- डाँ.मोहनानन्द मिश्र
यह समस्त जगत सात मूल पदार्थों से बना है. जैसे - पृथ्वी,जल, अग्नि वायु, आकाश, तन्मात्रा और अहंकार. ये सात पदार्थ ही न्यूनाधिक परिभाषा में विशिष्ट रूप प्रदान करते हैं. साथ ही ये सातों पदार्थ तीन अवस्थाओं में होकर गुजरते हैं - सत्व (साम्य वस्था) रज (गतिरूप अवस्था) तम ( गतिहीन अवस्था) संसार में जो कुछ भी भली - बुरी वस्तु या कार्य दिखलाई देते हैं वे सब इन्हीं इक्कीस विभागों के अंतगर्त हैं. आधुनिक विज्ञान चर पदार्थों के विश्लेषण को स्वीकार करता है.
अथवर्वेद में जल से संबंधित अनेक मंत्र हैं जो इस प्रकार हैं -
शं नो देवीरभिष्य आपोभवन्तु पीयते । शं यो रभिÍवंतुन: ।।
अप्सु में सोमो अब्रवीदन्त विश्वानिभेषजा । अSि च विश्वशम्भुवम् ।।
आप: पृणीत भेषज्ञवरूथ तन्वेमम् । ज्योक च सूय Y Òशे ।।
शं न आपो धन्वन्था: शमु सन्त्वनूप्या: । शं न: खनित्रमा आप: शमु या कुम्भ:
आभृता: शिवा न: सन्नु वाषिर्की: ।।
इसमें कहा गया है, दिव्य गुणों से सम्पÛ जल हमें सभी ओर से सुखकारी हों तथा पूणर् शाक्न्त प्रदान करें । ईश्वर प्राÄि में सहाय ता करें तथा हमारे पीने के लिए हों ।
जल में सब औषधियाँ विद्यमान हैं तथा समस्त जग को आÛद तथा कल्याण देने वाले अSिदेव हैं, ऐसा मुुझे सोम ने उपदेश दिया है .
हे जलों ! मेरे रोगों के शमनाथर् तुम मुझे औषधियाँ प्रदान करो और मेरे शरीर को पुý करो ताकि मैं बहुत समय तक सूय र् को देखता रहूं.
मरूप्रदेश का जल हमें सुख प्रदान करे, जल सम्पÛ देश का जल भी हमें सुखकारी हो. खोदे हुए कुएँ आदि का जल हमें सुखप्रद हो, घड़े आदि बतर्न में भरकर लाया हुआ जल हमें सुख प्रदान करें, वषार् से प्राÄ जल भी हमें सुख दे .
नमस्ते अस्त्वश्मने येना दुडाशे अस्य सि ।
नमस्ते प्रवतो नपदि तन स्तप सहगुसि ।
मृडया नस्तनूम्भो मय स्तो केम्य स्कृधि ।
इसमें कहा गया है हे पजर्न्य ! आप जल को अपने में धारण किये रहते हैं. अकाल में नीचे नहीं गिरने देते. सत्पुरूषों की रक्ष्ाा करने वाले आपको नमस्कार हो. आप तप को इकxा करते हैं और पातकों पर अपना - अपना अशनि रूप वज्र फेकते हैं. आप हमारे शरीर को सुख दें तथा हमारे पुत्र पौत्रादि को भी सुख प्रदान करें .
ये सपिर्ष: संस्रवतिक्ष्ाीरस्य चोदकस्य च ।
तेभिमेर् सवेर् संस्रावै‚र्नं संस्रावयामसि ।।
इसमें कहा गया है - बहने वाले घृत, दूध एवं जल के प्रवाहों से हम गौधन, धान्यादि को प्रवाह रूप में प्राÄ करें ।
दिव्यो गन्धवोर्भुवनस्य य स्मतिरेक एव नमस्यो विक्ष्वीय : ।
तं त्वा य ौमि ब्रह्मा दिव्य देवनमस्ते
अस्तु दिवि ते सघस्थम् ।।
इसमें कहा गया है - दिव्य जल और शIियों के धारण करने वाले सूच र्वृýि आदि से पुý करने के कारण पृथिवी आदि लोकों के स्वामी हैं और प्राणियों को भी पुýि करने वाले हैं. वे प्रजाओं के लिए स्तुत्य हैं. हे गन्धवर्, मैं तुम्हें पर ब्रह्म भाव से मानता हूं और नमस्कार करता हूं.
आपो य द्वस्तपस्तेन तं प्रति
तपत योस्मान् द्वेक्ष्ट मं वयं द्विव्य :।
इसमें कहा गया है - हे जलो ! जो शत्रु इसमें द्वेष करता अथवा हम जिससे द्वेष करते हैं और जो हम पर कृत्यादि अभिचार कमर् करना चाहता है, उस शत्रु को अपनी सन्तापन शIि से सन्तÄ करो .
य दद: संप्रमतीरहावन दताहते ।
तस्मादा नद्यो नामस्थ तावो नामानि सिन्धव ।।
य त् प्रेषिता वरूणेनाच्छीम समवल्गत ।
तदाप्नो दिन्द्रो वो य तीस्तस्मादा यो अनुþान ।।
अपकामं स्य न्दमाना अवीवरत वो हि कम् ।
उदानिघुमर्हीरिति तस्मादुक मुच्य ते ।।
आपो भद्रा घृतमिदाय आसÛSषोमौ विभ्रत्याय इत: ता: ।
इसमें कहा गया है - हे जलो ! मेघ के ताड़ित करने पर इधर - उधर च लकर नाद करने के कारण तुम्हारा नाम नदी हुआ है और तुम्हारे अप उदक नाम भी अथर् के अनुकूल ही है.
वरूण द्वारा प्रेरित होने पर तुम नृत्य करने से एकत्र च लने लगे थे. उस समय इन्द्र मिले तभी से तुम्हारा नाम अप हुआ. इच्छा न रहते हुए भी इन्द्र ने तुम्हें अपनी शIि से वरण किया इसलिए तुम्हारा नाम बारि हुआ. इन्द्र ने एक बार तुम पर आधिपत्य जमाया. इन्द्र के महत्व के कारण जलों ने अपने को बड़ा मानकर उदन दिया तभी से वे उदक हुए.
कल्याणकारी जल ही घृत हुए. अSि में होमने पर घृत जल रूप हो जाता है. य ह जल ही अSि और सोम के धारण करने वाले हैं. ऐसे जलों का मधुर रस ही मुझे अक्ष्ाय बल और प्राणसहित प्राÄ हो.
हिमालय से पाप नाशक गंगा आदि का जल प्रवाहित होता है. वह समुद्र में संयुI होते हैं. य ह जल मुझे ऐसी औषधियाँ प्राÄ करे जो हृदय के दाह का शमन करने में समथर् हो.
नेत्रों को पाक्ष्णर् को और प्रपद को संताप देने वाले सब रोगों को देवता के समान जल मिटा दें. य ह जल रोग दूर करने वाली औषधियों में परम कुशल चि कित्सक है.
हे जलों ! तुम्हारा समुद्र है. तुम उसकी पत्नी हो. तुम रोगों को दूर करने वाली औषधि प्रदान करो जिससे हम अनादि बल देने वाले पदाथोY का सेवन करने में समथर् हों.
शुद्धा न आपस्तन्वेक्ष्ारन्तु यो न:, सेदुर प्रिये निदघ्म: । पविश्रेण पृथिवि मोत पुनामि ।।
इसमें कहा गया है - पवित्र जल हमारे देह को सींचे. हमारे शरीर पर होकर जाने वाले जल शत्रु को प्राÄ हों. हे पृथिवी ! मैं अपने देह को पवित्रे द्वारा पवित्र करता हूं. सोमपान से उत्पÛ शIि के द्वारा इन्द्र ने जब मेघ को चीरा तब अन्तरिक्ष्ा को वषार् के जल से प्रवृद्ध किया.
अपां फेनेन नमुचे: शिर इन्द्रोदवतर्म:, विश्वा य दजय स्पृध: ।
इसमें कहा गया है - हे इन्द्र ! तुमने नमुचि नामक राक्ष्ास का शिर जल के फेन का वज्र बनाकर काट डाला और प्रतिस्पधीर् सेवाओं पर विजय प्राÄ की.
