इस अंक के रचनाकार

इस अंक के रचनाकार आलेख खेती-किसानी ले जुड़े तिहार हरे हरेलीः ओमप्रकाश साहू ' अंकुर ' यादें फ्लैट सं. डी 101, सुविधा एन्क्लेव : डॉ. गोपाल कृष्ण शर्मा ' मृदुल' कहानी वह सहमी - सहमी सी : गीता दुबे अचिंत्य का हलुवा : राजेन्द्र प्रसाद काण्डपाल एक माँ की कहानी : हैंस क्रिश्चियन एंडर्सन अनुवाद - भद्रसैन पुरी कोहरा : कमलेश्वर व्‍यंग्‍य जियो और जीने दो : श्यामल बिहारी महतो लधुकथा सीताराम गुप्ता की लघुकथाएं लघुकथाएं - महेश कुमार केशरी प्रेरणा : अशोक मिश्र लाचार आँखें : जयन्ती अखिलेश चतुर्वेदी तीन कपड़े : जी सिंग बाल कहानी गलती का एहसासः प्रिया देवांगन' प्रियू' गीत गजल कविता आपकी यह हौसला ...(कविता) : योगेश समदर्शी आप ही को मुबारक सफर चाँद का (गजल) धर्मेन्द्र तिजोरी वाले 'आजाद' कभी - कभी सोचता हूं (कविता) : डॉ. सजीत कुमार सावन लेकर आना गीत (गीत) : बलविंदर बालम गुरदासपुर नवीन माथुर की गज़लें दुनिया खारे पानी में डूब जायेगी (कविता) : महेश कुमार केशरी बाटुर - बुता किसानी/छत्तीसगढ़ी रचना सुहावत हे, सुहावत हे, सुहावत हे(छत्तीसगढ़ी गीत) राजकुमार मसखरे लाल देवेन्द्र कुमार श्रीवास्तव की रचनाएं उसका झूला टमाटर के भाव बढ़न दे (कविता) : राजकुमार मसखरे राजनीति बनाम व्यापार (कविता) : राजकुमार मसखरे हवा का झोंका (कविता) धनीराम डड़सेना धनी रिश्ते नातों में ...(गजल ) बलविंदर नाटक एक आदिम रात्रि की महक : फणीश्वर नाथ रेणु की कहानी से एकांकी रूपान्तरणः सीताराम पटेल सीतेश .

रविवार, 21 फ़रवरी 2021

इंदुमति

किशोरी लाल गोस्वामी


          इंदुमती अपने बूढ़े पिता के साथ विंध्याचल के घने जंगल में रहती थी। जब से उसके पिता वहां पर कुटी बनाकर रहने लगे, तब से वह बराबर उन्हीं के साथ रही। न जंगल के बाहर निकली, न किसी दूसरे का मुंह देख सकी। उसकी अवस्था चार - पांच वर्ष की थी जब कि उसकी माता का परलोकवास हुआ और जब उसके पिता उसे लेकर वनवासी हुए। जब से वह समझने योग्य हुई तब से नाना प्रकार के बनैले पशु - पक्षियों,वृक्षावलियों और गंगा की धारा के अतिरिक्त यह नहीं जानती थी कि संसार व संसारी सुख क्या है और इसमें कैसे - कैसे विचित्र पदार्थ भरे पड़े हैं। फूलों को बीन - बीनकर माला बनाना, हरिणों के संग कलोल करना। दिन भर वन -  वन घूमना और पक्षियों का गाना सुनना। बस यही उसका काम था। वह यह भी नहीं जानती थी कि बूढ़े पिता के अतिरिक्त और भी कोई मनुष्य संसार में है...।
          एक दिन वह नदी में अपनी परछाई देखकर बड़ी मोहित हुई। पर जब उसने जाना कि यह मेरी परछाई है, तब बहुत लज्जित हुई। यहां तक कि उस दिन से फिर कभी उसने नदी में अपना मुख नहीं निहारा।
गरमी की ऋतु। दोपहर का समय। जब कि उसके पिता अपनी कुटी में बैठे हुए गीता की पुस्तक देख रहे थे। वह नदी किनारे पेड़ों की ठण्डी छाया में घूमती फूलों को तोड़ - तोड़ नदी में बहाती हुई कुछ दूर निकल गई थी कि एकाएक चौंककर खड़ी हुई। उसने एक ऐसी वस्तु देखी कि जिसका उसे स्वप्न में भी ध्यान न था और जिसके देखने से उसके आश्चर्य का कोई ठिकाना न रहा। उसने क्या देखा कि एक बहुत ही सुन्दर बीस बाईस वर्ष का युवक नदी के किनारे पेड़ की छाया में घास पर पड़ा सो रहा है। इन्दुमती ने आज तक अपनी बूढ़े पिता को छोड़ किसी दूसरे मनुष्य की सूरत तक नहीं देखी थी। वह अभी तक यही सोचे हुुए थी कि यदि संसार में और भी मनुष्य होंगे तो वे भी मेरे पिता की भांति ही होंगे और उनकी भी दाढ़ी मूंछें पकी हुई होंगी। उसने जब अच्छी तरह आंखें फाड़ - फाड़कर उस परम सुन्दर युवक को देखा तो अपने मन में निश्चय किया कि मनुष्य तो ऐसा होता नहीं, हो न हो यह कोई देवता होंगे क्योंकि मेरे पिता जब देवताओं की कहानी सुनाते हैं तो उनके ऐसे ही रूप रंग बतलाते हैं। यह सोचकर वह मन में कुछ डरी और कुछ दूर हट पेड़ की ओट में खड़ी हो टकटकी बांध उस युवक को देखने लगी। मारे डर के युवक के पास तक न गई और उसकी सुन्दरता से मोहित हो कुटी की ओर भी अपना पैर न बढ़ा सकी। यों ही घंटों बीत गए, पर इन्दुमती को न जान पड़ा कि मैं कितनी देर से खड़ी - खड़ी इसे निहार रही हूं। बहुत देर पीछे वह अपना जी कड़ा कर के वृक्ष की ओर से निकल युवक के आगे बढ़ी। दो ही चार डग चली होगी कि एकाएक युवक की नींद खुल गई और उसने अपने सामने एक परम सुन्दरी देवीमूर्ति को देखा। जिसके देखने से उसके आश्चर्य की सीमा न रही। वह मन ही मन सोचने लगा कि इस भयानक घनघोर जंगल में ऐसी मनमोहिनी परम सुन्दरी स्त्री कहां से आई। ऐसा रूप - रंग तो बड़े - बड़े राजाओं के निवास में भी दुर्लभ है, सो इस वन में कहां से आया? या तो मैं स्वप्न में स्वर्ग की सैर करता होऊंगा, या किसी देवकन्या या वनदेवी ने मुझे छलने के लिए दर्शन दिया होगा...। यही सब सोच- विचार करता हुआ वह भी पड़ा - पड़ा इन्दुमती की ओर निहारने लगा। दोनों की रह - रहकर आंखें चार हो जातीं, जिससे अचरज के अतिरिक्त और कोई भाव नहीं झलकता था। यों ही परस्पर देखाभाली होते - होते एकाएक इन्दुमती के मन में किसी अपूर्वभाव का उदय हो आया। जिससे वह इतनी लज्जित हुई कि उसकी आंखें नीची और मुख लाल हो गया। वह भागना चाहती थी कि चट युवक उठकर उसके सामने खड़ा हो गया और कहने लगा - हे सुन्दरी, तुम देवकन्या हो या वनदेवी हो? चाहे कोई हो, पर कृपाकर तुमने दर्शन दिया है तो जरा सी दया करो, ठहरो, मेरी बातें सुनो, घबराओ मत। यदि तुम मनुष्य की लड़की हो तो डरो मत। क्षत्री लोग स्ति्रयों की रक्षा करने के सिवाय बुराई नहीं करते। सुनो,यदि तुम सचमुच वनदेवी हो तो कृपाकर मुझे इस वन से निकलने का सीधा मार्ग बता दो। मैं विपत्ति का मारा तीन दिन से इस वन में भटक रहा हूं, पर निकलने का मार्ग नहीं पाता, और जो तुम मेरी ही भांति मनुष्य जाति की हो तो मैं तुम्हारा ’अतिथि’ हू। मुझे केवल आज भर के लिए टिकने की जगह दो ....।
