ग़ज़ल 1
थे सभी जितने भुलाए सिलसिले।
आज फिर से साथ अपने आ मिले।
था हमारा भी सफ़र उस ओर का,
जिस तरफ़ से आ रहे थे काफ़िले।
जो छुपे थे बादलों की ओट में,
वो सितारें आसमाँ पर आ खिले।
सब परिंदे दूर तक उड़ते रहे,
पेड़ लेक़िन इस जमीं से न हिले।
हमने उनका रास्ता अपना लिया,
जिनसे हम रख्खा करे शिकवे गिले।
हरकतों से बाज़ अपनी आएंगे,
तब तलक होते रहेंगे ज़लज़ले ।
हैं हमारी ओर के रिश्ते - भले,
पाएंगे उनसे सभी वैसे सिले।
2
मंज़िलें, ये डगर और है आदमी।
मुश्किलें, ये सफ़र और है आदमी।
रात के साथ है नींद की रंजिशें ,
रतजगे ,ये पहर और है आदमी ।
वक़्त के साथ मिलकर गुजरते रहे,
सिलसिले ,ये बसर और है आदमी ।
होशआ पायेगा किस तरह इस जगह,
मैक़दे, ये असर और है आदमी।
है सितारों भरा रात का आसमाँ ,
फासलें , ये नज़र और है आदमी।
3
धूप बनकर कभी हवा बनकर।
वो निभाता है क़ायदा बनकर।
पास लगता है इस तरह सबके,
काम आता है वो दुआ बनकर।
राह मुश्किल या दूर मंज़िल तक,
साथ आता है रहनुमा बनकर।
तपते- जलते हुए महीनों का,
मन खिलाता है वो घटा बनकर।
बात उसकी क़िताब जैसी है,
याद रखता है वो सदा बनकर।
है उसी का यहाँ सभी रुतबा,
ये जताता है वो ख़ुदा बनकर।
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4
उनकी रहती आँख तनी।
जिनकी हमसे है बिगड़ी।
होती अक़्सर आपस में,
बातों की रस्सा- कस्सी।
सुनकर झूठी लगती है,
बातें सब चिकनी-चुपड़ी।
सम्बन्धों पर भारी है,
जीवन की अफ़रा-तफ़री।
चेहरा जतला देता है,
अय्यारी सब भीतर की।
आगे - पीछे चलती है,
परछाई सबकी ,अपनी।
चाहे थोड़ी लिखता हूँ,
लिखता हूँ सोची-समझी।
नवीन माथुर पंचोली
अमझेरा धार मप्र
9893119724
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