इस अंक के रचनाकार

इस अंक के रचनाकार आलेख खेती-किसानी ले जुड़े तिहार हरे हरेलीः ओमप्रकाश साहू ' अंकुर ' यादें फ्लैट सं. डी 101, सुविधा एन्क्लेव : डॉ. गोपाल कृष्ण शर्मा ' मृदुल' कहानी वह सहमी - सहमी सी : गीता दुबे अचिंत्य का हलुवा : राजेन्द्र प्रसाद काण्डपाल एक माँ की कहानी : हैंस क्रिश्चियन एंडर्सन अनुवाद - भद्रसैन पुरी कोहरा : कमलेश्वर व्‍यंग्‍य जियो और जीने दो : श्यामल बिहारी महतो लधुकथा सीताराम गुप्ता की लघुकथाएं लघुकथाएं - महेश कुमार केशरी प्रेरणा : अशोक मिश्र लाचार आँखें : जयन्ती अखिलेश चतुर्वेदी तीन कपड़े : जी सिंग बाल कहानी गलती का एहसासः प्रिया देवांगन' प्रियू' गीत गजल कविता आपकी यह हौसला ...(कविता) : योगेश समदर्शी आप ही को मुबारक सफर चाँद का (गजल) धर्मेन्द्र तिजोरी वाले 'आजाद' कभी - कभी सोचता हूं (कविता) : डॉ. सजीत कुमार सावन लेकर आना गीत (गीत) : बलविंदर बालम गुरदासपुर नवीन माथुर की गज़लें दुनिया खारे पानी में डूब जायेगी (कविता) : महेश कुमार केशरी बाटुर - बुता किसानी/छत्तीसगढ़ी रचना सुहावत हे, सुहावत हे, सुहावत हे(छत्तीसगढ़ी गीत) राजकुमार मसखरे लाल देवेन्द्र कुमार श्रीवास्तव की रचनाएं उसका झूला टमाटर के भाव बढ़न दे (कविता) : राजकुमार मसखरे राजनीति बनाम व्यापार (कविता) : राजकुमार मसखरे हवा का झोंका (कविता) धनीराम डड़सेना धनी रिश्ते नातों में ...(गजल ) बलविंदर नाटक एक आदिम रात्रि की महक : फणीश्वर नाथ रेणु की कहानी से एकांकी रूपान्तरणः सीताराम पटेल सीतेश .

सोमवार, 8 जून 2020

उदय प्रकाश की कहानियों में आप्त-लोक की तलाश

संजय कुमार सिंह ( प्रिंसिपल )

गहन है यह अंधकारा
प्रिय मुझे वह चेतना दो देह की,
याद जिससे रहे वंचित गेह की,
खोजता फिरता न पाता हुआ,
मेरा हृदय हारा।
          आप्त-लोक के विघटन, आत्म-विस्थापन और आत्म-विस्मृति की पीड़ा जब घनीभूत हो जाती है, तो निराला की यह कविता उस विचार संवेदना की पुनर्चना करती हुई आत्म-राग को हिलोरती हुई  होठों पर प्राची के क्षितिज की मुस्कान लेकर उभर आती है। वेदना से आकुल मन-प्राण में ऊर्जा की अनंत-शक्ति के प्रतिरोघ से पहले स्मृति में , फिर चेतना में एक उदभास कौंधता है। प्राय:इन्हीं आत्मपूर्ण ग्रहणशीलता की दशा में उदय प्रकाश की कहानियाँ भी हमें झकझोड़ती हैं, जब एक जबर्दस्त प्रतिरोध और आत्मिक जिद्द के साथ वे अपनी कहानियों में हमारे विघटित होते आप्त-लोक की रचना करते हैं। रचनात्मक तनाव की यह मानसिक प्रक्रिया तब तक कहानीकार के रचनात्मक अवधान में होता है, जब तक साहित्य के किसी रूप में इसकी रचना न हो जाए। प्रतिरोध के इस मानसिक स्तर और उसमें छिपी रचनात्मक जिजीविषा का संज्ञान हमें तब होता है, जब हम उसी संवेदनशीलता और आत्मज्ञान के साथ अंतर्क्रिया करते हुए पाठकीय स्तर पर गुजरते हैं।इस क्रम में उनकी कुछ और कहानियों पर अपना पाठ प्रस्तुत करने का मेरा मन है, जिन्हें चुनने की प्रक्रिया में मैं हूँ ।जाहिर है अलग से न किसी को पढ़ने के लिए और न लिखने के लिए  विवश किया जा सकता है । यह पाठक का अपना पाठ- संदर्भ भी हो सकता है, जो रचना-प्रक्रिया और पाठ-प्रक्रिया की समानुभूति में घटित होता है।नेलकटर और अंत में प्रार्थना, पीली छतरीवाली,छप्पन तोले का करघन, दिल्ली की दीवार, अरेबा, परेबा, हीरालाल का भूत, पाल गोमरा का स्कूटर टेपचू, तिरिछ, मोहन दास और वारेन हेस्टिंग्स का साँढ़ जैसी कई कहानियाँ हैं, जो पाठ के स्तर पर हमारी चेतना में हाॅण्ट करती हैं। इन कहानियों के पढ़ते हुए हमें यह अहसास होता है कि हिन्दी में विश्व के श्रेष्ठतम साहित्य से कमतर चीजों से हम नहीं गुजर रहे। संवेदना और विचार का रचनात्मक धरातल हमें अपने उत्कर्ष तक ले जाता है। तीसरी दुनिया की अस्मिता और उनके वैचारिक प्रतिरोध का एक ऐसा परिदृश्य उभरता है, जो हमें अपने आप्त-लोक की तलाश तक ले जाता है। भूमंडलीकृत बाजारवाद के यूटोपिया में विलोपित होती हमारी आत्म-सत्ता का  विखण्डन हमें बेचैन कर देता है।उदय प्रकाश की कहानियाँ इस त्रासदी को, इस पीड़ा को गहरे प्रतिकार के साथ रचती हैं। उनमें देशज चेतना और जातीय संवेदना का तल इतना प्रगाढ़ है कि इस लगाव को हम मार्खेज की तरह  महसूस कर सकते हैं। यह वैविध्य जातीय इतिहास के साथ-साथ लोक-जीवन के उन छोटे-छोटे सांस्कृतिक विवरणों मे भी देख सकते हैं, जिनका उद्देश्य वैश्विक सांस्कृतिक साम्राज्यवाद और नव उपनिवेशवाद के शोषण-दमन से उत्पन्न परिस्थितियों का अतिक्रमण है। मानवीय आत्म-क्षरण को रोकने की छटपटाहट हर स्तर पर उनमें दिखती है, चाहे अपने सामाजिक ढाँचे का अंतर्विरोध हो या बाहरी हस्तक्षेप से उत्पन्न विरूपण।  वे सतत जाग्रत और सचेतनशील होकर उन संभावनाओं के सकरात्मक  अंश की खोज करते हैं, जिनसे अपनी दुनिया बचायी जा सके।
          आकस्मिक नही कि"राम की शक्ति -पूजा की रचना-प्रक्रिया का तनाव पराजय और पीड़ा का अतिक्रमण है,तो सरोज स्मृति की रचना-प्रक्रिया आकुल शोक के द्वारा दुख का ताकि शक्ति की नई कल्पना हो सके और सरोज की स्मृति से उसकी पुनर्रचना। अब दृष्टि-बिन्दु के तनाव को रचना प्रक्रिया में समझा जाए, जहाँ रचना कर अपने समय-समाज में अपने तरीके से ग्रहण करता है।. यहाँ यह सवाल मन में उभरता है कि कहानी की रचना -प्रक्रिया में दृष्टि-बिन्दु के तनाव से क्या तात्पर्य है? इसॆ समझना क्यों आवश्यक है। नामवर जी कहते हैं कि अक्सर कहानी के विषय को उसका मंतव्य समझ लिया जाता है। जबकि वह मर्म घटना,परिस्थिति, पात्र और चरित्र के आंतरिक समवाय में होता है। बूढ़े पर लिखी उषा प्रियंवदा की कहानी बूढों की उपेक्षा की कहानी न होकर ,उपेक्षा के प्रतिरोध की कहानी है, जो भाव-विगलित करुणा नहीं सृजित करती। यहाँ इन बातों का जिक्र इस लिए भी आवश्यक है कि आलोचना को उसके विपथन से बचाया जा सके।अब 'मोहन दास,' 'अभिनेत्री' और 'वेटर 'जैसी  कहानियों के दृष्टि-बिन्दु के तनाव को लीजिए। 'मोहन दास' में जो डिटेल्स हैं,वह कहानी का ढाँचा है ,वह उसका रूपक है। इनमें अंतर हो सकता है, पर उसका मर्म दृष्टि-बिन्दु के उस तनाव से उत्पन्न होता है, जिनमें स्वातंत्र्योत्तर भारतीय लोकतंत्र के मौजूदा ढाँचे में गाँधीवादी मूल्यों की अवमाना होती है। इसी तरह पंकज बिष्ट के सम्पादन में निकले आजकल के विशेषांक में एक कहानी छपी थी'अभिनेत्री',जिसमें कहानी का ढाँचा प्रेम कहानी का था ,लेकिन विषय से इतर मर्म इस बात में कि किस तरह ग्रासरूट के लोग अपने हाथ की लकीरों से बनाई दुनिया में मोहनदास की तरह उपेक्षित हो जाते हैं। नेपथ्य्य में अपने ही लोगों द्वारा इस्तेमाल के बाद धकेले जाने वाले लोगों की भूमिकाओं का जिक्र इतिहास में नहीं होता है, वे अधिक से अधिक कठिना नदी के किनारे ककड़ी या खरबूजा लगाते हैं या फिर अभिनेत्री कहानी के प्रोफेसर साहब की तरह गमले में टमाटर और भिण्डी। क्या गाँधी, जयप्रकाश,निराला, मुक्तिबोध से लेकर बलराज मधोक और लालकृष्ण आडवाणी के नाम अलग-अलग संदर्भों में लिए जाएँ? उनके इस दर्द को कुरेद कर वर्त्तमान और स्मृति के दंश के द्वन्द्व तक पहुँचा जाए,पर कैसे? क्या बिना विश्व युद्ध के उस विध्वंस को समझे हुए "परिदे 'और 'वे दिन ' के मर्म को समझा जा सकता है,जहाँ इतिहास और स्मृति का वर्त्तमान जीवन से अविच्छन्न स्तर पर पल-पल द्वन्द्व चलता है?मृत्य की वह यंत्रणा एक-एक साँस को अपनी सत्ता सौंपते हुए जीवन के प्रति मनुष्य की आस्था को खंडित नहीं होने देती। इस वेदना को पाठ के स्तर पर महसूसना कितना कठिन है। यंत्रणापूर्ण है।ऐसा लगता है कि दुख के इस अवबोध में एक महत्तर दुनिया की माँग छिपी हुई हो।
          कहना नहीं होगा कि समकालीन हिन्दी कहानियों का मूल्यांकन जिस तरह हो रहा है, वह असंतोषजनक है। इसमें मेरा कोई क्षोभ- विक्षोभ नहीं। बस एक इल्तिजा है, एक बेचैनी है। कुछ अपवादों को छोड़ कर कहानियों के समकालिक कण्टेण्ट ,उनकी अांतरिक संरचनाओं में अंतर्निहित यथार्थ की वृहत्तर संभावनाओं और कलात्मक परिशिष्टों को भुला कर सतही तौर पर रिव्यू हो रहा है।  जाने क्यों मुझे उदय प्रकाश, स्वयंप्रकाश, संजीव, शिवमूर्त्ति, सृंजय, चन्द्रकिशोर जायसवाल ,प्रभा खेतान, प्रियंवद, अखिलेश,अवधेश प्रीत ,देवेन्द्र, रघुनंदन त्रिवेद, मनोज रूपड़ा की पढ़ी कहानियाँ ही आज भी श्रेष्ठ लगती हैं।तिरिछ, टेपचू ,मोहनदास, पालगोमरा का स्कूटर, पार्टीशन,अपराध, लिटरेचर,पूत! पूत! पूत आरोहण ,तिरिया चरित्तर, केसर-कस्तूरी, ख्वाजा ओ पीर,हिंगवा घाट में पानी,रे ,आओ पेपे घर चलें ,नदी होती लड़की ,चिट्ठी, क्षमा करो हे वत्स, नालंदा पर गिद्ध,वह लड़की अभी भी  जिन्दा है,ज़िबह आदि। पर मैं यह नहीं कहता कि इनके बाद सशक्त कहानियाँ नहीं लिखी जा रहीं.. वह लगातार लिखी जा रही हैं,लेकिन नामवर सिंह और यादव जी जैसे लोगों के जाने के बाद यह संकट और गहरा हुआा है। पूस की रात, उसने कहा था, आकाशदीप, फाँसी ,ताई,  तीसरी कसम,शरणदाता, भोलाराम का जीव, अपरिचित, राजा निरबंसिया, जहाँ लक्ष्मी कैद है,फेंस के इधर- उधर, सुख,जैसी कहानियाँ हर पाठक को याद आती हैं । हिन्दी में रीडर्स की संख्या घटी है अथवा डायवर्सन हुआ है? धर्मयुग, दिनमान ,कादम्बिनी, माया फिल्मी कलियाँ के पाठक कहाँ गए? कहाँ गए प्रेमचंद से लेकर रानू तक के पाठक? पाठक अगर हैं भी तो उनकी अहमियत?मैं समझता हूँ कि कुछ अपवादों को अगर छोड़ दिया जाए, तो हिन्दी आलोचना की यह स्थिति है कि अगर "गीतांजलि " के लिए हिन्दी के लोग जूरी के सदस्य होते तो यह कृति छँट जाती। रवीन्द्रनाथ को दोयम दर्जे का यूटोपियन कवि कहा जाता। बंगला साहित्य के पाठकों ने शरतचन्द्र और बनफूल को उनके जीवन काल में मान दिया।मगर हिन्दी में निर्मल वर्मा और उदय प्रकाश भी पाठक के बल पर जिन्दा हैं।निर्मल वर्मा और उदय प्रकाश की कहानियों की इतनी भ्रामक व्याख्याएँ हुई हैं उनके कटु आलोचकों के द्वारा  कि वे उन्हें हिन्दी कहानी की जातीय परम्परा को समग्रता में बिना समझे ही देश निकाला देने को आतुर रहते हैं ।उनके एक पाठक की प्रतिक्रिया इस फेक आलोचना पर इस तरह आती है-"वैसे मैं उदयप्रकाश जी पर लिखी कोई आलोचना पढ़ता नहीं हूँ क्योंकि मुझे लगता है कि भारतीय आलोचक उनके साथ न्याय नहीं करते।वे आजादी के बाद के इकलौते हिंदी कहानीकार हैं, जिनका इतना विरोध और सम्मान एक साथ हुआ।" आभासी दुनिया से।सतीश कुमार सरदाना।
          हिन्दी के स्वनामधन्य विचारकों  और सम्पादकों को लगता है कि जिन चीजों मेॆ उनकी आस्था नहीं, वो चीजें सही नही हैं। गोया उनकी सहमति से ही लेखक लिखे। उन्हें उदय प्रकाश की " डिबिया" कहानी का पाठ जरूर देखना चाहिए , जहाँ नैरेटर कहता है-"लेकिन समस्या यह है कि यह कैसे पता चले कि उन लोगों का विश्वास हासिल करना, मेरे लिए इस डिबिया को खोलने से जोखिम और दाँव से ज्यादा मूल्यवान है? यह भी तो हो सकता है कि उन सबको मेरी बात के प्रमाणित हो जाने पर सिर्फ मेरे एक इस अनुभव पर विश्वास हो जाए, लेकिन दूसरे बाकी अनुभवों को वे फिर भी अविश्सनीय मानते रहें।ऐसे में तो अपनी बातों को उन तमाम लोगों के सामने प्रमाणित करते-करते ही मैं बूढ़ा हो जाउँगा। मर भी जाऊँगा।" डिबिया।
            असहमति के लोकतंत्र का आदर इधर केवल राजेन्द्र यादव में रहा। इसलिए हंस का आविर्भाव इस मामले में बेजोड़ रहा। बाद में तो उन्हौंने सम्पादकीय का अंदाज भी बदल डाला।हम गाँव-कस्बा से शहर आए। हम लोगों ने सारिका और विशेष कर 'हंस' कै जरिए उदय प्रकाश की कहानियाँ पढ़ीं।
            --और अंत में प्रार्थना। यह लम्बी कहानी हंस में छपी थी।मुझे याद है हंस को लोकप्रिय बनाने में इन कहानियों का बड़ा हाथ था। पीली छतरी वाली लड़की की भी धूम थी। पालगोमरा का स्कूटर, वारेन हेस्टिंग्स का साँढ़, तिरिछ । तिरिछ से पहले छपी कहानियों की भी हमें तलाश रहने लगी।  ... अभी यह यह तो उत्प्रेरण मात्र है। उनकी रचना प्रक्रिया को समझने की कोशिश भर।नि:संदेह वे बहुत महत्वपूर्ण कवि,कथाकार होने के साथ वे विचारशील समीक्षक भी हैं। यहाँ रुक कर अगर उनकी "दिल्ली की दीवार "कहानी के दीवार वाले मिथक के तिलस्म को डी-कोड कर लें, तो लगेगा कि मोहनदास पढ़ने में जितना विलक्षण रह हो, उसने दिल्ली के इतिहास को ठीक से  पढ़ा नहीं, वर्ना उसकी तामीर में उसे वह खोखल उन दीवारों में दिखता,जिसे संवैधानिक प्रस्तावनाओं के औदात्य और लोकतंत्रिक मूल्यों की अभूतपूर्व व्याख्या से उनकी अवैध संतानों ने ढँक कर रखा और यह अपराध भी दूसरे लाचार, कमजोर,गरीब विवश लोगों के सिर पर ठोंका, जिनकी अनुपस्थित उपस्थिति की कोई पहचान नहीं होती,"यह तय था कि अचानक एक किसी दिन मैं भी इस नुक्कड़ पर दिखना बन्द हो जाऊँगा. जिन्नातों और दौलतमन्दों के इस शहर दिल्ली से ऐसे ही गायब होते हैं दरवेश, गरीब, बीमार और मामूली लोग. फिर वे कभी नहीं लौटते. वे कहीं नहीं लौटते. इस शहर में उनकी स्मृतियाँ तक नहीं बाकी रहतीं." दिल्ली की दीवार। आगे वे कहते हैं,"-वे किसी बदकिस्मत फकीर के आँसू की तरह होते हैं, जो जब जाता है, तो उस जगह की ज़मीन पर, जहाँ उसका वजूद होता था, सिर्फ एक छोटी-सी नमी और थोड़ा-सा गीलापन छोड़ जाता है. यह नमी उसके वक़्त के अन्याय के बरक्स उसके खामोश आँसुओं और थूक की होती है.।" दिल्ली की दीवार।
