जाड़ दिन मा पानी झोरत हे
रुख राइ अखमुंदा काटे मनखे
माथा धर अन्ना दाता रोवत हे।
ठुठवा रुख तको उलहोवत हे
जगरोतहा मन ला सिखोवत हे
हाथ न होय ले करम न छोड़े बाबू
कमईया मनखे के लेखा नई हे।
जिनगी भर काटिन रुख राइ
जिनगी म नइ लगाइश बिरवा
तहू सुवार्थी मनखे अब तो संगी
प्रकृतिविद बनके ज्ञान झोरत हे।
शिव प्रसाद साहू
इरईकला राजनांदगाव
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