पद्मा मिश्रा
गोल घिरते जिन्दगी के व्यूह इतने,
हर मोड़ पर ज्यों घूमती है गोल रोटी
फिर भी कोई आस मन की अनबुझी सी,
सिंक रही हैं भावनाएं रोटियों सी,
मै घुमाती हूँ समस्याओं के पट पर,
उलझनें आटे सी कोमल और गीली,
भूख सी फैली हुई है आंच मन की,
सिंक रही हैं भावनाएं रोटियों सी,
कल फिर खिलेगा क्षुधा का विकराल सूरज,
फिर सजेगा घर का कोई एक कोना,
थालियों में सज उठेंगी कामनाएं,
फिर कोई सपना दिखाती प्यास होगी,
सब्जियों सी काटती हूँ,दर्द की हर रात बीती,
सिंक रही हैं भावनाएं रोटियों सी.
दाल पकती ज्यों कोई भूली कहानी,
हास हल्दी का.., नमक सी पीर जग की,
प्रार्थनाएं छौंक सी बेवक्त उठतीं,
घुट रही साँसों में जीवन की उदासी.
सिंक रही हैं भावनाएं रोटियों सी.
यह रसोईं है मेरे सपनो की दुनिया ,
मधुरता कविता में निशि दिन घोलती हूँ,
चाकुओं को धार देती सोचती हूँ
,कर रही हूँ धार पैनी अक्षरों की ..
और गढ़ रही हूँ गीत कोई स्वप्नदर्शी .
सिंक. रही हैं भावनाएं रोटियों सी .
गोल घिरते जिन्दगी के व्यूह इतने,
हर मोड़ पर ज्यों घूमती है गोल रोटी
फिर भी कोई आस मन की अनबुझी सी,
सिंक रही हैं भावनाएं रोटियों सी,
मै घुमाती हूँ समस्याओं के पट पर,
उलझनें आटे सी कोमल और गीली,
भूख सी फैली हुई है आंच मन की,
सिंक रही हैं भावनाएं रोटियों सी,
कल फिर खिलेगा क्षुधा का विकराल सूरज,
फिर सजेगा घर का कोई एक कोना,
थालियों में सज उठेंगी कामनाएं,
फिर कोई सपना दिखाती प्यास होगी,
सब्जियों सी काटती हूँ,दर्द की हर रात बीती,
सिंक रही हैं भावनाएं रोटियों सी.
दाल पकती ज्यों कोई भूली कहानी,
हास हल्दी का.., नमक सी पीर जग की,
प्रार्थनाएं छौंक सी बेवक्त उठतीं,
घुट रही साँसों में जीवन की उदासी.
सिंक रही हैं भावनाएं रोटियों सी.
यह रसोईं है मेरे सपनो की दुनिया ,
मधुरता कविता में निशि दिन घोलती हूँ,
चाकुओं को धार देती सोचती हूँ
,कर रही हूँ धार पैनी अक्षरों की ..
और गढ़ रही हूँ गीत कोई स्वप्नदर्शी .
सिंक. रही हैं भावनाएं रोटियों सी .
प्रकृति- पर्व के गीत
पद्मा मिश्रा
धूप के नन्हे नन्हे टुकड़े
चितकबरे से,,
जैसे खेलते लुकाछिपी का खेल
कुछ शरारती बच्चे,,
झर रही है नीम की पत्तियां,
सर सर मर मर,,,,
बदलते मौसम के गीत गाती प्रकृति
और भावनाओं का तपता सूरज
उतर रहा धरती के हरित अंचल पर
धीरे ,,,धीरे,, धीरे,,!
पिघलती,,बिखरती धूप के मृगछौने,
बतिया रहे हैं,, जहां तहां,,
और थरथराती शीत गुम हो रही है
धरती कुछ और संवरती
गुनगुनाती सी,,तप उठती है
युगों से वहीं खड़ी,, प्रिय सूरज के
स्वागत में
युगों से,, युगों तक?
--1-फसलों की रानी ओढे चूनर धानी
मन की पतंग उडे नील-आसमानी
झूमे धरती -लहरे नदिया का पानी
आओ सखी सपनों की दुनिया बसायें
मांदर के बोलों पर झूमे नाचे गायें
आज मकर संक्रांति बेलासुहानी
नाच उठा तनमन -जागीं सुधियां पुरानी
आओ सखी अनुरागी चूनर सजाये
मांदर के बोलों पर झूमे नाचे गायें
(२)
झूम उठी धरती की मोहक अंगडाई हैं
मांदर के ताल पर पुरवा लहराई हैं
गुड की मिठास लिये रिश्तोंको सजने दें
सखी आज मौसम को जी भर संवरने दें
नदिया के तट किसने बांसुरी बजाई हैं
झूम उठी धरती की मोहक अंगडाई हैं
हरियाली खेतों की,धानी चूनर मन की
भींगे से मौसम में साजन के आवन की
थिरक रहे नूपुर ज्योंगोरी शरमाई हैं
झूम उठी धरती की मोहक अंगडाई हैं
टुसू का परब आज नाचे मन का मयूर
मतवारे नैनों में प्रीत का नशा हैं पूर
सूरज की नई किरऩ लालिमा सी छाईहै
झूम उठी धरती की मोहक अंगडाई हैं
बहक रही मादकता ,जाग रही चंचलता
घुंघरु के बोल बजे,बिहु के गीत सजे
घर आंगन वन उपवन जागी तरुणाई हैं
झूम उठी धरती की मोहक अंगडाई हैं,,,,
पद्मा मिश्रा
3)
प्रकृति के आंगन में
शीत से कांपती सहमी दीवारों पर
धूप के नन्हे नन्हे टुकड़े
चितकबरे से,,
जैसे खेलते लुकाछिपी का खेल
कुछ शरारती बच्चे,,
झर रही है नीम की पत्तियां,
सर सर मर मर,,,,
बदलते मौसम के गीत गाती प्रकृति
करती है स्वागत-नये सूरज का,
और भावनाओं का तपता सूरज
उतर रहा धरती के हरित अंचल पर
धीरे ,,,धीरे,, धीरे,,!
पिघलती,,बिखरती धूप के मृगछौने,
बतिया रहे हैं,, जहां तहां,,
और थरथराती शीत गुम हो रही है
धरती कुछ और संवरती
गुनगुनाती सी,,तप उठती है
युगों से वहीं खड़ी,, प्रिय सूरज के
स्वागत में
युगों से,, युगों तक?
जमशेदपुर झारखंड
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