ऋतु नरेन्द्र
मुझसे पूछते कभी तुम,मेरी कुशल क्षेम नहीं
मुझे प्रतीत होता है, कि ये तो कोई प्रेम नहीं,
तुम्हें अपने पावन हृदय में,आश्रय दे दिया
निज इकलौता हृदय,तुम्हें सहृदय दे दिया
यह मेरे उर का मंदिर है,कोई हाट बाजार नहीं
भाव अनमोल हैं मेरे,मोल भाव का व्यापार नहीं
मुझसे पूछते कभी तुम ...
मेरे प्रेम पुष्प का,ना समय धारा में प्रवाह करो
मैं उत्तरदायित्व हूं तुम्हारा, तुम मेरा निर्वाह करो
यूं मुंह फेर लेना मुझसे,यह तो सदाचार नहीं
आंख मूंदकर कहते हो,मुझे तुमसे प्यार नहीं
मुझसे पूछते कभी तुम ...
मेरी शब्द साधना को, तुमने कर दिया व्यर्थ
मेरा शब्दकोश वही है,तुमने बदल दिए अर्थ
अर्थ के अनर्थ हुए,ये अनर्थ मुझे स्वीकार नहीं
जो तुम मेरी कलम नहीं,तो मैं भी कलमकार नहीं
मुझसे पूछते कभी तुम ...
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