इस अंक के रचनाकार

इस अंक के रचनाकार आलेख खेती-किसानी ले जुड़े तिहार हरे हरेलीः ओमप्रकाश साहू ' अंकुर ' यादें फ्लैट सं. डी 101, सुविधा एन्क्लेव : डॉ. गोपाल कृष्ण शर्मा ' मृदुल' कहानी वह सहमी - सहमी सी : गीता दुबे अचिंत्य का हलुवा : राजेन्द्र प्रसाद काण्डपाल एक माँ की कहानी : हैंस क्रिश्चियन एंडर्सन अनुवाद - भद्रसैन पुरी कोहरा : कमलेश्वर व्‍यंग्‍य जियो और जीने दो : श्यामल बिहारी महतो लधुकथा सीताराम गुप्ता की लघुकथाएं लघुकथाएं - महेश कुमार केशरी प्रेरणा : अशोक मिश्र लाचार आँखें : जयन्ती अखिलेश चतुर्वेदी तीन कपड़े : जी सिंग बाल कहानी गलती का एहसासः प्रिया देवांगन' प्रियू' गीत गजल कविता आपकी यह हौसला ...(कविता) : योगेश समदर्शी आप ही को मुबारक सफर चाँद का (गजल) धर्मेन्द्र तिजोरी वाले 'आजाद' कभी - कभी सोचता हूं (कविता) : डॉ. सजीत कुमार सावन लेकर आना गीत (गीत) : बलविंदर बालम गुरदासपुर नवीन माथुर की गज़लें दुनिया खारे पानी में डूब जायेगी (कविता) : महेश कुमार केशरी बाटुर - बुता किसानी/छत्तीसगढ़ी रचना सुहावत हे, सुहावत हे, सुहावत हे(छत्तीसगढ़ी गीत) राजकुमार मसखरे लाल देवेन्द्र कुमार श्रीवास्तव की रचनाएं उसका झूला टमाटर के भाव बढ़न दे (कविता) : राजकुमार मसखरे राजनीति बनाम व्यापार (कविता) : राजकुमार मसखरे हवा का झोंका (कविता) धनीराम डड़सेना धनी रिश्ते नातों में ...(गजल ) बलविंदर नाटक एक आदिम रात्रि की महक : फणीश्वर नाथ रेणु की कहानी से एकांकी रूपान्तरणः सीताराम पटेल सीतेश .

सोमवार, 23 दिसंबर 2019

दिल तो अब भी रंगीन है,


चित्र में ये शामिल हो सकता है: 2 लोग, लोग खड़े हैं और अंदर
दिल तो अब भी रंगीन है,
पर कम्बख्त उम्र चेहरे से झलकने लगी।
जवानी धीरे धीरे चलती हुई,
बुढ़ापे की तरफ खिसकने लगी।
ख्वाब तो अब भी हसीन आते हैं,
बस नज़रें जरा धुंधलाने लगी।
काली जुल्फों के लहराते आसमान में,
अब थोड़ी चाँदनी जगमगाने लगी।
कदमों में जोश अब भी बरकरार है,
पर मुई साँसें कुछ हाँफती सी आने लगी।
पाक कला पर हाथ आजमाते आजमाते,
निगोड़ी चर्बी भी बदन का लुत्फ उठाने लगी।
समय की पाबंदियों पर सोते थे,
अब फुर्सत के लम्हे जगाने लगे।
शौक जितने थे पुराने दोस्तों,
फिर से गौर उन पर फरमाने लगे।
भूल कर बीते पलों के फसानों को,
सुकून की घड़ियों का आनंद उठाने लगे।
योग साधना की तरफ लगा कर मन,
अपनी सेहत को सेहतमंद बनाने लगे।
बचपन की उन प्यारी सहेलियों से,
हम मजे से खूब बतियाने लगे।
भूल गये थे जिन यादों की गलियों को,
उन गलियों में वापस आने जाने लगे।
फिर से जीना चाहते जिंदगी को,
वक़्त से अपने लिए वक़्त चुराने लगे।
मन भर कर सजते और संवरते हैं,
हम गीत कोई नया गुनगुनानाने लगे।

Alka Baheti

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