इस अंक के रचनाकार

इस अंक के रचनाकार आलेख खेती-किसानी ले जुड़े तिहार हरे हरेलीः ओमप्रकाश साहू ' अंकुर ' यादें फ्लैट सं. डी 101, सुविधा एन्क्लेव : डॉ. गोपाल कृष्ण शर्मा ' मृदुल' कहानी वह सहमी - सहमी सी : गीता दुबे अचिंत्य का हलुवा : राजेन्द्र प्रसाद काण्डपाल एक माँ की कहानी : हैंस क्रिश्चियन एंडर्सन अनुवाद - भद्रसैन पुरी कोहरा : कमलेश्वर व्‍यंग्‍य जियो और जीने दो : श्यामल बिहारी महतो लधुकथा सीताराम गुप्ता की लघुकथाएं लघुकथाएं - महेश कुमार केशरी प्रेरणा : अशोक मिश्र लाचार आँखें : जयन्ती अखिलेश चतुर्वेदी तीन कपड़े : जी सिंग बाल कहानी गलती का एहसासः प्रिया देवांगन' प्रियू' गीत गजल कविता आपकी यह हौसला ...(कविता) : योगेश समदर्शी आप ही को मुबारक सफर चाँद का (गजल) धर्मेन्द्र तिजोरी वाले 'आजाद' कभी - कभी सोचता हूं (कविता) : डॉ. सजीत कुमार सावन लेकर आना गीत (गीत) : बलविंदर बालम गुरदासपुर नवीन माथुर की गज़लें दुनिया खारे पानी में डूब जायेगी (कविता) : महेश कुमार केशरी बाटुर - बुता किसानी/छत्तीसगढ़ी रचना सुहावत हे, सुहावत हे, सुहावत हे(छत्तीसगढ़ी गीत) राजकुमार मसखरे लाल देवेन्द्र कुमार श्रीवास्तव की रचनाएं उसका झूला टमाटर के भाव बढ़न दे (कविता) : राजकुमार मसखरे राजनीति बनाम व्यापार (कविता) : राजकुमार मसखरे हवा का झोंका (कविता) धनीराम डड़सेना धनी रिश्ते नातों में ...(गजल ) बलविंदर नाटक एक आदिम रात्रि की महक : फणीश्वर नाथ रेणु की कहानी से एकांकी रूपान्तरणः सीताराम पटेल सीतेश .

सोमवार, 31 अगस्त 2009

राजभाषा : छत्‍तीसगढ़ी

यशवंत मेश्राम 
छत्तीसगढ़ी की उत्पत्ति अधर्मागधी - प्राकृत - अपभ्रंशों से हुई है. य ह हिन्दी भाषान्तर्गत पूवीर् हिन्दी की एक बोली है. भोलानाथ तिवारी के अनुसार हिन्दी की 17 बोलियाँ बतलाई गई है जबकि डाँ. रमेशच न्द्र मेहरोत्रा ने 22 बोलियाँ स्वीकार की है. छत्तीसगढ़ी की उपबोलियाँ इस प्रकार है- 1. छत्तीसगढ़ी - (अ) राय पुरी (ब) बिलासपुरी, 2. खल्टाही ,3. लरिया, 4. सरगुजिया, 5. सदरी कोरवा, 6. बैगानी, 7. बिंझवारी, 8. कलंगा, 9. बस्तरीया हल्बी.
छत्तीसगढ़ी और हिन्दी के भाषा वैज्ञानिक भेद लिखित स्तर पर स्पý है, जो छत्तीसगढ़ी को भाषा स्वरूप प्रदान करते हैं. वह इस प्रकार हैं-
1. चंद्रबिन्दु का आगमन होना - चावल का चाँँवल,
2. अनुस्वर का आगमन लोप दोनों - सोचेगा का सोंचेगा, यिों का यिो.
3. विसगर् लुÄ होता है - दु:ख का दुख.
4. हल् का लोप होना - संवत् का संवत.
5. आ के स्थान पर अ - आवाज का अवाज.
6. इ का ई होना - जाति का जाती . और ई का इ होना - नीचे का निचे.
7. उ का ऊ हो जाता है - साधु का साधू और ऊ का उ हो जाता है - बहु का बहू.
8. नुतिा का लोप हो जाना - êेवर का जेवर,
9. व के स्थान पर ब का उ‚ारण होता है - व्य य  का बय य
1. संज्ञा पुल्लिंग का Íीलिंग होता -
हिंदी - वहां से कुतियांँ, घोड़ियाँ और हाथी भाग गए .
छत्तीसगढ़ी - घोड़ियाँ, हाथियाँ और कुतियाँँं वहाँ से भाग गई.
11. Íीलिंग का पुल्लिंग होना -
हिंदी - इसमें उदास होने की यिा बात है.
छत्तीसगढ़ी - इसमें उदास होने का यिा बात है.
12. संज्ञा कारक रूप के स्थान पर मूल होता है -
हिन्दी - दादी, साले और देवर ने नरम कपड़े से अपने नाक कान साफ किए थे.
छत्तीसगढ़ी - दादी, साला, और देवर ने कोमल कपड़े से अपननाक कान पोंछ लिए.
13. संज्ञा संबोधनाथर् ओ का ओं होता है -
हिन्दी - भाइयो गधे को जीभ यिों दिखाते हो.
छत्तीसगढ़ी - भाइयों गधे को जीभ यिों दिखाते हो.
14. सवर्नाम बहुवच न का एकवच न होता है -
हिन्दी - उसने रूपयों को निकाल लिया और उनसे अपनी पत्नी के लिए जेवर बनाया.
छत्तीसगढ़ी - उसने रूपयो को निकाल लिया और उससे अपनी पत्नी के लिए जेवर बनाया.
15. सवर्नाम कारक रूप संबंधी गक्ल्त होती है -
हिन्दी - उसने य ह शिकाय त मुखिया को बताई.
छत्तीसगढ़ी - वह य ह शिकाय त मुखिया को बताया.
16. विशेषण वच न संबंधी भूल - एक वच न का बहुच न करते है.
हिन्दी - रामदास य ह बात सुनकर उदास हुआ.
छत्तीसगढ़ी - रामदास ये बात सुनकर उदास हुआ.
17. विशेषण कारक रूप संबंधी - विशेषण विकारी मूल रूप हो जाता है.
हिन्दी - भूखे भिखारी के स्थान पर छत्तीसगढ़ी में भूखा भिखारी लिखना.
18. क्रिया Íीलिंग को पुल्लिंग कर देते हैं -
हिन्दी - छह रोटियाँँ सड़ गई थी.
छत्तीसगढ़ी - छह रोटिया उस दिन सड़ गए थे.
19. क्रिया बहुवच न का एक वच न होता है -
हिन्दी - विज्ञान का सहारा ले रहे हैं.
छत्तीसगढ़ी - विज्ञान का सहारा ले रहा है.
2. क्रिया धातु रूप संबंधी गलतियाँ - हिन्दी - 3 मुद्राओं में गिरवी रखवा दूंगी. छत्तीसगढ़ी - 3 मुद्राओं में गिरवी रखा दूंगी.
21. पर सगर् होता है - में  का पर.
हिन्दी - घोड़ा राह में है. छत्तीसगढ़ी - घोड़ा रास्ते पर है.
22. संज्ञा अथर् संबंधी जातिवाच क होता है.
हिन्दी - हवलाई मिठाई बना रहा है. छत्तीसगढ़ी - मिस्त्री मिठाई बना रहा है.
ये भाषा वैज्ञानिक भेद मानक हिन्दी से छत्तीसगढ़ी भाषा को लिखित रूप में पूणर्त: अलग करते हैं, तब छत्तीसगढ़ी को भाषा का दजार् मिलना चाहिए. उपरोI अलगाव का मुख्य  कारण छत्तीसगढ़ी भाषा समाज विज्ञान की स्वतंत्र सत्ता दशार्ती है.
जब हम हिन्दी को भाषा - राजभाषा का स्थान दिलाने की बात करते हैं, तब हमें मूलनिवासियों के बोलियों का ध्यान अवश्य  रखना चाहिए. बोलियाँ इस प्रकार है -
हलबी - दुगर्, बस्तर, राय पुर. कोकर्ू - सरगुजा. भतरी - बस्तर. बंजारी - बस्तर, बिलासपुर. दोलीर्, धुरवा, माड़िया, मुड़िया - बस्तर. खड़िया - बिलासपुर, राय गढ़, राय पुर. कोरवा - बिलासपुर, राय गढ़, सरगुजा. कमारी - राय पुर. बैगानी - बिलासपुर, मंडला, सरगुजा, बालाघाट. धाँगड़ी - राय पुर. बिंझवारी - बस्तर, राय पुर. परधी - दुगर्, बस्तर, राय गढ़. बिरहोर - राय गढ़, सरगुजा. खेखारी - सरगुजा. परजी - बस्तर, राय पुर. धनवारी - राय पुर, सरगुजा.
राय पुर, बिलासपुर और दुगर् की बोलियों को छोड़कर सभी उपबोलियाँ महत्वहीन हो चुकी है. इसका कारण प्रिंट मीडिया, इलेटि¬ानिक मीडिया और रेडियो रहा है. बिलासपुर, राय पुर की छत्तीसगढ़ी बोली को छोड़ अन्य  छत्तीसगढ़ी बोलियाँ लुÄ हो जायेगी भविष्य  में . या बाकी बोलियाँ दूर अथवा छत्तीसगढ़ी में समाहित हो जायेंगी. राय पुर - बिलासपुर बोलियों के आधार पर ही छत्तीसगढ़ी बोली का ध्वनिकरण, व्याकरणिकरण शबदरूप विकसित हो रहा है. अत: छत्तीसगढ़ी बोली से भाषा में परिवतिर्त हो चुकी है. परिवतर्न न हो वह भाषा या उसका समाज का कठमु„ापन है. छत्तीसगढ़ी भाषा, राजभाषा बनकर हिन्दी पर उपकार ही करेगी.
छत्तीसगढ़ी का प्राचीन रूप बस्तर जिले के दंतेवाड़ा में अंकित शीलालेख है जो 173 ई. का है. 1735 ई. की छत्तीसगढ़ी का नमूना आरंग ग्राम के अंजोरलोधी के पास सुरक्ष्ाित है. इसके दोनों ओर अभिलेख है.
छत्तीसगढ़ी का प्रथम व्याकरण हीरालाल काव्योपाध्याय  द्वारा रचा गया. इसका संपादन जाजर् ग्रिय सर्न ने किया. य ह 189 ई. में बेप्टिस्ट मिशन प्रेस कलकत्ता से प्रकाशित हुआ था. इसका एक उदाहरण है -
- फुर बोली कहाँ अउ लबारी गोठ कहाँ. य ह व्याकरण तब लिखा गया जब हिन्दी का मानक व्याकरण कामता प्रसाद गुरू ने लिखा नहीं था. बंशीधर पांडेय  ने हिरू के कहिनी 1936 में लिखा. य हाँ से ही छत्तीसगढ़ी गद्य का प्रारंभ हुआ. दिय ना के अँजोर छत्तीसगढ़ी का प्रथम उपन्यास है. इसे शिवशंकर शुलि ने लिखा है. जागेश्वर प्रसाद के अनुसार छत्तीसगढ़ी में 11 शोध किए गए हैं. इसमें लगभग नौ हजार पुस्तकें हैं जो प्रकाशित हो चुकी हैं. सवाल शोध प्रकाशन का नहीं है. असल बात जनता के हाथों लिखित व्य वहार में छत्तीसगढ़ी का सप्रयोग कितना है ? इसका महत्व जानना होगा. इसके लाभदाय क गुण छत्तीसगढ़ियों में समावेशित हो जायेंगे तब हम छत्तीसगढ़ी भाषा को राजभाषा का दजार् दिला पायेंगे. हमारे साकेत साहित्य  परिषद, सुरति साहित्य  समिति के सदस्य  एक दूसरे के साथ छत्तीसगढ़ी में पत्राचार व्य वहार नहीं करते तब आम जन की क्स्थति को वतर्मान में समझा जा सकता है. याद रखा जाये एक विशेष वगर् ने शिक्ष्ाा पर प्राचीनकाल से जनता के लिए द्वार बंद रखे थे.
छत्तीसगढ़ी भाषा राजभाषा के रूप में स्थापित हो इसके लिए प्रायोगिक तौर पर निम्नलिखित उपाय  अमल में लाया जायें -
1.छत्तीसगढ़ी के सभी रेल्वे स्टेशनों पर उद्घोषणा हिन्दी अंग्रेजी के साथ छत्तीसगढ़ी में भी हो. य दि स्टेशन मास्टर छत्तीसगढ़ी उद्घोषणा अस्वीकार कर दे तो दबाव डाला जाये कि अपना स्टेशन छत्तीसगढ़ से कहीं और ले जाये.
2. छ.ग. के  केन्द्रीय , राज्य  स्तर के सभी कायार्लयों एवं निजी कायार्लयों, ग्रामीण बैंकों के कागज पत्रों पर हिन्दी के साथ छत्तीसगढ़ी भाषा का प्रयोग शुरू किया जाये. अंग्रेजी को हटवाया जाये.
किसी बोली अथवा भाषा का 8 वीं अनुसूची में स्थान पा जाना अलग बात है और लिखित व्य वहार में छत्तीसगढ़ी भाषा का प्रयोग होना भिÛ विषय  है. डा. पालेश्वर शमार् पूछते हैं कि छत्तीसगढ़ी भाषा को समृद्ध बनाने के लिए हमने कितना श्रम छत्तीसगढ़ी भाषा पर किया है ? इसका हिन्दी के साथ यिा अनुपात है ? हिन्दी से अलग कम से कम पचास प्रतिशत छत्तीसगढ़ी भाषा की पहचान लेखन में बनाना पड़ेगा. तब इसे हम शीघ्रता से भाषा के साथ राजभाषा की ओर अग्रसर कर पायेंगे.
छत्तीसगढ़ी अभिव्य िित का स्तर हृदय स्पशीर् है. छत्तीसगढ़ी भाषा का मामिर्क लेखन है. वजनदार कथन है. श्यामलाल च तुवेर्दी की कविता का बेटी के बिदा का अंतिम अंश इस प्रकार है -
एक तो बेटी झन होतिस.
होतिस ते बिदा झन करतिस.
पर जातिस बिदा करे बर.
अँधरी भैरी कस कर देतिस.
इसकी समीक्ष्ाा में हरि ठाकुर लिखते हैं कि हिन्दी में भी वियोग श्रृंगार का ऐसा वणर्न नहीं है, जितना इस छत्तीसगढ़ी भाषा में है. इसका कारण हमें लगता है - छत्तीसगढ़िया व्य Iि गजब का मयारू होता है. छत्तीसगढ़ी भाषा में अनेकानेक लोग लिख रहे हैं. भाषा शिक्ष्ाक एवं अन्य  विषय  शिक्ष्ाक ये कहने नहीं हिच किचाते हैं कि हम किसी भाषा या विषय  को हिन्दी में पढ़ाते हैं तो जो विद्याथीर् छत्तीसगढ़ी भाषी होता है उसका बोधग्रहण क्ष्ामता कम मात्रा में होती है. जबकि छत्तीसगढ़ी में शिक्ष्ाक काय र् करने पर विद्याथीर् की बोधक्ष्ामता शतप्रतिशत होती है. तब यिों न छत्तीसगढ़ी का व्य वहार में, प्राथमिक शिक्ष्ाण देकर प्रारंभ किया जाये एवं छत्तीसगढ़ी को एक विषय  के रूप में प्राथमिक पाठशालाओं में रखा जाये. इससे छत्तीसगढ़ी लेखन व्य वहार में जल्द से जल्द तबदील हो जायेगी. यिोंकि डा. मेहरोत्रा कहते हैं - छत्तीसगढ़ी में, छत्तीसगढ़ी पुस्तकें, शबदकोश, तकनीकी शबदावली, विज्ञान एवं वाणिज्य  के ग्रंथों का अभाव जो है छत्तीसगढ़ी में मानक शबद का अभाव है. जो है वह अधूरा है. त्रिभाषा फामर्ूला अंग्रेजी को ही फलीभूत करता है. इस फामर्ले में अंग्रेजी के स्थान पर भारतीय  बोली को स्थान मिलना चाहिए. तब किसी बोली (भाषा) अपनी पुस्तकें शबदकोश अपनी तकनीकी शबदावली, वाणिज्य  ग्रंथ, मानकशबद कोशों का स्वभावत: विकास होगा. और छत्तीसगढ़ी भाषा को राज भाषा बनाने / बनने में दीघर् समय  नहीं लगेगा.
