इस अंक के रचनाकार

इस अंक के रचनाकार आलेख खेती-किसानी ले जुड़े तिहार हरे हरेलीः ओमप्रकाश साहू ' अंकुर ' यादें फ्लैट सं. डी 101, सुविधा एन्क्लेव : डॉ. गोपाल कृष्ण शर्मा ' मृदुल' कहानी वह सहमी - सहमी सी : गीता दुबे अचिंत्य का हलुवा : राजेन्द्र प्रसाद काण्डपाल एक माँ की कहानी : हैंस क्रिश्चियन एंडर्सन अनुवाद - भद्रसैन पुरी कोहरा : कमलेश्वर व्‍यंग्‍य जियो और जीने दो : श्यामल बिहारी महतो लधुकथा सीताराम गुप्ता की लघुकथाएं लघुकथाएं - महेश कुमार केशरी प्रेरणा : अशोक मिश्र लाचार आँखें : जयन्ती अखिलेश चतुर्वेदी तीन कपड़े : जी सिंग बाल कहानी गलती का एहसासः प्रिया देवांगन' प्रियू' गीत गजल कविता आपकी यह हौसला ...(कविता) : योगेश समदर्शी आप ही को मुबारक सफर चाँद का (गजल) धर्मेन्द्र तिजोरी वाले 'आजाद' कभी - कभी सोचता हूं (कविता) : डॉ. सजीत कुमार सावन लेकर आना गीत (गीत) : बलविंदर बालम गुरदासपुर नवीन माथुर की गज़लें दुनिया खारे पानी में डूब जायेगी (कविता) : महेश कुमार केशरी बाटुर - बुता किसानी/छत्तीसगढ़ी रचना सुहावत हे, सुहावत हे, सुहावत हे(छत्तीसगढ़ी गीत) राजकुमार मसखरे लाल देवेन्द्र कुमार श्रीवास्तव की रचनाएं उसका झूला टमाटर के भाव बढ़न दे (कविता) : राजकुमार मसखरे राजनीति बनाम व्यापार (कविता) : राजकुमार मसखरे हवा का झोंका (कविता) धनीराम डड़सेना धनी रिश्ते नातों में ...(गजल ) बलविंदर नाटक एक आदिम रात्रि की महक : फणीश्वर नाथ रेणु की कहानी से एकांकी रूपान्तरणः सीताराम पटेल सीतेश .

सोमवार, 23 नवंबर 2020

गोदान ( उपन्‍यास )

मुं शी प्रेमचंद


1.
होरीराम ने दोनों बैलों को सानी - पानी देकर अपनी स्त्री धनिया से कहा - गोबर को ऊख गोड़ने भेज देना। मैं न जाने कब लौटूँ। ज़रा मेरी लाठी दे दे।
धनिया के दोनों हाथ गोबर से भरे थे। उपले पाथकर आयी थी। बोली - अरे, कुछ रस - पानी तो कर लो। ऐसी जल्दी क्या है।
होरी ने अपने झुरिर्यों से भरे हुए माथे को सिकोड़कर कहा - तुझे रस - पानी की पड़ी है। मुझे यह चिन्ता है कि अबेर हो गयी तो मालिक से भेंट न होगी। असनान - पूजा करने लगेंगे, तो घंटों बैठे बीत जायगा।
- इसी से तो कहती हूँ, कुछ जलपान कर लो। और आज न जाओगे तो कौन हरज़ होगा। अभी तो परसों गये थे।
- तू जो बात नहीं समझती, उसमें टाँग क्यों अड़ाती है भाई! मेरी लाठी दे दे और अपना काम देख। यह इसी मिलते - जुलते रहने का परसाद है कि अब तक जान बची हुई है। नहीं, कहीं पता न लगता कि किधर गये। गाँव में इतने आदमी तो हैं, किस पर बेदख़ली नहीं आयी। किस पर कुड़की नहीं आयी। जब दूसरे के पाँवों - तले अपनी गर्दन दबी हुई है, तो उन पाँवों को सहलाने में ही कुशल है। 
