मयस्सर डोर का आखरी मोती झड़ रहा है ,*
तारीखों के ज़ीने से दिसम्बर उतर रहा है ||
चेहरे घटे बढ़े इस साल भी जिंदगी में कई
गुजरे लम्हों पर झीना झीना पर्दा गिर रहा है ..।
फिर एक दिसम्बर गुजर रहा है....
गुनगुनी सुनहली धूप और ये ठिठुरती रातें
उम्र का पंछी नित दूर ,और दूर उड़ रहा है ।
कितने रंग देखे आँखों ने दगा और वफ़ा के
रिश्तों का खोखला कारोबार चढ़ उतर रहा है ।
*तारीखों के जीने से दिसम्बर उतर रहा है ......
मिट्टी का ये जिस्म खाख हो मिट्टी में मिलेगा
हाड़ का पुतला किस बात पर अकड़ रहा है ।
जायका लिया नहीं और फिसल रही जिन्दगी ,
ये बरस भी लश्कर समेटता कूच कर रहा है ।
फिर एक दिसम्बर गुजर रहा है.......
लजीले धूप का नाजुक परिंदा देखो
मुँडेर मुँडेर ठिठका हुआ उड़ रहा है ।
ठंडी धुंध में डूबी हुई है सुस्त शामें ,
रातों पर कुहासे का परचम फहर रहा है ।
तारीखों के जीने से दिसम्बर उतर रहा है......
सुर्ख गुल जो शाख में खिला था कभी
कायदा सिखाता जर्द हो वो भी अब झड़ रहा है ।
किरदार जो दम खम से निखरा था जवानी में....
वक्त की आँच में वो चेहरा भी निस्तेज ढल रहा है ।
तारीखों के जीने से दिसम्बर उतर रहा है .....
*.........फिर एक दिसम्बर गुज़र रहा है........................!!*
Madhu _writer at film writer' s association Mumbai
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