-श्रवण कुमार साहू, "प्रखर"
प्रकृति ने बिखेरे हैं,
अजब-गजब के रंग|
कोई लिपटे लताओं से,
कोई उलझे काँटों संग||
जब धरती ने ओढ़ी चुनर,
मखमली सी हरी-हरी|
नीलाम्बर हुआ है बावला,
काले मेघ से भरी-भरी||
पावस का रूप देख कर,
चातक की आस बढ़ी|
चंचल चंद्र को निहारते,
देखो तो घड़ी-घड़ी||
गंधर्व बजाते दुंदुभी,
बिजली नृत्य कर रही |
यक्ष जब राग सुनाते,
वसुधा तृप्त हो रही ||
झरने से बहते पानी,
ज्यों सावन की जवानी|
मोर झूम-झूम नाचे,
होकर मानो मस्तानी||
फूल खिलने लगे हैं,
बरखा की बाग में|
मन भौंरा जल रहा है,
मिलन की आग में||
अरे,मेरे चाँद का पता ,
कोई ढूँढ कर तो लाओ|
इंद्रधनुष कह उठा,
उसे और न लजाओ||
जुगनुओं से पूछा मैंने,
सूरज कहाँ खो गया|
वो गर्मी से थक गया था,
इस कारण से सो गया||
शिक्षक/साहित्यकार, राजिम गरियाबंद (छ. ग. )
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