नरेन्द्र कुमार कुलमित्र
मैंने रोया था उस दिन जी भर के
जब निकली थी घर से तुम्हारी अर्थी
लोग मेरे आँसू पोंछते रहे
ढाँढस बंधाते रहे
समझाते रहे कि
चुप हो जा बेटा
आखिर जाना ही पड़ता है एक दिन सबको
मिट्टी की इस काया को मिट्टी में मिलना ही है
मैंने पुस्तकों में पढ़ा था
पाँच तत्वों से मिलकर बना नश्वर है यह शरीर
मगर मुझे उस मृत देह में
मिट्टी नहीं केवल माँ नज़र आती थी
मुझे बचपन में माँ समझाती थी कि
मिट्टी माँ होती है
वही हमें पालती - पोसती है
रोज सुबह मिट्टी को प्रणाम किया करो
मिट्टी माँ होती है
इस दर्शन को तब नहीं समझ सका था
सोचता था मिट्टी और माँ में भला कैसा साम्य ...?
समझा उस दिन
जब माँ सचमुच मिट्टी हो गई।
9755852479
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