आस्था
आदतन
हम सभी
बहरूपिये हैं
रोज अलग - अलग
वेशभूषा में ...
रहते हैं फिरते
इधर - उधर
कोई भूख के लिए
बन जाता है याचक
तो कोई चोर बन
छीन लेता है
अपने हिस्से की भूख
स्वयं को बेच कोई
बन जाती है
देह की व्यापारी
और फिर पका लेती है
अपने हिस्से की रोटी
कोई रंग बिरंगी पोशाक पहन
पा लेता है ... बाँटकर
अपने हिस्से का सुख
आदतन हम
रोज ... बनते बिगड़ते हैं
आदतन हम
बहरूपिये ही तो हैं
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