इस अंक के रचनाकार

इस अंक के रचनाकार आलेख खेती-किसानी ले जुड़े तिहार हरे हरेलीः ओमप्रकाश साहू ' अंकुर ' यादें फ्लैट सं. डी 101, सुविधा एन्क्लेव : डॉ. गोपाल कृष्ण शर्मा ' मृदुल' कहानी वह सहमी - सहमी सी : गीता दुबे अचिंत्य का हलुवा : राजेन्द्र प्रसाद काण्डपाल एक माँ की कहानी : हैंस क्रिश्चियन एंडर्सन अनुवाद - भद्रसैन पुरी कोहरा : कमलेश्वर व्‍यंग्‍य जियो और जीने दो : श्यामल बिहारी महतो लधुकथा सीताराम गुप्ता की लघुकथाएं लघुकथाएं - महेश कुमार केशरी प्रेरणा : अशोक मिश्र लाचार आँखें : जयन्ती अखिलेश चतुर्वेदी तीन कपड़े : जी सिंग बाल कहानी गलती का एहसासः प्रिया देवांगन' प्रियू' गीत गजल कविता आपकी यह हौसला ...(कविता) : योगेश समदर्शी आप ही को मुबारक सफर चाँद का (गजल) धर्मेन्द्र तिजोरी वाले 'आजाद' कभी - कभी सोचता हूं (कविता) : डॉ. सजीत कुमार सावन लेकर आना गीत (गीत) : बलविंदर बालम गुरदासपुर नवीन माथुर की गज़लें दुनिया खारे पानी में डूब जायेगी (कविता) : महेश कुमार केशरी बाटुर - बुता किसानी/छत्तीसगढ़ी रचना सुहावत हे, सुहावत हे, सुहावत हे(छत्तीसगढ़ी गीत) राजकुमार मसखरे लाल देवेन्द्र कुमार श्रीवास्तव की रचनाएं उसका झूला टमाटर के भाव बढ़न दे (कविता) : राजकुमार मसखरे राजनीति बनाम व्यापार (कविता) : राजकुमार मसखरे हवा का झोंका (कविता) धनीराम डड़सेना धनी रिश्ते नातों में ...(गजल ) बलविंदर नाटक एक आदिम रात्रि की महक : फणीश्वर नाथ रेणु की कहानी से एकांकी रूपान्तरणः सीताराम पटेल सीतेश .

रविवार, 20 फ़रवरी 2022

सबक

श्रीमती दुर्गेश दुबे

         - थोड़ी देर और सोने दो ना मां। बस थोड़ी देर और। कहते पिंकू ने रजाई सिर के ऊपर तक तान ली।
         ये लगभग प्रतिदिन की कहानी थी। पिंकू को जगाना किसी रणक्षेत्र से कम न होता था। जहां पिंकू और उसकी मां दोनों में से कोई भी हार मानने को तैयार न होता था।
          मां सोचती- अभी ही तो अच्छी आदतों एवं नियमित दिनचर्या में ढलने का समय है। अभी से आलस्य अनियमित दिनचर्या की आदत लग गई तो कभी आदतें बदलेंगी नहीं। जो आदत बचपन में लग जाती है बुढ़ापे तक भी नहीं छूटती। अतः मां साम - दाम - दण्ड - भेद पिंकू के सोने - जागने - खेलने -कूदने - पढ़ने - लिखने का समय निश्चित करने का प्रयास करती रहती।
         और पिंकू प्रतिदिन कोई न कोई बहाना बनाता अनुशासनहीन बनता जा रहा था। जब मन है जगना, जब मन है सोना, थोड़ी पढ़ाई फिर मित्र मंडली के संग खेलकूद घूमते - फिरते प्रतिदिन सांझ हो जाती।
          मां उसकी इन हरकतों से नाराज होती। समझाती- सप्ताह के छः दिन अनुशासित जीवन जियो बेटा। रविवार को मन की कर लो। परंतु पिंकू के कान में जूं तक न रेंगती।
         रोज - रोज की किच - किच से तंग आकर आज मां ने मन पक्का कर लिया।
         सूरज सिर पर चढ़ आया था परंतु मां ने पिंकू को जगाया नहीं।
        सफाई गाड़ी की तेज स्वर की सीटी सुन पिंकू हड़बड़ा के जागा। घड़ी की ओर देखा तो आठ बज रहे थे। दैनिक क्रिया से निवृत्त रसोई में आया । मां को देख लाड़ लड़ाते बोला - आज बस मां, कल से पक्का समय से जागूंगा।
        मां मुस्करा दीं। थोड़ी देर इधर - उधर, घूमते - टहलते पिंकू ने मां से भोजन मांगा।
        मां ने थाली परोसी तो पिंकू थाली में खिचड़ी देखते ही भड़क गया।
- मां तुम जानती हो ना, मुझे खिचड़ी बिल्कुल भी पसंद नहीं है फिर भी तुमने खिचड़ी बना दिया। अब मैं क्या खाऊं ? तुम मुझे बिल्कुल भी प्यार नहीं करती।
          मुस्कुराते हुए मां बोली - बेटा मुझे भी तो तुम्हारी आदतें पसंद नहीं । मतलब तुम भी मुझसे प्यार नहीं करते। है ना, अब पिंकू ने सिर झुका लिया। जब तुम मेरी चिंता नहीं करते तो मुझे भी तुम्हारी पसंद की कोई परवाह नहीं। बेटा जब तक तुम अपनी आदतों को नहीं सुधारते तब तक तो रसोई में राष्ट्रीय भोजन खिचड़ी ही बनेगा। कह मुस्कुराती मां कार्यालय के लिए निकल गई।
         अगले दिन सुबह पिंकू भोर में जग गया था और नियमित दिनचर्या पालन की ओर कदम बढ़ा चुका था।

व्याख्याता
शासकीय उच्च माध्यमिक विद्यालय हर्राटोला
गौरेला (छ.ग.)

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