- हीरालाल अग्रवाल
भाषा अभिव्यंजना का माध्यम मात्र नहीं अपितु हमारे विचारों, मानसिक वृत्तियों, भावनाओं, अभिलाषाओं की ध्वन्यात्मक प्रतिकृति भी है. भाषागत् विलक्षणता के फलस्वरूप ही कदाचित मनुष्य ने चौपायों के समुच्चय से स्वयं को अलग कर रखा है. य ही नहीं प्रत्युत् सम्पूर्ण जीव - जगत में उसने अपनी सर्वोच्चता स्थापित कर रखी है. एक जीवित भाषा सतत् विकासोन्मुख होती है. स्त्रोतपस्वनी पवर्त प्रदेश से समतल की ओर जिस प्रकार अग्रसर होती है, भाषा का प्रवाह भी क्लिष्ता से सरलता की ओर होता है. आम मनुष्य की प्रवृति भी सहज ग्राह्य को स्वीकार करने की होती है. संस्कृत को हिन्दी की जननी स्वीकार करने के मुद्दे पर भाषा - साहित्य वेत्ताओं में मतभेद के बावजूद संस्कृत के स्थान पर हिन्दी के देश भर में प्रतिष्ठित होने को मैं एक विकास की कड़ी ही मानता हूं. यद्यपि किसी समय एक ऐसे शासक की भाषा होने के कारण जिसके साम्राज्य में कभी सूरज नहीं डूबता था, अंगे्रजी एक बहुदेशीय अथवा अर्न्तराष्ट्रीय भाषा के रूप में स्थापित हो चुकी है, तथापि यह स्मरण रखना होगा कि अंग्रेजों को भी ईसाई धर्म के प्रचार के लिए हिन्दी की बैशाखी का सहारा लेना पड़ा था. यही नहीं, भले ही इसका कारण व्यवसायिक या बाजारवाद हो, संयुक्त राज्य अमेरिका के राष्ट्रपति को भी अपने देश के युवकों से हिन्दी सीखने का आव्हान करना पड़ गया. हिन्दी पर तो अंग्रेजी बलात् लाद दी गई है, इसके अतिरिक्त हिन्दी के विस्तारभय से देश के कतिपय अन्य भाषा - भाषियों के विरोध का जहाँ उसे सामना करना पड़ रहा है, वही उसकी सह बोलियाँ भी उसका स्थान लेने के लिए लालायित प्रतीत हो रही है.
सकारात्मक तथ्य यह है कि वतर्मान में हिन्दी के स्वरूप में तीव्रगामी परिवतर्न के लक्षण दिखाई देने लगे हैं. भाषायी रूढ़ि से ग्रस्त कतिपय शुद्धता वादियों को यह विकृति नजर आ सकती है, किन्तु हकीकतन वह इतर भाषाओं के साथ समरसता स्थापित करने की हिन्दी की अपनी क्षमता एवं उनके शब्दों को तत्सम् अथवा तद्भव रूप में अपने परिवार में समाहित कर लेने की स्वीकृति का प्रतीक है. इस जीवट एवं गतिशील भाषा को किसी काल्पनिक अथवा अवैज्ञानिक शुचिता के बहाने लक्ष्मण रेखा से आवेशित करने का प्रयास जिसके अंतत: असफल होने की ही संभावना होगी,असमीचीन, असामायिक एवं आत्मघाती ही होगा. भावी विकृति से बचाने व्याकरण के कठोर कँवच से सुसज्जित कर संस्कृत को हमने सामान्य जन के लिए अस्पश्र्य बना दिया. यही नहीं, बहुसंख्यकों को उसके पढ़ने - लिखने से वंचित कर, उसे आम बोल - चाल की भाषा के रूप में स्वाभाविक रूप में विकसित होने को प्रतिबंधित कर, नितांत साहित्यिक एवं सीमित लोगों की भाषा बना दिया गया. परिणामत: वह ऐतिहासिक धरोहर मात्र रह गई. बावजूद इसके अनेक भाषाओं की जननी कहलाने अथवा उसका पोषक होने का उसका अधिकार जहाँ अक्षुण है, वहीं उसका साहित्य वैश्विक ज्ञान का आज भी अनन्य स्त्रोत है. यद्यपि संस्कृत गव्यवरोध का शिकार हुई, किन्तु उसी की परम्परा से प्राप्त देवनागरी लिपि उसके अधिकांश शब्दों को हृदयंकित कर हिन्दी के रूप में पूरी तेजस्विता से आगे बढ़ रही है.
तुलानात्मक दृष्टि से विचार करें तो संसार की विकसित एवं बहुप्रचलित भाषाओं में अपनी अर्न्तराष्ट्रीय दृष्टि के कारण भले ही इसकी पृष्टभूमि में राजनैतिक एवं ऐतिहासिक कारण रहे हों, अंग्रेजी ने व्यवहारत: अपनी सवोर्परिता प्रदशिर्त कर रखी है, यद्यपि वास्तविक धरातल में बोलने / लिखने/ पढ़ने वालों की संख्या की से इसका स्थान चीनी एवं हिन्दीभाषा के बाद ही आयेगा, और ... इसे आप मेरी व्यक्तिगत राय कह सकते हैं ... आज अंग्रेजी से मैत्रीपूर्ण प्रतिस्पर्धा काबिलियत राय एवं अर्न्तराष्ट्रीय स्तर पर किसी भाषा में परिलक्षित हो रही है, तो वह निविर्वाद रूप से हिन्दी ही है. यदि दूरदशर्न, आकाशवाणी, सिनेमा, पत्र - पत्रिका, सामयिक - साहित्य एवं आम बोलचाल की भाषा (हिन्दी) का अवलोकन करें तो उसमें आश्चयर्जनक परिवतर्न के लक्ष्ाण दिखाई देते हैं. यह परिवतर्न कुछ और नहीं अपितु भाषायी विकास की छटपटाहट का ही द्योतक है. यद्यपि हमारे पास ऐसा कोई यांत्रिक पैमाना नहीं (शायद विज्ञान भविष्य में संभव कर सके) जिससे विभिन्न भाषाओं के क्षण प्रति क्षण विकसित होते स्वरूप अथवा उसकी गति की तीव्रता का मूल्यांकन ( जिस तरह क्रिकेट में गेंद की गति तत्काल मालूम कर ली जाती है ) प्रामाणिक एवं पारिमाणिक तौर पर कर सकें तथापि अन्य भाषाओं की तुलना में, जिसमें अंग्रेजी को भी सम्मिलित करने में मुझे संकोच नहीं, असंदिग्ध रूप से हिन्दी को बढ़त हासिल है.
