इस अंक के रचनाकार

इस अंक के रचनाकार आलेख खेती-किसानी ले जुड़े तिहार हरे हरेलीः ओमप्रकाश साहू ' अंकुर ' यादें फ्लैट सं. डी 101, सुविधा एन्क्लेव : डॉ. गोपाल कृष्ण शर्मा ' मृदुल' कहानी वह सहमी - सहमी सी : गीता दुबे अचिंत्य का हलुवा : राजेन्द्र प्रसाद काण्डपाल एक माँ की कहानी : हैंस क्रिश्चियन एंडर्सन अनुवाद - भद्रसैन पुरी कोहरा : कमलेश्वर व्‍यंग्‍य जियो और जीने दो : श्यामल बिहारी महतो लधुकथा सीताराम गुप्ता की लघुकथाएं लघुकथाएं - महेश कुमार केशरी प्रेरणा : अशोक मिश्र लाचार आँखें : जयन्ती अखिलेश चतुर्वेदी तीन कपड़े : जी सिंग बाल कहानी गलती का एहसासः प्रिया देवांगन' प्रियू' गीत गजल कविता आपकी यह हौसला ...(कविता) : योगेश समदर्शी आप ही को मुबारक सफर चाँद का (गजल) धर्मेन्द्र तिजोरी वाले 'आजाद' कभी - कभी सोचता हूं (कविता) : डॉ. सजीत कुमार सावन लेकर आना गीत (गीत) : बलविंदर बालम गुरदासपुर नवीन माथुर की गज़लें दुनिया खारे पानी में डूब जायेगी (कविता) : महेश कुमार केशरी बाटुर - बुता किसानी/छत्तीसगढ़ी रचना सुहावत हे, सुहावत हे, सुहावत हे(छत्तीसगढ़ी गीत) राजकुमार मसखरे लाल देवेन्द्र कुमार श्रीवास्तव की रचनाएं उसका झूला टमाटर के भाव बढ़न दे (कविता) : राजकुमार मसखरे राजनीति बनाम व्यापार (कविता) : राजकुमार मसखरे हवा का झोंका (कविता) धनीराम डड़सेना धनी रिश्ते नातों में ...(गजल ) बलविंदर नाटक एक आदिम रात्रि की महक : फणीश्वर नाथ रेणु की कहानी से एकांकी रूपान्तरणः सीताराम पटेल सीतेश .

शुक्रवार, 23 अगस्त 2019

अमावस के अंधेरे में

मोती प्रसाद साहू 

उसने मेरे घर की सॉकल खटखटायी। वह भी गहन निशीथ में। खट् ... खट् ...। मैं अचानक नींद से उठा। समय देखा रात के एक बज रहे थे। बाहर घुप्प अॅधेरा। याद आया - आज तो अमावस है। सॉकल खटकती रही खट् ... खट् ...।
अब चारपाई से उठना ही पड़ेगा। कौन हो सकता है, इतनी रात गये? संचार के इतने विकसित और उपलब्ध संसाधनों के बावजूद सॉकल खटखटाना? कोई परिचित है, तो उसके पास मेरा दूरभाष नम्बर होना चाहिए।
मेरे उठने के साथ एक अनचीन्हा भय भी उठ गया, मेरे मन में।
हिम्मत कर पहले खिड़की खोली। देखा एक स्त्री - आकृति दरवाजे पर खड़ी है। आँखों को छोड़कर नीचे से उपर तक वस्त्रों से पूरी तरह स्वयं को ढँकी हुई। पहचानना मुश्किल।
मैंने डरते डरते पूछा - आप कौन?
- भयभीत न हों कविराज! भयभीत तो मैं हूं। मुझे अन्दर तो आने दें। मुझे शरण चाहिए। आपको इतना तो मालूम होगा ही कि, जब कोई स्त्री रात में शरण मांगें तो निश्चित रुप से वह खतरे में है।
- किंतु ...।
- मैं समझ गयी, आपका भय भी निरर्थक नहीं है। मैं पूरी दुनिया में अपने लिए शरण तलाश रही हूं या किंतु नहीं मिल रही।
- आपका उत्तर तो दार्शनिक की भांति है फिर मुझसे उम्मीद?
- हां, आप कविराज हैं। सोचा, आप के पास शरण मिल जाय?
- परन्तु इतनी रात गये। दिन के उजाले में क्यों नहीं? कोई देख लेगा तो?
- आपको लोक लाज की पड़ी है और मुझे सुरक्षा की फिकर है। सब मेरे नाम की माला जपते हैं परन्तु सम्मान कोई नहीं देता। क्या मैं चली जाऊॅ, आप के दर से? आप भी औरों की तरह...।
- नहीं ... नहीं ... ऐसा नहीं हो सकता।
मेरी अन्तरात्मा ने कहा - डरो नहीं कवि, यह वही है जिसे आप वर्षों से सर्वत्र देखना चाहते हो, पाना चाहते हो। आज वह स्वयं चलकर आयी है तुम्हारे यहॉ, स्वागत करो।
मैंने अपने मन के दरवाजे खोल दिए।
अब वह मेरी कलम की नीली रोशनाई से कागद पर फैल रही है निरन्तर।
और ...! उधर शहर में, गाँव में, चौपालों में मुनादी हो रही है अखबारों में तहरीरें छपवाई जा रहीं हैं
- समता, कहाँ गुम हो गयी?

राज.इ.कालेज हवालबाग - अल्मोड़ा 263636 (उ.ख.)
ई0 मेल.
मोबा.- 09411703669

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें