पुस्तकों के एक पैकेट को चिपकाना था सो दादा जी सैलो टेप का छोर ढूंढ रहे थे,जो ऐसा चिपक गया था ,कि मिल ही नहीं रहा था।
नाखून की सहायता से सब जगह आजमा लिया;छोर नहीं मिला सो नहीं ही मिला।
उनके पास में बैठी हुई उनकी ढाई वर्षीय पोती बीच बीच में कुछ कुछ बोल रही थी,जिस पर अपनी धुन में मस्त दादा जी ध्यान ही नहीं दे रहे थे।
दादा जी को उपाय सूझा। कैंची के एक किनारे से टेप के बंडल को एक जगह पर हलके से खुरचा। बस छोर मिल गया इसी के सहारे; वे टेप को इच्छानुसार निकालने लगे।
पोती बोली "मैं तो कब थे यही बोल लही थी आप थुन ही नहीं लहे थे,अपनेहहहह ही काम में लदे थे।"
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