इस अंक के रचनाकार

इस अंक के रचनाकार आलेख खेती-किसानी ले जुड़े तिहार हरे हरेलीः ओमप्रकाश साहू ' अंकुर ' यादें फ्लैट सं. डी 101, सुविधा एन्क्लेव : डॉ. गोपाल कृष्ण शर्मा ' मृदुल' कहानी वह सहमी - सहमी सी : गीता दुबे अचिंत्य का हलुवा : राजेन्द्र प्रसाद काण्डपाल एक माँ की कहानी : हैंस क्रिश्चियन एंडर्सन अनुवाद - भद्रसैन पुरी कोहरा : कमलेश्वर व्‍यंग्‍य जियो और जीने दो : श्यामल बिहारी महतो लधुकथा सीताराम गुप्ता की लघुकथाएं लघुकथाएं - महेश कुमार केशरी प्रेरणा : अशोक मिश्र लाचार आँखें : जयन्ती अखिलेश चतुर्वेदी तीन कपड़े : जी सिंग बाल कहानी गलती का एहसासः प्रिया देवांगन' प्रियू' गीत गजल कविता आपकी यह हौसला ...(कविता) : योगेश समदर्शी आप ही को मुबारक सफर चाँद का (गजल) धर्मेन्द्र तिजोरी वाले 'आजाद' कभी - कभी सोचता हूं (कविता) : डॉ. सजीत कुमार सावन लेकर आना गीत (गीत) : बलविंदर बालम गुरदासपुर नवीन माथुर की गज़लें दुनिया खारे पानी में डूब जायेगी (कविता) : महेश कुमार केशरी बाटुर - बुता किसानी/छत्तीसगढ़ी रचना सुहावत हे, सुहावत हे, सुहावत हे(छत्तीसगढ़ी गीत) राजकुमार मसखरे लाल देवेन्द्र कुमार श्रीवास्तव की रचनाएं उसका झूला टमाटर के भाव बढ़न दे (कविता) : राजकुमार मसखरे राजनीति बनाम व्यापार (कविता) : राजकुमार मसखरे हवा का झोंका (कविता) धनीराम डड़सेना धनी रिश्ते नातों में ...(गजल ) बलविंदर नाटक एक आदिम रात्रि की महक : फणीश्वर नाथ रेणु की कहानी से एकांकी रूपान्तरणः सीताराम पटेल सीतेश .

रविवार, 31 मई 2009

मैथिलीशरण गुप्त के काव्य में : पतिवियुक्ता नारी


दादूलाल जोशी ' फरहद' 
बीसवीं शताब्दी के प्रारंभिक दो दशकों का कालखण्ड हिन्दी साहित्य के इतिहास में, जागरण और सुधार का काल माना जाता है। इस काल में हिन्दी कविता को श्रृंगारिकता से राष्ट्रीयता, जड़ता से प्रगति तथा रूढ़ि से स्वच्छंदता के द्वार पर ला खड़ा करने का स्तुत्य प्रयास तत्कालीन कवियों ने किया था। इस कालखण्ड के पथ - प्रदर्शक विचारक और सर्व स्वीकृत साहित्य नेता आचार्य पं. महावीर प्रसाद द्विवेदी जी थे। सनï् 1903 ई. में वे प्रतिष्ठिïत पत्रिका सरस्वती के सम्पादक बने और सनï् 1920 ई. तक परिश्रम और लगन से कार्य करते रहे। सरस्वती के सम्पादक के रूप में उन्होंने हिन्दी भाषा और साहित्य के लिए अविस्मरणीय कार्य किया। उनके प्रोत्साहन और मार्गदर्शन के परिणाम स्वरूप कवियों और लेखकों की एक पीढ़ी का निर्माण हुआ। खड़ी बोली को परिस्कृत, परिवर्धित और प्रतिष्ठिïत करने वालों में वे अग्रगण्य थे। इसीलिए बीसवीं शताब्दी के प्रथम एवं द्वितीय दशकों की कालावधि को द्विवेदी युग स्वीकार किया गया है। इस युग का सम्पूर्ण जीवन धारा से संपृक्त जीवंत राष्टï्रीयता, उच्च आदर्शों की प्रतिष्ठïा साहित्य की समाजोन्मुखता सांस्कृतिक चेतना आदि से युक्त हिन्दी कविता नवीन शक्ति और ओजपूर्ण धाराओं से परिपूर्ण नवपयुस्विनी की तरह प्रवाहमान हुई है। इसी प्रवाहमान पयस्विनी के अवतरण कराने वाले भगीरथ के रूप में मैथिलीशरण गुप्त की प्रतिष्ठïा है। डां. शिवमंगल सिंह सुमन जी लिखते हैं - खड़ी बोली के सर्वाधिक दुलारे लाड़ले बाबू मैथिलीशरण गुप्त द्विवेदी जी के प्रतिकल्प विचारों के समर्थ वाहक बनकर उसी प्रकार अवतरित हुए जैसे पुष्टिïमार्ग के लिए सूरदास जहाज प्रमाणित हुए।