इस प्रकार अथवर्वेद में जल संबंधी मन्त्रों में जल की उत्पत्ति और इसके विभिÛ नामों तथा इसके औषधीय उपयोग के प्रसंग हैं. प्राचीनकाल में भी जल ही जीवन की मान्य ता थी और आज भी है. विज्ञान में जल को एच टू ओ के नाम से समझा जाता है.
अथवर्वेद में जल से संबंधित अनेक मंत्र हैं जो इस प्रकार हैं -
शं नो देवीरभिष्य आपोभवन्तु पीयते । शं यो रभिÍवंतुन: ।।
अप्सु में सोमो अब्रवीदन्त विश्वानिभेषजा । अSि च विश्वशम्भुवम् ।।
आप: पृणीत भेषज्ञवरूथ तन्वेमम् । ज्योक च सूय Y Òशे ।।
शं न आपो धन्वन्था: शमु सन्त्वनूप्या: । शं न: खनित्रमा आप: शमु या कुम्भ:
आभृता: शिवा न: सन्नु वाषिर्की: ।।
इसमें कहा गया है, दिव्य गुणों से सम्पÛ जल हमें सभी ओर से सुखकारी हों तथा पूणर् शाक्न्त प्रदान करें । ईश्वर प्राÄि में सहाय ता करें तथा हमारे पीने के लिए हों ।
जल में सब औषधियाँ विद्यमान हैं तथा समस्त जग को आÛद तथा कल्याण देने वाले अSिदेव हैं, ऐसा मुुझे सोम ने उपदेश दिया है .
हे जलों ! मेरे रोगों के शमनाथर् तुम मुझे औषधियाँ प्रदान करो और मेरे शरीर को पुý करो ताकि मैं बहुत समय तक सूय र् को देखता रहूं.
मरूप्रदेश का जल हमें सुख प्रदान करे, जल सम्पÛ देश का जल भी हमें सुखकारी हो. खोदे हुए कुएँ आदि का जल हमें सुखप्रद हो, घड़े आदि बतर्न में भरकर लाया हुआ जल हमें सुख प्रदान करें, वषार् से प्राÄ जल भी हमें सुख दे .
नमस्ते अस्त्वश्मने येना दुडाशे अस्य सि ।
नमस्ते प्रवतो नपदि तन स्तप सहगुसि ।
मृडया नस्तनूम्भो मय स्तो केम्य स्कृधि ।
इसमें कहा गया है हे पजर्न्य ! आप जल को अपने में धारण किये रहते हैं. अकाल में नीचे नहीं गिरने देते. सत्पुरूषों की रक्ष्ाा करने वाले आपको नमस्कार हो. आप तप को इकxा करते हैं और पातकों पर अपना - अपना अशनि रूप वज्र फेकते हैं. आप हमारे शरीर को सुख दें तथा हमारे पुत्र पौत्रादि को भी सुख प्रदान करें .
ये सपिर्ष: संस्रवतिक्ष्ाीरस्य चोदकस्य च ।
तेभिमेर् सवेर् संस्रावै‚र्नं संस्रावयामसि ।।
इसमें कहा गया है - बहने वाले घृत, दूध एवं जल के प्रवाहों से हम गौधन, धान्यादि को प्रवाह रूप में प्राÄ करें ।
दिव्यो गन्धवोर्भुवनस्य य स्मतिरेक एव नमस्यो विक्ष्वीय : ।
तं त्वा य ौमि ब्रह्मा दिव्य देवनमस्ते
अस्तु दिवि ते सघस्थम् ।।
इसमें कहा गया है - दिव्य जल और शIियों के धारण करने वाले सूच र्वृýि आदि से पुý करने के कारण पृथिवी आदि लोकों के स्वामी हैं और प्राणियों को भी पुýि करने वाले हैं. वे प्रजाओं के लिए स्तुत्य हैं. हे गन्धवर्, मैं तुम्हें पर ब्रह्म भाव से मानता हूं और नमस्कार करता हूं.