धनिया इतनी व्यवहार - कुशल न थी। उसका विचार था कि हमने ज़मींदार के खेत जोते हैं,तो वह अपना लगान ही तो लेगा। उसकी ख़ुशामद क्यों करें। उसके तलवे क्यों सहलायें। यद्यपि अपने विवाहित जीवन के इन बीस बरसों में उसे अच्छी तरह अनुभव हो गया था कि चाहे कितनी ही कतर - ब्योंत करो। कितना ही पेट - तन काटो। चाहे एक - एक कौड़ी को दाँत से पकड़ो। मगर लगान बेबाक होना मुश्किल है। फिर भी वह हार न मानती थी और इस विषय पर स्त्री - पुरुष में आये दिन संग्राम छिड़ा रहता था। उसकी छः सन्तानों में अब केवल तीन ज़िन्दा हैं। एक लड़का गोबर कोई सोलह साल का और दो लड़कियाँ सोना और रूपा, बारह और आठ साल की। तीन लड़के बचपन ही में मर गये। उसका मन आज भी कहता था-  अगर उनकी दवादारू होती तो वे बच जाते, पर वह एक धेले की दवा भी न मँगवा सकी थी। उसकी ही उम्र अभी क्या थी। छत्तीसवाँ ही साल तो था पर सारे बाल पक गये थे। चेहरे पर झुर्रियाँ पड़ गयी थीं। सारी देह ढल गयी थी। वह सुन्दर गेहुआँ रंग सँावला गया था और आँखों से भी कम सूझने लगा था। पेट की चिन्ता ही के कारण तो। कभी तो जीवन का सुख न मिला। इस चिरस्थायी जीनार्वस्था ने उसके आत्म - सम्मान को उदासीनता का रूप दे दिया था। जिस गृहस्थी में पेट की रोटियाँ भी न मिलें, उसके लिए इतनी ख़ुशामद क्यों ? इस परिस्थिति से उसका मन बराबर विद्रोह किया करता था। और दो चार घुड़कियाँ खा लेने पर ही उसे यथार्थ का ज्ञान होता था।
उसने परास्त होकर होरी की लाठी, मिरजई, जूते, पगड़ी और तमाखू का बटुआ लाकर सामने पटक दिये।
होरी ने उसकी ओर आँखें तरेर कर कहा -  क्या ससुराल जाना है जो पाँचों पोसाक लायी है ? ससुराल में भी तो कोई जवान साली - सलहज नहीं बैठी है, जिसे जाकर दिखाऊँ।
होरी के गहरे साँवले, पिचके हुए चेहरे पर मुस्कराहट की मृदुता झलक पड़ी। धनिया ने लजाते हुए कहा - ऐसे ही तो बड़े सजीले जवान हो कि साली - सलहजें तुम्हें देख कर रीझ जायेंगी!
होरी ने फटी हुई मिरजई को बड़ी सावधानी से तह करके खाट पर रखते हुए कहा - तो क्या तू समझती है। मैं बूढ़ा हो गया। अभी तो चालीस भी नहीं हुए। मर्द साठे पर पाठे होते हैं।
- जाकर सीसे में मुँह देखो। तुम - जैसे मर्द साठे पर पाठे नहीं होते। दूध - घी अंजन लगाने तक को तो मिलता नहीं, पाठे होंगे! तुम्हारी दशा देख - देखकर तो मैं और भी सूखी जाती हूँ कि भगवान यह बुढ़ापा कैसे कटेगा? किसके द्वार पर भीख माँगेंगे ?
होरी की वह क्षणिक मृदुता यथार्थ की इस आँच में जैसे झुलस गयी। लकड़ी सँभालता हुआ बोला - साठे तक पहुँचने की नौबत न आने पायेगी धनिया! इसके पहले ही चल देंगे।
धनिया ने तिरस्कार किया - अच्छा रहने दो, मत अशुभ मुँह से निकालो। तुमसे कोई अच्छी बात भी कहे, तो लगते हो कोसने।
होरी लाठी कन्धे पर रखकर घर से निकला, तो धनिया द्वार पर खड़ी उसे देर तक देखती रही। उसके इन निराशा - भरे शब्दों ने धनिया के चोट खाये हुए हृदय में आतंकमय कम्पन - सा डाल दिया था। वह जैसे अपने नारीत्व के सम्पूर्नतप और व्रत से अपने पति को अभय - दान दे रही थी। उसके अन्तःकरण से जैसे आशीर्वादों का व्यूह - सा निकल कर होरी को अपने अन्दर छिपाये लेता था। विपन्नता के इस अथाह सागर में सोहाग ही वह तृण था, जिसे पकड़े हुए वह सागर को पार कर रही थी। इन असंगत शब्दों ने यथार्थ के निकट होने पर भी मानो झटका देकर उसके हाथ से वह तिनके का सहारा छीन लेना चाहा बल्कि यथार्थ के निकट होने के कारण ही उनमें इतनी वेदना - शक्ति आ गयी थी। काना कहने से काने को जो दुःख होता है, वह क्या दो आँखोंवाले आदमी को हो सकता है ?
होरी कदम बढ़ाये चला जाता था। पगडंडी के दोनों ओर ऊख के पौधों की लहराती हुई हरियाली देख कर उसने मन में कहा - भगवान कहीं गौं से बरखा कर दें और डाँड़ी भी सुभीते से रहे तो एक गाय ज़रूर लेगा। देशी गायें तो न दूध दें न उनके बछवे ही किसी काम के हों। बहुत हुआ तो तेली के कोल्हू में चले। नहीं, वह पछाईं गाय लेगा। उसकी ख़ूब सेवा करेगा। कुछ नहीं तो चार - पाँच सेर दूध होगा। गोबर दूध के लिए तरस - तरस कर रह जाता है। इस उमर में न खाया- पिया तो फिर कब खायेगा। साल - भर भी दूध पी ले। तो देखने लायक हो जाय। बछवे भी अच्छे बैल निकलेंगे। दो सौ से कम की गोंई न होगी। फिर गऊ से ही तो द्वार की शोभा है। सबेरे - सबेरे गऊ के दर्शन हो जाये तो क्या कहना। न जाने कब यह साध पूरी होगी। कब वह शुभ दिन आयेगा!
हर एक गृहस्थ की भाँति होरी के मन में भी गऊ की लालसा चिरकाल से संचित चली आती थी। यही उसके जीवन का सबसे बड़ा स्वप्न सबसे बड़ी साध थी। बैंक सूद से चैन करने या ज़मीन ख़रीदने या महल बनवाने की विशाल आकांक्षाएँ उसके नन्हें -से हृदय में कैसे समातीं।
जेठ का सूर्य आमों के झुरमुट में से निकलकर आकाश पर छायी हुई लालिमा को अपने रजत - प्रताप से तेज प्रदान करता हुआ ऊपर चढ़ रहा था और हवा में गर्मी आने लगी थी। दोनों ओर खेतों में काम करने वाले किसान उसे देखकर राम - राम करते और सम्मान - भाव से चिलम पीने का निमन्त्रण देते थे पर होरी को इतना अवकाश कहाँ था। उसके अन्दर बैठी हुई सम्मान - लालसा ऐसा आदर पाकर उसके सूखे मुख पर गर्व की झलक पैदा कर रही थी। मालिकों से मिलते - जुलते रहने ही का तो यह प्रसाद है कि सब उसका आदर करते हैं। नहीं उसे कौन पूछता? पाँच बीघे के किसान की बिसात ही क्या? यह कम आदर नहीं है कि तीन - तीन, चार - चार हलवाले महतो भी उसके सामने सिर झुकाते हैं।
अब वह खेतों के बीच की पगडंडी छोड़कर एक खलेटी में आ गया था, जहाँ बरसात में पानी भर जाने के कारण तरी रहती थी और जेठ में कुछ हरियाली नज़र आती थी। आस - पास के गाँवों की गउएँ यहाँ चरने आया करती थीं। उस समय में भी यहाँ की हवा में कुछ ताज़गी और ठंडक थी। होरी ने दो - तीन साँसें ज़ोर से लीं। उसके जी में आया - कुछ देर यहीं बैठ जाय। दिन - भर तो लू - लपट में मरना है ही। कई किसान इस गड्ढे का पट्टा लिखाने को तैयार थे। अच्छी रकम देते थे, पर ईश्वर भला करे राय साहब का कि उन्होंने साफ कह दिया - यह ज़मीन जानवरों की चराई के लिए छोड़ दी गयी है और किसी दाम पर भी न उठायी जायगी। कोई स्वार्थी ज़मींदार होता तो कहता - गायें जाए भाड़ में, हमें रुपए मिलते हैं। क्यों छोड़ें। पर राय साहब अभी तक पुरानी मर्यादा निभाते आते हैं। जो मालिक प्रजा को न पाले, वह भी कोई आदमी है ?
सहसा उसने देखा - भोला अपनी गायें लिये इसी तरफ चला आ रहा है। भोला इसी गाँव से मिले हुए पुरवे का ग्वाला था और दूध - मक्खन का व्यवसाय करता था। अच्छा दाम मिल जाने पर कभी - कभी किसानों के हाथ गायें बेच भी देता था। होरी का मन उन गायों को देख कर ललचा गया। अगर भोला वह आगे वाली गाय उसे दे तो क्या कहना! रुपए आगे पीछे देता रहेगा। वह जानता था घर में रुपए नहीं हैं, अभी तक लगान नहीं चुकाया जा सका। बिसेसर साह का देना भी बाकी है। जिस पर आने रुपए का सूद चढ़ रहा है, लेकिन दरिद्रता में जो एक प्रकार की अदूरदर्शिता होती है। वह निर्लज्जता जो तकाजे, गाली और मार से भी भयभीत नहीं होतीए उसने उसे प्रोत्साहित किया। बरसों से जो साध मन को आन्दोलित कर रही थी। उसने उसे विचलित कर दिया। भोला के समीप जाकर बोला - राम - राम भोला भाई, कहो क्या रंग - ढंग है। सुना अबकी मेले से नयी गायें लाये हो।
भोला ने रूखाई से जवाब दिया। होरी के मन की बात उसने ताड़ ली थी - हाँ, दो बछियें और दो गायें लाया। पहलेवाली गायें सब सूख गयी थीं। बँधी पर दूध न पहुँचे तो गुज़र कैसे हो। होरी ने आनेवाली गाय के पुट्ठे पर हाथ रखकर कहा -दुधार तो मालूम होती है। कितने में ली?
भोला ने शान जमायी - अबकी बाज़ार बड़ा तेज़ रहा महतो, इसके अस्सी रुपए देने पड़े। आँखें निकल गयीं। तीस - तीस रुपए तो दोनों कलोरों के दिये। तिस पर गाहक रुपए का आठ सेर दूध माँगता है।
- बड़ा भारी कलेजा है तुम लोगों का भाई, लेकिन फिर लाये भी तो वह माल कि यहाँ दस - पाँच गाँवों में तो किसी के पास निकलेगी नहीं।
भोला पर नशा चढ़ने लगा। बोला - राय साहब इसके सौ रुपए देते थे। दोनों कलोरों के पचास - पचास रुपए,लेकिन हमने न दिये। भगवान् ने चाहा, तो सौ रुपए इसी ब्यान में पीट लूँगा।
- इसमें क्या सन्देह है भाई! मालिक क्या खाके लेंगे। नज़राने में मिल जाय तो भले ले लें। यह तुम्हीं लोगों का गुर्दा है कि अँजुली - भर रुपए तकदीर के भरोसे गिन देते हो। यही जी चाहता है कि इसके दरसन करता रहूँ। धन्य है तुम्हारा जीवन कि गउओं की इतनी सेवा करते हो। हमें तो गाय का गोबर भी मयस्सर नहीं। गिरस्त के घर में एक गाय भी न हो तो कितनी लज्जा की बात है। साल - के - साल बीत जाते हैं, गोरस के दरसन नहीं होते। घरवाली बार - बार कहती है, भोला भैया से क्यों नहीं कहते। मैं कह देता हूँ, कभी मिलेंगे तो कहूँगा। तुम्हारे सुभाव से बड़ी परसन रहती है। कहती है, ऐसा मर्द ही नहीं देखा कि जब बातें करेंगे, नीची आँखें करके। कभी सिर नहीं उठाते।
भोला पर जो नशा चढ़ रहा था, उसे इस भरपूर प्याले ने और गहरा कर दिया। बोला - भला आदमी वही है, जो दूसरों की बहू - बेटी को अपनी बहू - बेटी समझे। जो दुष्ट किसी मेहरिया की ओर ताके, उसे गोली मार देना चाहिए।
- यह तुमने लाख रुपये की बात कह दी भाई। बस सज्जन वही, जो दूसरों की आबरू को अपनी आबरू समझे।
जिस तरह मर्द के मर जाने से औरत अनाथ हो जाती है, उसी तरह औरत के मर जाने से मर्द के हाथ - पाँव टूट जाते हैं। मेरा तो घर उजड़ गया महतो, कोई एक लोटा पानी देनेवाला भी नहीं।
गत वर्ष भोला की स्त्री लू लग जाने से मर गयी थी। यह होरी जानता था, लेकिन पचास बरस का खंखड़ भोला भीतर से इतना स्निग्ध है, वह न जानता था। स्त्री की लालसा उसकी आँखों में सजल हो गयी थी। होरी को आसन मिल गया। उसकी व्यावहारिक  कृषक - बुद्धि सजग हो गयी।
- पुरानी मसल झूठी थोड़ी है। बिन घरनी घर भूत का डेरा। कहीं सगाई नहीं ठीक कर लेते।
- ताक में हूँ महतो, पर कोई जल्दी फँसता नहीं। सौ - पचास ख़रच करने को भी तैयार हूँ। जैसी भगवान् की इच्छा।
- अब मैं भी फिक्र में रहूँगा। भगवान चाहेंगे, तो जल्दी घर बस जायगा।
- बस यही समझ लो कि उबर जाऊँगा भैया! घर में खाने को भगवान का दिया बहुत है। चार पसेरी रोज़ दूध हो जाता है, लेकिन किस काम का। 
- मेरे ससुराल में एक मेहरिया है। तीन - चार साल हुए, उसका आदमी उसे छोड़ - कर कलकत्ते चला गया। बेचारी पिसाई करके गुज़र कर रही है। बाल - बच्चा भी कोई नहीं। देखने - सुनने में अच्छी है। बस, लच्छमी समझ लो।
भोला का सिकुड़ा हुआ चेहरा जैसे चिकना गया। आशा में कितनी सुधा है। बोला - अब तो तुम्हारा ही आसरा है महतो! छुट्टी हो, तो चलो एक दिन देख आयें।
- मैं ठीक - ठाक करके तब तुमसे कहूँगा। बहुत उतावली करने से भी काम बिगड़ जाता है।
- जब तुम्हारी इच्छा हो तब चलो। उतावली काहे की। इस कबरी पर मन ललचाया हो तो ले लो।
- यह गाय मेरे मान की नहीं है दादा। मैं तुम्हें नुकसान नहीं पहुँचाना चाहता। अपना धरम यह नहीं है कि मित्रों का गला दबायें। जैसे इतने दिन बीते हैं, वैसे और भी बीत जायेंगे।
- तुम तो ऐसी बातें करते हो होरी, जैसे हम - तुम दो हैं। तुम गाय ले जाओ, दाम जो चाहे देना। जैसे मेरे घर रही, वैसे तुम्हारे घर रही। अस्सी रुपए में ली थी। तुम अस्सी रुपये ही दे देना। जाओ।
- लेकिन मेरे पास नगद नहीं है दादा, समझ लो। 
- तो तुमसे नगद माँगता कौन है भाई!
होरी की छाती गज़ भर की हो गयी। अस्सी रुपए में गाय मँहगी न थी। ऐसा अच्छा डील - डौल, दोनों जून में छः.सात सेर दूध,सीधी ऐसी कि बच्चा भी दुह ले। इसका तो एक - एक बाछा सौ - सौ का होगा। द्वार पर बँधेगी तो द्वार की शोभा बढ़ जायगी। उसे अभी कोई चार सौ रुपए देने थे, लेकिन उधार को वह एक तरह से मुफ़्त समझता था। कहीं भोला की सगाई ठीक हो गयी तो साल दो साल तो वह बोलेगा भी नहीं। सगाई न भी हुई, तो होरी का क्या बिगड़ता है। यही तो होगा,भोला बार - बार तगादा करने आयेगा। बिगड़ेगा, गालियाँ देगा। लेकिन होरी को इसकी ज़्यादा शर्म न थी। इस व्यवहार का वह आदी था। कृषक के जीवन का तो यह प्रसाद है। भोला के साथ वह छल कर रहा था और यह व्यापार उसकी मयार्दा के अनुकूल था। अब भी लेन - देन में उसके लिए लिखा - पढ़ी होने और न होने में कोई अन्तर न था। सूखे - बूड़े की विपदाएँ उसके मन को भी बनाये रहती थीं। ईश्वर का रौद्र रूप सदैव उसके सामने रहता था। पर यह छल उसकी नीति में छल न था। यह केवल स्वार्थ - सिद्धि थी और यह कोई बुरी बात न थी। इस तरह का छल तो वह दिन - रात करता रहता था। घर में दो - चार रुपये पड़े रहने पर भी महाजन के सामने कस्में खा जाता था कि एक पाई भी नहीं है। सन को कुछ गीला कर देना और रुई में कुछ बिनौले भर देना उसकी नीति में जायज था। और यहाँ तो केवल स्वार्थ न था। थोड़ा - सा मनोरंजन भी था। बुड्ढों का बुढ़भस हास्यास्पद वस्तु है और ऐसे बुड्ढों से अगर कुछ ऐंठ भी लिया जाय तो कोई दोष - पाप नहीं।
भोला ने गाय की पगहिया होरी के हाथ में देते हुए कहा - ले जाओ महतो, तुम भी याद करोगे। ब्याते ही छः सेर दूध ले लेना। चलो, मैं तुम्हारे घर तक पहुँचा दूँ। साइत तुम्हें अनजान समझकर रास्तों में कुछ दिक करे। अब तुमसे सच कहता हूँ, मालिक नब्बे रुपए देते थे, पर उनके यहाँ गउओं की क्या कदर। मुझसे लेकर किसी हाकिम - हुक्काम को दे देते। हाकिमों को गऊ की सेवा से मतलब। वह तो ख़ून चूसना - भर जानते हैं। जब तक दूध देती, रखते, फिर किसी के हाथ बेच देते। किसके पल्ले पड़ती कौन जाने। रुपया ही सब कुछ नहीं है भैया, कुछ अपना धरम भी तो है। तुम्हारे घर आराम से रहेगी तो। यह न होगा कि तुम आप खाकर सो रहो और गऊ भूखी खड़ी रहे। उसकी सेवा करोगे, चुमकारोगे। गऊ हमें आसिरवाद देगी। तुमसे क्या कहूँ भैया, घर में चंगुल भर भी भूसा नहीं रहा। रुपए सब बाज़ार में निकल गये। सोचा था महाजन से कुछ लेकर भूसा ले लेंगे। लेकिन महाजन का पहला ही नहीं चुका। उसने इनकार कर दिया। इतने जानवरों को क्या खिलावें। यही चिन्ता मारे डालती है। चुटकी - चुटकी भर खिलाऊँ तो मन - भर रोज़ का ख़रच है। भगवान ही पार लगायें तो लगे।
होरी ने सहानुभूति के स्वर में कहा - तुमने हमसे पहले क्यों नहीं कहा? हमने एक गाड़ी भूसा बेच दिया।
भोला ने माथा ठोककर कहा - इसीलिए नहीं कहा भैया कि सबसे अपना दुःख क्यों रोऊँ। बाँटता कोई नहीं, हँसते सब हैं। जो गायें सूख गयी हैं उनका ग़म नहीं। पत्तीसत्ती खिलाकर जीला लूँगा। लेकिन अब यह तो रातिब बिना नहीं रह सकती। हो सके, तो दस - बीस रुपये भूसे के लिए दे दो।
किसान पक्का स्वार्थी होता है। इसमें सन्देह नहीं। उसकी गाँठ से रिश्वत के पैसे बड़ी मुश्किल से निकलते हैं। भाव - ताव में भी वह चौकस होता है। ब्याज की एक - एक पाई छुड़ाने के लिए वह महाजन की घंटों चिरौरी करता है। जब तक पक्का विश्वास न हो जाय, वह किसी के फुसलाने में नहीं आता, लेकिन उसका सम्पूर्ण जीवन प्रकृति से स्थायी सहयोग है। वृक्षों में फल लगते हैं। उन्हें जनता खाती है। खेती में अनाज होता है। वह संसार के काम आता है। गाय के थन में दूध होता है। वह ख़ुद पीने नहीं जाती दूसरे ही पीते हैं। मेघों से वर्षा होती है। उससे पृथ्वी तृप्त होती है। ऐसी संगति में कुत्सित स्वार्थ के लिए कहाँ स्थान। होरी किसान था और किसी के जलते हुए घर में हाथ सेंकना उसने सीखा ही न था।
भोला की संकट.कथा सुनते ही उसकी मनोवृत्ति बदल गयी। पगहिया को भोला के हाथ में लौटाता हुआ बोला - रुपए तो दादा मेरे पास नहीं हैं, हाँ थोड़ा - सा भूसा बचा है, वह तुम्हें दूँगा। चलकर उठवा लो। भूसे के लिए तुम गाय बेचोगे, और मैं लूँगा। मेरे हाथ न कट जायेंगे ?
भोला ने आर्द्र कंठ से कहा - तुम्हारे बैल भूखों न मरेंगे! तुम्हारे पास भी ऐसा कौन - सा बहुत - सा भूसा रखा है।
- नहीं दादा, अबकी भूसा अच्छा हो गया था।
- मैंने तुमसे नाहक भूसे की चर्चा की।
- तुम न कहते और पीछे से मुझे मालूम होता, तो मुझे बड़ा रंज होता कि तुमने मुझे इतना गैर समझ लिया। अवसर पड़ने पर भाई की मदद भाई भी न करे, तो काम कैसे चले।
- मुदा यह गाय तो लेते जाओ।
- अभी नहीं दादा, फिर ले लूंगा।
- तो भूसे के दाम दूध में कटवा लेना।
होरी ने दुःखित स्वर में कहा - दाम - कौड़ी की इसमें कौन बात है दादा, मैं एक - दो जून तुम्हारे घर खा लूँ, तो तुम मुझसे दाम मांगोगे?
- लेकिन तुम्हारे बैल भूखों मरेंगे कि नहीं।
- भगवान् कोई न कोई सबील निकालेंगे ही। असाढ़ सिर पर है। कड़बी बो लूंगा।
- मगर यह गाय तुम्हारी हो गई। जिस दिन इच्छा हो आकर ले जाना।
- किसी भाई का नीलाम पर चढ़ा हुआ बैल लेने में जो पाप है। वह इस समय तुम्हारी गाय लेने में है।
होरी में बाल की खाल निकालने की शक्ति होती। तो वह शी से गाय लेकर घर की राह लेता। भोला जब नकद रुपए नहीं माँगता तो स्पष्ट था कि वह भूसे के लिए गाय नहीं बेच रहा है,बल्कि इसका कुछ और आशय है, लेकिन जैसे पत्तों के खड़कने पर घोड़ा अकारण ही ठिठक जाता है और मारने पर भी आगे कदम नहीं उठाता वही दसा होरी की थी। संकट की चीज़ लेना पाप है। यह बात जन्म - जन्मान्तरों से उसकी आत्मा का अंश बन गयी थी।
भोला ने गद् गद कंठ से कहा - तो किसी को भेज दूँ भूसे के लिए?
होरी ने जवाब दिया - अभी मैं राय साहब की डयोढ़ी पर जा रहा हूँ। वहाँ से घड़ी - भर में लौटूंगा, तभी किसी को भेजना।
भोला की आँखों में आँसू भर आये। बोला - तुमने आज मुझे उबार लिया होरी भाई! मुझे अब मालूम हुआ कि मैं संसार में अकेला नहीं हूँ। मेरा भी कोई हितू है। एक क्षण के बाद उसने फिर कहा - उस बात को भूल न जाना।
होरी आगे बढ़ा तो उसका चित्त प्रसन्न था। मन में एक विचित्र स्फूर्ति हो रही थी। क्या हुआ, दस - पाँच मन भूसा चला जायगा। बेचारे को संकट में पड़ कर अपनी गाय तो न बेचनी पड़ेगी। जब मेरे पास चारा हो जायगा, तब गाय खोल लाऊँगा। भगवान करें, मुझे कोई मेहरिया मिल जाय। फिर तो कोई बात ही नहीं।
उसने पीछे फिर कर देखा। कबरी गाय पूँछ से मक्खियाँ उड़ाती, सिर हिलाती, मस्तानी, मन्द - गति से झूमती चली जाती थी। जैसे बाँदियों के बीच में कोई रानी हो। कैसा शुभ होगा वह दिन,जब यह कामधेनु उसके द्वार पर बंधेगी!!

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