इस अंक के रचनाकार

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शुक्रवार, 23 अगस्त 2019

ईमानदारी का ईनाम

कल्‍पना  कुशवाहा


एक गाँव में कृष्णा नामक व्यक्ति रहता था। वह बहुत गरीब था। वह कम पढ़ा लिखा था और गाँव के ही सेठ जी के अनाज के गोदाम में हिसाब - किताब का काम किया करता था। उसके घर में उसकी पत्नी विमला दो बच्चे नन्दू और नन्दिनी थे। नन्दिनी दो साल की और नन्दू छह साल का था, जो गाँव के ही एक विद्यालय में दूसरी कक्षा में पढ़ता था। कृष्णा का बड़ा अरमान था कि वो अपने दोनों बच्चों को अच्छी शिक्षा दिलाकर बेटे को बड़ा अफसर और बेटी को डॉक्टर बनाएगा मगर उसका गुजारा बड़ी मुश्किल से होता था।
कृष्णा की पत्नी इस बात से हमेशा उदास रहती थी।
एक दिन उसने कृष्णा से कहा - अजी कब तक ऐसे ही चलेगा? आप कुछ करते क्यों नहीं?
कृष्णा ने कहा - मैं और क्या करूँ? जितना जो बन पड़ता है, सब करता हूँ फिर भी पूरा ही नही पड़ता।
- अरे सेठजी से कर्ज़ ही ले लीजिये या फिर मदद माँग लीजिये। देखिए, अपने पड़ोसी रामू को आपके साथ काम करता था आज उसके दो बीघे खेत हैं। और हमारे पास क्या है?
- अरे भाग्यवान, कर्ज लेना भी चाहें तो कौन देगा? हमारे पास कुछ गिरवी रखने को भी तो नहीं है। और वो दो महीने की सजा भी तो काट के आया है जेल में, हेराफेरी के चक्कर में। देखो भाग्यवान, हमें ईमानदारी से अपना काम करना चाहिए और जो है उसी में खुश रहना चाहिए बाकी सब भगवान पर छोड़ देना चाहिए।
- भगवान पर छोड़ दो, ईमानदार रहो, घर में चाहे बच्चे भूख से मर जाएँ। कहते कहते विमला आँखों में आँसू लिए घर के बाहर चली गयी।
नन्दू ने पूछा - पिताजी, ये ईमानदारी क्या होती है?
कृष्णा ने उसे अपनी गोद में बिठाकर कहा - हमें अपना हर काम सही से करना चाहिए। किसी से बगैर पूछे उसकी चीज नहीं लेनी चाहिए। झूठ नहीं बोलना चाहिए। बेईमानी नहीं करनी चाहिए। कभी रिश्वत नहीं लेनी चाहिए। चाहे कितनी भी बड़ी समस्या हो हमें हमेशा ईमानदार रहना चाहिए।
नन्दू ने कहा - अच्छा पिताजी।
कृष्णा ने कहा - हाँ अब जाओ और जाकर खेलो।
कृष्णा के गाँव बगल के गाँव के एक मास्टर जिनका नाम दीनानाथ था। उनकी गाँव में काफी जमीन जायदाद थी मगर फिर भी उन्होंने अपना काम नहीं छोड़ा था वो रोज विद्यालय के बाद साइकिल से उसके गाँव के विद्यालय में पढ़ाने के बाद साहूकार के घर बच्चों को ट्यूशन पढ़ाने आते थे।
नन्दू हर रोज आते - जाते उनको नमस्ते किया करता था। मास्टर जी भी नन्दू को आशीर्वाद देकर चले जाते।
आज भी ठीक वैसा ही हुआ मास्टर जी अभी कुछ दूर ही पहुंचे थे कि उनकी जेब से एक लिफाफा नीचे गिर गया। नन्दू जोर से बोला - मास्टर जी आपकी जेब से कुछ नीचे गिर गया।
जो कि मास्टर जी को सुनाई नहीं दिया और वो साइकिल लेकर आगे बढ़ गए। नन्दू दौड़कर गया और वो लिफाफा उठाया। मास्टर जी अभी भी उसे दिखाई दे रहे थे।
वो उनके पीछे चिल्लाते हुए दौड़ने लगा और रास्तेभर चिल्लाता रहा, मगर मास्टर जी ने उसकी आवाज नहीं सुनी।
रास्ते में मास्टर जी एक चाय की दुकान पर चाय पीने के लिए रुके कुछ ही देर में नन्दू दुकान पर पहुंच गया और हांफते हुए बोला - मास्टर जी! मास्टर जी ये आपकी जेब से नीचे गिर गया था। मैंने बहुत आवाज लगाई मगर आपने सुनी नहीं इसलिए मैं दौड़कर आपको ये देने के लिए आया हूँ।
मास्टर जी ने नन्दू के हाथ से लिफाफा लिया और नन्दू को अपने पास बिठाया। उसे पानी पिलाया और उसके लिए कचौड़ी भी मंगाई मगर नन्दू ने खाने से इंकार कर दिया और कहा - मुझे घर छोड़ दीजिए मैं घर नहीं जा पाऊंगा।
मास्टर जी ने उससे पूछा - नन्दू मैं तो रोज तुम्हारे घर के सामने से निकलता हूँ, तुम ये लिफाफा कल भी तो मुझे दे सकते थे। उतनी दूर से यहाँ तक दौड़कर आने की क्या जरूरत थी।
नन्दू ने बड़ी ही मासूमियत से उत्तर दिया - मास्टर जी, ये आपका था इसे मैं कैसे रख सकता था। पिताजी ने कहा था दूसरे की चीज कभी नहीं लेनी चाहिए और कैसी भी स्थिति हो हमें हमेशा ईमानदार रहना चाहिए।
मास्टर जी ने नन्दू की बातें सुनकर उसे शाबाशी दी और अपनी साइकिल पर बिठाकर वापिस उसके घर ले गए। नन्दू के माता - पिता बहुत परेशान थे उन्होंने नन्दू को देखा तो कृष्णा ने झट से उसे अपनी गोद में उठा लिया और कहा - कहाँ चला गया था तू और मास्टर जी आप यहाँ।
नन्दू ने उन्हें सारी बात बताई फिर मास्टर जी बोले वाह भाई कृष्णा, तुम्हारा बेटा नन्दू तो बहुत ही होशियार और ईमानदार है। उन्होंने कुछ पैसे कृष्णा को देते हुए कहा - मैं तुम्हारी समस्याओं से वाकिफ  हूँ। तुम चाहो तो मेरे यहाँ नौकरी कर सकते हो।
कृष्णा ने कहा - अरे नहीं मास्टर जी इन पैसों की कोई जरूरत नहीं है। मैं कल से ही काम पर आ जाऊंगा।
मास्टर जी ने कहा - रख लो, और मेरे बेटे का शहर में विद्यालय है तुम्हारे दोनों बच्चे अपनी प्राथमिक शिक्षा प्राप्त करने के बाद वहीं पढ़ेंगे अगर तुम्हें कोई आपत्ति न हो तो।
कृष्णा ने कहा - आपकी बहुत दया होगी मास्टर साहब, आप बड़े दयालु हैं। हमें कोई आपत्ति नहीं है।
विमला बोली - मास्टर साहब, हम आपका ये अहसान मरते दम तक नही भूलेंगे।
- नहीं - नहीं बेटी, ये अहसान नहीं। ये नन्दू की ईमानदारी का इनाम है। इतना कहकर मास्टर साहब अपनी साइकिल से अपने गाँव की तरफ चल पड़े।
- आप सही कहते थे जी ईमानदारी कभी नही छोड़नी चाहिए। विमला ने कहा।
तभी नन्दू बोल पड़ा - पिताजी आपने ये नहीं बताया था कि ईमानदारी का इनाम भी मिलता है।
कृष्णा ने हँसते हुए कहा - मिलता है बेटा, मिलता है। ईमानदारी का इनाम मिलता है। जैसे आज तुम्हें मिला ईमानदारी का दामन कभी ना छोड़ना कहते हुए कृष्णा ने नन्दू को गले से लगा लिया।
पुरवा, उन्‍नाव ( उत्‍तरप्रदेश )

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