इस अंक के रचनाकार

इस अंक के रचनाकार आलेख खेती-किसानी ले जुड़े तिहार हरे हरेलीः ओमप्रकाश साहू ' अंकुर ' यादें फ्लैट सं. डी 101, सुविधा एन्क्लेव : डॉ. गोपाल कृष्ण शर्मा ' मृदुल' कहानी वह सहमी - सहमी सी : गीता दुबे अचिंत्य का हलुवा : राजेन्द्र प्रसाद काण्डपाल एक माँ की कहानी : हैंस क्रिश्चियन एंडर्सन अनुवाद - भद्रसैन पुरी कोहरा : कमलेश्वर व्‍यंग्‍य जियो और जीने दो : श्यामल बिहारी महतो लधुकथा सीताराम गुप्ता की लघुकथाएं लघुकथाएं - महेश कुमार केशरी प्रेरणा : अशोक मिश्र लाचार आँखें : जयन्ती अखिलेश चतुर्वेदी तीन कपड़े : जी सिंग बाल कहानी गलती का एहसासः प्रिया देवांगन' प्रियू' गीत गजल कविता आपकी यह हौसला ...(कविता) : योगेश समदर्शी आप ही को मुबारक सफर चाँद का (गजल) धर्मेन्द्र तिजोरी वाले 'आजाद' कभी - कभी सोचता हूं (कविता) : डॉ. सजीत कुमार सावन लेकर आना गीत (गीत) : बलविंदर बालम गुरदासपुर नवीन माथुर की गज़लें दुनिया खारे पानी में डूब जायेगी (कविता) : महेश कुमार केशरी बाटुर - बुता किसानी/छत्तीसगढ़ी रचना सुहावत हे, सुहावत हे, सुहावत हे(छत्तीसगढ़ी गीत) राजकुमार मसखरे लाल देवेन्द्र कुमार श्रीवास्तव की रचनाएं उसका झूला टमाटर के भाव बढ़न दे (कविता) : राजकुमार मसखरे राजनीति बनाम व्यापार (कविता) : राजकुमार मसखरे हवा का झोंका (कविता) धनीराम डड़सेना धनी रिश्ते नातों में ...(गजल ) बलविंदर नाटक एक आदिम रात्रि की महक : फणीश्वर नाथ रेणु की कहानी से एकांकी रूपान्तरणः सीताराम पटेल सीतेश .

