लिया और पूछने लगीं - कितने दिन की हुई?
          मृदुला ने विजय - गर्व से कहा - मैंने तो साफ. साफ  कह दिया, मैंने धरना नहीं दिया। यों आप जबर्दस्त हैं, जो फैसला चाहें, करें। न मैंने किसी को रोका न पकड़ा, न धक्का दिया, न किसी से आरजू - मिन्नत ही की। कोई गाहक मेरे सामने आया ही नहीं। हॉँ, मैं दूकान पर खड़ी जरूर थीं। वहॉ कई वालंटियर गिरफ्तार हो गये थे। जनता जामा हो गयी थी, मैं भी खड़ी हो गयी। बस, थानेदार ने आ कर मुझे पकड़ लिया।
क्षमादेवी कुछ कानून जानती थीं। बोलीं - मैजिस्ट्रेट पुलिस के बयान पर फैसला करेगा। मैं ऐसे कितने ही मुकदमे देख चुकी।
          मृदुला ने प्रतिवाद किया - पुलिसवालों को मैंने ऐसा रगड़ा कि वह भी याद करेंगे। मैं मुकदमे की कार्रवाई में भाग न लेना चाहती थी, लेकिन जब मैंने उनके गवाहों को सरासर झूठ बोलते देखा तो मुझसे जब्त न हो सका। मैंने उनसे जिरह करनी शुरू की। मैंने भी इतने दिनों घास नहीं खोदी है। थोड़ा -सा कानून जानती हूं, पुलिस ने समझा होगा, यह कुछ बाेलेगी तो है नहीं, हम जो बयान चाहेंगे, देंगे। जब मैंने जिरह शुरू की, तो सब बगलें झाँकने लगे। मैंने तीनों गवाहों को झूठा साबित कर दिया। उस समय जाने कैसे मुझे चोट सूझती गई। मैजिस्ट्रेट ने थानेदार को दो तीन बार फटकार भी बतायी। वह मेरे प्रश्नों का ऊल - जलूल जवाब देता था, तो मैजिस्ट्रेट बोल उठता था - वह जो कुछ पूछती हैं, उसका जवाब दो। फजूल की बातें क्यों करते हो। तब मियाँ जी का मुँह जरा - सा निकल आता था। मैंने सबों का मूँह बंद कर दिया। अभी साहब ने फैसला तो नहीं सुनाया, लेकिन मुझे विश्वास है, बरी हो जाऊँगी। मैं जेल से नहीं डरती। लेकिन बेवकूफ  भी नहीं बनना चाहती। वहाँ हमारे मंत्री जी भी थे और बहुत - सी बहनें थीं। सब यही कहती थी, तुम छूट जाओगी।
          महिला उसे द्वेष - भरी आंखों से देखती हुई चली गयी। उनमें किसी की मियाद साल - भर की थीं, किसी की छह मास की। उन्होंने अदालत के सामने जबान ही न खोली थीं। उनकी नीति में यह अधर्म से कम न था। मृदुल पुलिस से जिरह करके उनकी नजरों में गिर गयी थी। सजा हो जाने पर उसका व्यवहार क्षम्य हो सकता था, लेकिन बरी हो जाने में तो उसका कुछ प्रायश्चित ही न था।
          दूर जा एक देवी ने कहा -  इस तरह तो हम लोग भी छूट जाते। हमें तो यह दिखाना है, नौकरशाही से हमें न्याय की कोई आशा ही नहीं।
          दूसरी महिला बोली - यह तो क्षमा माँग लेने के बराबर है। गयी तो थी धरना देने, नहीं दुकान पर जाने का काम ही क्या था। वालंटियर गिरफ्तार हुए थे आपकी बला से। आप वहॉँ क्यों गयी। मगर अब कहती है, मैं धरना देने गयी ही नहीं। यह क्षमा माँगना हुआ, साफ !
         तीसरी देवी मुंह बनाकर बोली - जेल में रहने के लिए बड़ा कलेजा चाहिए। उस वक्त तो वाह - वाह लूटने के लिए आ गयीं, अब रोना आ रहा है ऐसी स्त्रियों को तो राष्ट्रीय कामों के नजीक ही न आना चाहिए। आंदोलन को बदनाम करने से क्या फायदा।
          केवल क्षमादेवी अब तक मृदुला के पास चिंता में डूबी खड़ी थीं। उन्होंने एक उद्दंड व्याख्यान देने के अपराध में साल - भर की सजा पायी थीं दूसरे जिले से एक महीना हुआ यहाँ आयी थीं। अभी मियाद पूरी होने में आठ महीने बाकी थे। यहाँ की पंद्रह कैदियों में किसी से उनका दिल न मिलता था। जरा - जरा सी बातों के लिए उनका आपस में झगड़ना, बनाव - सिंगर की चीजों के लिये लेडीवार्डरों की खुशामदें करना,घरवालों से मिलने के लिए व्यग्रता दिखलाना उसे पंसद न था। वही कुत्सा और कनफुसकियॉ जेल के भीतर भी थी। वह आत्माभिमान, जो उसके विचार में एक पोलिटिकल कैदी में होना चाहिए, किसी में भी न था। क्षमा उन सबों से दूर रहती थी। उसके जाति - प्रेम का वारापार न था। इस रंग में पगी हुई थी, पर अन्य देवियॉं उसे घमंडिन समझती थीं और उपेक्षा का जवाब उपेक्षा से देती थीं। मृदुला को हिरासत में आये आठ दिन हुए थे। इतने ही दिनों में क्षमा को उससे विशेष स्नेह हो गया था। मृदुल में वह संकीर्णत और ईर्ष्या न थी, न निन्दा करने की आदत न श्रृंगार की धुन, न भद्दी दिल्लगी का शौक। उसके हृदय में करूणा थी, सेवा का भाव था। देश का अनुराग था। क्षमा न सोचा था। इसके साथ छह महीने आनन्द से कट जायेगें लेकिन दुर्भाग्य यहाँ भी उसके पीछे पड़ा हुआ था। कल मृदृल यहाँ से चली जाएगी। फिर अकेली हो जाएगी। यहॉँ ऐसा कौन है, जिसके साथ घड़ी भर बैठकर अपना दु:ख - दर्द सुनायेगी, देश चर्चा करेगी या यहॉ तो सभी के मिजाज आसमान पर हैं।
मृदुला ने पूछा - तुम्हें तो अभी आठ महीने बाकी है, बहन!
          क्षमा ने हसरत के साथ कहा - किसी न किसी तरह कट ही जाएँगे बहन! पर तुम्हारी याद बराबर सताती रहेगी। इसी एक सप्ताह के अन्दर तुमने मुझ पर न जाने क्या जादू कर दिया। जब से तुम आयी हो, मुझे जेल,जेल मालूम न होता था। कभी - कभी मिलती रहना।
          मृदुला ने देखा - क्षमा की आंखे डबडबायी हुई थीं। ढाढ़सा देती हुई बोली - जरूर मिलूंगी दीदी ! मुझसे तो खुद न रहा जाएगा। भान को भी लाऊँगीं। कहूँगी - चल, तेरी मौसी आयी है, तुझे बुला रही है। दौड़ा हुआ आयेगा। अब तुमसे आज कहती हूँ बहन, मुझे यहाँ किसी की याद थी, तो भान की। बेचरा - रोया करता होगा। मुझे देखकर रूठ जायेगा। तुम कहाँ चलीं गयी? मुझे छोड़कर क्यों चली गयी? जाओ, मैं तुमसे नहीं बोलता। तुम मेरे घर से निकल जाओ। बड़ा शैतान है बहन! छन भर निचला नहीं बैठता। सवेरे उठते ही गाता है् झन्ना ऊँता लये अमाला, छोलाज का मन्दिर देल में है। जब एक झंडी कन्धे पर रखकर कहता है। ताली छलाब पानी हलाम है तो देखते ही बनता है। बाप को तो कहता है - तुम गुलाम हो। वह एक अँगरेजी कम्पनी में है। बार - बार इस्तीफा देने का विचार करके रह जाते हैं। लेकिन गुजर - बसर के लिए कोई उद्यम करना ही पड़ेगा। कैसे छोड़े। वह तो छोड़ बैठे होते। तुमसे सच कहती हूँ, गुलामी से उन्हें घृणा है। लेकिन मैं ही समझाती रहती हूँ, बेचारे कैसे दफ्तर जाते होंगे। कैसे भान को सॅभालते होंगे। सास जी के पास तो रहता ही नहीं। वह बेचारी बुढ़ी, उसके साथ कहॉँ - कहाँ दौड़ें! चाहती है कि मेरी गोद में दबक कर बैठा रहे। और भान को गोद से चिढ़ है। अम्माँ मुझ पर बहुत बिगड़ेगी। बस यही डर लग रहा है। मुझे देखने एक बार भी नहीं आयें। कल अदालत में बाबू जी मुझसे कहते थे, तुमसे बहुत खफा है। तीन दिन तक तो दाना - पानी छोड़े रहीं। इस छोकरी ने कुल- मरजाद डूबा दी। खानदान में दाग लगा दिया। कलमुँही। न जाने क्या - क्या बकती रहीं। मैं उनकी बातो को बुरा नहीं मानती। पुराने जमाने की हैं। उन्हें कोई चाहे कि आकर इन लोगों में मिल जाएँ तो उसका अन्यय है। चल कर मनाना पड़ेगा। बड़ी मिन्नतों से मानेंगी। कल ही कथा होगी, देख लेना। ब्राह्राण खायेंगे। बिरादरी जमा होगी। जेल प्रायश्चित तो करना ही पड़ेगा। तुम हमारे घर दो - चार दिन रह कर देखना तब जानोगी बहन! मैं आकर तुम्हें ले जाऊँगी।
          क्षमा आनन्द के इन प्रसंगो से वंचित है। विधवा है, अकेली है। जलियानवाला बाग में उसका सर्वस्व लुट चुका है। पति और पुत्र दोनों ही की आहुति जा चुकी है। अब कोई ऐसा नहीं, जिसे वह अपना कह सके। अभी उसका हृदय इतना विशाल नहीं हुआ है कि प्राणी मात्र को अपना समझ सके। इन दस बरसों से उसका व्यथित हृदय जाति सेवा में धैर्य और शांति खोज रहा हैं जिन कारणें ने उसके बसे हुए घर को उजाड़ दिया, उसकी गोद सूनी कर दी। उन कारणों का अन्त करने उनको मिटाने, में वह जी - जान से लगी हुई थीं। बड़े - से - बड़े बलिदान तो वह पहले ही कर चुकी थी। अब अपने हृदय के सिवाय उसके पास होम करने को और क्या रह गया था? औरों के लिए जाति - सेवा सभ्यता का एक संस्कार हो, या यशोपार्जन का एक साधन। क्षमा के लिए तो यह तपस्या थी और वह नारीत्व की सारी शक्ति और श्रद्धा के साथ उसी साधना में लगी हुई थी। लेकिन आकाश में उड़ने वाले पक्षी को भी तो अपने बसेरे की याद आती ही है। क्षमा के लिए वह आश्रय कहाँ था? यही वह अवसर थे, जब क्षमा भी आत्म - संमवेदना के लिए आकुल हो जाती थी। यहॉँ मृदुल को पाकर वह अपने को धन्य मान रही थी,पर यह छाँह भी इतनी जल्दी हट गयी!
          क्षमा ने व्यथित कंठ से कहा - यहाँ से जाकर भूल जाओगी मृदुला। तुम्हारे लिए तो रेलगाड़ी का परिचय है और मेरे लिए तुम्हारे वादे उसी परिचय के वादे हैं। कभी भेंट हो जाएगी तो या तो पहचानोगी ही नहीं या जरा मुस्कराकर नमस्ते करती हुई अपनी राह चली जाओगी। यही दुनिया का दस्तूर है। अपने रोने से छुट्टी ही नहीं मिलती, दूसरों के लिए कोई क्यों कर रोये। तुम्हारे लिए तो मैं कुछ नहीं थी। मेरे लिए तुम बहुत अच्छी थी। मगर अपने प्रियजनों में बैठकर कभी - कभी इस अभागिनी को जरूर याद कर लिया करना। भिखारी के लिए चुटकी भर आटा ही बहुत है।
          दूसरे दिन मैजिस्ट्रेट ने फैसला सुना दिया। मृदुल बरी हो गयी। संध्या समय वह सब बहनों से गले मिलकर रोकर - रुलाकर चली गयी। मानो मैके से विदा हुई हो।
2
          तीन महिने बीत गये। पर मृदुल एक बार भी न आयी। और कैदियों से मिलने वाले आते रहते थे किसी - किसी के घर से खाने - पीने की चीजें और सौगाते आ जाती थी लेकिन क्षमा का पूछने वाला कौन बैठा था? हर महिने के अन्तिम रविवार को प्रात: काल से ही मृदुल की बाट जोहने लगती। जब मुलाकात का समय निकल जाता, तो जरा देर रोकर मन को समझा लेती - जमाने का यही दस्तूर है।
          एक दिन शाम को क्षमा संध्या करके उठी थी कि देखा - मृदुला सामने चली आ रही है। न वह रूप - रंग है, न वह कांति। दौड़कर उसके गले से लिपट गयी ओर रोती हुई बोली - यह तेरी क्या दशा है मृदुला! सूरत ही बदल गयी। क्या, बीमार है क्या?
          मृदुला की आँखों से आँसुओं की झाड़ी लगी थी। बोली- बीमार तो नहीं हूँ बहन, विपत्ति से बिंधी हुई हूँ। तुम मुझे खूब कोस रही होगी। उन सारी निठुराइयों का प्रायश्चित करने आयी हूँ। और सब चिंताओं से मुक्त होकर आया हूँ।
          क्षमा काँप उठी। अंतस्तल की गहराइयों से एक लहर - सी उठती हुई जान पड़ी। जिसमें उनका अपना अतीत जीवन टूटी हुई नौकाओं की भांति उतराता हुआ दिखायी दिया। रूँधे हुए कंठ से बोली - कुशल तो है बहन, इतनी जल्दी तुम यहाँ फिर क्यों आ गयीं? अभी तो तीन महीने भी नहीं हुए।
          मृदुल मुस्कराई पर उसकी मुस्कराहट में रुदन छिपा हुआ था। फिर बोली - अब सब कुशल है। बहन, सदा के लिए कुशल है। कोई चिंता ही नहीं रही। अब यहॉँ जीवन पर्यन्त रहने को तैयार हूँ। तुम्हारे स्नेह और कृपा का मूल्य अब समझ रही हूँ।
          उसने एक ठंडी साँस ली और सजल नेत्रों से बोली - तुम्हें बाहर की खबरे क्या मिली होंगी! परसों शहरों मे गोलियों चली। देहातों में आजकल संगीनों की नोक पर लगान वसूल किया जा रहा है। किसानों के पास रूपये हैं नहीं, दें तो कहाँ से दें। अनाज का भाव दिन - दिन गिरता जाता है। पौने दो रूपये में मन भर गेहूँ आता है। मेरी उम्र ही अभी क्या है, अम्माँ जी भी कहती है कि अनाज इतना सस्ता कभी नहीं था। खेत की उपज से बीजों तक के दाम नहीं आते। मेहनत और सिंचाई इसके ऊपर। गरीब किसान लगान कहाँ से दें? उस पर सरकार का हुक्म है कि लगान कड़ाई के साथ वसूल किया जाए। किसान इस पर भी राजी हैं कि हमारी जमा - जथा नीलाम कर लो, घर कुर्क कर लो, अपन जमीन ले लो, मगर यहाँ तो अधिकारियों को अपनी कारगुजारी दिखाने की फिक्र पड़ी हुई है। वह चाहे प्रजा को चक्की में पीस ही क्यों न डाले। सरकार उन्हें मना न करेगी। मैंने सुना है कि वह उलटे और शाह देती है। सरकार को तो अपने कर से मतलब हैं प्रजा मरे या जिये, उससे कोई प्रयोजन नहीं। जमींनदारों ने तो लगान वसूल करने से इन्कार कर दिया है। अब पुलिस उनकी मदद पर भेजी गयी है। भैरोगंज का सारा इलाका लूटा जा रहा है। मरता क्या न करता, किसान भी घर - बार छोड़ - छोड़कर भागे जा रहे हैं। एक किसान के घर में घूसकर कई कांस्टेबलों ने उसे पीटना शुरू किया। बेचारा बैठा मार खाता रहा। उसकी स्त्री से न रहा गया। शामत की मारी कांस्टेबलों को कुवचन कहने लगी। बस, एक सिपाही ने उसे नंगा कर दिया। क्या कहूँ बहन, कहते शर्म आती है। हमारा ही भाई इतनी निर्दयता करें। इससे ज्यादा दु:ख और लज्जा की और क्या बात होगी? किसान से जब्त न हुआ। कभी पेट भर गरीबों को खाने को तो मिलता ही नहीं। इस पर इतना कठोर परिश्रम, न देह में बल है, न दिल में हिम्मत। पर मनुष्य का हृदय ही तो ठहरा। बेचारा बेदम पड़ा हुआ था। स्त्री का चिल्लाना सुनकर उठ बैठा और उस दुष्ट सिपाही को धक्का देकर जमीन पर गिरा दिया। फिर दोनों में कुश्तम - कुश्ती होने लगी। एक किसान किसी पुलिस के आदमी के साथ इतनी बेअदबी करे, इसे भला वह कहीं बर्दास्त कर सकती है। सब कांस्टेबलों ने गरीब को इतना मारा कि वह मर गया।
क्षमा ने कहा - गॉँव के और लोग तमाशा देखते रहे होंगे?
        मृदुल तीव्र कंठ से बोली- बहन, प्रजा की तो हर तरह से मरन हैं अगर दस- बीस आदमी जमा हो जाते, तो पुलिस कहती- हमसे लड़ने आये हैं। डंड़े चलाने शुरू करती और अगर कोई आदमी क्रोध में आकर एकाध कंकड़ फेंक देता, तो गोलियाँ चला देती। दस - बीस आदमी भुन जाते। इसलिए लोग जमा नहीं होते। लेकिन जब वह किसान मर गया तो गाँव वालो को तैश आ गया। लाठियाँ ले - लेकर दौड़ पड़े और कांस्टेबलों को घेर लिया। सम्भव है दो - चार आदमियों ने लाठियॉँ चलायी भी हो। कांस्टेबलों ने गोलियाँ चलानी शुरू की। दो - तीन सिपाहियों को हल्की चोटे आयी। उसके बदले में बारह आदमियों की जानें ले ली गयी और कितनों ही के अंगभंग कर दिये गये इन छोटे - छोटे आदमियों को इसलिए तो इतने अधिकार दिये गये हैं कि उनका दुरुपयोग करें। आधे गॉँव का कत्लेआम करके पुलिस विजय के नगाड़े बजाती हुई लौट गयी। गाँव वालो की फरियाद कौन सुनता! गरीब है, अपंग है, जितने आदमियों को चाहो, मार डालो। अदालत और हाकिमों से तो उन्होने न्याय की आशा करना ही छोड़ दिया। आखिर सरकार ही ने तो कांस्टेबलों को यह मुहिम सर करने के लिए भेजा था। वह किसानों की फरियाद क्यों सुनने लगी। मगर आदमी का दिल फरियाद करने किये बगैर नहीं मानता। गांव वालों ने अपने शहरों के भाइयों से फरियाद करने का निश्चय किया। जनता और कुछ नहीं कर सकती। हमदर्दी तो करती