          युवक की बातें सुनकर इन्दुमती ने मन में सोचा कि तो क्या ये देवता नहीं हैं? हम लोगों की ही भांति मनुष्य हैं ? हो सकता है, क्योंकि जो ये देवता होते तो ऐसी मीठी - मीठी बातें बनाकर अतिथि क्यों बनते? देवताओं को कमी किस बात की है, और वे क्या नहीं जानते जो हमसे वन का मार्ग पूछते? तो मनुष्य ही होंगे, पर क्या मनुष्य इतने सुन्दर होते और ऐसी मीठी बातें करते हैं? अहा! एक दिन मैं जल में अपनी सुन्दरता देखकर ऐसी मोहित हुई थी, किन्तु इनकी सुन्दरता के आगे तो मेरा रूप रंग निरा पानी है। इस तरह सोचते - विचारते उसने अपना सिर ऊंचा किया और देखा कि युवक अपनी बात का उत्तर पाने के लिए सामने एकटक लगाए खड़ा है। यह देख वह बहुत ही अधीनताई और मधुर स्वर से बोली कि मैं अपने बूढ़े पिता के साथ इसी घने जंगल के भीतर एक छोटी - सी कुटी में, जो एक सुहावनी पहाड़ी की चोटी पर बनी हुई है, रहती हूं। यदि तुम मेरे अतिथि होना चाहते हो तो मेरी कुटी पर चलो, जो कुछ मुझसे बनेगा, कन्दमूल, फलफूल और जल से तुम्हारी सेवा करूंगी। मेरे पिता भी तुम्हें देखकर बहुत प्रसन्न होंगे ... इतना कहकर वह युवक को अपने साथ ले पहाड़ी पगडंडी से होती हुई अपनी कुटी की ओर बढ़ी।
          उसने जो युवक से कहा था कि मेरे पिता भी तुम्हें देखकर बहुत प्रसन्न होंगे, सो केवल अपने स्वभाव के अनुसार ही कहा था, क्योंकि वह यही जानती थी कि ऐसी सुन्दर मूर्ति को देख मेरे पिता भी मेरी भांति आनन्दित होंगे। परन्तु कुटी के पास पहुंचते ही उसका सब सोचा - विचारा हवा हो गया। उसके सुख का सपना जाता रहा और वह जिस बात को ध्यान में भी नहीं ला सकती थी वही आगे आई, अर्थात् वह बूढ़ा अपनी लड़की को पराये पुरुष के साथ आती हुई देखकर मारे क्रोध के आग हो गया और अपनी कुटी से निकल युवक के आगे खड़ा हो यों कहने लगा - अरे दुष्ट! तू कौन है? क्या तुझे प्राणों का मोह नहीं है जो तू बेधड़क मेरी कन्या से बोला और मेरी कुटी पर चला आया? तू जानता नहीं कि जो मुनष्य मेरी आज्ञा के बिना इस वन में पैर रखता है उसका सिर काटा जाता है ?  अच्छा, ठहर, अब तुझे भी प्राणदंड दिया जायेगा .... इतना कह वह क्रोध से युवक की ओर घूरने लगा। बिचारी इन्दुमती की विचित्र दशा थी। उसने आज तक अपने पिता की ऐसी भयानक मूर्ति नहीं देखी थी। वह अपने पिता का ऐसा अनूठा क्रोध देख पहिले तो बहुत डरी, फिर अपने ही लिए एक युवा बटोही बिचारे का प्राण जाते देख जी कड़ा कर बूढ़े के पैरों पर गिर पड़ी और रो - रो गिड़गिड़ा - गिड़गिड़ाकर युवक के प्राण की भिक्षा मांगने लगी, और अपने पिता को अच्छी तरह समझा दिया कि इसमें युवक का कोई दोष नहीं है। उसे मैं ही कुटी पर ले आई हूं। यदि इसमें कोई अपराध हुआ हो तो उसका दंड मुझे मिलना चाहिए। कन्या की ऐसी अनोखी विनती सुनकर बुड्ढा कुछ ठण्डा हुआ और युवा की ओर देखकर बोला कि सुनो जी, इस अज्ञान लड़की की विनती से मैंने तुम्हारा प्राण छोड़ दिया, परन्तु तुम यहां से जाने न पाओगे। कैदी की तरह जन्म भर तुम्हें यहां रहकर हमारी गुलामी करनी पड़ेगी,और जो भागने का मन्सूबा बांधोगे तो तुरन्त मारे जाओगे ...इतना कहकर जोर से बूढ़े ने सीटी बजाई, जिसकी आवाज दूर - दूर तक वन में गूंजने लगी और देखते - देखते बीस - पच्चीस आदमी हट्टे - कट्टे यमदूत की सूरत, हाथ में ढाल तलवार लिए बुड्ढे के सामने आ खड़े हुए। उन्हें देखकर उसने कहा - सुनो वीरों, इस युवक को (अंगुली से दिखाकर ) आज से मैंने अपना बंधुआ बनाया है। तुम लोग इस पर ताक लगाये रखना। जिससे यह भागने न पावे और इसकी तलवार ले लो। बस जाओ ...। इतना सुनते ही ये सब के सब युवक से तलवार छीन सिर झुकाकर चले गए पर इस नए तमाशे को देख इन्दुमती के होश - हवास उड़ गए। जबसे उसने होश सम्हाला तब से आज तक बुड्ढे को छोड़ किसी दूसरे मनुष्य की सूरत तक नहीं देखी थी, पर आज एकाएक इतने आदमियों को अपने पिता के पास देख वह बहुत ही सकपकाई पर डर के मारे कुछ बोली नहीं। बूड्ढे ने युवक की ओर आंख उठाकर कहा कि देखो अब तुम मेरे बंधुवे हुए। अब से जो - जो मैं कहूंगा तुम्हें करना पड़ेगा। उनमें पहिला काम तुम्हें यह दिया जाता है कि तुम इस सूखे पेड़ को ( दिखलाकर) काट - काटकर लकड़ी को कुटी के भीतर रक्खो। ध्यान रक्खो, यदि जरा भी मेरी आज्ञा टाली तो समझ लेना कि तुम्हारे धड़ पर विधाता ने सिर बनाया ही नहीं, और अरी इन्दुमती! तू भी कान खोलकर सुन ले। इस युवक के साथ यदि किसी तरह की भी बातचीत करेगी तो तेरी भी वही देशा होगी ... इतना कहकर बुड्ढा कुटी के भीतर चला गया और फिर उसी गीता की पुस्तक को ले पढ़ने लगा।
बुड्ढे का विचित्र रंग - ढंग देखकर हमारे युवक के हृदय में कैसे - कैसे भावों की तरंगे उठी होंगी इसे हम लिखने में असमर्थ हैं, पर हां इतना तो उसने अवश्य निश्चय किया होगा कि यदि सचमुच यह सुन्दरी इस बुड्ढ़े की लड़की हो तो विधाता ने पत्थर से नवनीत पैदा किया है ...।
          निदान बिचारा युवक अपने भाग्य पर भरोसा रखकर कुल्हाड़ा हाथ में ले पेड़ काटने लगा और इन्दुमती पास ही खड़ी - खड़ी टकटकी लगाए उसे देखने लगी। दो - चार बार के टांगा चलाने से युवक के अंग - अंग से पसीने की बूंदें टपकने लगीं और वह इतने जोर से सांस लेने लगा जिससे जान पड़ता था कि यदि यों ही घंटे दो घंटे यह टांगा चलायेगा तो अपनी जान से हाथ धो बैठेगा। उसकी ऐसी दशा देखकर इन्दुमती ने उसके लिये फल और जल लाए आंखों में आंसू भरकर कहा - सुनो जी, ठहर जाओ, देखो यह फल और जल मैं लाई हूं। इसे खा लो, जरा ठण्डे हो लो, फिर काटना, छोड़ो मान जाओ ... यवुक ने उसकी प्रेमभरी बातों को सुनकर कहा - सुन्दरी, मैं सच कहता हूं कि तुम्हारा मुंह देखने से मुझे इस परिश्रम का कष्ट जरा भी नहीं व्यापता, यदि तुम योंही मेरे सामने खड़ी रहो तो मैं बिना अन्नजल किए सारे संसार के पेड़ काट कर रखू दूं,् और सुनो तो सही,अपने पिता की बातें याद करो, क्यों नाहक मेरे लिए अपने प्राण संकट में डालती हो? यदि वे सुन लेंगे तो क्या होगा? और मैं जो सुस्ताने लगूंगा तो लकड़ी कौन काटेगा? जब वे देखेंगे कि पेड़ नहीं कटा तो कैसे उपद्रव करेंगे। इसलिए हे सुशीले! मुझे मेरे भाग्य पर छोड़ दो ...।
          युवक की ऐसी करुणा भरी बातें सुनकर इन्दुमती की आंखों से आंसू बहने लगे। उसने बरजोरी युवक के हाथ से कुठार ले लिया और कहा - भाई! चाहे कुछ भी हो, पर जरा तो ठहर जाओ, मेरे कहने से मेरे लाये हुए फल खाकर जरा दम ले लो। तब तक तुम्हारे बदले मैं लकड़ी काटती हूं... युवक ने बहुत समझाया पर वह न मानी और अपने सुकुमार हाथों से कुठार उठाकर पेड़ पर मारने लगी। युवक ने जल्दी - जल्दी उसके बहुत कहने से कई एक फल खाकर दो घूंट जल पीया। इतने ही में हाथ में नंगी तलवार लिए बुड्ढा कुटी से निकल कड़क कर युवक से बोला - क्यों रे नीच! तेरी इतनी बड़ी सामर्थ्य कि आप तो बैठा - बैठा सुस्ता रहा है और मेरी लड़की से पेड़ कटवाता है? रह, अभी तेरा सिर काटता हूं ... फिर इन्दुमती की ओर घूमकर बोला - क्यों री ढीठ, तैने मेरे मना करने पर भी इस दुष्ट से बातचीत की! रह जा, तेरा भी वध करता हूं ...।
          बुड्ढे की बातें सुन युवक उसके पैरों पर गिर पड़ा और कहने लगा - महाशय, इस बिचारी का कोई अपराध नहीं है, इसे छोड़ दीजिए। जो कुछ दंड देना है वह मुझे दीजिए ...।
          इन्दुमती भी उसके पैर पर गिरकर कहने लगी - नहीं, नहीं, इसका कोई दोष नहीं है। मैंने बरजोरी इससे कुठार ले ली थी। इसलिए, हे पिता! अपराधिनी मैं हूं।  मुझे दंड दीजिए। इन्हें छोड़ दीजिए ...।
उन दोनों की बातें सुनकर बुड्ढे ने कहा - अच्छा आज तो मैं तुम दोनों को छोड़ देता हूं, पर देखो फिर मेरी बातों का ध्यान न रखोगे तो मारे जाओगे ... इतना कह, बूढ़ा कुटी में चला गया और वे दोनों एक - दूसरे का मुंह देखने लगे। इन्दुमती बोली कि घबराओ मत, मेरे रहते तुम्हारा बाल भी बांका न होगा...और युवक ने कहा - प्यारी, क्यों व्यर्थ मेरे लिए कष्ट सहती हो? जाओ कुटी में जाओ ... पर इन्दुमती उसके मुंह की ओर उदास हो देखने लगी और वह कुठार उठाकर पेड़ काटने लगा। इतने ही में फिर बाहर आकर बुड्ढ़ा बोला - ओ छोकरे! संध्या भई, अब रहने दे। पर देख, कल दिन भर में जो सारा पेड़ न काट डाला तो देखियो मैं क्या करता हूं, और सुनती है,री इन्दुमती! इसे कुटी में ले जाकर सड़े - गले फल खाने का और गदला पानी पीने को दे। परन्तु सावधान! मुख से एक अक्षर भी न निकलने पावे और सुन बे लड़के! खबरदार, जो इससे कुछ भी बातचीत की, तो जीता न छोड़ूंगा ... यह कहकर बूढ़ा पहाड़ी पगडंडी से गंगा तट की ओर उतरने लगा और उसके जाने पर इन्दुमती मुसका कर युवा का हाथ थाम्हे हुई कुटी के भीतर गई और वहां जाकर उसने पिता की आज्ञा को मेटकर सड़े - गले फल और गदले पानी के बदले अच्छे - अच्छे फल और सुन्दर साफ पानी युवक को दिया और युवक के बहुत आग्रह करने पर दोनों ने साथ फलाहार किया। फिर दोनों बुड्ढे के आने में देर समझ बाहर चांदनी में एक साथ ही चट्टान पर बैठ बातें करने लगे।