              अर्द्धरात्रि के आजाद सपनों में भटकते ये कौन अभागे  लोग हैं, दिल्ली में कहाँ रहते है, जरा देखिए-"यहाँ ऐसा ही होता था. यह किसी नियम जैसा था. यहाँ हर रोज़ आने वाला आदमी अचानक ही एक दिन अनुपस्थित हो जाता और फिर भविष्य में कभी नज़र न आता. इनमें से अधिकांश लोगों का निश्चित पता नहीं होता था कि उनके बारे में कोई जानकारी हासिल की जाए. उदाहरण के लिए राजवती अपने पति गुलशन और बच्चों के साथ यहाँ से चार किलोमीटर आगे, बाइपास के करीब, एक सोलहवीं सदी की इमारत के खँडहर में रहती थी. करनाल और अमृतसर की ओर जाने वाले राष्ट्रीय राजमार्ग से कभी आपने अगर उत्तर की ओर नज़र दौड़ाई हो, जिस तरफ निकासी का गंदा नाला बहता है, तो उसके किनारे उस गोल गुम्बद वाली पुरानी इमारत को आपने ज़रूर देखा होगा. काई लगे मटैले पत्थरों और कत्थई पुरानी ईंटों वाली गुम्बददार टूटी-फूटी इमारत. कोई सोच नहीं सकता कि वहाँ कोई आदमजाद रहता भी होगा. दिल्ली से लाहौर यानी हिन्दुस्तान से पाकिस्तान जाने वाली मशहूर ‘सद्भावना’ बस इसी हाइवे से होकर गुजरती है." दिल्ली की दीवार। क्या इनमें से कुछ लोगों के पूर्वजों  ने या खुद इन्हौंने आजादी के संघर्ष और सपनों में अपनी साँसें और लहू के कतरै इस उम्मीद में उन्हें सौंपी थी, जिन्हौंने यह कहा था कि यह आजादी तुम्हारी होगी, यह मुल्क तुम्हारा भी होगा, जहाँ तुम्हारी अपनी पहचान होगी?क्या  यह इस कहानी का इतर पाठ है या इसी का अवशिष्ट अंश जिसकी तलाश कहानी में होनी चाहिए।इस कहानी की सतह के नीचे , दीवार की ओट में किन लोगों की यातनामय दुनिया है?यह आत्म-विस्थापित , मानवीय गरिमा से पदच्यूत, अमानवीय जिन्दगी की तरस और बेचैनी के बीच सड़ती हुई जिन्दगी जीती हुई आबादी किस ग्रह-नक्षत्र से आयाचित है?इस लोकतंत्र में इनकी गरिमामयी उपस्थिति की किसी भी संभावना की कोई गुंजाइश भी बची है क्या? डा.नामवर सिंह ने रचनाधर्मी कहानी की संश्लिष्टता के संदर्भ में पाठक के लिए कहानी के अवशिष्ट अंश को प्राप्त करने की चर्चा की है। पेज न.107 कहानी, नयी कहानी। 
              इतना ही नहीं डा. नामवर सिंह के अनुसार," कहानी जीवन के टुकड़े में निहित अंतर्विरोध, द्वन्द्व, संक्रांति अथवा इतिहास को पकड़ने की कोशिश है।" पेज न.25कहानी, नयी कहानी। अपने  इतिहस और मौजूदा समय के अंतर्विरोधों को  इन कहानियों मेंदेखना  चौंकाने वाला  है, जो हमें उस अवशिष्ट अंश तक ले जाता है। चाहे वह अपने समय -समाज की अमानवीय संरचना हो या बहारी  बाजारवादी शक्तियों के हस्तक्षेप से उपजा विरूपण, संवेदना और विचार के स्तर पर वे उनका प्रतिरोध करते हैं।डा.बच्चन सिंह देरिदा के पाठ संबंधी व्याख्या में इसी बात को इस प्रकार कहते हैं,"भिन्नता(डिफरेंस) निशान(ट्रेस) और लेखन में-पहले दोनों का संबंध साहित्य की भाँति संरचना से है और तीसरे का अनकहे की तलाश से।पेजन.102आधुनिक आलोचना के बीज शब्द। इसी पेज पर वे कहते हैं," पहला दिक्(स्पेश)में स्थित है और दूसरा काल में। इन बातों का जिक्र इस लिए भी आवश्यक है कि पाठक उस विपथन से बचे  और कहानी के असली मर्म तक पहुँचे।  छोटे-छोटे मार्मिक विवरणों को  इस तरह अपनी कहानियों में रखते हुए मार्खेज की तरह उदय प्रकाश खाँटी विश्वसनीय कथाकार हैं, जो अपने जातीय जीवन और उसकी अस्मिता के सबसे करीब हैं। उनकी कहानियाँ पाठकों के अनुभवों का विस्तार कर उन्हें अनुभव संपन्न बनाती हैं,"उस खँडहर में और लोग भी रहते थे. लेकिन ज्यादातर परिवार वाले ही थे. सिर्फ दो लोगों को छोड़कर. एक था रिज़वान, जिसका दाहिना पैर और दायाँ हाथ कोढ़ से गल गया था और दूसरा सनेही राम, जो इतना बूढ़ा हो गया था कि नाले के पास ही उगे एक नीम के पेड़ के नीचे दिन भर सोता रहता था. सनेही राम को रामचरितमानस और सूरसागर पूरा याद था. ढोला-मारू की कथा और आल्हा वह ऐसे गले से गाता था कि सुनने वाले को रोमांच हो जाता था. उस खँडहर में रहने वाले परिवारों में से ही कोई न कोई उसे रोटी दे जाता था. रिज़वान सुबह-सुबह बाइपास की तरफ चला जाता, वहीं गोपाल धनखड़ के ठेले में चाय पीता, मट्ठी या बन्द खाता और बस स्टॉप पर बैठ कर शाम तक भीख माँगता. भीख अच्छी मिल जाती थी. रिज़वान के चेहरे पर खिचड़ी दाढ़ी थी और उसका चेहरा देखकर फिल्म काबुलीवाला के बलराज साहनी की याद आती थी." दिल्ली की दीवार।
           वे कौन लोग थे, जो तब दीवार की ओट के पीछे गर्म कुत्ता खा रहे थे और सफेद घोड़ा पी रहे थे और ये कौन लोग हैं ,जो आज भी वही माल खा-पी रहे और अखबारों में लिख रहे हैं-
गोहत्या करने पर मनु के बेटे को मिली कड़ी सजा
एक बार सत्यवादी राजा हरिश्चंद्र ने भी झूठ बोला था
पुराने जमाने में भी एक आदमी हुआ था प्रेग्नेंट
जब भगवान ने कर दिया अपनी मां का कत्ल
शापित राजा जिसकी बीवी रही 7 साल तक प्रेग्नेंट
          पापा के मर्डर से गुस्साए परशुराम ने मचाया कत्ल-ए-आम....   हम क्या पढ़ ,देख और सुन रहे हैं मीडिया के मंच पर। " दिल्ली की दीवार। 