शनिवार, 20 फ़रवरी 2021

कमलक्षेत्र में पंचकोशी परिक्रमा की परंपरा

संतोष कुमार सोनकर मंडल

           राजिम नगरी का उल्लेख पुराणसम्मत बताया जाता है। सतयुग में राजा रत्नाकर द्वारा यज्ञ करने की जानकारी मिलती है तथा इसे कमलक्षेत्र कहा जाता है। श्रीमद्राजीवलोचनमहत्तम के अनुसार ब्रह्मा सहित देवतागण विचार करने लगे कि मृत्युलोक में दुष्टो की शांति के लिए क्या करना चाहिए? अविनाशी परमात्मा का ध्यान किया तो एकत्रित देवताओं को एक बड़ा आश्चर्य देखने को मिला। सूर्य के समान तेज वाला एक कमल फूल गोलोक से गिरा जो पांच कोश लंबा और सुगंध से भरा था जिसमें भंवरे गुँजार कर रहे थे। फूल का रस टपक रहा था मानो यह अमृत कलश है इसे देखकर ब्रह्माजी बहुत प्रसन्न हुए और आज्ञा दी कि हे पुष्कर तुम मृत्युलोक में जाओ जहां तुम गिरोगे वह क्षेत्र पवित्र हो जाएगा। नाल सहित वह मनोहरी कमल पृथ्वी पर गिरा और पांच कोश भूमंडल को व्याप्त कर लिया जिसके स्वामी स्वयं भगवान राजीवलोचन है कमल फूल की पंखुड़ी थी इन्हीं पांचो पंखुड़ियों में पांच स्वयंभू शिवपीठ स्थापित है। पटेवा में पटेश्वरनाथ महादेव, चंपारण में चंपकेश्वरनाथ महादेव, बम्हनी में ब्रह्नोश्वरनाथ महादेव, फिंगेश्वर में फणीकेश्वरनाथ महादेव और कोपरा में कर्पूरेश्वरनाथ महादेव। जिसके मूल में पंचमुखी कुलेश्वर नाथ महादेव स्थापित है। लिंग पुराण में कथन है कि समस्त लोको के श्रत्व ( रक्षक ) परमात्मा शिव की पांच मूर्तियां विख्यात है। उन्हें पंच ब्रह्मा अर्थात परब्रह्मा के पांच स्वरूप के नाम से जानते हैं।। पंचकोशी यात्रा की शुरुआत 11 जनवरी से पूरी तैयारी के साथ होती है। 12 जनवरी को सुबह यात्रा निकल पड़ती है। यह भारत की प्रमुख पंचकोशी यात्राओं में से एक है। इस परिक्रमा की परंपरा प्राचीन काल से माना जाता है, जिसका अनुसरण करते हुए आज भी लोग बड़ी संख्या में यात्रा को करते हैं। कहा जाता है कि इच्छित वरदान इस यात्रा को करने से भगवान भोलेनाथ प्रदान करते हैं।। क्रमशः सभी शिवपीठ में एक रात्रि विश्राम किया जाता है, तथा शिवलिंग पर पूजन अभिषेक के साथ ही उनके नामों का गुणानुवाद ईश्वर के नजदीक ले जाने का काम करते हैं। भगवान कुलेश्वरनाथ महादेव को कोटि लिंगो का स्वामी माना जाता है। यहां से पंचकोशी यात्रा पूर्ण होती है। किवदंती है कि त्रेता युग में वनवास काल के दौरान दशरथ पुत्र राम, लक्ष्मण एवं पुत्रवधू सीता के साथ ब्रह्मर्षि लोमश ऋषि से मिलने उनके आश्रम आए थे। विश्राम पश्चात माता सीता संगम स्नान के उपरांत अपने आराध्य देव की पूजा आराधना के लिए बालू ( रेत ) से शिवलिंग बनाकर पूजा अर्चना की तथा उसमें डाली गई जल से शिवलिंग पंचमुखी हो गया इसलिए इसे पंचमुखी कुलेश्वरनाथ महादेव कहा जाता है।
            विश्व के गिने - चुने स्थानों में पंचमुखी महादेव के दर्शन होते हैं। आज भी रेत से शिवलिंग बनाने की परंपरा है। खासकर कार्तिक पूर्णिमा, महाशिवरात्रि व अन्य अवसरों पर श्रद्धालुओं द्वारा रेत से शिवलिंग बनाकर पूजा अर्चना की जाती है। भगवान राम ने सेतु निर्माण के समय रामेश्वरम में शिवलिंग की स्थापना किया तथा सीता माता ने राजिम में कुलेश्वरनाथ महादेव की स्थापना कर इस भूमि को पवित्र बना दिया। जानकारी के अनुसार छत्तीसगढ़ के खरौद में लक्ष्मण ने लक्ष्मणेश्वर नाथ महादेव की स्थापना किया है।
            प्राचीन पट्टनापुरी वर्तमान पटेवा ग्राम है जहां भगवान पटेश्वरनाथ महादेव लिंग रूप में स्थापित है। रायपुर देवभोग राजमार्ग में दक्षिण दिशा की ओर राजिम से 7 किलोमीटर की दूरी पर यह ग्राम बसा हुआ है। यह पंचकोसी परिक्रमा का प्रथम पड़ाव है। 18 एकड़ क्षेत्र में फैले सरोवर में स्नान आदि नित्य क्रिया करके यात्रीगण रुद्राभिषेक जप ध्यान पूजन आराधना करते हैं। कहा जाता है कि जो विधि पूर्वक पूजा अर्चना करके महानदी के जल से रुद्राभिषेक करता है वह समस्त पातकों से मुक्त हो जाता है। लोककथा प्रचलित है कि सीता ने स्नान उपरांत शिवलिंग पर अभिषेक की इच्छा जाहिर की और हनुमान से कहा कि तुम काशी से शिवलिंग ले आओ। आने में उसे देरी होने पर सीता ने स्वयं रेत से शिवलिंग बना लिया और पूजा करना शुरू कर दिए। दूर से हनुमान उन्हें देखकर कहा कि माता आपने मुझे शिवलिंग के लिए भेज दिया और  खुद अपने हाथों से शिवलिंग का निर्माण कर दिया अब इसे मैं कहां रखूं। तब सीता ने कहा कि हनुमान तुम जहां हो वहां उस शिवलिंग को पाट दो। वही फिर पटेश्वरनाथ के नाम से विख्यात हुआ।
