नवगीत - १
कोई तो रस्ता निकाला जायेगा.......!
बाँह भर आकाश पाने के लिए -
पंख भी तो हों उडानों के लिए ।
ये क्षितिज इस पार से उस पार तक ,
सिरफ बाजों के लिए -
फैला हुआ ;
एक चिड़िया सोचती ही रह गयी ,
क्यों सफर उसके लिए -
मैला हुआ ;
हौसलों का साथ भी तो चाहिए -
शून्यपथ को आज़माने के लिए ।
चंट बाजों के क़बीले हँस दिए ,
बाँटकर टुकड़े कई -
आकाश के ;
जंगलों के नीड़ की सहमी प्रजा
डोर है थामे हुए -
विश्वास के ;
कोई तो रस्ता निकाला जायेगा -
इस विरासत को बचाने के लिए ।
सब सशंकित एक दूजे के लिए ,
कौन है प्रतिबद्ध या -
चेहरे मढ़ा ;
होड़ में शामिल सभी बेचैन हैं ,
क़द दिखाने को कि हूँ -
तुझसे बडा ;
नीतिगत संघर्ष को मत बोलिये -
मुँह चुराते हैं बहाने के लिए ।
नवगीत - २
आज ठहाके ओठों के अनदर हैं मरे मरे.....!
पूरा जीवन कटा विहँसते बाग बगीचों में ,
और सफर करते आ ठहरे बीहड़ मरुथल में ,
जहाँ पेड सूखे , पत्थर , रेतीले टीले हैं ।
दूर दूर तक हवा कँटीली या -
सन्नाटे हैं ;
हमने तो उत्सव मेलों में ही दिन -
काटे हैं ;
भूखी चीलों का क्रंदन डर पैदा -
करता है ;
घर में इक टूटा सा खंडहर पैदा -
करता है ;
हम जीवन भर चले घास के नर्म ग़लीचों में ,
अन्त पहर क्यों साँस घुटी ऐसे अन्धे कल में ,
जहाँ दलदली मिट्टी है सब पेड कँटीले हैं
आधे बादल बरस रहे हैं आधे -
सूखे हैं ;
सब अध्याय लगे जो मौलिक रस के -
भूखे हैं ;
बाहर के पतझर की अब तू बात ,
न कर प्यारे -
बाहर से अन्दर के मौसम ज़्यादा -
रूखे हैं ;
हम हैं स्वर्ण खाल सी ओढ़े मृग मारीचों में ,
बिंधे वाण से तड़प रहे हैं निर्जन जंगल में ,
रावण के बंधक हैं सम्मुख राम रसीले हैं ।
वो भी था परिवेश कि रीते थे -
पर भरे भरे ;
अब भौतिक सुख लदे कहीं अन्दर -
पर डरे डरे ;
पहले फक्कड थे शाहीपन था ,
व्यवहारों में -
आज ठहाके ओठों के अन्दर हैं -
मरे मरे ;
तिलक भजन की होड़ लगी है कपटी चेहरों में ,
डूब मरेंगे सब बहकर इस गंगा के जल में ,
ये विभीत्स चेहरे जो लगते नीले पीले हैं ।
नवगीत - ३
बताओ ! हम कहीं ठहरे कहाँ है.....!
वो अपने रात हो दिन हो ,
भले ये ज़िन्दगी पिन हो ,
बताओ । हम कहीं ठहरे कहां हैं ?
बन्द दरवाजे मिले -
सब शहर के घर के ,
धूप के जलते सफर में छाँह तो मिलती ;
पांव जख्मी टीसते थे -
लड़खड़ाते थे ,
इक तसल्ली को भली सी बाँह तो मिलती ;
लोग हंसते थे मियां ।
हम सब समझते थे ,
खूब सुनते कान हैं , बहरे कहां हैं ?
बस्तियों के मौन सन्नाटे -
हवायें जड गयीं चांटे ,
सभी गूँगे भला संवाद किससे हो ;
भूख की आँखों भरी भाषा -
समझता कौन परिभाषा ,
कि अंधे राज्य में अनुवाद किससे हो ;
कभी हम ऊब जाते हैं ,
भ्रमित से डूब जाते हैं ,
बताये कौन हमको ताल ये गहरे कहाँ हैं ?
दुखी होकर जो चिल्लाये -
वो आंखें लाल कर आये ,
कभी पूछा नहीं क्या दर्द है क्यों शोर करते हो ;
जो बोलें जान लेते हैं ,
भॄकुटियां तान लेते हैं ,
पुराना रोग कहकर घूरते क्यों बोर करते हो ;
हमें दुर्गत नहीं झिलती ,
उन्हें फुर्सत नहीं मिलती ,
यों कहते जब चले आना यहां पहरे कहाँ हैं ?
( कृष्ण भारतीय )
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