इस अंक के रचनाकार

इस अंक के रचनाकार आलेख खेती-किसानी ले जुड़े तिहार हरे हरेलीः ओमप्रकाश साहू ' अंकुर ' यादें फ्लैट सं. डी 101, सुविधा एन्क्लेव : डॉ. गोपाल कृष्ण शर्मा ' मृदुल' कहानी वह सहमी - सहमी सी : गीता दुबे अचिंत्य का हलुवा : राजेन्द्र प्रसाद काण्डपाल एक माँ की कहानी : हैंस क्रिश्चियन एंडर्सन अनुवाद - भद्रसैन पुरी कोहरा : कमलेश्वर व्‍यंग्‍य जियो और जीने दो : श्यामल बिहारी महतो लधुकथा सीताराम गुप्ता की लघुकथाएं लघुकथाएं - महेश कुमार केशरी प्रेरणा : अशोक मिश्र लाचार आँखें : जयन्ती अखिलेश चतुर्वेदी तीन कपड़े : जी सिंग बाल कहानी गलती का एहसासः प्रिया देवांगन' प्रियू' गीत गजल कविता आपकी यह हौसला ...(कविता) : योगेश समदर्शी आप ही को मुबारक सफर चाँद का (गजल) धर्मेन्द्र तिजोरी वाले 'आजाद' कभी - कभी सोचता हूं (कविता) : डॉ. सजीत कुमार सावन लेकर आना गीत (गीत) : बलविंदर बालम गुरदासपुर नवीन माथुर की गज़लें दुनिया खारे पानी में डूब जायेगी (कविता) : महेश कुमार केशरी बाटुर - बुता किसानी/छत्तीसगढ़ी रचना सुहावत हे, सुहावत हे, सुहावत हे(छत्तीसगढ़ी गीत) राजकुमार मसखरे लाल देवेन्द्र कुमार श्रीवास्तव की रचनाएं उसका झूला टमाटर के भाव बढ़न दे (कविता) : राजकुमार मसखरे राजनीति बनाम व्यापार (कविता) : राजकुमार मसखरे हवा का झोंका (कविता) धनीराम डड़सेना धनी रिश्ते नातों में ...(गजल ) बलविंदर नाटक एक आदिम रात्रि की महक : फणीश्वर नाथ रेणु की कहानी से एकांकी रूपान्तरणः सीताराम पटेल सीतेश .

गुरुवार, 16 अप्रैल 2020

मुझे देव बन जाना है

             निधी नित्‍या
मुझे पसर जाना है, हर उस कागज़ पर
जिस पर प्रेम लिखा हो,
         मुझे बन जाना है बूंद
         हर उस स्याही की
         जो इश्क़ लिखती हो,
शेक्सपियर के पात्रों की
प्रेम पगी आवाज़ो में ,
         मुझे दाना दाना समा जाना है,
         रवीन्द्र के संगीत की
         प्रेम खुमारी पर
         सुर सुर बिखर जाना है,
मुझे नाप लेने हैं वो सारे नदी ,ताल
जिन पर प्रेमी जोड़े पैर डालकर
समय को बहाते हैं
        मुझे उतराना है
        दून के पहाड़ों से लेकर
        नीदरलैंड के झरनों तक
        सर्द हवा बनकर
मुझे आकाश ,और धरती को
बांध देना है एक रेशमी गांठ में
जिससे आकाश का रंग हरा
और धरती नीली हो जाए
        मुझे समेट लेनी है
        वो सारी देह गंध
        और सिसकियां ,
बिस्तर की सिलवटें और
उतरती रात की खुमारी ,जो
प्रेमी जोड़ों को बेचैन करती
         चिनार के चौड़े सीने के
         पीछे छिपकर तुम्हें
         देना है नर्म होठों का स्पर्श
         हरसिंगार के पेड़ के तले
         निर्वस्त्र लेटना है तुम्हारे साथ
         और रात भर गिरते हुए फूलों के
         नीचे छुप जाना है तुम्हारे संग
मुझे करनी है बगावत
समाज से, धर्म से ,चेहरे से
रंग से, उम्र से और हर सोच से
वो जो प्रेम को बाँचते हैं
प्रेम को बाँधते हैं देह से
        मुझे दाग देना है प्रेम को
         हर मन पर ,हर आत्मा पर
         ठीक उस तरह जैसे
         आसमान पर दागे गए थे
         हज़ारों तारे और
         मेरे तन पर तुमने
         हज़ारों चुंबन टांके थे

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें