बृजनाथ श्रीवास्तव
रही कहाँ वह
प्यार बतकही
चले गये दिन चौपालों के
प्यार बतकही
चले गये दिन चौपालों के
अपने अपने सुख-दुख सारे
बैठ जहांँ पर बतियाते थे
हिंदू मुस्लिम बड़े प्यार से
बढ़कर के हाथ मिलाते थे
निपट रहे थे
उलझे किस्से
सब छोटे बड़े बवालों के
ईद होलिका क्रिसमस लोहड़ी
सभी मनाते थे मिलकर के
भजन आरती और अजानें
सभी सुखी थे पढ़ पढ़ करके
खुले हुए थे
देहरी खिड़की
चर्चे उठे नहीं तालों के
आपसदारी में बँटवारा
समरसता की बेल सुखायी
भोगवाद के नये दिनों ने
काँटों उलझी राह सुझायी
दिवस सुनहरे
दास हुए अब
उल्टी सीधी ही चालों के
बैठ जहांँ पर बतियाते थे
हिंदू मुस्लिम बड़े प्यार से
बढ़कर के हाथ मिलाते थे
निपट रहे थे
उलझे किस्से
सब छोटे बड़े बवालों के
ईद होलिका क्रिसमस लोहड़ी
सभी मनाते थे मिलकर के
भजन आरती और अजानें
सभी सुखी थे पढ़ पढ़ करके
खुले हुए थे
देहरी खिड़की
चर्चे उठे नहीं तालों के
आपसदारी में बँटवारा
समरसता की बेल सुखायी
भोगवाद के नये दिनों ने
काँटों उलझी राह सुझायी
दिवस सुनहरे
दास हुए अब
उल्टी सीधी ही चालों के
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