बढ़ती ही चली जा रही है ज़ान पे आफत.
काबिज़ है सबकी ज़िंदगी पे ख़ौफ़े-क़यामत.
क्यों बात ये सीधी सी नहीं आती समझ में;
नफ़रत जो आज बोयेंगे,कल काटेंगे नफ़रत.
कितनों को था विश्वास कि भगवत्कृपा होगी;
कितनों को था यक़ीन करेगा ख़ुदा रहमत.
क्यों काजी-पुजारी,ख़ुदा-ईश्वर हुये बेबस;
पूजा,अजान,मन्दिरो-मस्जिद न दें राहत.
हर झूठ पे जब लोग बजाते हों तालियाँ;
सच बोलने की तब किसी को क्या है ज़रूरत.
धनपशु जो काटते नफ़ा,बाज़ार हैं जिनके;
है उनकी तिज़ारत के साथ शाहो-सियासत.
हम काँधों पे ढोते रहें बाखूब सर अपने ;
उस पर ये नसीहत, करें खुद अपनी हिफ़ाजत.
पत्थर लें बाँध पेट पे, हम आह न करें;
दहलीज न लांघें, न करें कोई शिकायत.
गुज़रे हैं इस गली से बिलानागा सुख मगर;
घर आये न मेरे कभी, मुझसे थी अदावत ? ;
मिठबोलियों की गोलियाँ खाने के बाद अब;
क्यों करते हो तुम नीम बयानी की हिमाक़त.
रोके से भी रुकते नहीं,हो जाते हैं बयां;
ज़ज़्बात भी आमादा हैं करने को बग़ावत.
पेश आये हैं हमसे वो कितनी नेकदिली से;
अब छोड़ दें हम कैसे अपनी सब्रो-शराफत.
काबू रखें ज़ज़्बात पे, सिल लें ज़ुबान भी;
हाकिम-ओ-हुक़ूमत की कीजिये न खिलाफत.
बेहतर है दिन में ख़्वाब देख खुली आंख से ;
नींदों ने छेड़ रक्खी है रातों से बगावत.
'महरूम' वो फ़सले-बहार लौट आयेगी ;
हर गुलशने-दिल में हैं ये उम्मीद सलामत.
******************************
गीत
वसुधैव कुटुम्बकम हम न रहे.
ऊपरवाले अब तेरे सबब
कोई भी शेष भरम न रहे.
बेतरह तेरे मजहब बेबस,
रक्षक कोई पंथ,धरम न रहे.
कोई मरा भूख से बीच सफर,
कोई विवश पेड़ से जा लटका;
कोई पिटा पुलिस से घायल घर ,
कोई दहशतजदा कहीं भटका;
मस्जिद,गुरुद्वारे,गिरजाघर,
मंदिर,मठ तीरथ,दरगाहें;
पूजा-नमाज,अरदास-दुआ,
व्रत और रोज़े हमकदम न रहे.
कोई रेल-पाँत के साथ चला,
फिर सोया मौत की गोदी में;
कोई किये आसरा बैठा है
लबरों की जबर मुँहधोंधी में;
साधन-सुविधाओं का अभाव,
अटका-भटका,भूखा श्रमबल;
उन पर अगुओं-पिछलगुओं के
कोई भी कृपा-करम न रहे.
कोई कफन ओढ़कर घर आया,
कोई पहुंच न पाया अपने घर;
कोई प्रसव बाद नवजात लिये,
पैदल ही चली मीलों का सफर ;
कोई जात-जमात,कौम-मजहब,
कोई धर्मग्रंथ,कोई सम्प्रदाय,
कोई काजी-पुजारी,इमाम-सन्त,
कोई शाह शरीके-ग़म न रहे.
अब बची हुई मर्यादा से
पदलिप्सा खुलकर खेल रही;
यह रय्यत धर्मभीरु बेबस,
घर पर ही उसको जेल रही.
गंगा-जमनी जीवन प्रवाह
हो रहा प्रदूषित,बाधित क्यों ?
किसने विद्वेष-विष घोल दिया,
वसुधैव कुटुंबकम हम न रहे!
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साईं पुरम कॉलोनी,कटनी.म.प्र.
काबिज़ है सबकी ज़िंदगी पे ख़ौफ़े-क़यामत.
क्यों बात ये सीधी सी नहीं आती समझ में;
नफ़रत जो आज बोयेंगे,कल काटेंगे नफ़रत.
कितनों को था विश्वास कि भगवत्कृपा होगी;
कितनों को था यक़ीन करेगा ख़ुदा रहमत.
क्यों काजी-पुजारी,ख़ुदा-ईश्वर हुये बेबस;
पूजा,अजान,मन्दिरो-मस्जिद न दें राहत.
हर झूठ पे जब लोग बजाते हों तालियाँ;
सच बोलने की तब किसी को क्या है ज़रूरत.
धनपशु जो काटते नफ़ा,बाज़ार हैं जिनके;
है उनकी तिज़ारत के साथ शाहो-सियासत.
हम काँधों पे ढोते रहें बाखूब सर अपने ;
उस पर ये नसीहत, करें खुद अपनी हिफ़ाजत.
पत्थर लें बाँध पेट पे, हम आह न करें;
दहलीज न लांघें, न करें कोई शिकायत.
गुज़रे हैं इस गली से बिलानागा सुख मगर;
घर आये न मेरे कभी, मुझसे थी अदावत ? ;
मिठबोलियों की गोलियाँ खाने के बाद अब;
क्यों करते हो तुम नीम बयानी की हिमाक़त.
रोके से भी रुकते नहीं,हो जाते हैं बयां;
ज़ज़्बात भी आमादा हैं करने को बग़ावत.
पेश आये हैं हमसे वो कितनी नेकदिली से;
अब छोड़ दें हम कैसे अपनी सब्रो-शराफत.
काबू रखें ज़ज़्बात पे, सिल लें ज़ुबान भी;
हाकिम-ओ-हुक़ूमत की कीजिये न खिलाफत.
बेहतर है दिन में ख़्वाब देख खुली आंख से ;
नींदों ने छेड़ रक्खी है रातों से बगावत.
'महरूम' वो फ़सले-बहार लौट आयेगी ;
हर गुलशने-दिल में हैं ये उम्मीद सलामत.
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गीत
वसुधैव कुटुम्बकम हम न रहे.
ऊपरवाले अब तेरे सबब
कोई भी शेष भरम न रहे.
बेतरह तेरे मजहब बेबस,
रक्षक कोई पंथ,धरम न रहे.
कोई मरा भूख से बीच सफर,
कोई विवश पेड़ से जा लटका;
कोई पिटा पुलिस से घायल घर ,
कोई दहशतजदा कहीं भटका;
मस्जिद,गुरुद्वारे,गिरजाघर,
मंदिर,मठ तीरथ,दरगाहें;
पूजा-नमाज,अरदास-दुआ,
व्रत और रोज़े हमकदम न रहे.
कोई रेल-पाँत के साथ चला,
फिर सोया मौत की गोदी में;
कोई किये आसरा बैठा है
लबरों की जबर मुँहधोंधी में;
साधन-सुविधाओं का अभाव,
अटका-भटका,भूखा श्रमबल;
उन पर अगुओं-पिछलगुओं के
कोई भी कृपा-करम न रहे.
कोई कफन ओढ़कर घर आया,
कोई पहुंच न पाया अपने घर;
कोई प्रसव बाद नवजात लिये,
पैदल ही चली मीलों का सफर ;
कोई जात-जमात,कौम-मजहब,
कोई धर्मग्रंथ,कोई सम्प्रदाय,
कोई काजी-पुजारी,इमाम-सन्त,
कोई शाह शरीके-ग़म न रहे.
अब बची हुई मर्यादा से
पदलिप्सा खुलकर खेल रही;
यह रय्यत धर्मभीरु बेबस,
घर पर ही उसको जेल रही.
गंगा-जमनी जीवन प्रवाह
हो रहा प्रदूषित,बाधित क्यों ?
किसने विद्वेष-विष घोल दिया,
वसुधैव कुटुंबकम हम न रहे!
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साईं पुरम कॉलोनी,कटनी.म.प्र.
mail : pdevendrakumara@gmail.com
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