आथिर्क क्षेत्र में उदारीकरण, आवागमन की सुविधा में विस्तार, भारतीय समन्यववादी दृष्टिकोण ( यदि दृष्टि इतर भाषा के शब्दों को आत्मसात् कर लेने के लिए हिन्दी को भी प्रेरित करती है, यद्यपि प्रकृतित: यह गुण उसमें मौजूद है ), तकनीकी एवं वैज्ञानिक प्रगति, प्रचार - प्रसार की अत्याधुनिक तकनीक, साहि्त्यिक एवं सांस्कृतिक आदान - प्रदान के फल स्वरूप भारत में होने वाले सामाजिक, सांस्कृतिक, आथिर्क एवं भौतिक परिवतर्नों ने हिन्दी को विशेषरूप से संभावित किया है. चूँकि परिवतर्न की हवा पश्चिम से पूर्व की ओर रही अत: उसकी संवाहिका अंग्रेजी हुई. हिन्दी ने स्वागत में दल पलक ही नहीं बिछाये अलबत्ता उसे ऐसे गले लगाया कि हजारों शब्द उसके स्नेहाँचल में सिमट गये... और हिन्दी का दरअसल आधुनिकतम् स्वरूप उभरा जिसे शिष्ट भाषा में हम अंग्रेजी नहीं हिन्दी कह सकते हैं. ज्ञातव्य है कि हिन्दी के प्रारंभिक विकास काल में राजा शिवप्रसाद सितारे हिन्द की उदूर्निष्ट एवं राजा लक्ष्मणसिंह प्रणीत संस्कृतनिष्ट हिन्दी की चर्चा खूब चली थी और अंतत: प्रेमचंद प्रभूति पश्चातवर्ती लेखकों ने बीच का रास्ता अख्तियार किया. इस संक्रमणकाल के अनंतर हिन्दी का एक संतुलित परिष्कृत एवं आम जनानुकूल भाषा का जिस तरह अवतरण हुआ उसी तरह इस नव संक्रमण काल के पश्चात् भी हिन्दी एक नये रूप में सीना तान आ खड़ी होगी.
दृष्टिगोचर होने वाली इस बात के अनुसंधान की कदाचित् ही आवश्यकता पड़नी चाहिए कि हिन्दी आज अंग्रेजी के शब्दों को जिस तरह से अपना रही है, शायद ही अंग्रेजी उस गति से इतर भाषा के शब्दों को ग्रहण कर पा रही हो, तभी तो बनिया जैसे इने गिने शब्दों के अंग्रेजी शब्दकोश में समावेश कर लिए जाने की बात समाचार पत्रों में सुखिर्यों का रूप ले लेती हैं, जबकि अंग्रेजी शब्दों को हिन्दी शब्द कोश में स्थान देने के लिए हमें निरंतर शब्दकोश छापते रहना होगा. हिन्दी की जिजीविषा, जीवन्तता या जीवटता का यही प्रमाण है. आज विश्व के सवा सौ से अधिक, गैरभारतीय , विश्वविद्यालयों में यदि हिन्दी के अध्ययन - अध्यापन की व्यवस्था है तो यह बेमानी नहीं है. वस्तुत: हिन्दी के लिए अंग्रेजी नहीं बल्कि अंग्रेजी के लिए हिन्दी एक जबदर्स्त चुनौती है.
भाषा विकास के क्रमिक स्वरूप एवं उसकी वैज्ञानिकता को जाने - अनजाने नजरन्दाज करते हुए, समय की नब्ज को पहिचाने बगैर उपहास के तौर पर परिवतर्न शील भाषायी रूप को खिचड़ी की संज्ञा दे दी जाती है. नाक भौं सिकोड़ने वाले यह भी भूल जाते हैं कि खिचड़ी जितनी सुपाच्य एवं सहजग्राह्य होती है, उतना अन्य पकवान नहीं. बीमारों के लिए स्वास्थ्य एवं स्वस्थों के लिए दीघर्जीवन दायिनी होती है खिचड़ी. सहजग्राह्यता अथवा सुपाच्यता किसी भी भाषा के विकास की ग्यारंटी होती है. इस सुविधाजनक स्थिति के मद्देनजर हिन्दी के हितैषी विद्वानों, आचार्यों का क्या यह कतर्व्य नहीं बनता कि गैर हिन्दी भाषियों के लिए, चाहे वे देशी हो या विदेशी, लेखन संबंधी व्यवहारिक कठिनाइयों को दूर न सही, कुछ कम करने का प्रयास करें. यह प्रयास विभिन्न स्तरीय तथा साहित्यिक भाषा, वैज्ञानिक, मनोवैज्ञानिक होने चाहिए. अंग्रेजी निज हिन्दी जहाँ दक्षिण वालों से तादाम्य स्थापित करने में मददगार होगी, वहीं उनकी भाषायी उग्रता का भी शमन होगा. दूसरी ओर ऐसे देशों में जहाँ की राष्ट्रभाषा अंग्रेजी है अथवा जहाँ अंग्रेजी का वचर्स्व है वहाँ इस अंग्रेजी निष्ठ हिन्दी को पैठ जमाने में निश्चित ही सुविधा होगी.
हिन्दी की तुलना में अंग्रेजी की श्रेष्ठता प्रतिपादित करने वाले (यद्यपि यह तुलना सतही तौर पर ही की जाती है क्योंकि हर भाषा की अपनी मौलिक विशिष्टता होती है, न कोई किसी से बेहतर है न कम तर ) अंग्रेजी के 26 वर्णों की दुहाई देते नहीं थकते. इसके विपरीत लगभग उससे दुगनी संख्या वाले हिन्दी को दुरूह प्रमाणित करने में भी कोताही नहीं करते. जिन्होंने छोटी सी जमीन एवं सीमित आबादी का जनक होते हुए संसार के बड़े - बड़े देशों पर सैकड़ों वर्षों तक राज किया हो, उनमें भाषायी विज्ञापन की मनोविज्ञान सम्मत व्यवसायिक कूटनीति भी अवश्य रही होगी. हीनग्रंथि से मुक्त होकर वास्तविकता की पड़ताल करने पर ही दूध का दूध और पानी का पानी हो सकेगा.
देवनागरी लिपि प्रयुक्त हिन्दी के वर्णों के ध्वन्यात्मक एवं लिप्यात्मक संकेत जहाँ एक से हैं, वहीं रोमन लिपि पयुक्त अंग्रेजी में ध्वन्यात्मक से ( जिसमें सीमित ध्वनियाँ ही अभिव्यक्त हो पाती हैं ) वर्णों की संख्या जहां मात्र 26 है, लिप्यात्मक दृष्टि से ( जिनमें सीमित ध्वनियां ही अभिव्यक्त हो पाती हैं) वर्णों की संख्या जहां मात्र 26 हैं, लिप्यात्मक दृष्टि से उनकी संख्या ( लिखने की दृष्टि से स्माल एवं बलाक लेटर) कम से कम बावन और मुद्रण को जोड़ हो तो 78 हो जाती है. अत: अंग्रेजी लेखन सीखना हिन्दी की अपेक्षा अधिक श्रम एवं बुद्धि साध्य है. अलबत्ता पहले से ही किसी के मस्तिष्क में यह बीज बो देने से कि अमुक सरल है अथवा कठिन है एक मनोवैज्ञानिक प्रभाव अवश्य पड़ता है. अंग्रेजी को सरल प्रचारित करने से यही हुआ. दरअसल हिन्दी वर्णों की ध्वनि निधार्रित है और लगभग एकैक नियम पर आधारित है जबकि अंग्रेजी के एक वर्ण से अनेक ध्वनियों की एवं अनेक वर्णों से किसी एक ध्वनि की वह भी अस्पष्ट सी अभिव्यंजना होती है. यद्यपि यह भाषा वैज्ञानिक तथ्य है कि एक ही वर्ण की चाहे वह किसी भी भाषा से संबंधित क्यों न हो, विभिन्न मनुष्यों के स्वर यंत्र के मान से उसकी असंख्य ध्वनियाँ संभव है. यहाँ उन औसत ध्वनियों के आधार पर चर्चा की जा रही है, जिन्हें विभिन्न वर्णों के लिए उदाहरण हेतु मान्यता प्रदान की गई है एवं जो भाषायी अनुशासन एवं परस्पर व्यवहार की दृष्टि से अधिक उपादेय हैं.
सिद्धांत: अंग्रेजी में ए, इ, आई, ओ और यू पाँच स्वर हैं. सामान्यत: अध्यापक छात्रों को ए का अर्थ अ, इ का ए, आई का इ, ओ का ओ एवं यू का उ बतलाते हैं, साथ ही तदनुकूल मात्राओं के रूप में उनके उपयोग की बात भी कहते हैं,यद्यपि उनके अनेक अराजक उपयोगों के बारे में इंगित करने की सावधानी भी बरतते हैं. अब इन पांच स्वरों का मात्र विहगोवलोकन करने पर व्यवहारत: पाते हैं कि ए का उपयोग अ, आ और ऐ के लिए इ का ए, इ, अ के लिए, आई का अ,इ के लिए, इ का ए, इ, अ के लिए आई का अ,इ के लिए ओ का आ, ओ, वा (ज्वाय ) के लिए और यू का अ, उ आदि के लिए किया जाता है, जबकि इन स्वरों को अभिव्यक्ति देने के लिए अनेक संयुक्ताक्षरों का प्रयोग, जिनमें कई व्यंजन भी समाहित हैं, प्रचलित हैं - कभी ए यू से आ कभी ए डबल्यू से और कभी ए यू बी एच से आई और ओ यू से अ भी होता है, कभी इ ए से ई, आई ए से ई, इ इ से ई इसी तरह ए इ से ए, ए आई से ए, इ आई बी एच (नेवर) से ए, ए - ई से भी ए होता है, और आगे बढ़े तो ओ - इ से ओ, ओ यू जी एच से ओ , ओ डबल्यू से ओ, यू ओ से ऊ आदि. शतश: उदाहरण कोई भी अंग्रेजी का छात्र किसी भी अंग्रेजी पुस्तक अथवा कोश में ढ़ूंढ़ सकता है. तात्पर्य यह है स्वरों एवं व्यंजनों को आपस में संयुक्ताकर अनेकानेक ध्वनि संकेतों की सजर्ना अंग्रेजी मे की गई है किन्तु इन्हें एक अलग से संकेत देकर अथवा संयुक्ताक्षर के रूप में अंग्रेजी वणर्माला में दशार्या नहीं गया है. दूसरी ओर कई संयुक्ताक्षरों को स्वतंत्र ध्वनि संकेतों के रूप में हिन्दी वणर्माला में दर्शा दिया गया है.
हिन्दी वणर्माला में क्रमिकता है. व्यंजनों को उच्चारण स्थान दाँत, तालू, ओंठ, जिव्हा, घषर्ण,ध्वनि एवं वायु संचार के आधार पर विभिन्न वर्गों में विभाजित किया गया है, जिनमें प्रत्येक में पाँच - पाँच वर्ण हैं. प्रत्येक समूह के प्रथम वर्ण का नाम आधारित है. यदि विभिन्न समूहों के प्रथमाक्षर क्, च ्, त्, प्, ट् वर्णों के क्रमश: द्वितीय ख्, छ्, थ्, ठ एवं च तुथर् घ्, झ्, ध्, म्, ढ़ वर्णों की ध्वनियों पर ध्यान केन्द्रित करें तो ज्ञात होगा कि ये अपने - अपने वर्ण समूह के प्रथम क्, च ्, त्, प्, ट् एवं तृतीय ग्, ज्, द्, ब् के साथ ह के संयोग से हिन्दी वणर्माला में अवतरित हुए हैं. यही कारण है कि अंग्रेजी में हिन्दी के द्वितीय एवं चतुर्थ वर्णों के लिए स्थानापन्न रूप में के एच (ख्) सी एच एच (छ) टी एच (थ्) पी एच (फ्) टी एच एच (ठ्) एवं जी एच (घ्) और उसी प्रकार जे एच (झ्) डी एच (घ्) बी एच (भ्) डी एच एच (ढ़्) आदि ध्वनि संकेतों का उपयोग किया जाता है, जो अंग्रेजी वणर्माला मे असंख्य है. यदि हम अंग्रेजी की इस छद्म ध्वनि प्रणाली एवं लेखन शैली का उपयोग करें तो उपयुक्त दस वर्णों को सहजता से हिन्दी वणर्माला से निकाला जा सकता है किन्तु भाषायी दीघर्कालिक संस्कार अब इसकी इजाजत नहीं देगा. ऐसे ही अनेक युक्तिसंगत कारणों से हिन्दी वणर्माला अंग्रेजी वणर्माला से बड़ी दिखाई देती है. वस्तुत: ऐसा है नहीं. सरलीकृत करने के लिए कहावत के रूप में हम कह सकते हैं कि अंग्रेजी के खाने के (बोलने के) और दिखाने के (लिखने के) दाँत अलग - अलग है. हिन्दी में इस कपाट्य का अभाव है. हकीकत तो यह है कि हिन्दी के स्वरों को भी मात्राओं के रूप में परिवतिर्त कर अलग से सांकेतिक चिन्ह दे दिये गये हैं. और इन्हीं कुछ कारणों से हिन्दी दुरूह लगने लगती है और अंग्रेजी सरल. अंग्रेजी लेखनशैली की दृष्टि से क्षण, त्र, ज्ञ,Î,ऋ आदि की कोई प्रासंगिकता नहीं है. त्र तो स्वतंत्र वर्ण है ही. मात्र लेखन की के कारण त्र त्र हो गया जो (आधा त) आधा (त्) एवं र (भाषा ) के मेल से बना है. य दि थोड़ी सी भाषायी उदारता बरती जाय तो कछि, अल्पग्य , अंग, रितु के प्रयोग द्वारा कुछ वर्णों से सरलता पूवर्क मुक्ति पाया जा सकता है. स, श, ष का अलग - अलग उदाहरण अब श्रमसाध्य हो गया है, ध्वनि में अलगाव व्यक्त करने के लिए उर्दू के तुOा प्रणाली पर सोचा जा सकता है.
हिन्दी की एक सवर्मान्य विशेषता है कि जो लिखा जाता है, वही पढ़ा जाता है. जो बोला जाता है, वही लिखा जाता है. यही कारण है कि संसार के किसी भी भाषा को आंशिक संशोधन के साथ देवनागरी लिपि में लिप्यांतरित कर सकते हैं. देवनागरी लिपि में अंग्रेजी भाषाण पढ़ पाना जितना आसान है, रोमन लिपि में हिन्दी भाषा पढ़ सकना नहीं. हिन्दी में ऐसा कुछ लिखा जाना संभव ही नहीं जिसका उदाहरण न हो. जबकि अंग्रेजी में डाउट का बी, नालेज का के, साय कोलाजी का पी, वाच का टी, चाक का एल, क्रिकेट का सी, बजट का डी,आनर का एच , कंडम का एन, वणर् अनु‚रित ही रहता है. टी एच से थ भी होता है और द भी. डी से द और ड, टी से ट, च , श आदि. जी से ज और ग. डी जी ê जो जाता है और आई जी एच को आई पढ़ना पड़ता है. लिखते हैं डबल एस पढ़ते हैं आधा एस. टेक और केय र में ए - इ के अलग - अलग उ‚ारण है. पेन और पेय र का भी य ही अंजाम है. वास्तविकता य ह है कि अंग्रेजी की विसंगतियों को ही च तुराय र् से उसकी विशेषताओं के रूप में प्रचारित कर दिया गया है. अंग्रेजी की एक बहुत बड़ी विशेषता है, उसका शार्ट कट फार्म इस लचीलेपन की जितनी भी सराहना की जाय कम है. आई लव यू जैसे पूरे वायि को इलू के रूप में परिवतिर्त कर देने की इस भाषा में अद्भुत सामर्थ्य है. वह दिन दूर नहीं जब अंग्रेजी पुस्तकों में हूं के लिए एम, हैं के लिए आर, तुम के लिए यू, चाय के लिए टी, समुद्र या देखना के लिए सी का प्रयोग होने लगे. काग्रेचुलेशन्स कांग्रेट हो गया. महात्मा गांधी एम जी में अंतधार्न हो गये. बड़ी - बड़ी संस्थाओं के नाम कुछ अक्षरों में सिमट कर रह गये है. हिन्दी में संभवनाएं असीम है, फिर अंग्रेजी की तुलना में उसका उम्र ही क्या है ? यदि प्रयास विशेष से, जो भाषा की प्रकृति के अनुकूल हो, गैर हिन्दी भाषा - भाषियों को हिन्दी लिखने, समझने में सरलता हो तो रूढ़ि एवं शुद्रता के मोह का परित्याग कर उसे स्वीकार किया जाना चाहिए. यदि हिन्दी को इक्कीसवीं सदी की भाषा बनाकर विश्व स्तर पर प्रतिष्ठित करना चाहते हैं, तो हिन्दी के रास्ते के छोटे - छोटे कंटकों को दूर करते चलें, वह अपना मार्ग स्वयं बना लेगी.
