कुलदीप सिन्हा "दीप"
बाग बगीचा मा कोयली के अब,
मीठ बोली नइ सुनावत हे।
सोंच मा पड़ गे हावे गा दुनिया,
दिन कइसन ये आवत हे।।ध्रुव पद।।
फूल के रस मा आज गा अब तो,
भौंरा नइ अघावत हे,
भौंरा नइ अघावत हे संगी,
भौंरा नइ अघावत हे।
तितली बिचारी भुखन प्यासन,
मन ला अपन मढ़ावत हे,
मन ला अपन मढ़ावत संगी,
मन ला अपन मढ़ावत हे।
बिन दाना के चिरई चुरगुन ---
असमय ही मर जावत हे।।1।।
जंगल मा फूल फल के बिना,
बेंदरा मन लुलवावत हे,
बेंदरा मन लुलवावत हे संगी,
बेंदरा मन लुलवावत हे।
वोखरे सेती वोमन अब तो,
गाँव डहर जी आवत हे,
गाँव डहर जी आवत हे संगी,
गाँव डहर जी आवत हे।
अब जंगल के जिनावर जीवन---
मुश्किल में जी बितावत हे।।2।।
मनखे मन हा घलो अब तो,
काम गा उल्टा करत हे,
काम गा उल्टा करत हे संगी,
काम गा उल्टा करत हे।
इही पाय के उंखर मन के,
बुद्धि घलो जी हरत हे।
बुद्धि घलो जी हरत हे संगी,
बुद्धि घलो जी हरत हे।
अब अइसन खेल तमाशा मोला---
समझ कुछु नइ आवत हे।।3।।
तरिया डबरी के पानी अब तो,
नरूवा नदिया मा जावत हे।
नरूवा नदिया मा जावत हे संगी,
नरूवा नदिया मा जावत हे।
उहाँ रहवइया जीव जंतु मन,
फोकट मा प्राण गँवावत हे।
फोकट मा प्राण गँवावत हे संगी,
फोकट मा प्राण गँवावत हे।
अइसन सब ला देख के मनखे---
सुधर काबर नइ पावत हे।।4।।
कुकरेल ( सलोनी ) धमतरी
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