छत्तीसगढ़ी भाषा में महान ध्वन्यात्मक शIि है. वह इस प्रकार है -
अधरतिया जोर से बादर गरजिस गरार् धूँका एके संग झांड़ पड़ूखा, झाँव - झाँव करय . खार खाँय  - खाँय  करय . च रच र - च रच र सूँ - सूँ छरर् - छरर् धूकां धू पर पानी के बूंदी झाँय  - झाँय  झोपार च लय . गंड़वा बाजा बाजत हे गुद गुदराय  गुद गुदरूम टिंही - टिंही पें पें टिमिक टिमिक टिमिक.
जिस भाषा में इतनी जोरदार ध्वन्यात्मक शIि हो वह राजभाषा की गूँज कैसे होगी, सरलता से समझा जा सकता है.
डां. नरेन्द्रदेव वमार् का छत्तीसगढ़ी वगर् बोली को न लिखकर भाषा लिखना अपराध नहीं लगता. भौगोलिक दृýि से भी छत्तीसगढ़ी का व्याकत्व उनकी इस धारणा को पुý करता है. इसके अतिरिI छत्तीसगढ़ी के साहित्य कार भी तीव्रगति से उभरते आ रहे हैं. भाषा वैज्ञानिक भेदों की मात्रा छत्तीसगढ़ी को एक पृथक भाषा का स्तर प्रदान करे या न करे लेकिन इसमें कोई संदेह नहीं कि अवधि एक पृथक भाषा है, छत्तीसगढ़ी भी अवश्य  है. (र.च . मेहरोत्रा)
य दि छत्तीसगढ़ी को भाषा एवं राजभाषा का दजार् दिलवाना है वह भी शीघ्रताशीघ्र तो हमें डा. पालेश्वर प्रसाद शमार् के शोधग्रंथ - छत्तीसगढ़ के कृषक जीवन में शबदावली को जो 56 पृþों का है छत्तीसगढ़ के घर - घर पहुँचाना होगा ताकि छत्तीसगढ़िया मानक भाषा को जान सके, समझ सके.
भाषा शिक्ष्ाा की ही समस्या नहीं वह शासन - प्रशासन की भी अमल की समस्या है. भाषा का समाज विज्ञान और उसके क्रम में आना मुख्य  है. आयोY ने संस्कृत में, मुगलों ने फारसियों में, अंग्रेजों ने अंग्रेजी में और स्वतंत्र भारत में विधानसभा परिषद एवं संसद ने अंग्रेजी में राज किया और कर रहे हैं. अथार्त सत्ता की भाषा सदैव अवाम की भाषा से अलग रही है, होती है. कौमी देशीय  एकता को रोकने का नष्ट करने का सबसे अच्छा हथियार उसकी भाषा नý करना है. यू. एन. ओ. रिपोटर् बताती है विश्व में हर तीन मिनट पर एक बोली मरती है.
छत्तीसगढ़ी प्रशासन में कोई छत्तीसगढ़ियालाल नहीं है जो बिस्याकर् जैसा अध्यादेश जारी कर भाषा अमल काय म कर सके -
1815 में जमर्नी आजाद हुआ बिस्याकर् के हाथ में देश आते ही उन्होंने दूसरे ही दिन एक अध्यादेश जारी किया - कल से इस देश का सारा कारोबार जमर्न  भाषा में च लेगा. जो य ह भाषा नहीं जानते एक साल के अंदर सीख ले वनार् कुसिर्यां खाली कर दे. आज जमर्न मजबूत क्स्थति में है.
छत्तीसगढ़ प्रशासन में छत्तीसगढ़ी को विधेय क लाकर राजभाषा का दजार् देकर ढ़ोल पीटना मखिी मारने के अलावा यिा है ? यिा बिस्याकर् जैसा कठोर अध्यादेश जारी हुआ ?

अर्थवेद में जल की प्रार्थना

  • डाँ.मोहनानन्द मिश्र
यह समस्त जगत सात मूल पदार्थों से बना है. जैसे - पृथ्वी,जल, अग्नि वायु, आकाश, तन्मात्रा और अहंकार. ये सात पदार्थ ही न्यूनाधिक परिभाषा में विशिष्‍ट रूप प्रदान करते हैं. साथ ही ये सातों पदार्थ तीन अवस्थाओं में होकर गुजरते हैं - सत्व (साम्य वस्था) रज (गतिरूप अवस्था) तम ( गतिहीन अवस्था) संसार में जो कुछ भी भली - बुरी वस्तु या कार्य दिखलाई देते हैं वे सब इन्हीं इक्‍कीस विभागों के अंतगर्त हैं. आधुनिक विज्ञान चर पदार्थों के विश्लेषण को स्वीकार करता है.
अथवर्वेद में जल से संबंधित अनेक मंत्र हैं जो इस प्रकार हैं -
शं नो देवीरभिष्‍य  आपोभवन्तु पीयते । शं यो रभिÍवंतुन: ।।
अप्सु में सोमो अब्रवीदन्त विश्वानिभेषजा । अSि च  विश्वशम्भुवम् ।।
आप: पृणीत भेषज्ञवरूथ तन्वेमम् । ज्योक च  सूय Y Òशे ।।
शं न आपो धन्वन्था: शमु सन्त्वनूप्या: । शं न: खनित्रमा आप: शमु या कुम्भ:
आभृता: शिवा न: सन्नु वाषिर्की: ।।
इसमें कहा गया है, दिव्य गुणों से सम्पÛ जल हमें सभी ओर से सुखकारी हों तथा पूणर् शाक्न्त प्रदान करें । ईश्वर प्राÄि में सहाय ता करें तथा हमारे पीने के लिए हों ।
जल में सब औषधियाँ विद्यमान हैं तथा समस्त जग को आÛद तथा कल्याण देने वाले अSिदेव हैं, ऐसा मुुझे सोम ने उपदेश दिया है .
हे जलों ! मेरे रोगों के शमनाथर् तुम मुझे औषधियाँ प्रदान करो और मेरे शरीर को पुý करो ताकि मैं बहुत समय  तक सूय र् को देखता रहूं.
मरूप्रदेश का जल हमें सुख प्रदान करे, जल सम्पÛ देश का जल भी हमें सुखकारी हो. खोदे हुए कुएँ आदि का जल हमें सुखप्रद हो, घड़े आदि बतर्न में भरकर लाया हुआ जल हमें सुख प्रदान करें, वषार् से प्राÄ जल भी हमें सुख दे .
नमस्ते अस्त्वश्मने येना दुडाशे अस्य सि ।
नमस्ते प्रवतो नपदि तन स्तप सहगुसि ।
मृडया नस्तनूम्भो मय स्तो केम्य स्कृधि ।
इसमें कहा गया है हे पजर्न्य  ! आप जल को अपने में धारण किये रहते हैं. अकाल में नीचे नहीं गिरने देते. सत्पुरूषों की रक्ष्ाा करने वाले आपको नमस्कार हो. आप तप को इकxा करते हैं और पातकों पर अपना - अपना अशनि रूप वज्र फेकते हैं. आप हमारे शरीर को सुख दें तथा हमारे पुत्र पौत्रादि को भी सुख प्रदान करें .
ये सपिर्ष: संस्रवतिक्ष्ाीरस्य  चोदकस्य  च  ।
तेभिमेर् सवेर् संस्रावै‚र्नं संस्रावयामसि ।।
इसमें कहा गया है - बहने वाले घृत, दूध एवं जल के प्रवाहों से हम गौधन, धान्यादि को प्रवाह रूप में प्राÄ करें ।
दिव्यो गन्धवोर्भुवनस्य  य स्मतिरेक एव नमस्यो विक्ष्वीय : ।
तं त्वा य ौमि ब्रह्मा दिव्य  देवनमस्ते
अस्तु दिवि ते सघस्थम् ।।
इसमें कहा गया है - दिव्य  जल और शIियों के धारण करने वाले सूच र्वृýि आदि से पुý करने के कारण पृथिवी आदि लोकों के स्वामी हैं और प्राणियों को भी पुýि करने वाले हैं. वे प्रजाओं के लिए स्तुत्य  हैं. हे गन्धवर्, मैं तुम्हें पर ब्रह्म भाव से मानता हूं और नमस्कार करता हूं.
आपो य द्वस्तपस्तेन तं प्रति
तपत योस्मान् द्वेक्ष्ट मं वयं द्विव्य :।
इसमें कहा गया है - हे जलो ! जो शत्रु इसमें द्वेष करता अथवा हम जिससे द्वेष करते हैं और जो हम पर कृत्यादि अभिचार कमर् करना चाहता है, उस शत्रु को अपनी सन्तापन शIि से सन्तÄ करो .
य दद: संप्रमतीरहावन दताहते ।
तस्मादा नद्यो नामस्थ तावो नामानि सिन्धव ।।
य त् प्रेषिता वरूणेनाच्छीम समवल्गत ।
तदाप्नो दिन्द्रो वो य तीस्तस्मादा यो अनुþान ।।
अपकामं स्य न्दमाना अवीवरत वो हि कम् ।
उदानिघुमर्हीरिति तस्मादुक मुच्य ते ।।
आपो भद्रा घृतमिदाय  आसÛSषोमौ विभ्रत्याय  इत: ता: ।
इसमें कहा गया है - हे जलो ! मेघ के ताड़ित करने पर इधर - उधर च लकर नाद करने के कारण तुम्हारा नाम नदी हुआ है और तुम्हारे अप उदक नाम भी अथर् के अनुकूल ही है.
वरूण द्वारा प्रेरित होने पर तुम नृत्य  करने से एकत्र च लने लगे थे. उस समय  इन्द्र मिले तभी से तुम्हारा नाम अप हुआ. इच्छा न रहते हुए भी इन्द्र ने तुम्हें अपनी शIि से वरण किया इसलिए तुम्हारा नाम बारि हुआ. इन्द्र ने एक बार तुम पर आधिपत्य  जमाया. इन्द्र के महत्व के कारण जलों ने अपने को बड़ा मानकर उदन दिया तभी से वे उदक हुए.
कल्याणकारी जल ही घृत हुए. अSि में होमने पर घृत जल रूप हो जाता है. य ह जल ही अSि और सोम के धारण करने वाले हैं. ऐसे जलों का मधुर रस ही मुझे अक्ष्ाय बल और प्राणसहित प्राÄ हो.
हिमालय  से पाप नाशक गंगा आदि का जल प्रवाहित होता है. वह समुद्र में संयुI होते हैं. य ह जल मुझे ऐसी औषधियाँ प्राÄ करे जो हृदय  के दाह का शमन करने में समथर् हो.
नेत्रों को पाक्ष्णर् को और प्रपद को संताप देने वाले सब रोगों को देवता के समान जल मिटा दें. य ह जल रोग दूर करने वाली औषधियों में परम कुशल चि कित्सक है.
हे जलों ! तुम्हारा समुद्र है. तुम उसकी पत्नी हो. तुम रोगों को दूर करने वाली औषधि प्रदान करो जिससे हम अनादि बल देने वाले पदाथोY का सेवन करने में समथर् हों.
शुद्धा न आपस्तन्वेक्ष्ारन्तु यो न:, सेदुर प्रिये निदघ्म: । पविश्रेण पृथिवि मोत पुनामि ।।
इसमें कहा गया है - पवित्र जल हमारे देह को सींचे. हमारे शरीर पर होकर जाने वाले जल शत्रु को प्राÄ हों. हे पृथिवी ! मैं अपने देह को पवित्रे द्वारा पवित्र करता हूं. सोमपान से उत्पÛ शIि के द्वारा इन्द्र ने जब मेघ को चीरा तब अन्तरिक्ष्ा को वषार् के जल से प्रवृद्ध किया.
अपां फेनेन नमुचे: शिर इन्द्रोदवतर्म:, विश्वा य दजय  स्पृध: ।
इसमें कहा गया है - हे इन्द्र ! तुमने नमुचि  नामक राक्ष्ास का शिर जल के फेन का वज्र बनाकर काट डाला और प्रतिस्पधीर् सेवाओं  पर विजय  प्राÄ की.
इस प्रकार अथवर्वेद में जल संबंधी मन्त्रों में जल की उत्पत्ति और इसके विभिÛ नामों तथा इसके औषधीय  उपयोग के प्रसंग हैं. प्राचीनकाल में भी जल ही जीवन की मान्य ता थी और आज भी है. विज्ञान में जल को एच  टू ओ के नाम से समझा जाता है.

छत्तीसगढ़ में नवधा रामायण

  • पल्‍लव शुक्‍ल 
रामचरित मानस के रचयिता यद्यपि उत्तर में पैदा हुए थे किंतु उनका जीवन दशर्न वैष्णव तंत्र के माध्यम से छत्तीसगढ़ में पर्याप्‍त सम्मानित हुआ. पंद्रहवीं शताब्‍दी के आरंभ से ही छत्तीसगढ़ में शाI और शैव तंत्र के ऊपर वैष्णव तंत्र का वचर्स्व होने लगा था. क्‍योंकि शांति और शैवों के पंच मकार साधना एवं आतंक तथा रहस्य  रोमांच  से आम लोग व्यथित हो चुके थे. दक्षिण, पश्चिम और पूर्व से रामानुजाचार्य, निम्बाकाचार्य और बभुभाचार्य के शिष्यों एवं अनुनायियों में निश्चल हृदय  वाले भक्‍तों के सरलतम मार्ग का अवलम्बन किये हुए ऐसा मार्ग प्रशस्त किया कि यहां के लोगों को वह अत्यंत अनुकूल जान पड़ा. इसी भाव भूमि पर तुलसी के आदर्श राम - राज्य  का स्वरूप सामने आया जिसे इस अंचल ने सहज ही स्वीकार कर लिया. व्‍यक्तिगत तौर पर और सामाजिक अनुष्‍ठान के रूप में उनके ग्रंथों का अध्ययन, मनन एवं अनुष्‍ठान होने लगा. नवधा भी उसी अनुष्‍ठान का एक अंग है एवं उस पर अनेकानेक विद्वान अपनी बुद्धि के अनुसार टीकाएं करते हैं .