सकारात्मक तथ्य यह है कि वतर्मान में हिन्दी के स्वरूप में तीव्रगामी परिवतर्न के लक्षण दिखाई देने लगे हैं. भाषायी रूढ़ि से ग्रस्त कतिपय शुद्धता वादियों को यह विकृति नजर आ सकती है, किन्तु हकीकतन वह इतर भाषाओं के साथ समरसता स्थापित करने की हिन्दी की अपनी क्षमता एवं उनके शब्दों को तत्सम् अथवा तद्भव रूप में अपने परिवार में समाहित कर लेने की स्वीकृति का प्रतीक है. इस जीवट एवं गतिशील भाषा को किसी काल्पनिक अथवा अवैज्ञानिक शुचिता के बहाने लक्ष्मण रेखा से आवेशित करने का प्रयास जिसके अंतत: असफल होने की ही संभावना होगी,असमीचीन, असामायिक एवं आत्मघाती ही होगा. भावी विकृति से बचाने व्याकरण के कठोर कँवच से सुसज्जित कर संस्कृत को हमने सामान्य जन के लिए अस्पश्र्य बना दिया. यही नहीं, बहुसंख्यकों को उसके पढ़ने - लिखने से वंचित कर, उसे आम बोल - चाल की भाषा के रूप में स्वाभाविक रूप में विकसित होने को प्रतिबंधित कर, नितांत साहित्यिक एवं सीमित लोगों की भाषा बना दिया गया. परिणामत: वह ऐतिहासिक धरोहर मात्र रह गई. बावजूद इसके अनेक भाषाओं की जननी कहलाने अथवा उसका पोषक होने का उसका अधिकार जहाँ अक्षुण है, वहीं उसका साहित्य वैश्विक ज्ञान का आज भी अनन्य स्त्रोत है. यद्यपि संस्कृत गव्यवरोध का शिकार हुई, किन्तु उसी की परम्परा से प्राप्त देवनागरी लिपि उसके अधिकांश शब्दों को हृदयंकित कर हिन्दी के रूप में पूरी तेजस्विता से आगे बढ़ रही है.
तुलानात्मक दृष्टि से विचार करें तो संसार की विकसित एवं बहुप्रचलित भाषाओं में अपनी अर्न्तराष्ट्रीय दृष्टि के कारण भले ही इसकी पृष्टभूमि में राजनैतिक एवं ऐतिहासिक कारण रहे हों, अंग्रेजी ने व्यवहारत: अपनी सवोर्परिता प्रदशिर्त कर रखी है, यद्यपि वास्तविक धरातल में बोलने / लिखने/ पढ़ने वालों की संख्या की से इसका स्थान चीनी एवं हिन्दीभाषा के बाद ही आयेगा, और ... इसे आप मेरी व्यक्तिगत राय कह सकते हैं ... आज अंग्रेजी से मैत्रीपूर्ण प्रतिस्पर्धा काबिलियत राय एवं अर्न्तराष्ट्रीय स्तर पर किसी भाषा में परिलक्षित हो रही है, तो वह निविर्वाद रूप से हिन्दी ही है. यदि दूरदशर्न, आकाशवाणी, सिनेमा, पत्र - पत्रिका, सामयिक - साहित्य एवं आम बोलचाल की भाषा (हिन्दी) का अवलोकन करें तो उसमें आश्चयर्जनक परिवतर्न के लक्ष्ाण दिखाई देते हैं. यह परिवतर्न कुछ और नहीं अपितु भाषायी विकास की छटपटाहट का ही द्योतक है. यद्यपि हमारे पास ऐसा कोई यांत्रिक पैमाना नहीं (शायद विज्ञान भविष्य में संभव कर सके) जिससे विभिन्न भाषाओं के क्षण प्रति क्षण विकसित होते स्वरूप अथवा उसकी गति की तीव्रता का मूल्यांकन ( जिस तरह क्रिकेट में गेंद की गति तत्काल मालूम कर ली जाती है ) प्रामाणिक एवं पारिमाणिक तौर पर कर सकें तथापि अन्य भाषाओं की तुलना में, जिसमें अंग्रेजी को भी सम्मिलित करने में मुझे संकोच नहीं, असंदिग्ध रूप से हिन्दी को बढ़त हासिल है.
आथिर्क क्षेत्र में उदारीकरण, आवागमन की सुविधा में विस्तार, भारतीय समन्यववादी दृष्टिकोण ( यदि दृष्टि इतर भाषा के शब्दों को आत्मसात् कर लेने के लिए हिन्दी को भी प्रेरित करती है, यद्यपि प्रकृतित: यह गुण उसमें मौजूद है ), तकनीकी एवं वैज्ञानिक प्रगति, प्रचार - प्रसार की अत्याधुनिक तकनीक, साहि्त्यिक एवं सांस्कृतिक आदान - प्रदान के फल स्वरूप भारत में होने वाले सामाजिक, सांस्कृतिक, आथिर्क एवं भौतिक परिवतर्नों ने हिन्दी को विशेषरूप से संभावित किया है. चूँकि परिवतर्न की हवा पश्चिम से पूर्व की ओर रही अत: उसकी संवाहिका अंग्रेजी हुई. हिन्दी ने स्वागत में दल पलक ही नहीं बिछाये अलबत्ता उसे ऐसे गले लगाया कि हजारों शब्द उसके स्नेहाँचल में सिमट गये... और हिन्दी का दरअसल आधुनिकतम् स्वरूप उभरा जिसे शिष्ट भाषा में हम अंग्रेजी नहीं हिन्दी कह सकते हैं. ज्ञातव्य है कि हिन्दी के प्रारंभिक विकास काल में राजा शिवप्रसाद सितारे हिन्द की उदूर्निष्ट एवं राजा लक्ष्मणसिंह प्रणीत संस्कृतनिष्ट हिन्दी की चर्चा खूब चली थी और अंतत: प्रेमचंद प्रभूति पश्चातवर्ती लेखकों ने बीच का रास्ता अख्तियार किया. इस संक्रमणकाल के अनंतर हिन्दी का एक संतुलित परिष्कृत एवं आम जनानुकूल भाषा का जिस तरह अवतरण हुआ उसी तरह इस नव संक्रमण काल के पश्चात् भी हिन्दी एक नये रूप में सीना तान आ खड़ी होगी.
दृष्टिगोचर होने वाली इस बात के अनुसंधान की कदाचित् ही आवश्यकता पड़नी चाहिए कि हिन्दी आज अंग्रेजी के शब्दों को जिस तरह से अपना रही है, शायद ही अंग्रेजी उस गति से इतर भाषा के शब्दों को ग्रहण कर पा रही हो, तभी तो बनिया जैसे इने गिने शब्दों के अंग्रेजी शब्दकोश में समावेश कर लिए जाने की बात समाचार पत्रों में सुखिर्यों का रूप ले लेती हैं, जबकि अंग्रेजी शब्दों को हिन्दी शब्द कोश में स्थान देने के लिए हमें निरंतर शब्दकोश छापते रहना होगा. हिन्दी की जिजीविषा, जीवन्तता या जीवटता का यही प्रमाण है. आज विश्व के सवा सौ से अधिक, गैरभारतीय , विश्वविद्यालयों में यदि हिन्दी के अध्ययन - अध्यापन की व्यवस्था है तो यह बेमानी नहीं है. वस्तुत: हिन्दी के लिए अंग्रेजी नहीं बल्कि अंग्रेजी के लिए हिन्दी एक जबदर्स्त चुनौती है.
भाषा विकास के क्रमिक स्वरूप एवं उसकी वैज्ञानिकता को जाने - अनजाने नजरन्दाज करते हुए, समय की नब्ज को पहिचाने बगैर उपहास के तौर पर परिवतर्न शील भाषायी रूप को खिचड़ी की संज्ञा दे दी जाती है. नाक भौं सिकोड़ने वाले यह भी भूल जाते हैं कि खिचड़ी जितनी सुपाच्य एवं सहजग्राह्य होती है, उतना अन्य पकवान नहीं. बीमारों के लिए स्वास्थ्य एवं स्वस्थों के लिए दीघर्जीवन दायिनी होती है खिचड़ी. सहजग्राह्यता अथवा सुपाच्यता किसी भी भाषा के विकास की ग्यारंटी होती है. इस सुविधाजनक स्थिति के मद्देनजर हिन्दी के हितैषी विद्वानों, आचार्यों का क्या यह कतर्व्य नहीं बनता कि गैर हिन्दी भाषियों के लिए, चाहे वे देशी हो या विदेशी, लेखन संबंधी व्यवहारिक कठिनाइयों को दूर न सही, कुछ कम करने का प्रयास करें. यह प्रयास विभिन्न स्तरीय तथा साहित्यिक भाषा, वैज्ञानिक, मनोवैज्ञानिक होने चाहिए. अंग्रेजी निज हिन्दी जहाँ दक्षिण वालों से तादाम्य स्थापित करने में मददगार होगी, वहीं उनकी भाषायी उग्रता का भी शमन होगा. दूसरी ओर ऐसे देशों में जहाँ की राष्ट्रभाषा अंग्रेजी है अथवा जहाँ अंग्रेजी का वचर्स्व है वहाँ इस अंग्रेजी निष्ठ हिन्दी को पैठ जमाने में निश्चित ही सुविधा होगी.
हिन्दी की तुलना में अंग्रेजी की श्रेष्ठता प्रतिपादित करने वाले (यद्यपि यह तुलना सतही तौर पर ही की जाती है क्योंकि हर भाषा की अपनी मौलिक विशिष्टता होती है, न कोई किसी से बेहतर है न कम तर ) अंग्रेजी के 26 वर्णों की दुहाई देते नहीं थकते. इसके विपरीत लगभग उससे दुगनी संख्या वाले हिन्दी को दुरूह प्रमाणित करने में भी कोताही नहीं करते. जिन्होंने छोटी सी जमीन एवं सीमित आबादी का जनक होते हुए संसार के बड़े - बड़े देशों पर सैकड़ों वर्षों तक राज किया हो, उनमें भाषायी विज्ञापन की मनोविज्ञान सम्मत व्यवसायिक कूटनीति भी अवश्य रही होगी. हीनग्रंथि से मुक्त होकर वास्तविकता की पड़ताल करने पर ही दूध का दूध और पानी का पानी हो सकेगा.
देवनागरी लिपि प्रयुक्त हिन्दी के वर्णों के ध्वन्यात्मक एवं लिप्यात्मक संकेत जहाँ एक से हैं, वहीं रोमन लिपि पयुक्त अंग्रेजी में ध्वन्यात्मक से ( जिसमें सीमित ध्वनियाँ ही अभिव्यक्त हो पाती हैं ) वर्णों की संख्या जहां मात्र 26 है, लिप्यात्मक दृष्टि से ( जिनमें सीमित ध्वनियां ही अभिव्यक्त हो पाती हैं) वर्णों की संख्या जहां मात्र 26 हैं, लिप्यात्मक दृष्टि से उनकी संख्या ( लिखने की दृष्टि से स्माल एवं बलाक लेटर) कम से कम बावन और मुद्रण को जोड़ हो तो 78 हो जाती है. अत: अंग्रेजी लेखन सीखना हिन्दी की अपेक्षा अधिक श्रम एवं बुद्धि साध्य है. अलबत्ता पहले से ही किसी के मस्तिष्क में यह बीज बो देने से कि अमुक सरल है अथवा कठिन है एक मनोवैज्ञानिक प्रभाव अवश्य पड़ता है. अंग्रेजी को सरल प्रचारित करने से यही हुआ. दरअसल हिन्दी वर्णों की ध्वनि निधार्रित है और लगभग एकैक नियम पर आधारित है जबकि अंग्रेजी के एक वर्ण से अनेक ध्वनियों की एवं अनेक वर्णों से किसी एक ध्वनि की वह भी अस्पष्ट सी अभिव्यंजना होती है. यद्यपि यह भाषा वैज्ञानिक तथ्य है कि एक ही वर्ण की चाहे वह किसी भी भाषा से संबंधित क्यों न हो, विभिन्न मनुष्यों के स्वर यंत्र के मान से उसकी असंख्य ध्वनियाँ संभव है. यहाँ उन औसत ध्वनियों के आधार पर चर्चा की जा रही है, जिन्हें विभिन्न वर्णों के लिए उदाहरण हेतु मान्यता प्रदान की गई है एवं जो भाषायी अनुशासन एवं परस्पर व्यवहार की दृष्टि से अधिक उपादेय हैं.
सिद्धांत: अंग्रेजी में ए, इ, आई, ओ और यू पाँच स्वर हैं. सामान्यत: अध्यापक छात्रों को ए का अर्थ अ, इ का ए, आई का इ, ओ का ओ एवं यू का उ बतलाते हैं, साथ ही तदनुकूल मात्राओं के रूप में उनके उपयोग की बात भी कहते हैं,यद्यपि उनके अनेक अराजक उपयोगों के बारे में इंगित करने की सावधानी भी बरतते हैं. अब इन पांच स्वरों का मात्र विहगोवलोकन करने पर व्यवहारत: पाते हैं कि ए का उपयोग अ, आ और ऐ के लिए इ का ए, इ, अ के लिए, आई का अ,इ के लिए, इ का ए, इ, अ के लिए आई का अ,इ के लिए ओ का आ, ओ, वा (ज्वाय ) के लिए और यू का अ, उ आदि के लिए किया जाता है, जबकि इन स्वरों को अभिव्यक्ति देने के लिए अनेक संयुक्ताक्षरों का प्रयोग, जिनमें कई व्यंजन भी समाहित हैं, प्रचलित हैं - कभी ए यू से आ कभी ए डबल्यू से और कभी ए यू बी एच से आई और ओ यू से अ भी होता है, कभी इ ए से ई, आई ए से ई, इ इ से ई इसी तरह ए इ से ए, ए आई से ए, इ आई बी एच (नेवर) से ए, ए - ई से भी ए होता है, और आगे बढ़े तो ओ - इ से ओ, ओ यू जी एच से ओ , ओ डबल्यू से ओ, यू ओ से ऊ आदि. शतश: उदाहरण कोई भी अंग्रेजी का छात्र किसी भी अंग्रेजी पुस्तक अथवा कोश में ढ़ूंढ़ सकता है. तात्पर्य यह है स्वरों एवं व्यंजनों को आपस में संयुक्ताकर अनेकानेक ध्वनि संकेतों की सजर्ना अंग्रेजी मे की गई है किन्तु इन्हें एक अलग से संकेत देकर अथवा संयुक्ताक्षर के रूप में अंग्रेजी वणर्माला में दशार्या नहीं गया है. दूसरी ओर कई संयुक्ताक्षरों को स्वतंत्र ध्वनि संकेतों के रूप में हिन्दी वणर्माला में दर्शा दिया गया है.
हिन्दी वणर्माला में क्रमिकता है. व्यंजनों को उच्चारण स्थान दाँत, तालू, ओंठ, जिव्हा, घषर्ण,ध्वनि एवं वायु संचार के आधार पर विभिन्न वर्गों में विभाजित किया गया है, जिनमें प्रत्येक में पाँच - पाँच वर्ण हैं. प्रत्येक समूह के प्रथम वर्ण का नाम आधारित है. यदि विभिन्न समूहों के प्रथमाक्षर क्, च ्, त्, प्, ट् वर्णों के क्रमश: द्वितीय ख्, छ्, थ्, ठ एवं च तुथर् घ्, झ्, ध्, म्, ढ़ वर्णों की ध्वनियों पर ध्यान केन्द्रित करें तो ज्ञात होगा कि ये अपने - अपने वर्ण समूह के प्रथम क्, च ्, त्, प्, ट् एवं तृतीय ग्, ज्, द्, ब् के साथ ह के संयोग से हिन्दी वणर्माला में अवतरित हुए हैं. यही कारण है कि अंग्रेजी में हिन्दी के द्वितीय एवं चतुर्थ वर्णों के लिए स्थानापन्न रूप में के एच (ख्) सी एच एच (छ) टी एच (थ्) पी एच (फ्) टी एच एच (ठ्) एवं जी एच (घ्) और उसी प्रकार जे एच (झ्) डी एच (घ्) बी एच (भ्) डी एच एच (ढ़्) आदि ध्वनि संकेतों का उपयोग किया जाता है, जो अंग्रेजी वणर्माला मे असंख्य है. यदि हम अंग्रेजी की इस छद्म ध्वनि प्रणाली एवं लेखन शैली का उपयोग करें तो उपयुक्त दस वर्णों को सहजता से हिन्दी वणर्माला से निकाला जा सकता है किन्तु भाषायी दीघर्कालिक संस्कार अब इसकी इजाजत नहीं देगा. ऐसे ही अनेक युक्तिसंगत कारणों से हिन्दी वणर्माला अंग्रेजी वणर्माला से बड़ी दिखाई देती है. वस्तुत: ऐसा है नहीं. सरलीकृत करने के लिए कहावत के रूप में हम कह सकते हैं कि अंग्रेजी के खाने के (बोलने के) और दिखाने के (लिखने के) दाँत अलग - अलग है. हिन्दी में इस कपाट्य का अभाव है. हकीकत तो यह है कि हिन्दी के स्वरों को भी मात्राओं के रूप में परिवतिर्त कर अलग से सांकेतिक चिन्ह दे दिये गये हैं. और इन्हीं कुछ कारणों से हिन्दी दुरूह लगने लगती है और अंग्रेजी सरल. अंग्रेजी लेखनशैली की दृष्टि से क्षण, त्र, ज्ञ,Î,ऋ आदि की कोई प्रासंगिकता नहीं है. त्र तो स्वतंत्र वर्ण है ही. मात्र लेखन की के कारण त्र त्र हो गया जो (आधा त) आधा (त्) एवं र (भाषा ) के मेल से बना है. य दि थोड़ी सी भाषायी उदारता बरती जाय तो कछि, अल्पग्य , अंग, रितु के प्रयोग द्वारा कुछ वर्णों से सरलता पूवर्क मुक्ति पाया जा सकता है. स, श, ष का अलग - अलग उदाहरण अब श्रमसाध्य हो गया है, ध्वनि में अलगाव व्यक्त करने के लिए उर्दू के तुOा प्रणाली पर सोचा जा सकता है.
हिन्दी की एक सवर्मान्य विशेषता है कि जो लिखा जाता है, वही पढ़ा जाता है. जो बोला जाता है, वही लिखा जाता है. यही कारण है कि संसार के किसी भी भाषा को आंशिक संशोधन के साथ देवनागरी लिपि में लिप्यांतरित कर सकते हैं. देवनागरी लिपि में अंग्रेजी भाषाण पढ़ पाना जितना आसान है, रोमन लिपि में हिन्दी भाषा पढ़ सकना नहीं. हिन्दी में ऐसा कुछ लिखा जाना संभव ही नहीं जिसका उदाहरण न हो. जबकि अंग्रेजी में डाउट का बी, नालेज का के, साय कोलाजी का पी, वाच का टी, चाक का एल, क्रिकेट का सी, बजट का डी,आनर का एच , कंडम का एन, वणर् अनु‚रित ही रहता है. टी एच से थ भी होता है और द भी. डी से द और ड, टी से ट, च , श आदि. जी से ज और ग. डी जी ê जो जाता है और आई जी एच को आई पढ़ना पड़ता है. लिखते हैं डबल एस पढ़ते हैं आधा एस. टेक और केय र में ए - इ के अलग - अलग उ‚ारण है. पेन और पेय र का भी य ही अंजाम है. वास्तविकता य ह है कि अंग्रेजी की विसंगतियों को ही च तुराय र् से उसकी विशेषताओं के रूप में प्रचारित कर दिया गया है. अंग्रेजी की एक बहुत बड़ी विशेषता है, उसका शार्ट कट फार्म इस लचीलेपन की जितनी भी सराहना की जाय कम है. आई लव यू जैसे पूरे वायि को इलू के रूप में परिवतिर्त कर देने की इस भाषा में अद्भुत सामर्थ्य है. वह दिन दूर नहीं जब अंग्रेजी पुस्तकों में हूं के लिए एम, हैं के लिए आर, तुम के लिए यू, चाय के लिए टी, समुद्र या देखना के लिए सी का प्रयोग होने लगे. काग्रेचुलेशन्स कांग्रेट हो गया. महात्मा गांधी एम जी में अंतधार्न हो गये. बड़ी - बड़ी संस्थाओं के नाम कुछ अक्षरों में सिमट कर रह गये है. हिन्दी में संभवनाएं असीम है, फिर अंग्रेजी की तुलना में उसका उम्र ही क्या है ? यदि प्रयास विशेष से, जो भाषा की प्रकृति के अनुकूल हो, गैर हिन्दी भाषा - भाषियों को हिन्दी लिखने, समझने में सरलता हो तो रूढ़ि एवं शुद्रता के मोह का परित्याग कर उसे स्वीकार किया जाना चाहिए. यदि हिन्दी को इक्कीसवीं सदी की भाषा बनाकर विश्व स्तर पर प्रतिष्ठित करना चाहते हैं, तो हिन्दी के रास्ते के छोटे - छोटे कंटकों को दूर करते चलें, वह अपना मार्ग स्वयं बना लेगी.
- नया बस स्टैंड, खैरागढ़, जिला - राजनांदगांव(छग)
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