लइकामन के नइ रहे ले घर हा सुन्ना होइच जाथे। कार्तिक महाराज हा कमरछठ बर गे हावय ते कहीं-कहीं काम निपटावत धरती च मा हावे अउ आज पितर बैसखी घलो हो गे। दूनों लइकामन के गोठ करत भगवान शंकर अउ माता पार्वती हा बइठे रहय। ठउका उही बेरा गणेश जी हा मुसवा मा चघ के ऊँखर तीर मा आवत राहय। उन ला देख के शंकर जी अउ माता पार्वती हा अकचका गे। गणेश हा अपन दाई-ददा के पाँव पायलगी करिस, दूनों परानी हा गणेश ला चूमिन पोटारिन; ओकर हाल-चाल पूछिन। शंकर जी अउ माता पार्वती हा ये सोच के मने मन मा गुनत राहॅंय कि एसो कइसे गणेश हा लघिंयात धरती ले लहुट गे। उन एखर बारे मा जब गणेश ला पूछिन ता गणेश जी कहे लागिस।‘‘ए पइत प्रशासन के किरपा होगे महतारी नइ ते जानथस तो पितर पंचमी के आवत ले मूर्ति विसर्जन करथे।’’
‘‘काय किरपा करे हे प्रशासन हा एसो?’’ ‘‘प्रशासन अउ कोर्ट सख़्त चेतावनी जारी कर दिन हे कि ये दारी मूर्ति विसर्जन मा कोनो भी प्रकार के डीजे या धुमाल नइ बजाए जाही।’’
‘‘ता भगत मन ये आदेश ला मान गें?’’
‘‘भगत मन हा तो शासन के ये आदेश के जय-जय मनाइन, फेर जानथव तो उन तथाकथित भगत मन ला। धरम-करम के असली मरम जानबेच नइ करॅंय अउ आँखी देखाए बरोबर नखरा लगावत रिहिन। प्रशासन घलो बने हकन के आदेश के पालन करवाइस हे। ‘भगवान हार गे, प्रशासन जीत गे’ अइसनहा तक काहॅंय। इँखर देखनउटी पूजा-पाठ के मारे जाय के मन घलो उतर जाथें, पूजा के नांव मा अतिक प्रदूषण बगराथें, अतिक फटाका फोड़थें; ते मोला खुदे अकबकासी लाग जाथे, फेर अपन सच्चा भगत मन बर जाय ला परथे। जेन धरम हा प्रकृति ला सरेख के राखे के गोठ कहिथे, ओखर बढ़वार के गोठ करथे; उही प्रकृति के सरी छरी-दरी करत हावय। ये मन ला पूजा-पाठ ले काहीं लेना-देना नइ राहय; बस पियई अउ डंगचगहा मन बरोबर नचई। एसो सबे कोती पारंपरिक बाजारूंजी मा ही मूर्ति विसर्जन होइस हावे, देखके अंतस हरियागे। मँय तो कहिथंव कि धरम-करम के नांव मा जतेक भी प्रकृति के बिगाड़ वाला काम होथे उन सब ला चमचम ले बंद कर देना चाही।’’
‘‘बने काहत हावस बेटा, आज नइ ते काली अइसन होबेच करही। अब नवरात्रि अउ ईसर-गउरा के पूजा हा घलो बने ढंग ले होही।’’
दिलीप कुमार निषाद
दुर्ग
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