अशोक अंजुम
आरी ने घायल किए हरियाली के पांव।
कंकरीट में दब गया, होरी वाला गांव।।
धन्ध - धुएं ने कर दिया, हरियाली का रेप।
चिड़िया फिरती न्याय को, लिए वीडियो टेप।।
पत्थर के जंगल उगे, मिटे बाग़ औ खेत।
क्या - क्या रंग दिखाएगा, ये विकास का प्रेत।।
दूर शहर की चिमनियां, देती ये आभास।
जैसे बीड़ी पी रहे, बुड्डे कई उदास।।
हुए आधुनिक इस तरह, बढ़ा दोस्त अनुराग।
बरगद काट उगा लिए, नागफनी के बाग।।
वन्य - जीव मिटते रहे, कटे वृक्ष दिन - रात।
तो इक दिन मिट जाएगी, ख़ुद आदम की जात।।
धुध - धुएं ने घात दी, रोगी हुए हकीम।
असमय बुड्डा हो गया, आंगन वाला नीम।।
हरियाली पर मत करो, इतना अत्याचार।
दोस्त यही है आपके, जीवन का आधार।।
आरी मत पैनी करो, जंगल करे गुहार।
जीवन - भर दूंगा तुम्हें, मैं ढेरो उपहार।।
अब धरती - आकाश पर, खाओ रहम हुजूर।
बदल रहे हैं रात दिन, मौसम के दस्तुर।।
मानव तू तो कर रहा, नये - नये विस्फोट।
घायल धरती औ गगन, खाकर निशदिन चोट।।
सूखा, बाढ़, अकाल से, नित्य कर रही वार।
आखिर धरती कब तलक, सहती अत्याचार।।
किस विकास के खुल गए, यारो आज किवाड़।
डरे - डरे हतप्रभ खड़े, जंगल, नदी, पहाड़।।
सोनचिरैया उड़ गई, देकर यह फ़रमान।
तूने तोड़ा घोसला, अब तेरा अवसान।।
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