संतोष कुमार सोनकर मंडल
विश्व के गिने - चुने स्थानों में पंचमुखी महादेव के दर्शन होते हैं। आज भी रेत से शिवलिंग बनाने की परंपरा है। खासकर कार्तिक पूर्णिमा, महाशिवरात्रि व अन्य अवसरों पर श्रद्धालुओं द्वारा रेत से शिवलिंग बनाकर पूजा अर्चना की जाती है। भगवान राम ने सेतु निर्माण के समय रामेश्वरम में शिवलिंग की स्थापना किया तथा सीता माता ने राजिम में कुलेश्वरनाथ महादेव की स्थापना कर इस भूमि को पवित्र बना दिया। जानकारी के अनुसार छत्तीसगढ़ के खरौद में लक्ष्मण ने लक्ष्मणेश्वर नाथ महादेव की स्थापना किया है।
प्राचीन पट्टनापुरी वर्तमान पटेवा ग्राम है जहां भगवान पटेश्वरनाथ महादेव लिंग रूप में स्थापित है। रायपुर देवभोग राजमार्ग में दक्षिण दिशा की ओर राजिम से 7 किलोमीटर की दूरी पर यह ग्राम बसा हुआ है। यह पंचकोसी परिक्रमा का प्रथम पड़ाव है। 18 एकड़ क्षेत्र में फैले सरोवर में स्नान आदि नित्य क्रिया करके यात्रीगण रुद्राभिषेक जप ध्यान पूजन आराधना करते हैं। कहा जाता है कि जो विधि पूर्वक पूजा अर्चना करके महानदी के जल से रुद्राभिषेक करता है वह समस्त पातकों से मुक्त हो जाता है। लोककथा प्रचलित है कि सीता ने स्नान उपरांत शिवलिंग पर अभिषेक की इच्छा जाहिर की और हनुमान से कहा कि तुम काशी से शिवलिंग ले आओ। आने में उसे देरी होने पर सीता ने स्वयं रेत से शिवलिंग बना लिया और पूजा करना शुरू कर दिए। दूर से हनुमान उन्हें देखकर कहा कि माता आपने मुझे शिवलिंग के लिए भेज दिया और खुद अपने हाथों से शिवलिंग का निर्माण कर दिया अब इसे मैं कहां रखूं। तब सीता ने कहा कि हनुमान तुम जहां हो वहां उस शिवलिंग को पाट दो। वही फिर पटेश्वरनाथ के नाम से विख्यात हुआ।
राजिम से उत्तर पूर्व में 14 किलोमीटर की दूरी पर आरंग सड़क मार्ग में महानदी के तट पर भगवान चंपकेश्वरनाथ महादेव एवं महाप्रभु वल्लभाचार्य की पुण्य भूमि चंपारण स्थित है। श्रीमद्राजीवलोचन महात्तम के अनुसार बृद्धारण्यम मुनी के कहने पर चंपक राजा ने कुबेर किन्नर देवता मुनि तथा ब्राह्मणों को बुलाकर यज्ञ करवाया। यज्ञ में अपने अपने भाग लेकर देव और ऋषिगण संतुष्ट हो गए। तब महादेव से वर पाकर चंपक राजा ने चंपारण नामक पुर में चंपककेश्वर नाथ महादेव की स्थापना की। यह पंचकोशी परिक्रमा का 23 धाम है। लिंग पुराण के अनुसार चंपककेश्वर भगवान शिव की तत्पुरुष नाम वाली मूर्ति के रूप में विख्यात है, जिनकी उपासना प्राण रूप में की जाती है। पंचकोशी स्वरूप की दृष्टि से चंपककेश्वर महादेव प्राणमय कोष के प्रतीक है। मंदिर में त्रिस्वरूपात्मक शिव का स्वयंभू शिवलिंग प्रतिष्ठित है। पूर्व की ओर शिव, दक्षिण में गणपति एवं पश्चिम में पार्वती जी है।