फादर कामिल बुल्के का कथन है कि विश्व में कहीं भी आम लोग महाकाव्य  को पढ़ने का साहस नहीं जुटा पाते. किन्तु रामचरित मानस ऐसा महाकाव्य  है जो धर्मशास्‍त्र के समान लगता है. उसकी पंक्तियां इतनी लोकप्रिय हो गयी है कि लोग मुहावरे और लोकोक्तियों की तरह बात - बात में उसका उल्‍लेख करते हैं. जीवन के हर क्षेत्र में उनकी पंक्तियां दिशानिदेर्श करती है. इससे एक परेशानी भी लगातार पैदा होती जा रही है . आम लोग उसे महाकाव्य  न मानकर वास्तविक इतिहास मानने लगे हैं और उसकी पुष्टि के लिए तरह - तरह की काल्पनिक कथाएँ गढ़ते रहते हैं. इससे अंध श्रद्धा और रूढ़ि को बढ़ावा मिलता है. नवधा का अर्थ होता है - नौ दिनों में पूर्ण होने वाली कथा. कुछ लोग नवधा भक्ति को भी इसके साथ जोड़कर देखते हैं. रामचरित मानस शब्‍द छत्तीसगढ़ अंचल में कदाचित अपनी लम्बाई के कारण लोकप्रिय नहीं हो सका, इसलिए लोग रामायण शब्‍द का ही उपयोग करते हैं, जो महर्षि बाल्मीकि के रामकथा पर आधारित महाकाव्य  का नाम है. रामचरित मानस की भूमिका में तुलसी ने कथा की वैज्ञानिकता को विविध भाँति पुष्‍ट करने का प्रयास किया है. राम शब्‍द राम के जन्म के पूर्व भी बहुत लोकप्रिय हो चुका था. मंत्र की संज्ञा पा चुका था. तुलसी लिखते है -
महामंत्र जेहि जपत महेषु, रवि महेश निज मानस राखा ।।
दशरथ के ज्‍येष्‍ट पुत्र को उसके रूप, गुण, लक्षण एवं ज्योतिष के आधार पर इस नाम से गुरू वशिष्‍ट जैसे ऋषि ने रखा.ऋषि का कथन है - काल की परिभाषा बहुत जटिल है. राम कई बार हो चुके हैं और कई बार भविष्य  में होंगे. उन्हें हरि कहकर उनको और उनकी कथा को अनंत बताया गया है -
हरि अनंत हरि कथा अनंता ।
तुलसी विशिष्‍ट के अनुयायी थे और अवतार वाद पर विश्वास करते थे. इसीलिए उन्होंने रमा के अवतार के कई कारण बतायें हैं. गीता से मिलती - जुलती उनकी घोषणा है कि -
जब - जब होई धरम की हानि,
बाढ़हि असुर अधम अभिमानी,
तब - तब धरि प्रभु मनुज शरीरा ।
मनुष्य  का शरीर धारण करना एक नई परिकल्पना थी, क्‍योंकि इसके पहले ब्रम्‍ह्रा को अलग और जीव को अलग माना जाता था. शंकराचार्य ने दोनों को एक ही ब्रह्रा के रूप में घोषित किया था जो बुद्धि के स्तर पर सत्य  साबित होने पर ही भाव के धरातल पर हृदय ग्राही नहीं लगता. तुलसी ने व्यक्ति के समग्र व्‍यक्तितव का ध्यान रखते हुए बुद्धि और हृदय  दोनों का सामंजस्य स्थापित किया. उनके राम का नमा लेकर जहां भव भय  मिटता है वहीं उनका सम्पूर्ण चरित्र आदर्श मनुष्य  के सारे अंगों को संतुष्‍ट भी करता है. इसीलिए रामचरितमानस को प्रकाण्‍ड पंडित से लेकर अक्षर ज्ञान प्राप्‍त करने तक समान रूचि से अध्ययन, चिंतन एवं मनन करते हैं. अंतिम व्‍यक्ति भी पढ़कर आनंदित होता है. नवधा रामायण की लोकप्रियता का यह भी कारण है.
छत्तीसगढ़ अंचल में नवधा रामायण के माध्यम से वादन, गायन, शिल्प तथा स्थापत्य  कला को भी बढ़ावा मिलता है. सैकड़ों गाँवों की गायन मण्‍डलियाँ विविध राम - रागनियों के साथ मानस की पंक्तियों को अन्य  भजनों से तालमेल करते हुए गाते हैं. तरह तरह के वाद्य यंत्र बजाते हैं. मंडप को बहुत बड़ी राशि खर्च करके अलंकृत करते हैं. बड़े - बड़े विद्वान व्याख्या के दौरान अपने सम्पूर्ण ज्ञान को प्रस्तुत करने का प्रयास करते हैं. इस तरह  साहित्य , संगीत, चित्र नृत्य एवं स्थापत्य  इन पंच ललित कलाओं का एक जगह सम्य क निवार्ह देखने में आता है. नवधा रामायण का प्रारंभ इस अंचल में बहुत पुराना नहीं है. इसके पूर्व निम्बार्क सम्प्रदाय का हरि कीतर्न छत्तीसगढ़ अंचल में लोकप्रिय हो चुका था. आज भी नाम सप्‍ताह जो बाद में चलकर राम - सप्‍ताह हो गया के रूप में छत्तीसगढ़ के गांव में सात दिनों के लिए आयोजित होता है. जिसमें भगवान श्रीकृष्ण की लीलाओं का गायन होता था किन्तु अब भगवान के विविध अवतारों के लीलाओं का भी इसमें समावेश होने लगा है. इसी अनुष्‍ठान के आधार पर राम भक्ति शाखा के भक्‍तों ने नवधा को आयोजित किया है. तुलसी का रामचरित मानस जो आज बाजार में उपलबध है, उसमें नवान्ह परायण का विभाजन विधिवत् किया गया है. ऐसा कहा जाता है कि अपने जीवन काल में ही तुलसी ने राम - लीलाओं का आयोजन कराना प्रारंभ कर दिया था. वे चाहते थे कि आम लोगों के सम्पूर्ण जीवन  में रामकथा घूल मिल जाय . इसीलिए उन्होंने साहित्य  की विभिन्‍न विधाओं में जैसे - महाकाव्य , खंडकाव्य , गीतिकाव्य , मुक्‍त आदि में रामकथा को अनुस्युत किया है. इसी तरह जन्म (शोहर रामलला नहछू ) विवाह (पावर्ती मंगल), मिलन और विछोह (कवितावली और दोहावली), ज्योतिष (रामसलाका प्रश्न), पद ( विनय  पत्रिका ) आदि प्रस्तुत किया है. विनय  पत्रिका के एक पद में उन्होंने लिखा -
तोहि मोहि नाते अनेक,मानिबे जो भावै ।
ज्यों - त्यों तुलसी कृपालु ,चरन सरन पावै ।
अथार्त आम आदमी और राम के बीच  किसी भी प्रकार से हो, सम्बन्ध बनना चाहिए. इस बात की पुष्टि उनके रामचरित मानस की पंक्तियों में भी कही गई है -
भव कुभाव अनख आलसहूं ।
नाम जपत मंगल दिसि दसहूं ।।
शाक्‍ितांत्रिकों ने छत्तीसगढ़ क्षेत्र को मनोजगत में जीने का अभ्‍यास करा दिया था. भौतिक संपदा आती - जाती रहती है. बहुत कुछ संग्रह करने के बाद भी कई बार भीतर का जगत खाली ही पड़ा रहता है. इसीलिए साक्षात भाव से जीवन और  जगत को देखने का अभ्‍यास विविध तांत्रिक उपायों से कराया गया था. वैष्णव तंत्र ने इसमें भक्ति का रस घोल दिया. इसीलिए तुलसी का मानस इस उवर्र भूमि में सहज ही फल - फूल सका. नवधा के माध्यम से रात - दिन निरंतर अ¨यास से एक सम्मोहक वातावरण की सृष्टि करता है . इसका प्रभाव न केवल पढ़े लिखे लोगों तक अपितु श्रवण के माध्य म से निरक्षर जनजीवन पर भी पढ़ता है. शाक्‍ितंत्र में मांदल और झांझ जैसे सम्मोहक वाद्य यंत्रों का उपयोग कर वातावरण सृष्टि के महत्व को समझा गया था. कदाचि त इसके प्रभाव को स्वीकार किया गया. इस लघु शोध प्रबंध में छत्तीसगढ़ के जनजीवन पर इसी प्रभाव का अध्ययन करने का प्रयास किया जायेगा. जिसका साहित्‍ियक मूल्य  भी किसी तरह कम नहीं है.
  • बिलासपुर (छग)

इक्‍कीसवीं सदी की भाषा - हिन्दी

  • हीरालाल अग्रवाल
भाषा अभिव्यंजना का माध्यम मात्र नहीं अपितु हमारे विचारों, मानसिक वृत्तियों, भावनाओं, अभिलाषाओं की ध्वन्यात्मक प्रतिकृति भी है. भाषागत् विलक्षणता के फलस्वरूप ही कदाचित मनुष्य ने चौपायों के समुच्‍चय से स्वयं को अलग कर रखा है. य ही नहीं प्रत्युत् सम्पूर्ण जीव - जगत में उसने अपनी सर्वोच्‍चता स्थापित कर रखी है. एक जीवित भाषा सतत् विकासोन्मुख होती है.  स्त्रोतपस्वनी पवर्त प्रदेश से समतल की ओर जिस प्रकार अग्रसर होती है, भाषा का प्रवाह भी क्लिष्‍ता से सरलता की ओर होता है. आम मनुष्य  की प्रवृति भी सहज ग्राह्य  को स्वीकार करने की होती है. संस्कृत को हिन्दी की जननी स्वीकार करने के मुद्दे पर भाषा - साहित्य  वेत्ताओं में मतभेद के बावजूद संस्कृत के स्थान पर हिन्दी के देश भर में प्रतिष्ठित होने को मैं एक विकास की कड़ी ही मानता हूं. यद्यपि किसी समय एक ऐसे शासक की भाषा होने के कारण जिसके साम्राज्य  में कभी सूरज नहीं डूबता था, अंगे्रजी एक बहुदेशीय  अथवा अर्न्‍तराष्‍ट्रीय भाषा के रूप में स्थापित हो चुकी है, तथापि यह स्मरण रखना होगा कि अंग्रेजों को भी ईसाई धर्म के प्रचार के लिए हिन्दी की बैशाखी का सहारा लेना पड़ा था. यही नहीं, भले ही इसका कारण व्यवसायिक या बाजारवाद हो, संयुक्‍त राज्य अमेरिका के राष्‍ट्रपति को भी अपने देश के युवकों से हिन्दी सीखने का आव्हान करना पड़ गया. हिन्दी पर तो अंग्रेजी बलात् लाद दी गई है, इसके अतिरिक्‍त हिन्दी के विस्तारभय से देश के कतिपय अन्य भाषा - भाषियों के विरोध का जहाँ उसे सामना करना पड़ रहा है, वही उसकी सह बोलियाँ भी उसका स्थान लेने के लिए लालायित प्रतीत हो रही है.
सकारात्मक तथ्य यह है कि वतर्मान में हिन्दी के स्वरूप में तीव्रगामी परिवतर्न के लक्षण दिखाई देने लगे हैं. भाषायी रूढ़ि से ग्रस्त कतिपय  शुद्धता वादियों को यह विकृति नजर आ सकती है, किन्तु हकीकतन वह इतर भाषाओं के साथ समरसता स्थापित करने की हिन्दी की अपनी क्षमता एवं उनके शब्‍दों को तत्सम् अथवा तद्भव रूप में अपने परिवार में समाहित कर लेने की स्वीकृति का प्रतीक है. इस जीवट एवं गतिशील भाषा को किसी काल्पनिक अथवा अवैज्ञानिक शुचिता के बहाने लक्ष्मण रेखा से आवेशित करने का प्रयास जिसके अंतत: असफल होने की ही संभावना होगी,असमीचीन, असामायिक एवं आत्मघाती ही होगा. भावी विकृति से बचाने व्याकरण के कठोर कँवच से सुसज्जित कर संस्कृत को हमने सामान्य जन के लिए अस्पश्र्य बना दिया. यही नहीं, बहुसंख्यकों को उसके पढ़ने - लिखने से वंचित कर, उसे आम बोल - चाल की भाषा के रूप में स्वाभाविक रूप में विकसित होने को प्रतिबंधित कर, नितांत साहित्यिक एवं सीमित लोगों की भाषा बना दिया गया. परिणामत: वह ऐतिहासिक धरोहर मात्र रह गई. बावजूद इसके अनेक भाषाओं की जननी कहलाने अथवा उसका पोषक होने का उसका अधिकार जहाँ अक्षुण है, वहीं उसका साहित्य  वैश्विक ज्ञान का आज भी अनन्य  स्त्रोत है. यद्यपि संस्कृत गव्यवरोध का शिकार हुई, किन्तु उसी की परम्परा से प्राप्‍त देवनागरी लिपि उसके अधिकांश शब्‍दों को हृदयंकित कर हिन्दी के रूप में पूरी तेजस्विता से आगे बढ़ रही है.
तुलानात्मक दृष्टि से विचार करें तो संसार की विकसित एवं बहुप्रचलित भाषाओं में अपनी अर्न्‍तराष्‍ट्रीय दृष्टि के कारण भले ही इसकी पृष्‍टभूमि में राजनैतिक एवं ऐतिहासिक कारण रहे हों, अंग्रेजी ने व्यवहारत: अपनी सवोर्परिता प्रदशिर्त कर रखी है, यद्यपि वास्तविक धरातल में बोलने / लिखने/ पढ़ने वालों की संख्या की से इसका स्थान चीनी एवं हिन्दीभाषा के बाद ही आयेगा, और ... इसे आप मेरी व्यक्तिगत राय  कह सकते हैं ... आज अंग्रेजी से मैत्रीपूर्ण प्रतिस्‍पर्धा काबिलियत राय  एवं अर्न्‍तराष्‍ट्रीय  स्तर पर किसी भाषा में परिलक्षित हो रही है, तो वह निविर्वाद रूप से हिन्दी ही है. यदि दूरदशर्न, आकाशवाणी, सिनेमा, पत्र - पत्रिका, सामयिक - साहित्य  एवं आम बोलचाल की भाषा (हिन्दी) का अवलोकन करें तो उसमें आश्चयर्जनक परिवतर्न के लक्ष्‍ाण दिखाई देते हैं. यह परिवतर्न कुछ और नहीं अपितु भाषायी विकास की छटपटाहट का ही द्योतक है. यद्यपि हमारे पास ऐसा कोई यांत्रिक पैमाना नहीं (शायद विज्ञान भविष्य  में संभव कर सके) जिससे विभिन्‍न भाषाओं के क्षण प्रति क्षण विकसित होते स्वरूप अथवा उसकी गति की तीव्रता का मूल्यांकन ( जिस तरह क्रिकेट में गेंद की गति तत्काल मालूम कर ली जाती है ) प्रामाणिक एवं पारिमाणिक तौर पर कर सकें तथापि अन्य  भाषाओं की तुलना में, जिसमें अंग्रेजी को भी सम्मिलित करने में मुझे संकोच  नहीं, असंदिग्ध रूप से हिन्दी को बढ़त हासिल है.
आथिर्क क्षेत्र में उदारीकरण, आवागमन की सुविधा में विस्तार, भारतीय  समन्यववादी दृष्टिकोण ( यदि दृष्टि इतर भाषा के शब्‍दों को आत्मसात् कर लेने के लिए हिन्दी को भी प्रेरित करती है, यद्यपि प्रकृतित: यह गुण उसमें मौजूद है ), तकनीकी एवं वैज्ञानिक प्रगति, प्रचार - प्रसार की अत्याधुनिक तकनीक, साहि्त्यिक एवं सांस्कृतिक आदान - प्रदान के फल स्वरूप भारत में होने वाले सामाजिक, सांस्कृतिक, आथिर्क एवं भौतिक परिवतर्नों ने हिन्दी को विशेषरूप से संभावित किया है. चूँकि परिवतर्न की हवा पश्चिम से पूर्व की ओर रही अत: उसकी संवाहिका अंग्रेजी हुई. हिन्दी ने स्वागत में दल पलक ही नहीं बिछाये अलबत्ता उसे ऐसे गले लगाया कि हजारों शब्‍द उसके स्नेहाँचल में सिमट गये... और हिन्दी का दरअसल आधुनिकतम् स्वरूप उभरा जिसे शिष्‍ट भाषा में हम अंग्रेजी नहीं हिन्दी कह सकते हैं. ज्ञातव्य  है कि हिन्दी के प्रारंभिक विकास काल में राजा शिवप्रसाद सितारे हिन्द की उदूर्निष्‍ट एवं राजा लक्ष्मणसिंह प्रणीत संस्कृतनिष्‍ट हिन्दी की चर्चा खूब चली थी और अंतत: प्रेमचंद प्रभूति पश्चातवर्ती लेखकों ने बीच  का रास्ता अख्तियार किया. इस संक्रमणकाल के अनंतर हिन्दी का एक संतुलित परिष्कृत एवं आम जनानुकूल भाषा का जिस तरह अवतरण हुआ उसी तरह इस नव संक्रमण काल के पश्चात् भी हिन्दी एक नये रूप में सीना तान आ खड़ी होगी.