आधी रात जा चुकी थी। वन में चारों ओर भयानक बनैले जंतुओं के गरजने की ध्वनि फैल रही थी। चार आदमी हाथ में तलवार और बरछा लिए कुटी के चारों ओर पहरा दे रहे थे। कुटी से थोड़ी दूर पर एक ढलुआ चोटी पर दस बारह आदमी बातें कर रहे थे - चलिए पाठक! देखिए ये लोग क्या बातें करते हैं, अहा! यह देखिए! इन्दुमती का पिता एक चटाई पर बैठा है और सामने दस बारह आदमी हाथ बांधे जमीन पर बैठे हैं। थोड़ी देर सन्नाटा रहा, फिर बूढ़े ने कहा - सुनो भाइयो! इतने दिनों पीछे परमेश्वर ने हमारा मनोरथ पूरा किया। जो बात एक प्रकार से अनहोनी थी सो आप से आप हो गई। यह परमेश्वर ने ही किया। नहीं तो बिचारी इन्दुमती का बेड़ा पार कैसे लगता ...।
          देखो, जिस युवक की रखवाली के लिए आज तीसरे पहर मैंने तुम लोगों से कहा था। अजयगढ़ का राजकुमार, या यों कहा कि अब राजा है, इसका नाम चन्द्रशेखर है। इसके पिता राजशेखर को उसी बेईमान काफिर इब्राहिम लोदी ने दिल्ली में बुला, विश्वासघात कर मार डाला था। तब से यह लड़का इब्राहिम की घात में लगा था। अभी थोड़े दिन हुए जो बाबर से इब्राहिम की लड़ाई हुई है, इसमें चन्द्रशेखर ने भेस बदल और इब्राहिम की सेना में घुसकर उसे मार डाला। यह बात कहीं एक सेनापति ने देख ली और उसने चन्द्रशेखर का पीछा किया। निदान यह भागा और कई दिन पीछे उसे द्वन्द युद्ध में मार और अपने घोड़े को गवांए राह भूलकर अपने राज्य की ओर न जाकर इस ओर आया और कल मेरी कन्या का अतिथि बना। आज उसने यह सब ब्योरा जलपान करते - करते इन्दुमती से कहा है, जिसे मैंने आड़ में खड़े सब सुना। वे दोनों एक - दूसरे को जी से चाहने लगे हैं, तो इस बात के अतिरिक्त और क्या कहा जाय कि परमेश्वर ही ने इन्दुमती का जोड़ा भेज दिया है और साथ ही उस दयामय ने मेरी भी प्रतिज्ञा पूरी की। इतना सुनकर सभी ने जयध्वनि के साथ हर्ष प्रकट किया और बूढ़ा फिर कहने लगा - मेरी इन्दुमती सोलह वर्ष की हुई। अब उसे कुंआरी रखना किसी तरह उचित नहीं है और ऐसी अवस्था में जब कि मेरी प्रतिज्ञा भी पूरी हुई और इन्दुमती के योग्य सुपात्र वर भी मिला। उसने इन्दुमती से प्रतिज्ञा की है कि प्यारी, मैं तुम्हें प्राण से बढ़कर चाहूंगा और दूसरा विवाह भी न करूंगा, जिससे तुम्हें सौत की आग में न जलना पड़े। भाइयो! देखो स्त्री के लिए इससे बढ़कर और कौन बात सुख देने वाली है? मैंने जो चन्द्रशेखर को देखकर इतना क्रोध प्रकट किया था उसका आशय यही था कि यदि दोनों में सच्ची प्रीति का अंकुर जमेगा तो दोनों का ब्याह कर दूंगा, और जो ऐसा न हुआ तो युवक आप डर के मारे भाग जायेगा। परन्तु यहां तो परमेश्वर को इन्दुमती का भाग्य खोलना था और ऐसा ही हुआ। बस, कल ही मैं दोनों का ब्याह करके हिमालय चला जाऊंगा और तुम लोग वर कन्या को उनके घर पहुंचाकर अपने - अपने घर जाना। बारह वर्ष तक जो तुम लोगों ने तन - मन - धन से मेरी सेवकाई की। इसका ऋण सदा मेरे सिर पर रहेगा और जगदीश्वर इसके बदले में तुम लोगों के साथ भलाई करेगा ... इतना कहकर बुड्ढा उठ खड़ा हुआ और वे लोग भी उठे। बुड्ढा कुटी की ओर घूमा और वे लोग पहाड़ी के नीचे उतर गए।