चंपारण से 9 किलोमीटर की दूरी पर सुरम्य आम्रकुंजो एवं निरंतर प्रवाह मान निर्झर शीतली नाला के तट पर ग्राम बम्हनी स्थित है। यह महादेव की भूमि है जहां स्वयं आदिदेव लिंग रूप में ब्रह्माकेस्वरनाथ महादेव के नाम से प्रसिद्ध है। पंचकोसी परिक्रमा का यह तीसरी सीढ़ी है। शास्त्रों के अनुसार भगवान विष्णु की आज्ञा से ब्रह्मा ने सृष्टि की रचना की तब उस अनुपम सृष्टि को देखने के लिए शेषनाग शरीर रूप धारण करके भ्रमण करने लगे। उन्होंने देखा कि सभी प्राणी ईश्वर की माया से अभिभूत हो रहे थे। उन्हें मुक्त करने की इच्छा से शेषनाग सृष्टि से पृथक कमलक्षेत्र आए और भगवान राजीवलोचन के दर्शन कर वर प्राप्त किया तथा पार्वती सहित फणीकेश्वर नाथ शिवलिंग की स्थापना की। पंचकोशात्मक स्वरूप की दृष्टि से फनीकेश के चतुर्थ अनुवाक कोश के दूसरे अंश में विज्ञानमय पुरुष का वर्णन मिलता है। कोपरा ग्राम स्थित कर्पुरेस्वरनाथ महादेव पंचकोसी परिक्रमा का अंतिम पड़ाव अर्थात पांचवा शिवधाम है। राजिम से दक्षिण की ओर गरियाबंद मुख्य मार्ग में 16 किलोमीटर की दूरी पर यह आवासित गांव है। कोपरा का नाम कर्पूरेश्वर शब्द का ही अपभ्रंश है। तदनुसार पूरा गांव उनके डमरू के ऊपर बसा हुआ है। गांव की बसाहट बिल्कुल महादेव की डमरू के आकार में है। यहां स्थित महादेव पश्चिम की ओर बने दलदली तालाब की भीतर गहरे जल के ऊपर प्रतिष्ठित है इसे संख सरोवर भी कहा जाता है। यह सरोवर पातकों को दूर करने वाला है। पंचकोशात्मक स्वरूप की दृष्टि से कर्पूरेश्वरनाथ महादेव आनंदमय कोष के प्रतीक है। राजीवक्षेत्र महत्त्य के पूर्वार्ध के अध्याय 15 में कर्पूरेश्वरनाथ महादेव का वर्णन करते हुए लिखा गया है कि देवर्षि नारद पंचकोशी क्षेत्र का भ्रमण करते हुए फणिपुर से आगे बढ़े तो उन्होंने एक पवित्र सरोवर को देखा। वह सरोवर विष्णु के पांच्जन्य नामक शंख से युक्त था तथा जल भरा हुआ था। उस सौंदर्य से भरे सरोवर के विषय में पुंडरीक मुनि ने देवर्षि नारद को बताया यह शंख सरोवर है। जिस पर भगवान कर्पूरेश्वरनाथ महादेव विराजमान है। ब्रह्मा ने कर्पुरेश्वर नाम से शिव जी को पुकारा था। तब से महादेव इस नाम से जाना जाता है। पूरे एक सप्ताह में यह यात्रा पूरी होती है। इस समय यात्रीगण अपनी आवश्यकता के सामानों को अपने सिर पर रखकर बिना जूते चप्पल के चलते हैं। मान्यता है कि इस दौरान उनके पांव में कोई खरोच भी नहीं आते। पंचकोशी परिक्रमा की यात्रा करने लोग लालायित रहते हैं। यह भारतवर्ष का अति प्राचीन परिक्रमा है जो लगातार उभर रहा है। श्रद्धालुगण लगातार प्रतिदिन पैदल चलकर अपने शरीर को पुष्ट बनाते हैं।
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