स्वतंत्र भारत के प्रथम राष्टï्र - कवि के आसंदी पर आरूढ़ मैथिलीशरण गुप्त जी ने अपने साठवर्षीय काव्य साधना, कला में लगभग सत्तर कृतियों की रचना करके न केवल हिन्दी साहित्य की अपितु सम्पूर्ण भारतीय समाज की अमूल्य सेवा की है। उन्होंने अपने काव्य में एक ओर भारतीय राष्टï्रवाद, संस्कृति, समाज तथा राजनीति के विषय में नये प्रतिमानों को प्रतिष्ठिïत किया वहीं दूसरी ओर व्यक्ति, परिवार, समाज और राष्ट्र के अंत: सम्बंधो के आधार पर इन्हें नवीन अर्थ भी प्रदान किया है।
गुप्तजी द्विवेदी युग के प्रमुख कवि थे। वह युग जातीय जागरण और राष्टï्रीय उन्मेष का काल था। वे अपने युग और उसकी समस्याओं के प्रति अत्यंत संवेदनशील थे। उनका संवेदनशील और जागरूक कवि ह्रïदय देश की वर्तमान दशा से क्षुब्ध था। वे धार्मिक और सामाजिक कुरीतियों को इस दुर्दशा का मूल कारण मानते थे। अत: उनके राष्टï्रवाद की प्रथम जागृति धार्मिक और सामाजिक सुधारवाद के रूप में दिखाई देती है। नारियों की दुरावस्था तथा दुखियों दीनों और असहायों की पीड़ा ने उसके ह्रïदय में करूणा के भाव भर दिये थे। यही वजह है कि उनके अनेक काव्य ग्रंथों में नारियों की पुनर्प्रतिष्ठïा एवं पीड़ित के प्रति सहानुभूति झलकती है। नारियों की दशा को व्यक्त करती उनकी ये पंक्तियां पाठकों के ह्रïदय में करूणा उत्पन्न करती है - अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी। ऑंचल में है दूध और आँखों में पानी। एक समुन्नत, सुगठित और सशक्त राष्टï्र नैतिकता से युक्त आदर्श समाज, मर्यादित एवं स्नेहसिक्त परिवार और उदात्त चरित्र वाले नर - नारी के निर्माण की दिशा में उन्होंने प्राचीन आख्यानों को अपने काव्य का वर्ण्य विषय बनाकर उनके सभी पात्रों को एक नया अभिप्राय दिया है। जयद्रथवध, साकेत, पंचवटी, सैरन्ध्री, बक संहार, यशोधरा, द्वापर, नहूष, जयभारत, हिडिम्बा, विष्णुप्रिया एवं रत्नावली आदि रचनाएं इसके उदाहरण है।
गुप्त जी मर्यादा प्रेमी भारतीय कवि हैं। उनके ग्रंथों के सुपात्र वारिक व्यक्ति हैं। उन्होंने संयुक्त परिवार को सर्वोपरि महत्व दिया है तथा नैतिकता और मर्यादा से युक्त सहज सरल पारिवारिक व्यक्ति को श्रेष्ठï माना है। ऐसे ही व्यक्ति में उदात्त गुणों का प्रादुर्भाव हो सकता है। इस संदर्भ में डां. हजारी प्रसाद द्विवेदी जी का कथन दृष्टïव्य है - मैथिलीशरण गुप्त ने सम्पूर्ण भारतीय पारिवारिक वातारण में उदात्त चरित्रों का निर्माण किया है। उनके काव्य शुरू से अंत तक प्रेरणा देने वाले हैं। उनमें व्यक्तित्व का स्वत: समुच्छित उच्छï्वास नहीं है, पारिवारिक व्यक्तित्व का और संयत जीवन का विलास है।
वस्तुत: गुप्तजी पारिवारिक जीवन के कथाकार है। परिवार का अस्तित्व नारी के बिना असंभव है। इसीलिए वे नारी को जीवन का महत्वपूर्ण अंग मानते हैं। नारी के प्रति उनकी दृष्टिï रोमानी न होकर मर्यादावादी और सांस्कृतिक रही है। वे अपने नारी पात्रों में उन्हीं गुणों की प्रतिष्ठïा करते हैं, जो भारतीय कुलवधु के आदर्श माने गये हैं। उनकी दृष्टिï में नारी भोग्य मात्र नहीं अपितु पुरूष का पूरक अंग है। इसीलिए उनके काव्य में नारी के स्वतंत्र व्यक्तित्व स्वाभिमान, दर्प और स्वावलम्बन का समुचित चित्रण हुआ है। उनके काव्य में नारी, अधिकारों के प्रति सजग, शीलवती, मेधाविनी, समाजसेविका, साहसवती, त्यागशीलता और तपस्विनी के रूप में उपस्थित हुई। इस अनुपम सृष्टिï, इसके सर्जक और इसके महत्वपूर्ण घटक नर - नारी के प्रति गुप्तजी की पूर्ण आस्था है। इस आस्था के दर्शन उनके काव्य में होता है। आस्था का विखंडन गुप्तजी के लिए असहनीय है। नारी के प्रति पुरूष का अनुचित आचरण उन्हें अस्वीकार है। इसीलिए द्वापर में विधृता के माध्यम से इन पंक्तियों को प्रस्तुत करते हैं - नर के बांटे क्या नारी की नग्न मूर्ति ही आई। माँ बेटी या बहिन हाय, क्या संग नहीं लाई॥ आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी गुप्तजी के काव्य - गुरू थे। द्विवेदी जी के कवियों की उर्मिला विषयक उदासीनता के विमर्श ने गुप्त जी को साकेत महाकाव्य लिखने के लिए प्रेरित किया।
- हम कौन थे, क्या हो गये हैं, और क्या होंगे अभी का प्रश्र उछाल कर -
मानस भवन में आर्यजन जिसकी उतारें आरती, भगवान भारत वर्ष में गूंजे हमारी भारती की प्रार्थना करने वाले कवि कालान्तर में, विरहिणी नारियों के दुख से द्रवित हो जाते हैं। परिवार में रहती हुई पतिवियुक्ता नारी की पीड़ा को जिस शिद्दत के साथ गुप्तजी अनुभव करते हैं और उसे जो बानगी देते हैं, वह आधुनिक साहित्य में दुर्लभ है। उनकी वियोगिनी नारी पात्रों में उर्मिला साकेत महाकाव्य यशोधरा यशोधरा खण्डकाव्य और विष्णुप्रिया खण्डकाव्य प्रमुख है। उनका करूण विप्रलम्भ तीनों पात्रों में सर्वाधिक मर्मस्पर्शी बन पड़ा है। उनके जीवन संघर्ष, उदान्त्त विचार और आचरण की पवित्रता आदि मानवीय जीजिविषा और सोदैश्यता को प्रमाणित करते हैं। गुप्तजी की तीनों विरहिणी नायिकाएं विरह ताप में तपती हुई भी अपने तन - मन को भस्म नहीं होने देती वरण कुंदन की तरह उज्जवल वर्णी हो जाती हैं।
साकेत की उर्मिला रामायण और रामचरितमानस की सर्वाधिक उपेक्षित पात्र है। इस विरहिणी नारी के जीवन वृत्त और पीड़ा की अनुभूतियों का विशदï् वर्णन आख्यान कारों ने नहीं किया है। उर्मिला लक्ष्मण की पत्नी है और अपनी चारों बहनों में वही एक मात्र ऐसी नारी है, जिसके हिस्से में चौदह वर्षों के लिए पतिवियुक्ता होनेे का दुख मिला है। उनकी अन्य तीनों बहनों में सीता राम के साथ, मांडवी भरत के सानिध्य में तथा श्रुतिकीर्ति शत्रुघन के संग जीवन यापन करती हैं। उर्मिला का जीवन वृत्त और उसकी विरह - वेदना सर्वप्रथम मैथिलीशरण गुप्त जी की लेखनी से साकार हुई हैं। डां. जगीनचन्द सहगल लिखते हैं - साकेत मैथिलीशरण गुप्त का निज कवि धन है। यह उनका जीवन कार्य है। डां. सहगल कवि के लक्ष्य की ओर इंगित करते हुए आगे लिखते हैं साकेत के कवि का लक्ष्य रामकथा के उपेक्षित पात्रों को प्रकाश में लाना तथा उसके देवत्व गुणयुक्त पात्रों को मानव रूप में उपस्थित करना है। गुप्तजी ने अपने काव्य का प्रधान पात्र राम और सीता को न बनाकर लक्ष्मण, उर्मिला और भरत को बनाया है ....।
गुप्तजी ने साकेत में उर्मिला के चरित्र को जो विस्तार दिया है, वह अप्रतिम है। कवि ने उसे मूर्तिमति उषा, सुवर्ण की सजीव प्रतिमा कनक लतिका ,कल्पशिल्पी की कला आदि कहकर उसके शारीरिक सौंदर्य की अनुपम झांकी प्रस्तुत की है। उर्मिला प्रेम एवं विनोद से परिपूर्ण हास - परिहास मयी रमणी है। उसका हास - परिहास बुद्धिमत्तापूर्ण हैं - लक्ष्मण जब उर्मिला की मंजरी सी अंगुलियों में यह कला देखकर अपना सुधबुध भूल जाते हैं और मत्त गज सा झूम कर उर्मिला से अनुनय करते हैं - कर कमल लाओ तुम्हारा चूम लूं।
इसके प्रत्युत्तर में उर्मिला अपना कमल सा हाथ पति की ओर बढ़ाती हुई मुस्कराती है और विनोद भरे शब्दों में कहती हैै -
मत्त गज बनकर, विवेक न छोड़ना।
कर कमल कह, कर न मेरा तोड़ना।
एक ओर उसका दाम्पत्य जीवन अत्यन्त आल्हाद एवं उमंगों से भरा हुआ है तो दूसरी ओर उसमें त्याग, धैर्य एवं बलिदान की भावना अत्यधिक मात्रा में विद्यमान है। लक्ष्मण के वन गमन का समाचार सुनकर उसके ह्रïदय में भी सीता की भांति वन - गमन की इच्छा होती है, परन्तु लक्ष्मण की विवशता देखकर वह अपने प्रिय के साथ चलना उचित नहीं समझती। वह अपने ह्रïदय में धैर्य धारण करके अपने मन को यह कह कर समझा लेती है -
तू प्रिय - पथ का विध्न न बन
आज स्वार्थ है त्याग धरा।
हो अनुराग विराग भरा।
तू विकार से पूर्ण न हो
शोक भार से चूर्ण न हो॥
साकेत चतुर्थ सर्ग
किन्तु उर्मिला अत्यन्त भोली - भाली सुकुमार एवं कोमल ह्रïदयवाली भी है। राजसुखों में पली हुई वह नवयौवना वियोग का दुख क्या होता है, उसे नहीं जानती। इसीलिए अपने प्रियतम पति लक्ष्मण के बिछुड़ते ही वह अपने धैर्य को सम्हाल नहीं पाती और एक मुग्धानारी की भांति हाय कहकर धड़ाम से धरती पर गिर जाती है। उसका मूर्छित होना स्वाभाविक है किन्तु सचेत होने पर उसकी बौद्धिकता पुन: जागृत हो जाती है और अपनी मूर्छा को वह नारी सुलभ दुर्बलता मानकर अपने पति के बारे में यही कामना करती है - करना न सोच मेरा इससे। व्रत में कुछ विध्न पड़े जिससे॥
उर्मिला के चौदह वर्षों का विरहकाल व्यतीत करना आसान नहीं है। उसके पास लक्ष्मण के साथ बिताये हुए सुखमय जीवन की स्मृतियों के सिवाय कुछ भी नहीं है। एक - एक पल पर्वत सा प्रतीत होता है, किन्तु विरह के इस वृहत काल को तो गुजारना ही होगा। यह निश्चय करके उर्मिला सेवा का मार्ग अपना लेती है। वह अपनी सासों की सेवा करती है, रसोई बनाती है, किसानों की दशा पूछती रहती है -
