पूनम चंद्रलेखा
सुबह के नौ बज रहे थे और स्वप्निल नयी दिल्ली से अलीगढ़ के लिए हड़बड़ी में सपरिवार कार से निकल चुका था। सुबह मोबाईल देर तक बजता रहा था। शायद उस तरफ से कोई बड़ी बेचैनी से बात करना चाहता है, किन्तु स्वप्निल बिना देखे ही कॉल बार - बार काट देता। बात करने का उसका बिलकुल मूड नहीं था।
इतवार, फुरसत का दिन। हँसी - खुशी और मौज - मस्ती करने का दिन। नाश्ते में भर पेट आलू के पराठे और दही खाकर आत्मा तक तृप्त हो गई स्वप्निल की। नेटफ्लिक्स पर पसंदीदा फिल्म चल रही थी। मोबाईल फिर बज उठा। उसने झुंझलाकर फोन उठाया तो देखा कि पापा का फोन है, ओफ्फो, फिर से,परसों कह तो दिया था कि अभी न आ सकूंगा। ऑफिस में ज़रूरी मीटिंग है। पापा ने एक बार आकर माँ को देख लेने और सुदेशना को भेजने की बात कही थी ताकि माँ का ख्याल रख सके, पर स्वप्निल ने रुखाई से यह कह कर कि बच्चों की परीक्षाएँ सिर पर हैं। सुशी न आ सकेगी। छोटे भाई सुमेश और उसकी पत्नी को बुलाने और नर्स का प्रबंध करने की बात कह कर फोन काट दिया था। अब क्या हो गया जो फिर से फोन ...जरा भी चैन नहीं है ... झुंझलाकर आवाज में भरपूर मिठास घोलते हुए उसने धीरे से कहा - हैलो पापा! कैसे हैं। शब्द उसके हलक में ही अटक गए। वाक्य पूरा भी न हुआ था कि दूसरी ओर से आवाज़ आई - तुम्हारी माँ चल बसी।
- ओह! अरे! कब! कैसे! क्या हो गया? कई प्रश्न जड़ दिए उसने।
- अभी! दस मिनट पहले, फोन काटा जा चुका था।
- जाना ही पड़ेगा। उसने पत्नी को तैयारी करने के लिए कहा जो पापा का नाम सुनते ही तनाव में आ गई थी। छोटा भाई सुमेश सपरिवार, पड़ोसी, मित्र, रिश्तेदारए आँखों में आँसू लिए ड्राइंगरूम में ज़मीन पर बैठे थे। एक ओर पापा चुपचाप शांत मुद्रा में बैठे थे। कमरे के बीचों - बीच एक बड़ा सा गोल लाल रंग का घेरा बना हुआ था जिसके एक किनारे पर स्वस्तिक का चिह्न बना था। रुमाल जितने बड़े सफेद रंग के कपड़े के नीचे कुछ ढका हुआ रखा हुआ था। कपड़े के ऊपर सफेद फूल रखे हुए थे। कमरा अगरबत्ती व धूपबत्ती के सुगन्धित धुएँ से भरा था। गायत्री मंत्र की धुन वातावरण को पवित्र दुखमय बना रही थी। सब चुप और शांत।
स्वप्निल ने कमरे में नज़रें दौड़ायीं और आश्चर्य मिश्रित नज़रों से पापा के कान में कांपते स्वर में फुसफुसाया - पापा, माँ ?
पापा ने घेरे की ओर इशारा किया। कुछ भी न समझते हुए डरते दिल से उसने धीरे से कपड़ा उठाया। पीतल की थाली में कागज़ का एक मुड़ा हुआ टुकड़ा रखा था। आश्चर्य से स्वप्निल ने कागज़ उठाया और खोल कर पढ़ने लगा -
प्रिय बच्चों! तुम्हें और तुम्हारे बच्चों को बस एक बार देखने की चाह लिए दुनिया से विदा हो रही हूँ। कई वर्षों से देखा नहीं था न, बहुत जरूरी ही काम होगा जो न आ पाए तुम लोग। खैर,मैं अपने शरीर और अंगों को जरूरत मंदों व शिक्षार्थियों के शोध हेतु समर्पित कर रही हूँ। तुम्हारे पापा ने सब इंतजाम कर दिया है। अंतिम संस्कार के तौर पर कागज़ के इस टुकड़े को भी पुनर्चक्रण के लिए दे देना। ईश्वर करे तुम्हारा बुढ़ापा तुम्हारे बच्चों संग हँसी - खुशी गुजरे, आशीर्वाद! तुम्हारी माँ
- तुम लोग आ जाते एक बार तो इस पत्र के नहीं अपनी माँ के अंतिम दर्शन कर पाते। पापा धीरे से बोले।
स्वप्निल हाथ में फड़फड़ाते उस कागज के टुकड़े से शब्दों को विसर्जित होते देखता रहा था। उसका बेटा कोने में बैठा मोबाईल पर गेम खेल रहा था।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें