डॉ. प्रेमकुमार पाण्डेय
दरख्¸तों के साये, खुद में समाने लगे हैं।
ये फरिश्ते भी,बहकावे में आने लगे हैं।
नफ़रतों का बाजार,अपने उफान पर है,
हम ही बेंचने और, खरीदने जाने लगे हैं।
सभी को चाहिए,रंगो - बू की हसीन दुनिया,
जड़ों को पानी पिलाने से, कतराने लगे हैं।
हम खुद आस्तीन में,खंजर छिपाए चलते हैं,
हर कमी पर, गैरों की ओर उंगली उठाने लगे हैं
हर शहर अपनीए पहचान खोता जा रहा है।
तहज़ीब के शहरी,दूसरों का दोष दिखाने लगे हैं
केन्द्रीय विद्यालय बी एम वाय
चरोदा,भिलाई 9826561819
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