पूछी थी सुकालदशा मैंने आज देवर से। इतना ही नहीं। वह नगर की जितनी प्रोषितपतिकाएं हैं, उनकी सुध - बुध लेती है। उनके हाल चाल जानने के लिए आतुर रहती है। इस तरह एक विरह - विदग्धा सर्व सुविधा सम्पन्न राज वधु को एक लोक सेविका के रूप में रूपान्तरित करके राष्टï्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने नारी को एक दिशा दी है। जीवन के प्रति अटूट आस्था स्थापित की है। डां. द्वारिका प्रसाद सक्सेना साकेत की उर्मिला के चरित्र की व्याख्या इन शब्दों में करते हैं -
गुप्तजी ने साकेत में उपेक्षित उर्मिला को बड़े मनोयोग के साथ चित्रित किया है। वह दिव्य सौंदर्य सम्पन्न युवती परिवार के साथ - साथ समाज पर भी अपना प्रभाव डालने में सक्षम है, क्योंकि उसका शील - सौजन्य, उसकी व्यवहार कुशलता, उसकी त्यागमयी तपस्या, उसका स्वाभिमान, उसका देश प्रेम, उसकी तितिक्षा, उसकी सरलता, उसकी दया, उसकी क्षमा, उसका धैर्य, उसका कर्तव्य, उसकी निरभिमानता आदि सभी गुण उसे महान बना देते हैं और वह पतिपरायणा नारी सहधर्मचारिणी से भी ऊपर उठकर नारी के उच्च आदर्शों को स्थापित करने में पर्याप्त सफलता प्राप्त करती है।
गुप्तजी की यशोधरा खण्डकाव्य में राजकुमार सिद्धार्थ की पत्नी यशोधरा के मनोभावों का बखूबी चित्रण हुआ है। यशोधरा भी एक वियोगिनी नारी है। सिद्धार्थ के द्वारा रात्रि में उसे सोती हुई छोड़कर राजप्रसाद से चुपचाप सन्यास हेतु निकल जाने से उसका मन आहत हो जाता है। यशोधरा को इसी बात का दुख था कि उसके पति समझते थे कि वह उनके मार्ग की बाधा बनेगी इसीलिए उसे बिना बताएं घर छोड़कर चले गये। यही पीड़ा इसलिए और अधिक गहरी हो जाती है कि जो पत्नी सहधर्मिणी थी, जो उसके हर काम में सहयोग देती थी, उस पर सिद्धार्थ ने अविश्वास किया। यशोधरा का कहना है कि यदि वे उस पर विश्वास करते और गृहत्याग की बात बता देते तो वह उन्हें पूरा सहयोग देती। उसने अपने आहत अभिमान की व्यंजना - सखि वे मुझसे कहकर जाते। गीत में करती है - वह गा उठती है।
सिद्धी हेतु स्वामी गये यह गौरव की बात।
पर चोरी चोरी गये यह बड़ी आघात॥
सखी वे मुझसे कहकर जातें।
विरहिणी यशोधरा की आंखो का पानी कभी नहीं सूखता, राहुल के प्रति कर्तव्य भार को वहन करते हुए जल जलकर काया को जीवित रखती है। एक तो वह पीड़ा का स्वागत करती है। वेदना तू भी भली बनी तो दूसरी वह मृत्यु का वरण सुन्दर बन आयारी। गुप्तजी के नारी पात्र घोर संकट ओर विषम परिस्थितियों में भी धीरता, कर्मण्यता और कर्तव्य भावना का परित्याग नहीं करते। वे कर्तव्यनिष्ठïा, त्यागशील और सहिष्णु नारी है। यशोधरा अपने श्वसुर शुद्धोधन से भी अधिक धैर्यवान, सहिष्णु है और वह स्वनिर्मित मर्यादा में तल्लीन रहती है। गौतम द्वारा उनका परित्याग कर देने पर भी  यशोधरा यही कामना करती है -
व्यर्थ न दिव्य देह वह तप - वर्षा - हिम - वात सहे।
उसकी सहिष्णुता का यह रूप है कि वह विरहिणी के असहï्य दुख को भी अपने लिए मूल्यवान मानती है।
होता सुख का क्या मूल्य, जो न दुख रहता।
प्रिय ह्रïदय सदय हो तपस्ताप क्यों सहता।
मेरे नयनों से नीर न यदि यह बहता।
तो शुष्क प्रेम की बात कौन फिर कहता।
रह दुख प्रेम परमार्थ दया मैं लाऊ।
कह मुक्ति भला किसलिए तुम्हें मैं पाऊ।
स्वधर्मधारिणी यशोधरा मुक्ति लाभ प्राप्त करने की अपेक्षा संसार हेतु शतबार सहर्ष मरना अधिक श्रेयस्कर मानती है। यहां गुप्तजी लौकिक और अलौकिक के द्वन्द्व को प्रस्तुत करते प्रतीत होते हैं।
यशोधरा एक माननी नारी हैं। गौतम के आगमन का समाचार सुनकर भी वह अपने कक्ष से निकलकर पति का स्वागत करने नहीं जाती फलस्वरूप गौतम स्वयं उनके कक्ष में प्रवेश कर कहते हैं -
मानिनी मान तजो, लो तुम्हारी आन। अंत में यशोधरा अपने प्राण प्रिय के चरणों में अपना सर्वस्व पुत्र राहुल को उत्सर्ग करके अपनी जीवन - साधना को सफल करती है।
गुप्तजी की विष्णुप्रिया भी उर्मिला और यशोधरा के समान ही एक पतिवियुक्ता नारी हैं। बंगाल के प्रसिद्ध संत महाप्रभु चैतन्य की पत्नी के रूप में वह प्रतिष्ठिïत है। महाप्रभु चैतन्य के साथ उनका विवाह मात्र 12 वर्ष की आयु में हुआ और पति के सन्यासी बन जाने के कारण वह 26 वर्षों तक पतिवियुक्ता बन कर विरहाग्रि में जलती रही। वह सामान्य मध्यम परिवार की नारी है और नि:संतान है। गुप्तजी ने विष्णुप्रिया खण्डकाव्य में भी एक भारतीय नारी की विवशता को दर्शाता है। श्री चैतन्य के सन्यास लेने के प्रसंग में विष्णुप्रिया के कथन - रो रो कर मरना नारी लिखा लायी है। इसका प्रमाण है। इसी तरह अनेक पंक्तियां एक सामान्य नारी के रूप में विष्णुप्रिया की विवशता को प्रकट करती हैं। यथा - देव ने लिखाया सुख फिर भी दिया नहीं, मेरी मति और गति केवल तुम्हीं - तुम्हीं आदि। यशोधरा की तरह उसके ह्रïदय को भी यह सोचकर ठेस लगती है - हाय मैं छली गयी हूं, छिपकर भागे वे। चैतन्य के सन्यास ग्रहण करने हेतु चले जाने पर विष्णुप्रिया पति वियोग के सन्ताप को सहती हुई जीविकोपार्जन, सास की सेवा और पति - चिंतन के सहारे समय व्यतीत करती है। इस तरह गुप्त जी ने विष्णुप्रिया में प्रेम, पीड़ा और कर्तव्य भावना का समन्वय किया है। स्वप्र दर्शन के माध्यम से उसके आत्मबल को अभिव्यक्त किया है और पर्वोत्सवों के माध्यम से उसकी करूणामयी सामाजिक चेतना, वेदना तथा उदार भावना को प्रकट किया है।
पति और सास के स्वर्गारोहण के बाद विष्णुप्रिया नितान्त अकेली रह जाती है। वह हताश होकर इस दुनियां को छोड़ देना चाहती है किन्तु वह मर नहीं पाती क्योंकि वह पति - स्मरण छोड़ नहीं पाती थी। उसे चैतन्य की मूर्ति में विलीन होने का स्वप्न आता है। वह सती भी नहीं हो सकती क्योंकि स्वप्न मे चैतन्य का आदेश था - आयु शेष रहते मरण आत्मघात है, मेरी एक मूर्ति रखो निज गृह कक्ष में। इस आदेश के अनुसार विष्णुप्रिया ने एक मंदिर बनवाया - मंदिर बनाया निज गेह उस देवी ने। इस तरह विरहिणी विष्णुप्रिया एकान्तवासिनी होकर जितने मंत्र, श्लोक जपती थी, उतने ही धान्य - कणों का भोजन करती हुई पति,और सास का चिन्तन करती है। इस तरह गुप्तजी की विष्णुप्रिया पतिवियुक्ता विरहिणी होकर भी भारतीय मध्यमवर्गीय परिवार की सहनशीला, सेवाभावी, पतिपरायणा, और सदï्गृहस्थ नारी के रूप में चित्रित हुई है।
गुप्तजी ने अपनी कृतियों के प्राय: सभी नारी - पात्रों को युगानुरूप नवस्वरूप प्रदान करने का विलक्षण कार्य किया है किन्तु पतिवियुक्ता वियोगिनी नारी के जीवनचर्या और उसकी मानसिक वृत्तियों का शूक्ष्मता के साथ खोजपूर्ण वर्णन किया है। गुप्तजी की यह सबसे बड़ी विशेषता है कि उनके नारी - पात्र अपनी प्रवृत्तियों और आवेगों का मार्गान्तरीकरण करते हैं। मनोविज्ञान के मनीषियों का विचार है कि प्रत्येक व्यक्ति नर - नारी दोनों में जन्मजात चौदह मूल प्रवृतियाँ विद्यमान होती हैं। किसी भी एक प्रवृत्ति का अतिरेक होने पर उसका नकारात्मक प्रभाव मानव के तन - मन पर पड़ता है। ऐसी प्रवृत्तियों के निषेध को भी उचित नहीं माना गया है। विरह की मूल प्रवृत्ति काम  है। विरह भाव की अतिशय वृद्धि विरही अथवा विरहिणी के मन और ह्रïदय को विचलित कर देती है, यहां तक कि आत्मघात की ओर भी ले जा सकती है। अत: काम प्रवृत्ति और विरह भाव की तीव्रता को अल्प करने के लिए किसी अन्य सृजनात्मक प्रवृत्ति की ओर बढ़ना चाहिए। यही प्रवृत्तियों और आवेगों का मार्गान्तरीकरण है।
गुप्तजी की विरहिणी नारियां, यथा - उर्मिला, यशोधरा, और विष्णुप्रिया अपने तन - मन को परिवार और समाज की सेवा में लगाकर अपने विरह काल को सोद्देश्यता प्रदान करती हैं। गुप्तजी के ये पात्र घर - संसार से पलायन नहीं करते है। वे आत्महत्या को पाप समझती है। इसीलिए सभी तरह की समस्याओं का सामना करती हुई जीवन - संघर्ष में विजयी होती है। वे गृहस्थ होकर भी तपस्विनी है और तपस्विनी होकर भी गृहस्थ। युगचेता कवि मैथिलीशरण गुप्त ने पतिवियुक्ता नारी - पात्रों के द्वारा पाठकों के ह्रïदय में केवल करूणा के भाव नहीं जगायें हैं, वरण अपने समय के समाज को स्वस्थ नैतिक और संघर्षशील बनाने के लक्ष्य को लेकर लोक शिक्षण का कार्य भी किया है।                संदर्भ ग्रन्थ -
1. साकेत - मैथिलीशरण गुप्त
2. यशोधरा खण्डकाव्य - मैथिलीशरण गुप्त
3. विष्णुप्रिया खण्डकाव्य - मैथिलीशरण गुप्त
4. हिन्दी साहित्य का इतिहास - सम्पादक - डां. नगेन्द्र
5. हिन्दी साहित्य : उदï्भव और विकास - डां. हजारी प्रसाद द्विवेदी
6. मैथिलीशरण गुप्त काव्य - संदर्भ कोष - सम्पादक डां. नगेन्द्र
7. साकेत में काव्य, संस्कृति और दर्शन - डां. द्वारिका प्रसाद सक्सेना
8. नविका आधु. काव्य संकलन - सम्पादक - डांï. शिव मंगल सिंह सुमन
9. हिन्दी की प्रगतिशील कविता - सम्पादक - राजीव सक्सेना
10. आधुनिक काव्य संकलन - सम्पादक - डां. गणेशदत्त त्रिपाठी, डां. पवन कुमार मिश्र।ï
ग्राम  - फरहद, पोष्टï - सोमनी
जिला - राजनांदगांव ( छग. )
मो. - 09691053533

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