अरुण धर्मावत
तन्हा रहने को यहाँ मजबूर हुए
खुद ही खुद से सब यहाँ दूर हुए
बात करने का फ़लसफ़ा ना रहा
अपने में ही सब यहाँ मशगूल हुए
कौन रोकेगा किसी जुम्बिश को
बेख़ौफ़ तो सारे यहाँ जमहूर हुए
लिखते रहे हम दर्द के किस्से
दीवान लतीफ़ों के यहाँ मकबूल हुए
होती नहीं आँख भी पुरनम कोई
ऐसे बदले वक्त के यहाँ महबूब हुए
करतें हैं जो बात अब अलगाव की
मसीहा ऐसे आज यहाँ मशहूर हुए
इस दश्त में दिखता नहीं कोई बशर
लगता है सारे यहाँ मग़रूर हुए
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