अहा! प्रेम!! तू धन्य है!!! जिस इन्दुमती ने आज तक देवता की भांति अपने पिता की सेवा की, और भूल कर भी कभी आज्ञा न टाली। आज वह प्रेम के फंदे में फंसकर उसका उलटा बर्ताव करती है। वृद्ध ने लौटकर क्या देखा कि दोनों कुटी के पिछवाड़े चांदनी में बैठे कर रहे हैं। यह देखकर वह प्रसन्न हुआ और कुटी में जाकर सो रहा। पर हमारे दोनों नये प्रेमियों ने बातों ही में रात बिता दी। सबेरा होते ही युवक कुठार से लकड़ी काटने लगा और इन्दुमती सारा काम छोड़कर खड़ी- खड़ी उसके मुख की ओर देखने लगी। थोड़ी ही देर में युवक के सारे शरीर से पसीना टपकने लगा और चेहरा लाल हो आया। इतने में वृद्ध ने आकर गरजकर कहा - ओ लड़के! बस, पेड़ पीछे काटियो, पहिले जो लकड़ियां कटी हैं, उन्हें उठाकर कुटी के पिछवाड़े ढेर लगा दे ... इतना कहकर बुड्ढा चला गया और युवक लकड़ी उठा - उठाकर कुटी के पिछवाड़े ढेर लगाने लगा। उसका इतना परिश्रम इन्दुमती से न देखा गया और बड़े प्रेम से उसका हाथ थामकर बोली -  प्यारे ठहरो, बस करो, बाकी लकड़ियां मैं रख आती हूं। हाय, तुम्हारा परिश्रम देखकर मेरी छाती फटी जाती है। प्यारे, तुम राजकुमार होकर आज लकड़ी काटते हो? ठहरो, तुम सुस्ता लो।
युवक ने मुस्करा कर कहा - प्यारी, सावधान, ऐसा भूलकर भी न करना। अपने पिता का क्रोध याद करो। अबकी उन्होंने तुम्हें लकड़ी उठाते या हमसे बोलते देख लिया तो सर्वनाश हो जायेगा ...।
          इतना सुनकर इन्दुमती की आंखों में आंसू भर आए। वह बोली - प्यारे, मेरे पिता का तो बहुत अच्छा स्वभाव था सो तुम्हें देखते ही एकदम से ऐसा बदल क्यों गया? वह तो ऐसे नहीं थे, अब उन्हें क्या हो गया? आज तक मैंने उन्हें कभी क्रोध करते नहीं देखा था। खैर, जो होय, पर जरा तुम ठहरो, दम ले लो, तब तक मैं इन लकड़ियों को फेंक देती हूं ...।
          युवक ने कहा - प्यारी,क्या राक्षस हूं कि अपनी आंखों के सामने तुम्हें लकड़ी ढोने दूंगा? हटो, ऐसा नहीं होगा। सच जानो तुम्हें देखने से मुझे कुछ भी कष्ट नहीं जान पड़ता ...।
इन्दुमती ने उदास होकर कहा - हाय प्यारे, तुम्हारा दुख देखकर मेरे हृदय में ऐसी वेदना होती है कि क्या कहूं, जो तुम इसे जानते तो ऐसा न कहते ...।
          पीछे लता - मंडप में खड़े - खड़े वृद्ध ने दोनों की बातें सुनकर बड़ा सुख माना पर अंतिम परीक्षा करने के अभिप्राय में नंगी तलवार ले सामने आए गरजकर कहा - इनदुमती, कल से आज तक तैने मेरी सब बातों का उलट बर्ताव किया। फल और जल की बात याद कर और तू फिर इससे बात करती है? देख अब तेरा सिर काटता हूं। यह कहकर ज्यों ही वह इन्दुमती की ओर बढ़ा कि चट युवक उसके पांव पकड़कर कहने लगा - आप अपने क्रोध को दूर करने के लिए मुझे मारिए, सब दोष मेरा है, मैं दण्ड के योग्य हूं, यह सब तरह निरपराधिनी है। मेरा सिर आपके पैरों पर है, काट लीजिए, पर मेरे सामने एक निरपराध लड़की के प्राण न लीजिए ...।
          वृद्ध ज्यों ही अपनी तलवार युवक की गर्दन पर रखना चाहता था कि इन्दुमती पागल की तरह उसके चरणों पर गिर बिलख - बिलखकर रोने और कहने लगी - पिता, पिता! जो मारना ही है तो पहले मेरा सिर काट लो तो फिर पीछे जो जी में आवे सो करना...। इतना सुन बुड्ढे ने तलवार दूर फेंक दी और दोनों को उठा गले लगाकर कहा - बेटी इन्दुमती!धीरज धर, और प्रिय वत्स! चन्द्रशेखर! खेद दूर करो। मैंने केवल तुम दोनों के प्रेम की परीक्षा लेने के लिए सब प्रकार क्रोध का भाव दिखाया था। यदि तुम दोनों का सच्चा प्रेम न होता तो क्यों एक - दूसरे के लिए जान पर खेलकर क्षमा चाहते। और सुनो, मैंने छिपकर तुम्हारी सब बातें सुनी हैं। तुमसे बढ़कर संसार में दूसरा कौन राजकुमार है जो इन्दुमती के वर बनने योग्य होगा। सुनो, देवगढ़ मेरे पुरुषाओं की राजधानी थी जबकि इन्दुमती चार वर्ष की थी। पापी इब्राहिम ने मेरे नगर को घेर यह कहलाया कि या तो अपनी स्त्री (इन्दुमती की मां ) को भेज दो या जंग करो। यह सुनकर मेरी आंखों में खून उतर आया और उसके दूत को मैंने निकलवा दिया। फिर क्या पूछना था? सारा नगर यवन हत्याओं के हाथ से श्मशान हो गया। मेरी स्त्री ने आत्महत्या की और मैं उस यवन कुल कलंक से बदला लेने की इच्छा से चार वर्ष की अबोध लड़की को ले इस जंगल में आकर रहने लगा। मेरे कृतज्ञ सरदारों में से पचास आदमियों ने सर्वस्व त्याग कर मेरा साथ दिया और आज तक मेरे साथ हैं। उन्हीं लोगों में से कई आदमियों को तुमने कल देखा था। बेटा चन्द्रशेखर! बरह वर्ष हो गये पर ऐसी सावधानी से मैंने इस लड़की का लालन - पालन किया और इसे पढ़ाया - लिखाया कि जिसका सुख तुम्हें आप आगे चलकर इसकी सुशीलता से जान पड़ेगा और देखो, मैंने इसे ऐसे पहरे में रखा कि कल के सिवा और कभी इसने मुझे छोड़कर किसी दूसरे मनुष्य की सूरत न देखी। मैंने राजस्थान के सब राजाओं से सहायता मांगी और यह कहलाया कि जो कोई दुष्ट इब्राहिम का सिर काट लावेगा उसे अपनी लड़की ब्याह दूंगा, पर हां! किसी ने मेरी बात न सुनी और सभी मुझे पागल समझ कर हंसने लगे। अन्त में मैंने दुखी होकर प्रतिज्ञा की कि जो कोई इब्राहिम को मारेगा उसी से इन्दुमती ब्याही जायेगी, नहीं तो यह जन्म भर कुंआरी ही रहेगी, सो परमेश्वर ने तुम्हारे हृदय में बैठकर मेरी प्रतिज्ञा पूरी की। अब इन्दुमती तुम्हारी हुई और आज मैं बड़े भारी बोझ को उतार कर आजन्म के लिये हल्का हो गया ...।
          इतना कह बुड्ढे ने सीटी बजाई और देखते - देखते पचास जवान हथियारों से सजे घोड़ों पर सवार आ खड़े हुए। उनके साथ एक सजा हुआ घोड़ा चन्द्रशेखर के लिये और एक सुन्दर पालकी इन्दुमती के लिए थी। उसी समय बुड्ढे ने दोनों का विवाह कर उन वीरों के साथ विदा किया और आप हिमालय की ओर चला गया।
         अहा! जो इन्दुमती इतने दिनों तक वन विहंगिनी थी, वह आज घर के पिंजरे में बंद होने चली। परमेश्वर की महिमा का कौन पार पा सकता है।

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