सुखदेव सिंह'अहिलेश्वर'
भगवन्ता भादो के महिना, छठ ॲंधियारी पाख।
परथे पबरित परब कमरछठ, तैं सुध सुरता राख।
बहिनी अउ दाई-माई मन, ए दिन रथें उपास।
सुफलित होथे मॉंग-मनौती, पक्का हे विश्वास।
भुॅंइया कोड़ बनाथें सगरी, बड़ सुग्घर संस्कार।
कॉंशी फूल बबा बिरवा कस, शोभय सगरी पार।
जुरियाथें दस-बीस उपसहिन, ए सगरी के तीर।
सुनथें कथा कहानी गुनथें, धर के मन मा धीर।
सगरी मा जल अरपित करथें, हाथ दुनोठन जोर।
माई ले कुछ अरजी करथें, फर नरियर के फोर।
रहय सुमत सुख सम्मत सरलग, चिरंजीव संतान।
अइसन पावन निरमल हिरदय, नारी नर के खान।
मउहा चना मसूर गहूॅं अउ, लाई के परसाद।
समय हमर संतानन ला तैं, खरचा मा झन लाद।
मउहा पाना के पतरी मा, पसहर के पकवान।
मनखे के यात्रा के हमला, देवावत हे ध्यान।।
गोरखपुर कबीरधाम छत्तीसगढ़
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