आपो य द्वस्तपस्तेन तं प्रति
तपत योस्मान् द्वेक्ष्ट मं वयं द्विव्य :।
इसमें कहा गया है - हे जलो ! जो शत्रु इसमें द्वेष करता अथवा हम जिससे द्वेष करते हैं और जो हम पर कृत्यादि अभिचार कमर् करना चाहता है, उस शत्रु को अपनी सन्तापन शIि से सन्तÄ करो .
य दद: संप्रमतीरहावन दताहते ।
तस्मादा नद्यो नामस्थ तावो नामानि सिन्धव ।।
य त् प्रेषिता वरूणेनाच्छीम समवल्गत ।
तदाप्नो दिन्द्रो वो य तीस्तस्मादा यो अनुþान ।।
अपकामं स्य न्दमाना अवीवरत वो हि कम् ।
उदानिघुमर्हीरिति तस्मादुक मुच्य ते ।।
आपो भद्रा घृतमिदाय आसÛSषोमौ विभ्रत्याय इत: ता: ।
इसमें कहा गया है - हे जलो ! मेघ के ताड़ित करने पर इधर - उधर च लकर नाद करने के कारण तुम्हारा नाम नदी हुआ है और तुम्हारे अप उदक नाम भी अथर् के अनुकूल ही है.
वरूण द्वारा प्रेरित होने पर तुम नृत्य करने से एकत्र च लने लगे थे. उस समय इन्द्र मिले तभी से तुम्हारा नाम अप हुआ. इच्छा न रहते हुए भी इन्द्र ने तुम्हें अपनी शIि से वरण किया इसलिए तुम्हारा नाम बारि हुआ. इन्द्र ने एक बार तुम पर आधिपत्य जमाया. इन्द्र के महत्व के कारण जलों ने अपने को बड़ा मानकर उदन दिया तभी से वे उदक हुए.
कल्याणकारी जल ही घृत हुए. अSि में होमने पर घृत जल रूप हो जाता है. य ह जल ही अSि और सोम के धारण करने वाले हैं. ऐसे जलों का मधुर रस ही मुझे अक्ष्ाय बल और प्राणसहित प्राÄ हो.
हिमालय से पाप नाशक गंगा आदि का जल प्रवाहित होता है. वह समुद्र में संयुI होते हैं. य ह जल मुझे ऐसी औषधियाँ प्राÄ करे जो हृदय के दाह का शमन करने में समथर् हो.
नेत्रों को पाक्ष्णर् को और प्रपद को संताप देने वाले सब रोगों को देवता के समान जल मिटा दें. य ह जल रोग दूर करने वाली औषधियों में परम कुशल चि कित्सक है.
हे जलों ! तुम्हारा समुद्र है. तुम उसकी पत्नी हो. तुम रोगों को दूर करने वाली औषधि प्रदान करो जिससे हम अनादि बल देने वाले पदाथोY का सेवन करने में समथर् हों.
शुद्धा न आपस्तन्वेक्ष्ारन्तु यो न:, सेदुर प्रिये निदघ्म: । पविश्रेण पृथिवि मोत पुनामि ।।
इसमें कहा गया है - पवित्र जल हमारे देह को सींचे. हमारे शरीर पर होकर जाने वाले जल शत्रु को प्राÄ हों. हे पृथिवी ! मैं अपने देह को पवित्रे द्वारा पवित्र करता हूं. सोमपान से उत्पÛ शIि के द्वारा इन्द्र ने जब मेघ को चीरा तब अन्तरिक्ष्ा को वषार् के जल से प्रवृद्ध किया.
अपां फेनेन नमुचे: शिर इन्द्रोदवतर्म:, विश्वा य दजय स्पृध: ।
इसमें कहा गया है - हे इन्द्र ! तुमने नमुचि नामक राक्ष्ास का शिर जल के फेन का वज्र बनाकर काट डाला और प्रतिस्पधीर् सेवाओं पर विजय प्राÄ की.
इस प्रकार अथवर्वेद में जल संबंधी मन्त्रों में जल की उत्पत्ति और इसके विभिÛ नामों तथा इसके औषधीय उपयोग के प्रसंग हैं. प्राचीनकाल में भी जल ही जीवन की मान्य ता थी और आज भी है. विज्ञान में जल को एच टू ओ के नाम से समझा जाता है.
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें