जगतसिंह ठाकुर 'बंजारीवाले'
सावन के हे अमावस , हरेली कह तिहार ।
मानय छत्तीसगढ़ हे , मन आनन्द अपार ।।1।।
पूजा करथें किसनहा , मात हरेली पाँव ।
लैका मन गेंड़ी चढ़यँ , गाँव भर ठाँव-ठाँव ।।2।।
बनवा के गेंड़ी जमे , खेलथें गली खोल ।
ही ही बकबक सब करैं , खुसी के निये मोल ।।3।।
टूरी - टूरा सब चढ़यँ , करथे गेंड़ी सोर ।
चररमरर करत रहिथे , नरिहर डोरा जोर ।।4।।
छानी - परवा चढ़ कहूँ , गेंड़ी चढ़थें आज ।
मस्ती मिलके करत हें , देखव बाल समाज ।।5।।
देखव खेलत दउड़ हें , कोनो गेंड़ी मार ।
कोनो मारत गिरत हें , कोन मुहूँ के भार ।।6।।
फूटय काखर मुड़ घलो , ऐसन गेंड़ी खेल ।
खेलय दू फुटिया घलो , देवय कहूँ ल ठेल ।।7।।
काखर माड़ी - कोहनी , जावत हे छोलाय ।
कोनो चिखला म गिरथें , आठो अंग सनाय ।।8।।
गेंड़ी ल हे गिरय कउन , आज पीठ के भार ।
काखर कपार फूट गे , बहय लहू के धार ।।9।।
पेण्ट चिरावै काखरो , टूटत हावय दाँत ।
सौंक बड़े गेंड़ी चढ़े , कान नइ धरयँ बात ।।10।।
ए हावय गेंड़ी परब , मन लैकन के भाय ।
कह 'ठाकुर' दोहा रचे , गुर के चिला सुहाय ।।11।।
××××××××
जगतसिंह ठाकुर 'बंजारीवाले'
सम्पर्क सूत्र-9406057763 , 6266524261
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें