सुमत के दीया ला बारही कोन।
पुरखा मन ला जी तारही कोन।
दूसर के पय ला सबो खोलथे,
अपन ला इहाँ उघारही कोन।
हड़ताल मा जम्मो कुकरी हावे,
तब तो अंडा ला पारही कोन।
डोंगा चलइया नशा मा बुड़गे,
तब गंगा पार उतारही कोन।
राम भरत के प्रेम ला पढ़के,
खुद ला इहाँ सुधारही कोन।
भगवान के आगू मुड़ नइ नवाबे,
आवत क्लेश ला टारही कोन।
जम्मो बइगा मन जेल चलदिस
मनखे के भूत ला झारही कोन।
सब के भाग मा जीत लिखे रही,
तब ये दुनिया मा हारही कोन।
पड़े रही जे दुनिया दारी में "दीप"
वोखर ले वोला उबारही कोन।
कुलदीप सिन्हा "दीप"
कुकरेल ( सलोनी ) धमतरी
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