है। दु:ख - कथा सुनकर आंसू तो बहाती है। दुखियारों को हमदर्दी के आंसू भी कम प्यारे नहीं होते। अगर आस - पास के गँवो के लोग जमा होकर उनके साथ रो लेते तो गरीबों के आँसू पूछ जाते। किन्तु पुलिस ने उस गॉँव की नाकेबंदी कर रखी थी। चारो सीमाओं पर पहरे बिठा दिये गये थे। यह घाव पर नमक था मारते भी हो और रोने भी नहीं देते। आखिर लोगों ने लाशे उठायीं और शहर वालों को अपनी विपत्ति की कथा सुनाने चले। इस हंगामे की खबर पहले ही शहर में पहुँच गयी थी। इन लाशों को देखकर जनता उत्तेजित हो गयी और जब पुलिस के अध्यक्ष ने इन लाशों का जुलूस निकालने की अनुमति न दी, तो लोग और भी झल्लायें। बहुत बड़ा जमाव हो गया। मेरे बाबूजी भी इसी दल में थे। और मैंने उन्हें रोका। मत जाओ, आज का रंग अच्छा नहीं है। तो कहने लगे - मैं किसी से लड़ने थोड़े ही जाता हूँ। जब सरकार की आज्ञा के विरूद्ध जनाजा चला तो पचास हजार आदमी साथ थे। उधर पॉँच सौ सशस्त्र पुलिस रास्ता रोके खड़ी थी। सवार, प्यादे, सारजट। पूरी फौज थी। हम निहत्थों के सामने इन नामर्दो को तलवारे चमकाते और झंकारते शर्म भी नहीं आती! जब बार - बार पुलिस की धमकियों पर भी लोग न भागे, तो गोलियॉँ चलाने का हुक्म हो गया। घंटे भर बराबर फायर होते रहे, घंटे भर तक ! कितने मरे, कितने घायल हुए, कौन जानता है। मेरा मकान सड़क पर है। मैं छज्जे पर खड़ी, दोनों हाथों से दिल, थामे कांपती थी। पहली बाढ़ चलते ही भगदड़ पड़ गयी। हजारों आदमी बदहवास भागे चले आ रहे थे। बहन! वह दृश्य अभी तक आखों के सामने है। कितना भीषण, कितना रोमांचकारी और कितना लज्जास्पद! ऐसा जान पड़ता था कि लोगों के प्राण आँखों से निकल पड़ते है, मगर इन भागने वालो के पीछे वीर व्रतधारियों का दल था। जो पर्वत की भांति अटल खड़ा छातियों पर गोलियाँ खा रहा था और पीछे हटने का नाम न लेता था बन्दूकों की आवाजें साफ  सुनायी देती थीं और हर धायँ - धायँ के बाद हजारों गलों से जय की गहरी गगन -भेदी ध्वनि निकलती थी। उस ध्वनि में कितनी उत्तेजना थी! कितना आकर्षण! कितना उन्माद! बस, यही जी चाहता था कि जा कर गोलियो के सामने खड़ी हो जाऊँ हँसते - हँसते मर जाऊँ। उस समय ऐसा भान होता था कि मर जाना कोई खेल है। अम्माँ जी कमरे में भान को लिए मुझे बार - बार भीतर बुला रही थीं। जब मैं न गयी, तो वह भान को लिए हुए छज्जे पर आ गयी। उसी वक्त दस - बारह आदमी एक स्टे्रचर पर ह्रदयेश की लाश लिए हुए द्वार पर आये। अम्माँ की उन पर नजर पड़ी। समझ गयी। मुझे तो सकता - सा हो गया। अम्माँ ने जाकर एक बार बेटे को देखा, उसे छाती से लगाया, चूमा, आशीर्वाद दिया और उन्मत्त दशा में चौरास्ते की तरफ  चली। जहां से अब भी धायँ और जय की ध्वनि बारी - बारी से आ रही थी। मैं हतबुद्धि सी खड़ी कभी स्वामी की लाश को देखती थीए कभी अम्माँ को। न कुछ बोली, न जगह से हिली, न रोयी, न घबरायी। मुसमें जेसे स्पंदन ही न था। चेतना जैसे लुप्त हो गयी हो।
         क्षमा - तो क्या अम्माँ भी गोलियों के स्थान पर पहुंच गयी?
        मृदृला - हाँ, यही तो विचित्रता है बहन! बंदूक की आवाजें सुनकर कानों पर हाथ रख लेती थीं, खून देखकर मूर्छित हो जाती थीं। वही अम्माँ वीर सत्याग्रहियों का सफे को चीरती हुई सामने खड़ी हो गयी और एक ही क्षण में उनकी लाश भी जमीन पर गिर पड़ी। उनके गिरते ही योद्धाओं का धैर्य टूट गया। व्रत का बंधन टूट गया। सभी के सिरों पर खून दृसा सवार हो गया। निहत्थे थे, अशक्त थे, पर हर एक अपने अंदर अपार शक्ति का अनुभव कर रहा था पुलिस पर धावा कर दिया। सिपाहियों ने इस बाढ़ को आते - देखा तो होश जाते रहे। जाने लेकर भागे, मगर भागते हुए भी गोलियाँ चलाते जाते थे। भान छज्जे पर खड़ा था न जाने किधर से एक गोली आकर उसकी छाती में लगी। मेरा लाल वहीं पर गिर पड़ा, सांस तक न ली। मगर मेरी आँखों में अब भी आँसू न थे। मेने प्यारे भान को गोद में उठा लिया। उसकी छाती से खून के फव्वारे निकल रहे थे। मैंने उसे जो दूध पिलाया था, उसे वह खून से अदा कर रहा था। उसके खून से तर कपड़े पहने हुए मुझे वह नशा हो रहा था जो शायद उसके विवाह में गुलाल से तर रेशमी कपड़े पहनकर भी न होता। लड़कपन, जवानी और मौत! तीनों मंजिलें एक ही हिचकी में तमाम हो गयी। मैंने बेटे को बाप की गोद में लेटा दिया। इतने में कई स्वयं अम्मां जी को भी लाये। मालूम होता था, लेटी हुई मुस्करा रही है। मूझे तो रोकती रहती थीं ओर खुद इस तरह जाकर आग में कूद पड़ी, मानो वह स्वर्ग का मार्ग हो! बेटे ही के लिए जीती थीं, बेटे को अकेला कैसे छोड़तीं।
          जब नदी के किनारे तीनों लाशें एक ही चिता में रखी गयीं, तब मेरा सकता टुटा, होश आया। एक बार जी में आया चिता में जा बैठूं सारा कुनबा एक साथ ईश्वर के दरबार में जा पहुंचे। लेकिन फिर सोचा - तूने अभी ऐसा कौन काम किया है, जिसका इतना ऊँचा पुरस्कार मिले? बहन चिता की लपटों में मुझे ऐसा मालुम हो रहा था कि अम्मॉ जी सचमुच भान को गोद में लिए बैठी मुस्करा रहीं है और स्वामी जी खड़े मुझसे कह रहे हैं, तुम जाओ और निश्चित होकर काम करो। मुझ पर कितना तेज था। रक्त और अग्नि ही में तो देवता बसेत हैं।
          मैंने सिर उठाकर देखा। नदी के किनारे न जाने कितनी चिताएँ जल रही थीं। दूर से वह चितवली ऐसी मालूम होती थी, मानो देवता ने भारत का भाग्य गढ़ने के लिए भट्टियॉँ जलायीं हों।
          जब चितां राख हो गयी तो हम लोग लौटे लेकिन उस घर मे जाने की हिम्मत न पड़ी। मेरे लिए अब वह घर, घर न था! मेरा घर तो अब यह है, जहाँ बैठी हूं या फिर वही चिता। मैंने घर का द्वार भी न खोला। महिला आश्रम में चली गयी। कल की गोलियों में कांग्रेस कमेटी का सफाया हो गया था। यह संस्था बागी बना डाली गयी थी। उसके दफ्तर पर पुलिस ने छापा मारा और उस पर अपना ताला डाल दिया। महिला आश्रम में भी हमला हुआ। उस पर अपना ताला डाल दिया। हमने एक वृक्ष की छॉँह में अपना नया दफ्तर बनाया और स्वच्छंदता के साथ काम करते रहे। यहाँ दीवारें हमें कैद न करी सकती थीं। हम भी वायु के समान मुक्त थे।
संध्या समय हमने एक जुलूस निकालने का फैसला किया। कल के रक्तपात की स्मृति, हर्ष और मुबारकबाद में जुलूस निकालना आवयश्क था। लोग कहते हैं, जुलूस निकालने से क्या होता है? इससे यह सिद्ध होता है कि हम जीवित हैं, अटल हैं और मैदान से हटे नहीं है। हमें अपने हार न मानने वाले आत्मभिमान का प्रमाण देना था। हमें यह दिखाना था कि, हम गोलियों और अत्याचार से भयभीत होकर अपने लक्ष्य से हटने वाले नहीं और हम उस व्यवस्था का अन्त करके रहेंगे, जिसका आधार स्वार्थ - परता और खून पर है। उधर पुलिस ने भी जुलूस को रोककर अपनी शक्ति और विजय का प्रमाण देना आवश्यक समझा। शायद जनता को धोखा हो गया हो कि कल की दुघर्टना ने नौकरशाही का नैतिक ज्ञान जाग्रत कर दिया है इस धोखे को दूर करना उसने अपना कर्त्तव्य समझा। वह यह दिखा देना चाहती थी कि हम तुम्हारे ऊपर शासन करेंगे। तुम्हारी खुशी या नाराजगी की हमें परवाह नहीं हैं। जुलूस निकालने की मनाही हो गयी। जनता को चेतावनी दी गई गयी कि खबरदार जुलूस में न आना, नहीं दुर्गति होगी। इसका जनता ने वह जवाब दिया। जिसने अधिकारयों की आंखे खोल दी होगी। संध्या समय पचास हजार आदमी जमा हो गये। आज का नेतृत्व मुझे सौंपा गया था। में अपने ह्रदय में एक विचित्र बल उत्साह का अनुभव कर रही थी। एक अबला स्त्री जिसे संसार का कुछ ज्ञान नहीं, जिसने कभी घर से बाहर पॉव नहीं निकाला, आज अपने प्यारों के उत्सर्ग की बदौलत उस महान पद पर पहुँच गयी थी जो बड़े - बड़े अफसरों को भी बड़े - से - बड़े महाराजा को भी प्राप्त नहीं। मैं इस समय जनता के ह्रदय पर राज कर रही थी। पुलिस अधिकारियों की इसीलिए गुलामी करती है कि उसे वेतन मिलता है। पेट की गुलामी उससे सब कुछ करवा लेती है। महाराजा का हुक्म लोग इसलिए मानते है कि उससे उपकार की आशा या हानि का भय होता है। यह अपार जन - समुह क्या मुझसे किसी फायदे की आशा रखता था, उसे मुझसे किसी हानि का भय था? कदापि नहीं। फिर भी वह कड़े - से कड़े हुक्म को मानने के लिए तैयार था इसलिए कि जनता मेरे बलिदानों का आदर करती थीं, इसलिए कि उनके दिलों में स्वाधीनता की जो तड़प थी, गुलामी के जंजीरों को तोड़ देने की जो बेचैनी थी। मैं उस तड़प और बैचैनी की सजीव मूर्ति समझी जा रही थीं निश्चित समय पर जुलूस ने प्रस्थान किया। उसी वक्त पुलिस ने मेरी गिरफ्तारी का वारंट दिखाया। वारंट देखते ही तुम्हारी याद आयी। अब मुझे तुम्हारी जरूरत है। उस वक्त तुम मेरी हमदर्दी की भूखी थीं। अब मैं सहानुभूति की भिक्षा मांग रही हूं। मगर मुझमें अब लेशमात्र भी दुर्बलता नहीं हैं मैं चिंताओं से मुक्त हूं। मैजिस्ट्रेट जो कठोर से कठोर दंड प्रदान करे उसका स्वागत करूंगी। अब मैं पुलिस के किसी आक्षेप का असत्य आरोपण का प्रतिपाद न करूंगी, क्योंकि मैं जानती हूँ मैं जेल के बाहर रहकर जो कुछ कर सकती हूं, जेल के अन्दर रहकर उससे कहीं ज्यादा कर सकती हूँ। जेल के बाहर भूलों की सम्भावना है, बहकने का भय है, समझौते का प्रलोभन है, स्पर्धा की चिन्ता है, जेल सम्मान और भक्ति की एक रेखा है, जिसके भीतर शैतान कदम नहीं रख सकता। मैदान में जलता हुआ अलाव वायु में अपनी उष्णता को खो देता है। लेकिन इंजिन में बन्द होकर वही आग संचालक शक्ति का अखंड भंडार बन जाती है।
          अन्य देवियाँ भी आ पहुंचीं और मृदृला सबसे गले मिलने लगी। फिर भारत माता की जय की ध्वनि जेल की दीवारों को चीरती हुई आकाश में जा पहुँची।

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