             राजिम से उत्तर पूर्व में 14 किलोमीटर की दूरी पर आरंग सड़क मार्ग में महानदी के तट पर भगवान चंपकेश्वरनाथ महादेव एवं महाप्रभु वल्लभाचार्य की पुण्य भूमि चंपारण स्थित है। श्रीमद्राजीवलोचन महात्तम के अनुसार बृद्धारण्यम मुनी के कहने पर चंपक राजा ने कुबेर किन्नर देवता मुनि तथा ब्राह्मणों को बुलाकर यज्ञ करवाया। यज्ञ में अपने अपने भाग लेकर देव और ऋषिगण  संतुष्ट हो गए। तब महादेव से वर पाकर चंपक राजा ने चंपारण नामक पुर में चंपककेश्वर नाथ महादेव की स्थापना की। यह पंचकोशी परिक्रमा का 23 धाम है। लिंग पुराण के अनुसार चंपककेश्वर भगवान शिव की तत्पुरुष नाम वाली मूर्ति के रूप में विख्यात है, जिनकी उपासना प्राण रूप में की जाती है। पंचकोशी स्वरूप की दृष्टि से चंपककेश्वर महादेव प्राणमय कोष के प्रतीक है। मंदिर में त्रिस्वरूपात्मक शिव का स्वयंभू शिवलिंग प्रतिष्ठित है। पूर्व की ओर शिव, दक्षिण में गणपति एवं पश्चिम में पार्वती जी है।
            चंपारण से 9 किलोमीटर की दूरी पर सुरम्य आम्रकुंजो एवं निरंतर प्रवाह मान निर्झर शीतली नाला के तट पर ग्राम बम्हनी स्थित है। यह महादेव की भूमि है जहां स्वयं आदिदेव लिंग रूप में ब्रह्माकेस्वरनाथ महादेव के नाम से प्रसिद्ध है। पंचकोसी परिक्रमा का यह तीसरी सीढ़ी है। शास्त्रों के अनुसार भगवान विष्णु की आज्ञा से ब्रह्मा ने सृष्टि की रचना की तब उस अनुपम सृष्टि को देखने के लिए शेषनाग शरीर रूप धारण करके भ्रमण करने लगे। उन्होंने देखा कि सभी प्राणी ईश्वर की माया से अभिभूत हो रहे थे। उन्हें मुक्त करने की इच्छा से शेषनाग सृष्टि से पृथक कमलक्षेत्र आए और भगवान राजीवलोचन के दर्शन कर वर प्राप्त किया तथा पार्वती सहित फणीकेश्वर नाथ शिवलिंग की स्थापना की। पंचकोशात्मक स्वरूप की दृष्टि से फनीकेश के चतुर्थ अनुवाक कोश के दूसरे अंश में विज्ञानमय पुरुष का वर्णन मिलता है। कोपरा ग्राम स्थित कर्पुरेस्वरनाथ महादेव पंचकोसी परिक्रमा का अंतिम पड़ाव अर्थात पांचवा शिवधाम है। राजिम से दक्षिण की ओर गरियाबंद मुख्य मार्ग में 16 किलोमीटर की दूरी पर यह आवासित गांव है। कोपरा का नाम कर्पूरेश्वर शब्द का ही अपभ्रंश है। तदनुसार पूरा गांव उनके डमरू के ऊपर बसा हुआ है। गांव की बसाहट बिल्कुल महादेव की डमरू के आकार में है। यहां स्थित महादेव पश्चिम की ओर बने  दलदली तालाब की भीतर गहरे जल के ऊपर  प्रतिष्ठित है इसे संख सरोवर भी कहा जाता है। यह सरोवर पातकों को दूर करने वाला है। पंचकोशात्मक स्वरूप की दृष्टि से कर्पूरेश्वरनाथ महादेव आनंदमय कोष के प्रतीक है। राजीवक्षेत्र महत्त्य के पूर्वार्ध के अध्याय 15 में कर्पूरेश्वरनाथ महादेव का वर्णन करते हुए लिखा गया है कि देवर्षि नारद पंचकोशी क्षेत्र का भ्रमण करते हुए फणिपुर से आगे बढ़े तो उन्होंने एक पवित्र सरोवर को देखा। वह सरोवर विष्णु के पांच्जन्य नामक शंख से युक्त था तथा जल भरा हुआ था। उस सौंदर्य से भरे सरोवर के विषय में पुंडरीक मुनि ने देवर्षि नारद को बताया यह शंख सरोवर है। जिस पर भगवान कर्पूरेश्वरनाथ महादेव विराजमान है। ब्रह्मा ने कर्पुरेश्वर नाम से शिव जी को पुकारा था। तब से महादेव इस नाम से जाना जाता है। पूरे एक सप्ताह में यह यात्रा पूरी होती है। इस समय यात्रीगण अपनी आवश्यकता के सामानों को अपने सिर पर रखकर बिना जूते चप्पल के चलते हैं। मान्यता है कि इस दौरान उनके पांव में कोई खरोच भी नहीं आते। पंचकोशी परिक्रमा की यात्रा करने लोग लालायित रहते हैं। यह भारतवर्ष का अति प्राचीन परिक्रमा है जो लगातार उभर रहा है। श्रद्धालुगण लगातार प्रतिदिन पैदल चलकर अपने शरीर को पुष्ट बनाते हैं।
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