विजय कुमार
पूर्णिमा की चांदनी सी
शरद के आकाश जैसी
है धरा पलकें बिछाए
मां, सुधा साकार कर दो
हे हिरण्यमयी विभासित
चित्त की प्रतिमा सुवासित
अमृतमयी हे पारगामिनी
मूर्तिमय आधार कर दो
त्रिगुणमयी हो गुणातीते
दिव अनागत और बीते
साँस की सरगम समादृत
प्राण का संचार कर दो
जड़ जहाँ चैतन्य कर दो
कर्म से ही धर्म कर दो
अनासक्ति अकर्ममय मां
धर्म मय व्यापार कर दो
धर्म का धारण कठिन है
कर्म का साधन मलिन है
मर्त्य नर की साधना में
अमरता का राग भर दो
मनस्वी मनगामिनी हो
चित्त की माँ स्वामिनी हो
आज अन्तर में उतर कर
मुक्ति का हुंकार कर दो
हे प्रचण्डे प्राण दायिनि
भुक्ति मुक्ति अभय प्रदायिनि
दनु दलन सज्जन सुहावनि
शत्रु का संहार कर दो
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें