बताओ हम कहीं ठहरे हैं
बताओ ! हम कहीं ठहरे कहाँ है!
वो अपने रात हो दिन हो,
भले ये ज़िन्दगी पिन हो।
बताओ। हम कहीं ठहरे कहां हैं?
वो अपने रात हो दिन हो,
भले ये ज़िन्दगी पिन हो।
बताओ। हम कहीं ठहरे कहां हैं?
बन्द दरवाजे मिले, सब शहर के घर के,
धूप के जलते सफर में छाँह तो मिलती।
पांव जख्मी टीसते थे,लड़खड़ाते थे,
इक तसल्ली को भली सी बाँह तो मिलती।
धूप के जलते सफर में छाँह तो मिलती।
पांव जख्मी टीसते थे,लड़खड़ाते थे,
इक तसल्ली को भली सी बाँह तो मिलती।
लोग हंसते थे मियां। हम सब समझते थे,
खूब सुनते कान हैं, बहरे कहां हैं?
बस्तियों के मौन सन्नाटे
हवायें जड़ गयीं चांटे,
खूब सुनते कान हैं, बहरे कहां हैं?
बस्तियों के मौन सन्नाटे
हवायें जड़ गयीं चांटे,
सभी गूँगे भला संवाद किससे हो
भूख की आँखों भरी भाषा,
समझता कौन परिभाषा।
कि अंधे राज्य में अनुवाद किससे हो।
भूख की आँखों भरी भाषा,
समझता कौन परिभाषा।
कि अंधे राज्य में अनुवाद किससे हो।
कभी हम ऊब जाते हैं
भ्रमित से डूब जाते हैं,
बताये कौन हमको ताल ये गहरे कहाँ हैं?
भ्रमित से डूब जाते हैं,
बताये कौन हमको ताल ये गहरे कहाँ हैं?
दुखी होकर जो चिल्लाये
वो आंखें लाल कर आये
कभी पूछा नहीं क्या दर्द है क्यों शोर करते हो
जो बोलें जान लेते हैं
भॄकुटियां तान लेते हैं
पुराना रोग कहकर घूरते क्यों बोर करते हो
वो आंखें लाल कर आये
कभी पूछा नहीं क्या दर्द है क्यों शोर करते हो
जो बोलें जान लेते हैं
भॄकुटियां तान लेते हैं
पुराना रोग कहकर घूरते क्यों बोर करते हो
हमें दुर्गत नहीं झिलती
उन्हें फुर्सत नहीं मिलती
यों कहते जब चले आना यहां पहरे कहाँ हैं?
उन्हें फुर्सत नहीं मिलती
यों कहते जब चले आना यहां पहरे कहाँ हैं?
आज ठहाके ओठों के ...
आज ठहाके ओठों के अनदर हैं मरे मरे !
पूरा जीवन कटा विहँसते बाग बगीचों में,
और सफर करते आ ठहरे बीहड़ मरुथल में,
जहाँ पेड़ सूखे, पत्थर, रेतीले टीले हैं।
दूर - दूर तक हवा कँटीली या सन्नाटे हैं
हमने तो उत्सव मेलों में ही दिन काटे हैं,
भूखी चीलों का क्रंदन डर पैदा करता है।
घर में इक टूटा सा खंडहर पैदा करता है।
हम जीवन भर चले घास के नर्म ग़लीचों में,
अन्त पहर क्यों साँस घुटी ऐसे अन्धे कल में,
जहाँ दलदली मिट्टी है सब पेड कँटीले हैं
आधे बादल बरस रहे हैं आधे सूखे हैं
सब अध्याय लगे जो मौलिक रस के भूखे हैं
बाहर के पतझर की अब तू बात, न कर प्यारे
बाहर से अन्दर के मौसम ज़्यादा रूखे हैं
हम हैं स्वर्ण खाल सी ओढ़े मृग मारीचों में,
बिंधे वाण से तड़प रहे हैं निर्जन जंगल में।
रावण के बंधक हैं सम्मुख राम रसीले हैं।
वो भी था परिवेश कि रीते थे पर भरे भरे।
अब भौतिक सुख लदे कहीं अन्दर पर डरे डरे।
पहले फक्कड़ थे शाहीपन था,व्यवहारों में,
आज ठहाके ओठों के अन्दर हैं,मरे मरे।
बिंधे वाण से तड़प रहे हैं निर्जन जंगल में।
रावण के बंधक हैं सम्मुख राम रसीले हैं।
वो भी था परिवेश कि रीते थे पर भरे भरे।
अब भौतिक सुख लदे कहीं अन्दर पर डरे डरे।
पहले फक्कड़ थे शाहीपन था,व्यवहारों में,
आज ठहाके ओठों के अन्दर हैं,मरे मरे।
तिलक भजन की होड़ लगी है कपटी चेहरों में,
डूब मरेंगे सब बहकर इस गंगा के जल में।
ये विभीत्स चेहरे जो लगते नीले पीले हैं।
डूब मरेंगे सब बहकर इस गंगा के जल में।
ये विभीत्स चेहरे जो लगते नीले पीले हैं।
जनमत शोध संस्थान पुराना दुमका,
केवटपाड़ा दुमका-814101 (झारखण्ड)
मो. न.ः 9431339804,
ई मेल - ashok.dumka@gmail.com
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