कवि प्रभात
निटोर देहे निच्चट बादर, अब का पानी गिरही ग?
दूरगत होही जतने धान के, सपना जम्मो मरही ग
खातू माटी के करजा बाड़ही,
काकर माथे उबरबो
साँसो के मारे का जीबो,
का हम चैन के मरबो
बड़ सुग्घर इ जिनगी हमर, फांदा जी के बनही ग
दूरगत..
खाय कमाय जाये बर लागहि,
छोड़ के घर, बारी ल
छोड़ के घाट, घटऊँधा सुन्दर
दई, लइका, नारी ल
उन्हों दुख रंग रंग के पाबो, जिनगी हम ल तरही ग
दूरगत..
बिहा नोनी के नई होवे,
बाबू कईसे पड़ही
घर के भिथिया दिखे भसकउल,
चम्मासे मं ओदरही
बिना दवई के डोकरी दाई, बेमारी में घिलरही ग
दूरगत..
लागा बनिया के नई चुके,
ब्याज लगाहि नावा
करिहा किलौली त नरियाही
"त मोर पईसा लावा"
आही घेरी बेरी तगादा, इज्जत माटी मिलहि ग
दूरगत..
नहर के पानी जे खेत आही,
लुही ओहा सोना
ओकर मतलब के हो जाहि,
पेलत जांगर रोना
देख के ओकर छलकत कोठी, मोर मन आगी बरही ग
दूरगत..
ग्राम-कटगी (छत्तीसगढ़
इस अंक के रचनाकार
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सोमवार, 18 अगस्त 2025
अब का पानी गिरही ग
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