दृष्टिगोचर होने वाली इस बात के अनुसंधान की कदाचित् ही आवश्यकता पड़नी चाहिए कि हिन्दी आज अंग्रेजी के शब्‍दों को जिस तरह से अपना रही है, शायद ही अंग्रेजी उस गति से इतर भाषा के शब्‍दों को ग्रहण कर पा रही हो, तभी तो बनिया जैसे इने गिने शब्‍दों के अंग्रेजी शब्‍दकोश में समावेश कर लिए जाने की बात समाचार पत्रों में सुखिर्यों का रूप ले लेती हैं, जबकि अंग्रेजी शब्‍दों को हिन्दी शब्‍द कोश में स्थान देने के लिए हमें निरंतर शब्‍दकोश छापते रहना होगा. हिन्दी की जिजीविषा, जीवन्तता या जीवटता का यही प्रमाण है. आज विश्व के सवा सौ से अधिक, गैरभारतीय , विश्वविद्यालयों में यदि हिन्दी के अध्ययन - अध्यापन की व्यवस्था है तो यह बेमानी नहीं है. वस्तुत: हिन्दी के लिए अंग्रेजी नहीं बल्कि अंग्रेजी के लिए हिन्दी एक जबदर्स्त चुनौती है.
भाषा विकास के क्रमिक स्वरूप एवं उसकी वैज्ञानिकता को जाने - अनजाने नजरन्दाज करते हुए, समय की नब्‍ज को पहिचाने बगैर उपहास के तौर पर परिवतर्न शील भाषायी रूप को खिचड़ी की संज्ञा दे दी जाती है. नाक भौं सिकोड़ने वाले यह भी भूल जाते हैं कि खिचड़ी  जितनी सुपाच्य  एवं सहजग्राह्य होती है, उतना अन्य  पकवान नहीं. बीमारों के लिए स्वास्थ्य  एवं स्वस्थों के लिए दीघर्जीवन दायिनी होती है खिचड़ी. सहजग्राह्यता अथवा सुपाच्यता किसी भी भाषा के विकास की ग्यारंटी होती है. इस सुविधाजनक स्थिति के मद्देनजर हिन्दी के हितैषी विद्वानों, आचार्यों का क्‍या यह कतर्व्य  नहीं बनता कि गैर हिन्दी भाषियों के लिए, चाहे वे देशी हो या विदेशी, लेखन संबंधी व्यवहारिक कठिनाइयों को दूर न सही, कुछ कम करने का प्रयास करें. यह प्रयास विभिन्‍न स्तरीय  तथा साहित्यिक भाषा, वैज्ञानिक, मनोवैज्ञानिक होने चाहिए. अंग्रेजी निज हिन्दी जहाँ दक्षिण वालों से तादाम्य  स्थापित करने में मददगार होगी, वहीं उनकी भाषायी उग्रता का भी शमन होगा. दूसरी ओर ऐसे देशों में जहाँ की राष्‍ट्रभाषा अंग्रेजी है अथवा जहाँ अंग्रेजी का वचर्स्व है वहाँ इस अंग्रेजी निष्‍ठ हिन्दी को पैठ जमाने में निश्चित‍ ही सुविधा होगी.
हिन्दी की तुलना में अंग्रेजी की श्रेष्‍ठता प्रतिपादित करने वाले (यद्यपि यह तुलना सतही तौर पर ही की जाती है क्‍योंकि हर भाषा की अपनी मौलिक विशिष्‍टता होती है, न कोई किसी से बेहतर है न कम तर ) अंग्रेजी के 26 वर्णों की दुहाई देते नहीं थकते. इसके विपरीत लगभग उससे दुगनी संख्या वाले हिन्दी को दुरूह प्रमाणित करने में भी कोताही नहीं करते. जिन्होंने छोटी सी जमीन एवं सीमित आबादी का जनक होते हुए संसार के बड़े - बड़े देशों पर सैकड़ों वर्षों तक राज किया हो, उनमें भाषायी विज्ञापन की मनोविज्ञान सम्मत व्यवसायिक कूटनीति भी अवश्य रही होगी. हीनग्रंथि से मुक्‍त होकर वास्तविकता की पड़ताल करने पर ही दूध का दूध और पानी का पानी हो सकेगा.
देवनागरी लिपि प्रयुक्‍त हिन्दी के वर्णों के ध्वन्यात्मक एवं लिप्यात्मक संकेत जहाँ एक से हैं, वहीं रोमन लिपि पयुक्‍त अंग्रेजी में ध्वन्यात्मक से ( जिसमें सीमित ध्वनियाँ ही अभिव्यक्‍त हो पाती हैं ) वर्णों की संख्या जहां मात्र 26 है, लिप्यात्मक दृष्टि ‍से ( जिनमें सीमित ध्वनियां ही अभिव्‍यक्‍त हो पाती हैं) वर्णों की संख्या जहां मात्र 26 हैं, लिप्यात्मक दृष्टि से उनकी संख्या ( लिखने की दृष्टि से स्माल एवं बलाक लेटर) कम से कम बावन और मुद्रण को जोड़ हो तो 78 हो जाती है. अत: अंग्रेजी लेखन सीखना हिन्दी की अपेक्षा अधिक श्रम एवं बुद्धि साध्य है. अलबत्ता पहले से ही किसी के मस्तिष्‍क‍ में यह बीज बो देने से कि अमुक सरल है अथवा कठिन है एक मनोवैज्ञानिक प्रभाव अवश्य  पड़ता है. अंग्रेजी को सरल प्रचारित करने से यही हुआ. दरअसल हिन्दी वर्णों की ध्वनि निधार्रित है और लगभग एकैक नियम पर आधारित है जबकि अंग्रेजी के एक वर्ण से अनेक ध्वनियों की एवं अनेक वर्णों से किसी एक ध्वनि की वह भी अस्‍पष्‍ट सी अभिव्यंजना होती है. यद्यपि यह भाषा वैज्ञानिक तथ्य है कि एक ही वर्ण की चाहे वह किसी भी भाषा से संबंधित क्‍यों न हो, विभिन्‍न मनुष्यों के स्वर यंत्र के मान से उसकी असंख्य  ध्वनियाँ संभव है. यहाँ उन औसत ध्वनियों के आधार पर चर्चा की जा रही है, जिन्हें विभिन्‍न वर्णों के लिए उदाहरण हेतु मान्यता प्रदान की गई है एवं जो भाषायी अनुशासन एवं परस्पर व्यवहार की दृष्टि से अधिक उपादेय  हैं.
सिद्धांत: अंग्रेजी में ए, इ, आई, ओ और यू पाँच  स्वर हैं. सामान्यत: अध्यापक छात्रों को ए का अर्थ अ, इ का ए, आई का इ, ओ का ओ एवं यू का उ बतलाते हैं, साथ ही तदनुकूल मात्राओं के रूप में उनके उपयोग की बात भी कहते हैं,यद्यपि उनके अनेक अराजक उपयोगों के बारे में इंगित करने की सावधानी भी बरतते हैं. अब इन पांच स्वरों का मात्र विहगोवलोकन करने पर व्यवहारत: पाते हैं कि ए का उपयोग अ, आ और ऐ के लिए इ का ए, इ, अ के लिए, आई का अ,इ के लिए, इ का ए, इ, अ के लिए आई का अ,इ के लिए ओ का आ, ओ, वा (ज्वाय ) के लिए और यू का अ, उ आदि के लिए किया जाता है, जबकि इन स्वरों को अभिव्‍यक्ति देने के लिए अनेक संयुक्‍ताक्षरों का प्रयोग, जिनमें कई व्यंजन भी समाहित हैं, प्रचलित हैं - कभी ए यू से आ कभी ए डबल्यू से और कभी ए यू बी एच  से आई और ओ यू से अ भी होता है, कभी इ ए से ई, आई ए से ई, इ इ से ई इसी तरह ए इ से ए, ए आई से ए, इ आई बी एच  (नेवर) से ए, ए - ई से भी ए होता है, और आगे बढ़े तो ओ - इ से ओ, ओ यू जी एच  से ओ , ओ डबल्यू से ओ, यू ओ से ऊ आदि. शतश: उदाहरण कोई भी अंग्रेजी का छात्र किसी भी अंग्रेजी पुस्तक अथवा कोश में ढ़ूंढ़ सकता है. तात्पर्य यह है स्वरों एवं व्यंजनों को आपस में संयुक्‍ताकर अनेकानेक ध्वनि संकेतों की सजर्ना अंग्रेजी मे की गई है किन्तु इन्हें एक अलग से संकेत देकर अथवा संयुक्‍ताक्षर के रूप में अंग्रेजी वणर्माला में दशार्या नहीं गया है. दूसरी ओर कई संयुक्‍ताक्षरों को स्वतंत्र ध्वनि संकेतों के रूप में हिन्दी वणर्माला में दर्शा दिया गया है.
हिन्दी वणर्माला में क्रमिकता है. व्यंजनों को उच्‍चारण स्थान दाँत, तालू, ओंठ, जिव्हा, घषर्ण,ध्वनि एवं वायु संचार के आधार पर विभिन्‍न वर्गों में विभाजित किया गया है, जिनमें प्रत्येक में पाँच  - पाँच  वर्ण हैं. प्रत्येक समूह के प्रथम वर्ण का नाम आधारित है. यदि विभिन्‍न समूहों के प्रथमाक्षर क्, च ्, त्, प्, ट् वर्णों के क्रमश: द्वितीय  ख्, छ्, थ्, ठ एवं च तुथर् घ्, झ्, ध्, म्, ढ़ वर्णों की ध्वनियों पर ध्यान केन्द्रित करें तो ज्ञात होगा कि ये अपने - अपने वर्ण समूह के प्रथम क्, च ्, त्, प्, ट् एवं तृतीय  ग्, ज्, द्, ब् के साथ ह के संयोग से हिन्दी वणर्माला में अवतरित हुए हैं. यही कारण है कि अंग्रेजी में हिन्दी के द्वितीय एवं चतुर्थ वर्णों के लिए स्थानापन्‍न रूप में के एच  (ख्) सी एच  एच  (छ) टी एच  (थ्) पी एच  (फ्) टी एच  एच  (ठ्) एवं जी एच  (घ्) और उसी प्रकार जे एच  (झ्) डी एच  (घ्) बी एच  (भ्) डी एच  एच  (ढ़्) आदि ध्वनि संकेतों का उपयोग किया जाता है, जो अंग्रेजी वणर्माला मे असंख्‍य  है. यदि हम अंग्रेजी की इस छद्म ध्वनि प्रणाली एवं लेखन शैली का उपयोग करें तो उपयुक्‍त दस वर्णों को सहजता से हिन्दी वणर्माला से निकाला जा सकता है किन्तु भाषायी दीघर्कालिक संस्कार अब इसकी इजाजत नहीं देगा. ऐसे ही अनेक युक्तिसंगत कारणों से हिन्दी वणर्माला अंग्रेजी वणर्माला से बड़ी दिखाई देती है. वस्तुत: ऐसा है नहीं. सरलीकृत करने के लिए कहावत के रूप में हम कह सकते हैं कि अंग्रेजी के खाने के (बोलने के) और दिखाने के (लिखने के) दाँत अलग - अलग है. हिन्दी में इस कपाट्य  का अभाव है. हकीकत तो यह है कि हिन्दी के स्वरों को भी मात्राओं के रूप में परिवतिर्त कर अलग से सांकेतिक चिन्ह दे दिये गये हैं. और इन्हीं कुछ कारणों से हिन्दी दुरूह लगने लगती है और अंग्रेजी सरल. अंग्रेजी लेखनशैली की दृष्टि से क्षण, त्र, ज्ञ,Î,ऋ आदि की कोई प्रासंगिकता नहीं है. त्र तो स्वतंत्र वर्ण है ही. मात्र लेखन की के कारण त्र त्र हो गया जो (आधा त) आधा (त्) एवं र (भाषा ) के मेल से बना  है. य दि थोड़ी सी भाषायी उदारता बरती जाय  तो कछि, अल्पग्य , अंग, रितु के प्रयोग द्वारा कुछ वर्णों से सरलता पूवर्क मुक्ति पाया जा सकता है. स, श, ष का अलग - अलग उदाहरण अब श्रमसाध्य  हो गया है, ध्वनि में अलगाव व्यक्‍त करने के लिए उर्दू के तुOा प्रणाली पर सोचा जा सकता है.
हिन्दी की एक सवर्मान्य  विशेषता है कि जो लिखा जाता है, वही पढ़ा जाता है. जो बोला जाता है, वही लिखा जाता है. यही कारण है कि संसार के किसी भी भाषा को आंशिक संशोधन के साथ देवनागरी लिपि में लिप्यांतरित कर सकते हैं. देवनागरी लिपि में अंग्रेजी भाषाण पढ़ पाना जितना आसान है, रोमन लिपि में हिन्दी भाषा पढ़ सकना नहीं. हिन्दी में ऐसा कुछ लिखा जाना संभव ही नहीं जिसका उदाहरण न हो. जबकि अंग्रेजी में डाउट का बी, नालेज का के, साय कोलाजी का पी, वाच  का टी, चाक का एल, क्रिकेट का सी, बजट का डी,आनर का एच , कंडम का एन, वणर् अनु‚रित ही रहता है. टी एच  से थ भी होता है और द भी. डी से द और ड, टी से ट, च , श आदि. जी से ज और ग. डी जी ê जो जाता है और आई जी एच  को आई पढ़ना पड़ता है. लिखते हैं डबल एस पढ़ते हैं आधा एस. टेक और केय र में ए - इ के अलग - अलग उ‚ारण है. पेन और पेय र का भी य ही अंजाम है. वास्तविकता य ह है कि अंग्रेजी की विसंगतियों को ही च तुराय र् से उसकी विशेषताओं के रूप में प्रचारित कर दिया गया है. अंग्रेजी की एक बहुत बड़ी विशेषता है, उसका शार्ट कट फार्म इस लचीलेपन की जितनी भी सराहना की  जाय  कम है. आई लव यू जैसे पूरे वायि  को इलू के रूप में परिवतिर्त कर देने की इस भाषा में अद्भुत सामर्थ्‍य है. वह दिन दूर नहीं जब अंग्रेजी पुस्तकों में हूं के लिए एम, हैं  के  लिए आर, तुम के लिए यू, चाय  के लिए टी, समुद्र या देखना के लिए सी का प्रयोग होने लगे. काग्रेचुलेशन्स कांग्रेट हो गया. महात्मा गांधी एम जी में अंतधार्न हो गये. बड़ी - बड़ी संस्थाओं के नाम कुछ अक्षरों में सिमट कर रह गये है. हिन्दी में संभवनाएं असीम है, फिर अंग्रेजी की तुलना में उसका उम्र ही क्‍या है ? यदि प्रयास विशेष से, जो भाषा की प्रकृति के अनुकूल हो, गैर हिन्दी भाषा - भाषियों को हिन्दी लिखने, समझने  में सरलता हो तो रूढ़ि एवं शुद्रता के मोह का परित्याग कर उसे स्वीकार किया जाना चाहिए. यदि हिन्दी को इक्‍कीसवीं सदी की भाषा बनाकर विश्व स्तर पर प्रतिष्ठित करना चाहते हैं, तो हिन्दी के रास्ते के छोटे - छोटे कंटकों को दूर करते चलें, वह अपना मार्ग स्वयं बना लेगी.
  • नया बस स्‍टैंड, खैरागढ़, जिला - राजनांदगांव(छग)