          नागरिक अधिकारों की उपेक्षा करने वाले सत्ताधीश और पत्रकार ।किसी ड्रैगन और ड्रैकुला से कम ताकतवर नहीं।सचमुच उदय प्रकाश को पढ़ना अपने  इतिहास और मौजूदा समय के त्रासद अनुभव से गुजरने  जैसा है। "छप्पन तोले का करधन" जैसी कहानी को याद करें। अंग्रेजों के छक्के छुड़ाने वाले दादा से आजादी के बाद टट्टी वाला लोटा भी नहीं उठ पाता है। हद तो यह है कि इतिहास की उस स्मृति से थोड़े ही काल में विच्छिन्न उस तालाब की बत्तखों तक ने भी उन्हें नहीं पहचाना , जिनके लिए अंग्रेजों से जान की बाजी लगाकर उन्हौंने लोहा लिया था," उस दिन वे तालाब गए थे  लेकिन वहाँ किसी बत्तख  ने उनको नहीं पहचाना था।सारी पुरानी बत्तखें खत्म हो चुकी थीं।और उनकी नयी पीढ़ी के लिए  दादा बिल्कुल अजनबी थे।"पेज न.58, छप्पन तोले का करधन। यही है गाँधी, भगत सिं आजाद, पटेल  नेहरु, अम्बेदकर की वसीयत का हश्र कि आजाद भारत के उत्तराधिकारी उनको पहचानते तक नहीं।यह विडम्बना नहीं तो क्या है ?यही उत्तर कालीन सत्तावादी राजनीति का विवेक है,जो नैतिकता से विच्छिन्न है। उदय प्रकाश गहरी वैचारिक संवेनशीलता के साथ स्वात्र्योत्तर भारत में उन वैचारिक मूल्यों के संकल्प और पथ-विपथन  से 'छप्पन तोले के करधन में हमारा साक्षात्कार कराते हैं, जो  गुलामी के दिनों में उपनिवेशवादी साम्राज्यवाद को उखाड़-फेंकने की  हमारी मूल शक्ति थी। अपनी ही प्रतिज्ञाओं से हमारा विचलन हमारे यथार्थ को और भयावह बनाता है, जहाँ मूल्यों और विचारों का यह स्खलन उन्हीं औपनिवेशिक प्रतिरूपों को रच कर हमारे समय-समाज में वही टेरर उत्पन्न करता है, जिसके अँधेरे के प्रतिकार मॆं हमें टेपचू जैसे संघर्ष और प्रतिरोध के रचनात्मक स्तर की तलाश करनी पड़ती है। टेपचू में टेपचू का संघर्ष और छप्पन तोले में दादी की स्मृति महत्तर है, जो पाठकीय स्तर पर हमें सोचने को मजबूर करता है।
           उदय प्रकाश की कहानियों में संवेदना और विचार के इतने वैविध्य हैं,कि आश्चर्य होता है। वे परम मानवीय दुनिया की रचना करने वाले कहानीकार हैं।वे हमें जीवन की रागात्मक ऊष्मा से भर देते हैं। यही ममत्व उन्हें परत्व तक ले जाता है, परत्व ऐसा, जिसमें रिजवान ,रामसनेही, गोपाल, जजसाहबों के बारे में सोचते हुए वे उतने ही बेचैन नजर आते हैं। संवेदना का यह तीव्र मानवीय अंतरण जिस वैचारिक आत्म-सजगता कके साथ उनके यहाँ होता है, वह अन्यत्र दुर्लभ है। मैंगोसिल जैसी जैव विरूपण कहानी के केंद्र में भी जीवन की वही आत्यंतिक संवेदना है। जीवन को सूँघने, समझने और महसूसने की यह आत्म -शक्ति उनकी कहानियों को सजीवता प्रदान करती है। "नेल कटर"कहानी को लें यह काव्यात्मक संवेदना की ही कहानी नहीं है बल्कि माँ के प्रति पूरे दिक्-काल में एक आत्यांतिक अनुभूति है, जिसे किसी चीज में रीड्यूस कर कहानीकार उसे अपनी स्मृति में और अपने वास्तविक अव-बोध में सृजित करना चाहता है। अगर यह नास्टेलजिया है , तो इस रागात्मक नास्टेलजिया से ही यह संबंधों की यह दुनिया मानवीय लगती है। इसका विखण्डन तिरिछ " जैसी यथार्थवादी कहानी को जन्म देता है -दृष्टि-बिन्दु के उस दूसरे स्तर पर इसी तनाव से। पिता के प्रति जो तिरिछ में लगाव है, वैसा ही लगाव माँ के जीवन से नेलकटर  में-"और हाथ उनका इतना हल्का कैसे हो गया था? कहाँ चला गया सारा वजन? वह भार शायद जीवन होता है, जिसे पृथ्वी अपने चुंबक से अपनी ओर खींचा करती है। जो अब माँ के पास बहुत कम बचा था। उन्हें पृथ्वी खींचना छोड़ रही थी।"
           ... मृत्यु की ओर उन्मुख माँ  के प्रति नैरटर की यह अनुभूति अपने चरम रागात्मक लगाव के बीच अद्भुत औदात्य  के साथ घटित होती है, जहाँ 'नाखून' को घिसते हुए  नैरेटर को एक अपूर्व अाह्लाद का अनुभव होता है, जो अमरत्व की ऊँचाई पर जाकर  अपनी उत्फुल्लता में मृत्यु का निषेध करता है,-"
एक घंटा लगा। मैंने उनकी एक उँगली ही नहीं, सारी उँगलियों के नाखून खूब अच्छे कर दिए। माँ ने अपनी उँगलियाँ देखीं। यह कितना कमजोर और हार का क्षण होता है, जब नाखून जीवन का विश्वास देते हैं। कितने सुदंर और चिकने नाखून हो गए थे।"
            कहा जा सकता है कि नेल कटर  में माँ की स्मृति के अंत:स्यूत होने के बाद उसके खोने के बाद भी उसके होने का अहसास माँ की मृत्यु का अतिक्रमण है,एक तरह से जीवन में विलय है। पदार्थगत सता का यह अंत:संचरण अद्भुत प्रकल्प की रचना करता है ,  जहाँ माँ की उपस्थिति की अपार संभावनाओं से स्मृति में और वास्तविक जीवन में इनकार नहीं किया जा सकता है। एक दूसरे स्तर पर निर्मल वर्मा की परिन्दे कहानी का यह संवाद देखिए " ,-"आज चैपल में मैंने जो महसूस किया, वह कितना रहस्यमय, कितना विचित्र था, ह्यूबर्ट ने सोचा। मुझे लगा, पियानो का हर नोट चिरन्तन खामोशी की अँधेरी खोह से निकलकर बाहर फैली नीली धुन्ध को काटता, तराशता हुआ एक भूला-सा अर्थ खींच लाता है। गिरता हुआ हर ‘पोज’ एक छोटी-सी मौत है, मानो घने छायादार वृक्षों की काँपती छायाओं में कोई पगडण्डी गुम हो गयी हो, एक छोटी-सी मौत जो आनेवाले सुरों को अपनी बची-खुची गूँजों की साँसे समर्पित कर जाती है, जो मर जाती है, किन्तु मिट नहीं पाती, मिटती नहीं इसलिए मरकर भी जीवित है, दूसरे सुरों में लय हो जाती है।,"
परिन्दे।
             "नेल कटर" में उदय प्रकाश सर्वथा अलग धरातल पर अलग ट्रीटमेंट के साथ जीवन के उस अलक्षित स्पेश को फिर से वास्तविक बनाने का प्रयास करते हैं" माँ खत्म हो गईं। /मैंने फिर कभी उनके घिसे हुए नाखून नहीं देखे। मैंने उस रात सोने से पहले अपने तकिए के नीचे वह नेलकटर रख दिया था। उसे मैंने बहुत खोजा। बल्कि आज तक। कई वर्षों बाद भी। लेकिन वह आज भी नहीं मिला। वह पता नहीं कहाँ खो गया था।"। सचमुच खोने से चीजें नहीं खत्म हो जातीं,"हो सकता है वह किसी बहुत ही आसान-सी जगह पर रखा हुआ हो और सिर्फ मेरे भूल जाने के कारण वह मिल नहीं पा रहा हो। मैं अक्सर उसे खोजने लगता हूँ।" उदय प्रकाश की  इस कहानी  टेपचू  जैसा संजीवन है ,जो मरता नहीं। यही प्रतिरोध, यही सकारात्म सक्रियता उनकी रचना-प्रक्रिया का असली तनाव है, जो मृत्यु का भी प्रतिरोध करता है।यह तनाव जाहिर है कथाकार की अपनी विशिष्ट पूोँजी है। श्रम ,संज्ञान और संवेदना से कमायी हुई पूँजी। । जीवन को देखने का उनका नजरिया अद्भुत है। अपूर्व कौशल, जिजीविषा और आत्म-संघर्ष का जीवट है उनमें।---"
"क्योंकि चीजें कभी खोती नहीं हैं, वे तो रहती ही हैं। अपने पूरे अस्तित्व और वजन के साथ। सिर्फ हम उनकी वह जगह भूल जाते हैं।" 
...माँ को हर संभव स्मृतियों में,संभावनाओं और वास्तव मॆं जीवित करने वाली यह कहानी कोई फैंटेसी नहीं बनाती बल्कि रागात्मक संबंधों की दुनिया को केन्द्र में लाती है, जिसके विघटन की कल्पना  नहीं की जा सकती। संबंंधों के आप्त-लोक को सृजित करती हुई कहानी कहानी से बाहर पूरे-दिक-काल में निर्वासन, विस्थापन आत्म-विच्युति का भी अलग से प्रतिषेध करती है, जहाँ माँ अपनी संतति को दुर्भाग्य के किसी व्यतिक्रम को चुनने नहीं देना चाहती," माँ ने मेरे बालों को छुआ। वे कुछ बोलना चाहती थीं। लेकिन मैंने रोक दिया। वे बोलतीं तो पूछतीं कि मैं सिर से क्यों नहीं नहाता? बालों में साबुन क्यों नहीं लगाता? इतनी धूल क्यों है? और कंघी क्यों नहीं कर रखी है?"
              कहना चाहिए कि नैरेटर जैसी सकरात्मक  सोच लेकर ही एक भावक को रचना में उतरना चाहिए ताकि मर्म का वह स्तर घटित हो,। माँ के इशारे का ऐसा उलटा अनुमान कि माँ नैरेटर को भगाना चाहती थी, कहानी का कुपाठ होगा। माँ की गलत प्रतिमूर्त्ति होगी, जिससे यह भी समझा जाना चाहिए कि आत्मपूर्ण ग्रहणशीलता नहीं हुई।  कहानी का पाठ भ आत्मीयता पूर्ण होना चाहिए। 
इसी तरह  उनकी "अरेबा, परेबा " कहानी पढ़ कर मेरा यह विश्वास और  गहरा हो गया है कि बिना आत्मपूर्ण ग्रहणशीलता के न तो कहानी पढ़ी जा सकती है और न लिखी जा सकती है। कहानी रचने की कला वह है, जो स्वप्न और कल्पना की दुनिया को सजीव कर वास्तविकता में बदल दे , जैसे माँ ने 'अरेबा, परेबा की कहानी रची। बकौल नैरेटर वास्तव में अरेबा,परेबा के साथ हुई उस घटना के बाद पूरे ममत्व से कहानी सृष्ट करती हुई माँ के दृष्टि -बिन्दु का तनाव देखिए-"
             इस पूरे दौरान वे अपने भीतर-भीतर वह कहानी बुनती रही होंगी। वे अच्छी तरह से जानती थीं कि मैं उनसे बहुत प्यार करता था और अगर दुनिया में किसी पर सबसे ज्यादा विश्वास करता था, तो वे खुद थीं। अम्माँ। इसके बाद वे मेंरे कमरे में आई होंगी और मुझे वह कहानी सुनाई होगी।लेकिन यह तथ्य आप बिल्कुल मत भूलिए, और मैं भी इसे कभी, बहुत सारी कोशिशों के बावजूद नहीं भूल पाता कि इतना सब करते हुए अम्माँ लगातार भूखी और प्यासी थीं।" अरेबा,परेबा।
           कहानी रचने की यह प्रक्रिया है, जिसके बारै में नैरेटर कहता है,"अम्माँ अब नहीं हैं। लेकिन उनके लाए गए दोनों पत्थर अब भी हमारे आँगन में मौजूद हैं।और यह सच है कि कहानी लिखना मैंने किसी और से नहीं, अम्माँ से ही सीखा है।" अरेबा, परेबा।...तो ऐसी होती है कहानी रचने की अद्भुत प्रक्रिया,जो स्मृति में ही नहीं यथार्थ में भी उस मिथ को इतिहास और इतिहास को मिथ तब्दील करते  हुए सजीव कर देती है,लेकिन यह अलग बात है कि उस रचनीत्मक मिया इतिहीस को आप रीसीव कैसे करते हैं, जिसे कहानी कार कंसीव करता है"लेकिन हमेशा की तरह अब मैं आप सबको वह घटना बता रहा हूँ, जिसके बिना कोई भी कहानी कभी पूरी नहीं होती। एक ऐसी घटना, जिस पर मुझे स्वयं भी आश्चर्य होता है। सन् 2001 की मई के महीने की यह घटना है।
उस रात मैं, अपने घर के आँगन में, अपनी खाट पर लेटा हुआ था। घर के सारे लोग सो चुके थे। ऊपर आकाश खूब गहरा, स्याह-नीला और बिल्कुल निरभ्र था। बिल्कुल साफ। सृष्टि के पहले, स्वच्छ, नवजात आकाश की तरह।
...और असंख्य नक्षत्र, ग्रह और उपग्रह उस आकाश के समूचे विस्तार में अनगिनती तारों की तरह दूर-दूर तक टिमटिमा रहे थे।
             ऐसा आकाश आप शहर के लोगों के पास नहीं होता।संभवतः चतुर्दशी का चंद्रमा था। लगभग पूरा होता हुआ। उसका ठंडा, शांत, पीला और महीन उजाला हर तरफ फैल रहा था।हमारा आँगन चंद्रमा की उस पीतल के रवे जैसी हल्दिया धूल से ढक गया था।और तभी मैंने देखा। मैंने अपनी आँखें मलीं। मैं जाग रहा था। मैंने साफ-साफ देखा, घिनौची के नीचे रखे वे दोनों पत्थर हिलने-डुलने लगे।/फिर मैंने देखा, वे दोनों पत्थर के ढेले आँगन में यहाँ-वहाँ उगी दूब के बीच पहले रेंगने, और फिर कुछ पलों बाद, दौड़ने लगे।/निश्चित ही वे दोनों अरेबा-परेबा ही थे। उन्हें देवताओं ने वापस जीवित कर दिया था। वे आँगन में खेल रहे थे। निर्भय। कत्थई-भूरी रुई की दो नन्हीं-नन्हीं गठरियाँ।...और उनके रोयों से उठनेवाली वह अजब चिर्रायंध जंगली गंध। वह गंध चारों ओर फैल रही थी। समूचे आँगन में, चंद्रमा के शीतल उजाले में घुल कर मेरी साँस के साथ मेरे भीतर तक उतरती हुई।" अरेबा, परेबा।
             ठीक इसके बाद कहानी में,इतिहास में, हमारे वास्तविक जीवन में हमारी आलोचनाओं में वह बिलाड़ आ जाए, तब क्या होगा?संभव है वह अरेबा-परेबा को , कहानी की उस संरचना को, उसकी सजीवता को नोंचनॆ लगे। अपने आक्रामक कुपाठ के बनैले दाँतों से नोंच डाले, और जब उसकी पुनर्रचना करने वाली माँ भी नहीं हो तब?
"मैं डर गया। कहीं बग्घा आ गया तो?
             अब तो अम्माँ भी नहीं हैं, जो उन दोनों छौनों की हत्या के बाद, उनकी जगह पर पत्थर रख दें। और अब तो बग्घों की संख्या भी बहुत ज्यादा हो चुकी है। वे अकेले नहीं, अब तो झुंड और गिरोहों में रहते हैं। मैंने उन्हें बड़ी-बड़ी इमारतों के भीतर, कुर्सियों पर भी बैठे देखा है। संसार का हर कोमल, पवित्र, निष्कवच और सुंदर जीवन इस समय गहरे खतरे के बीच है।
आप गौर से देखें, हमारे समय की हर दीवार पर खून के छींटे हैं।
आप स्वयं बताइए, क्या मेरे डर का कोई आधार नहीं है?
            आप यह भी बताइए कि क्या आप इसी तरह चुप देखते रहेंगे और बग्घे वारदात करते रहेंगे?" यहाँ एक बात और  महत्वपूर्ण है।एक जगह  डा सुरेन्द्र चौधरी कहते हैं," दृष्टि-बिन्दु का प्रश्न मूलत: कथा के केन्द्र में स्थापित अवधारक तत्व से है, जिससे कथा का पूरा ढाँचा प्रकाश में आ जाता है।" पेज न.81कहानी प्रक्रिया और पाठ। अब मान लीजिए कोई पूछ दे  कि 'अरेबा, परेबा में अवधारक तत्व क्या है?। सचमुच यह कठिन है। जाहिर है इसके लिए दृष्टि-बिन्दु के तनाव तक जाना होगा। यह आत्मपूर्ण ग्रहणशीलता से ही संभव होगी, तब स्पष्ट हो जाएगा कि अवधारक तत्व अरेबा, परेबा की वह लोक -कथा है।रचना के उस कल्प-लोक की पुनर्रचना माँ के द्वारा  फिर से होती है ताकि स्वप्न और कल्पना में अथवा वास्तव में फिर से जिसे पाया जा सके। दोनों कहानी के मर्म को अलग-अलग धरातल पर भी समझना होगा।मिथ के अतिक्रमण में यहाँ अपना परिवेश है,जिसमें बनबिलाड़ हैं। बनबिलाड़  स्वप्न और कल्पना के उस लोक को वास्तव में नष्ट कर देता है, पर जिसे कोई सर्जक अंतिम रूप से नष्ट नहीं होने देता। खतरों के बीच जीवन को बचाने के लिए प्रतिरोध करता है।यह रचने की प्रक्रिया अंतहीन है, जो उस पीड़ा का अतिक्रमण करती है।
               दरअसल ,उदय प्रकाश के पोएटिक एसेंस की चर्चा होती है, असल में  यह वही है,जिसका संबंघ कविता की तरह उस विजन की पुनर्रचना से है, जो काव्य होते हुए भी मिथक और इतिहास की भी अपने में समाहित कर लेता है है और उसे साहित्य के निकष पर नव्य सर्जनात्मक रूप देता है।।
              ...जो भी हो हिन्दी कहानी के संदर्भ में कहा जा सकता है कि उदय प्रकाश ने एक समय के बाद उसके गतिरोध को तोड़ कर नया सघन,संश्लिष्ट ,रूप और अर्थ की अन्विति के स्तर पर अभिव्यंजक पाठ प्रस्तुत किया है। अपने समय-समाज के यथार्थ को नई संरचना में ढालकर कहानी का उपजीव्य बनाया है ताकि कहानी की मूल संज्ञा का विलोप नहीं हो ।विषय के मर्म को ग्रहण कर उस बीज को अपनी विचार-चेतना में पका कर उसका कायांतर किया है, जो वक्त की जरूत थी। क्या आपको ऐसा नहीं लगता  जटिल, संश्लिषष्ट , बहुस्तरीय परस्पर अंतर्विरोधी समय-समाज की विसंगति और विडम्बना को अवधान में लाकर, उन्हें आत्मसात कर,विचार, स्वप्न और कल्पना के सहारे वे कहानी का अपूर्व पाठ बनाते हैं, जो नई व्याख्या के लिए हमें उकसाते हैं? यह जितना कलात्मक है, उतना ही यथार्थ-वेधक भी। अप-संस्कृति, अवमूल्यन, आत्म-विच्युति, अमानवीकरण आत्म-विपथन, निर्वासन,जो इस समय की अनिवार्य दुर्घटना है, जिससे किसी भी सुंदर दुनिया के कुरूप हो जाने का खतरा बढ़ जाता है, उदय प्रकाश की कहानियों में इसके प्रतिरोध का रचनात्मक धरातल इतना स्पष्ट है कि इसे किसी आईने के बिना भी देखा जा सकता है। 
             उनकी 'जज साहब 'कहानी का जस्टिफिकेशन अपने समाय-समाज की जिस मर्मांतक पीड़ा का उद् घाटन करता है, वहअपने समय के बहुस्तरीय आत्म-क्षरण  के दर्द की ओर संकेत है।यह उस कंक्रीट की भव्य दुनिया के अंतर्जगत की त्रासदी का दृश्य है, जहाँ जीवन जीने की चाहत के बावजूद जीवन कठिन है। मुझे तो लगता है कि गाँधी और अम्बेदकर की तरह अपने तमाम आत्मसंघर्षों , जीवनानुभवों ,मूल्यों और स्वप्नों के अन्तर्द्वन्द्वों के बीच जीने की चाहत लिए वे सब लोग भी पत्थर में तब्दील हो गए हैं। पर नहीं कहानी में एक 'बूढ़े जज साहब 'का माथा किसी बोझ से नीचे की ओर गिरता लगता है ,तो जजों की इस काॅलोनी में वहीं अगले का दर्द कुछ ऐसा है,"जज अब अपनी कोठियों में अकेले रहते हैं। कुछ अपनी पत्नियों के साथ और कुछ बिल्कुल अकेले। उनके बच्चे बड़े होकर दूसरे शहरों या देशों में चले गए हैं, जो साल-दो साल में कभी-कभार कुछ दिनों की छुट्टियों में यहाँ आगरा, शिमला, नैनीताल, दार्जीलिंग वगैरह घूमने आते हैं। एक अकेले रह गए बूढ़े जज का कहना है कि पता नहीं उनकी अमेरिकी बहू और उनके बेटे को इंडियन चिड़ियों का इतना क्रेज क्यों है कि जब भी दो-चार साल में वे आते हैं तो दो-चार दिन उनके साथ रह कर भरतपुर और राजस्थान की बर्ड्स सैंक्चुअरी देखने निकल जाते हैं। वे धीरे से कहते हैं, 'पता नहीं क्या ऐसा है इन चिड़ियों में कि मैं अपनी जिंदगी, नौकरी, न्याय और अदालत से ऊब गया, लेकिन वे लोग चिड़ियों से नहीं ऊबे।' इसके बाद एक लंबी उदास साँस भर कर वे कहते हैं, 'मुझे अच्छी तरह से पता है कि मेरा बेटा और उसकी फैमिली मुझे नहीं, इंडिया में चिड़िया और पुरानी इमारतें देखने आती है।' जज साहब।
... और कथावाचक जज साहब का यह-"
             इन सभी जजों के पास बहुत से किस्से हैं। सैकड़ों-हजारों। अनंत। सच और झूठ के उलझे हुए ऐसे मामले, जिनके बारे में अपने दिए गए फैसलों को लेकर उन्हें अभी भी असमंजस है। अगर मैं आपको उन सारे किस्सों को अलग-अलग सुनाना शुरू करूँ तो एक तो कोई ऐसा उपन्यास बन जाएगा, जिसे पढ़ने के बाद आपका विश्वास सच, झूठ, न्याय, अन्याय सबसे उठ जाएगा।
            मेरा तो उठ चुका है इसीलिए दरगाहों, जंगलों, बच्चों और मंदिरों में ज्यादा समय बिताता हूँ। न्यायाधीश मुझे असहाय और न्यायालय एक खास तरह का रोजगार और वेतन देनेवाले किसी बहुत पुराने माल या स्मारक जैसे लगते हैं।" जज साहब।
              वही सवाल उठता है आत्म-निर्वासन की पीड़ा भोगते किन आत्मविच्युत लोगों की दुनिया है यह? जिन्दगी जीने की तमन्ना के साथ अपनी आत्मा की अदालत में यातना के फंदे से लटकते कौन लोग हैं ये?क्या जस्टिफिकेशन है न्यायाधीशों की जिन्दगी में न्याय का, जहाँ पान की पीक पर चूना रगड़ते हुए आदमी अनुपस्थित हो जाता है,बिना किसी पहचान छोड़े?रह जाता है एक दुख  अमूर्त्त संत्रास ,जो खीझ, गुस्से, गालियों के रास्ते खोखली हँसी में तब्दील होकर रह जाता है।  किसाने बनायी है दुनिया जहाँ आत्मक्षरण और आत्महनन की हद तक लाचार लोगों  की जीने की तरस निचाट सूनेपन के बीच दम तोड़ती नजर आती है। गले में  न्यायाधीश की तख्ती लगाए कल्पना की किस अवास्तविक दुनिया के लोग हैं ये?अगर यही है हमारे समय-समाज का वह भयावह यथार्थ , जहाँ हम लगातार आत्म क्षरण और आत्महनन की नियति चुन रहें,तो मुझे लगता है कि इस समय-समाज को 'अरेबा ,परेबा' के  उस माँ की जरूरत है, जो स्वप्न, कल्पना और ममत्व से इन कहानियों को फिर से रच सके ताकि मरने के बाद पत्थर में तब्दील होने पर भी एक बार फिर से ये जी सकें। मान लीजिए ऐसा हो जाए, तब क्या होगा? इसके अपने खतरे हैं, पर  तिलक,गाँधी अम्बेदकर और जज साहब सब मरे हुए लेग एक बार फिर जी उठेंगे। वे जी उठेंगे, तो क्या करेंगे? संभवत: वे  पत्थर से निकल कर कानून और संविधान की किताबों को फाड़ने दौड़ेंगे। गाँधी लोक-तंत्र को हाँकेंगे अन्ना की तरह ...मगर ये सभी अपने ही उत्तराधिकारियों द्वारा  पागल करार दिए जाने के बाद"हरीस में ठोंक दिए जाएँगे, जहाँ पड़े-पड़े  ये फिर पत्थर हो जाएँगे। यह मेरा अपना पाठ है। हर पाठक का अपना पाठ होता है। बात पोएटिक एसेंस की चली है, तो मैं बिना कविता के इसे फिर खत्म भी नहीं करूँगा। आइए देखें कि इस पत्थर के भीतर तिलक, गाँधी, अम्बेडकर, पटेल, जज साहब लोग हैं कि नहीं?-" यह देखना भी कम आश्चर्यजनक नहीं होगा।सभ्यता और संस्कृति की अवनति की यह तस्वीर कितनी भयानक है-
...
सपाट सूने में ऊँची-सी खड़ी जो/तिलक की पाषाण-मूर्ति है/निःसंग/स्तब्ध जड़ीभूत ...
इतने में यह क्या!!/भव्य ललाट की नासिका में से/बह रहा खून न जाने कब से/लाल-लाल गरमीला रक्त टपकता/(खून के धब्बों से भरा अँगरखा)/-.... " अँधेरे में।
इतना ही नहीं वहाँ गाँधी दिखते हैं--ध्यान से देखता हूँ - वह कोई परिचित/जिसे खूब देखा था, निरखा था कई बार/पर पाया नहीं था।/अरे हाँ, वह तो.../विचार उठते ही दब गये,/सोचने का साहस सब चला गया है।/वह मुख - अरे, वह मुख, वे गाँधी जी !!/
इस तरह पंगु !!
आश्चर्य!!
मुक्तिबोध।
            ओह !कितना दुखद जिन प्रतीकों से कोई समय-समाज आत्म-शक्तियाँ ग्रहण करता है, जीने लायक आवश्यक उत्तेजनाएँ प्राप्त करता है, उन्हीं प्रतीकों की ऐसी लाचारी कि वे खुद अपनी अस्मिता के खिलाफ  अदालत में हलफनामा देने को तैयार हैं कि मैं मोहनदास नहीं हूँ? ---" मैं आप लोगों को  को हाथ जोड़ता हूँ। मुझे किसी तरह बचा लीजिए। मैं किसी अदालत में हलफनामा देने के लिए तैयार हूँ कि मैं मोहनदास नहीं हूँ। मेरे बाप का नाम काबादास नहीं है। और वह मरा नही, अभी जिन्दा है। बहुत मारा है मुझे पुलिस वालों ने  बिसनाथ के कहने पर।साँस तक लेने में छाती दुखती है... जिसको बनना है बन जाए मोहन दास। मैं नहीं हूँ मोहनदास।मैं कभी कहीं से बी.ए. नहीं किया। कभी टाॅप  नहीं किया। मैं कभी किसी नौकरी के लायक नहीं रहा। मुझे चैन से जिन्दा रहने दिया जाए। अब हिंसा मत करो। जो भी लूटना हो, लूटो। अपने-अपने घर भरो। लेकिन हमें तो अपनी मिहनत पर जीने दो। काका आप लोग मेरा साथ दो।" पेज न.85-86 मोहनदास। यह थकी और टूटी हुई आवाज किसकी है? इस लाचारी और बेबसी से क्या इससे पहले हमारा साक्षात्कार नहीं हुआ? आजादी के ठीक पहले या उस रात जब देश का विभाजन हो रहा था, क्या तब हमें नहीं लगा था कि देश  बिसनाथ आदि के कहने पर चल रहा? उदय प्रकाश अगर पुरनबरा से पोरबंदर की याद नहीं भी दिलाते, तो भी यह छिपा नहीं रहता।कितना कठिन है यह समय , जहाँ हम अपने ही आजाद मुल्क में अपने सपनों के साथ विस्थापित हो रहे हैं!  जहाँ अंग्रेजों से लोहा लेने वाला गाँधी उनके बनाए प्रतिरूपों से आजादी के बाद भी  हार जाता है।यहीं अगर 'पीली छतरी वाली लड़की' कहानी के इस अंश को भी रखा जाए, तो औपनिवेशिक गुलामी  की तस्वीर भयावह हो उठती है,  "--किन्नू  दा ने राहुल से कहा, ‘आदिवासियों की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि उनकी ज़रूरतें सबसे कम हैं, वे प्रकृति और पर्यावरण का कम से कम नुकसान करते है, सिंहभूम, झारखंड, मयूरभंज, बस्तर और उत्तरपूर्व में ऐसे आदिवासी समुदाय हैं जो अभी तक छिटवा या झूम खेती करते है सिर्फ़ कच्ची, भुनी या उबली चीजें खाते हैं. तेल में फ्राई करना तक वे पसंद नहीं करते. वे प्राकृतिक मनुष्य है। अपनी स्वायत्तता और संप्रभुजा के लिए उन्होंने भी ब्रिट्रिश उपनिवेशवाद के खिलाफ़ महान् संघर्ष किया था लेकिन इतिहासकारों ने उस हिस्से को भारतीय इतिहास में शामिल नहीं किया, इतिहास असल में सत्ता का एक राजनीतिक दस्तावेज़ होता है...जो वर्ग जाति या नस्ल सत्ता में होती है वह अपने हितों के अनुरूप इतिहास को निर्मित करती है. इस देश और समाज का इतिहास अभी लिखा जाना बाकी है,’ 
            राहुल डर गया. उसने कुछ दिन पहले ही ‘स्टिगमाटा’ नाम की फिल्म देखी थी, ‘दि मेसेंजर विल बी सायलेंस्ड, ईश्वर के दूत को खामोश कर दिया जाएगा. सच कोई सूचना नहीं है. सूचना उद्योग के लिए सच का एक डायनामाइट है, इसलिए सच को कुचल दिया जाएगा. द टुथ हैज टु बी डिफ्यूज्ड. " पीली छतरीवाली।
 ...मगर उदय प्रकाश जानते हैं कि प्रतिरोध आवश्यक है, स्वप्न देखना और सोचना जीवन की निशानी! लेखक और कवि का संबंध जीवन से होता है, मृत्यु से नहीं! पराजय से नहींं।
आदमी मरने के बाद
कुछ नहीं 
सोचता

आदमी मरने के बाद
कुछ नहीं 
बोलता

 कुछ नहीं सोचने 
और कुछ नहीं बोलने के बाद
आदमी मर जाता है।
...
           दरियाई घोड़ा कहानी के बारे में डा. कृष्ण कुमार कहते हैं,‘कौन कहता है कि कहानियों के पेड़ नहीं हुआ करते। होते हैं। उदय ने अपनी कहानियों को उन पेड़ों पर से तोड़ा है, जैसे हम सेब-आम तोड़ते हैं। उदय की कहानियों के पेड़ न तो रूस के जंगलों में हैं, न चीन में, न जर्मनी के जंगलों में हैं, न स्पेन में। वे आज के डरावने समय के जंगल में उगे पेड़ हैं, जहाँ से उदय अमरूद की तरह अनगिनत बीज वाली कहानियाँ तोड़ते हैं। इन कहानियों में उनकी कविताएँ भी अन्तर्निहित हैं, जो रात में हारमोनियम की तरह बजती हैं और मनुष्य के भीतर की रिक्तता को भरती हैं। फिर भी कुछ लोग हैं जो ‘चोखी’ (वारेन हेस्टिंग्स का साँड) के मरने और तिरिछ द्वारा काटे हुए पिता की ट्रेजेडी पर ज़ोर-ज़ोर से हँसते हैं। ...वे शायद नहीं जानते कि दरियाई घोड़ा जब मरता है तो कितना छटपटाता है!’ -डॉ. कृष्ण कुमार (‘कहानी के नये प्रतिमान’ : वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली)
          ...और उनकी रचनात्मक उपस्थिति के बार में प्रख्यात कहानीकार  धीरेन्द्र अस्थाना का मूल्यांकन देखिए-यह अकारण नहीं है कि ‘ख़तरनाक विचार’ वाले नये लेखकों की कहानियाँ देश के कुछ बड़े लेखकों-आलोचकों द्वारा न सिर्फ रद्द करने की कोशिशें की जा रही हैं वरन् उनके समानांतर ऐसी कहानियों को प्रतिष्ठित करने की कोशिशें की जा रही हैं, जिनमें ‘विचार’ या तो अनुपस्थित है या है भी तो नख-दंत विहीन। ऐसी कहानियों का सच दृष्टा का नहीं, दर्शक का सच होता है। ...‘दरियाई घोड़ा’ उदय प्रकाश के कहानीकार की उपलब्धि के बतौर गिनी जा सकती है, जिसमें रचा-बसा गहरा मानवीय स्पर्श, संवेदना और ताप आज की युवा कहानी की सामर्थ्य और ताजगी का बैरोमीटर माना जा सकता है। एक कवि की इतनी समर्थ कहानियाँ उन लोगों को उलझन में डाल देंगी जो मानते हैं कि कवि अगर कहानी लिखेगा तो वह भी गद्य-कविता ही होगा। बेशक, उदय प्रकाश की इन कहानियों में भी एक आन्तरिक लय है, लेकिन वह कविता की नहीं कहानी की लय है। -धीरेंद्र अस्थाना (दिनमान : 29 जुलाई-4 अगस्त, 1984। मैं धीरेन्द्र अस्थाना के विचार से सहमत हूूँ कि यह केवल उनके आलोचकों की भ्रांति हैै। यहाँ 'हीरालाल का भूत'  का टेक्स्ट को भी लिया जा सकता है । गद्य में पोएटिक एसेंस की तलाश अथवा पद्य में गद्य की तलाश आलोचना की अपनी मजबूरी है। सच तो यह है कि कहानी का विचार अपना कण्टेण्ट और ढाँच लेकर आता है,भाषिक संरचना का एसेंस रचना के अवधारक तत्वों पर निर्भर है। हीरा की कहानी में  पोएटिक एसेंस स से क्या मतलब होगा। कहानी का मर्म यह है कि अन्याय का राज्य बहुत दिनों तक नहीं रहता। गरीबों की'हाय' उसे जला देती है। यह 'हाय' अर्थ संश्लिष्ट है। कहानी में इसका मार्मिक संकेत है,---
         " यह सारी कारस्तानी गाँव के हरिजनों-मोचियो और भूमिहीनों के लड़कों की है। हीरालाल की मौत के बाद घृणा, गुस्से और बदले की भावना में भरकर उन्हौंने ही प्रेतों का सारा नाटक खेला और हवेली को बरबाद कर डाला।" पेजन.142हीरालाल का भूत, तिरिछ संग्रह से।
          उदय प्रकाश किसी भी कथाकार से ज्यादा  जनवादी कहानीकार हैं। इसी अमानवीय शोषण मूलक सामाजिक सत्ता के सांस्कृतिक, आर्थिक और राजनीतिक साम्राज्य के संस्थानिक स्वरूप का प्रतिरोध भी तो 'कफन 'कहानी का  भी मर्म है। आरोपित आस्था और धार्मिक विचारों से महभंग के बाद उनके लिए(घीसू-माधव)अथवा हीरालाल के लिए क्या बचता है?घीसू माधव से  प्रकारांतर से हवेली वाली इसी दुनिया में रहने वाले समाज के ठीकेदारों के प्रति व्यंग से कहता है, उसके आक्रोश में एक प्रकार का भविष्यगत आलेख भी है, जो हीरालाल में फैंटेसी के स्तर पर परिगणित होता है। प्रेमचंद कहते हैं,"---जिस समाज में रात-दिन मेहनत करने वालों की हालत उनकी हालत से कुछ बहुत अच्छी न थी, और किसानों के मुकाबले में वे लोग, जो किसानों की दुर्बलताओं से लाभ उठाना जानते थे, कहीं ज्यादा सम्पन्न थे, वहाँ इस तरह की मनोवृत्ति का पैदा हो जाना कोई अचरज की बात न थी। "  कफन।आगे कहानी में घीसू की बातों से खिसिया कर पूरे आश्वस्त होकर कहता है," तू कैसे जानता है कि उसे कफ़न न मिलेगा? तू मुझे ऐसा गधा समझता है? साठ साल क्या दुनिया में घास खोदता रहा हूँ? उसको कफ़न मिलेगा और बहुत अच्छा मिलेगा!’ कफन।घीसू इस समाज का ऐसा शोषित है, जो जानता है कि शोषण-मूलक भेदकारी संरचना के अवमूल्यन से किसका नुकसान है। अपने वर्गगत फायदे के लिए धर्म-कर्म के कर्म-काण्ड और भाग्यवाद के आरोपित पाप-पुण्य के भोग वाले झूठे संजाल को वे टूटने नहीं देंगे। वह यह भी जानता है कि उस झूठे स्वर्ग का भोक्ता अगर हो सकता है, तो कौन हो सकता है, जिसकी वास्तविकता को वह कफन के पैसे से शराब पीकर  वह पहले ठुकरा चुका है। यह उसका संजीदा व्यंग है, जो प्रेमचंद की भाषिक-संरचना का बेमिसाल हिस्सा है,"घीसू खड़ा हो गया और जैसे उल्लास की लहरों में तैरता हुआ बोला-हाँ, बेटा बैकुण्ठ में जाएगी। किसी को सताया नहीं, किसी को दबाया नहीं। मरते-मरते हमारी जिन्दगी की सबसे बड़ी लालसा पूरी कर गयी। वह न बैकुण्ठ जाएगी तो क्या ये मोटे-मोटे लोग जाएँगे, जो गरीबों को दोनों हाथों से लूटते हैं, और अपने पाप को धोने के लिए गंगा में नहाते हैं और मन्दिरों में जल चढ़ाते हैं?" कफन।प्रतिरोध का यही सर्जनात्मक स्तर रचना का असली गुण-धर्म है।उदय प्रकाश इसके दूसरे उदाहरण हैं।
          कहना नहीं होगा कि यह रचनात्मक छटपटाहट और बेचैनी एक ऐसे संवेदनशील कथाकार की है, जिसके पास सृजन की शब्द-सत्ता ही नहीं, बल्कि उस परम्परा का पूरा सांस्कृतिक-बोध भी है। उनके सर्जनात्मक ल्खन में अबूझ,रहस्यमय जैसा कुछ नहीं। सामाजिक संज्ञान के अनुबोध और आत्मपूर्ण ग्रहणशीलता से मर्म का उद्घाटन  संभव है।  उनकी कहानियों के जटिल और संश्लिष्ट बिम्ब , प्रतीक मिथ और फैंटेसी जब अपनी संरचना से टूट कर हमारे अनुभव का हिस्सा बनते हैं, तो अर्थ का  स्तर उद्घाटित होने लगता है।स्वतंत्र दृष्टि वाला उदार, सहृदय,संवेदनशील और अन्वेषी पाठक मर्म ढूँढ़ लेता है। डा. सुरेन्द्र चौधरी भी कहते हैैं कि अर्थ का यह स्तर टेक्स्ट में भी संरचना के स्तर पर मौजूद रहता है। इसका उत्सेध पाठक या समीक्षक विषय-वस्तु के अंतर्वर्ती सूत्रों को पकड़कर  कर सकता है।उदय प्रकाश समकालीन हिन्दी कहानी का वह नायाब हीरा है, जिसे फिर पाया नहीं जा सकता।सदियों तक नदी-पहाड़ों, चाँद-सितारों और बालू-रेत-बीहड़ में भटकते रहने के बावजूद।यह आधुनिक हिन्दी साहित्य का अनमोल टुकड़ा है। हीरे का पहाड़ मैंने कभी नहीं देखा । कोई करना चाहे तो,हिन्दी साहित्य में इसकी तलाश निराला, प्रसाद, प्रेमचंद, रेणु,अज्ञेय, मुक्तिबोध, परसाईं उदय प्रकाश... जैसे रचनाकारों में ही संभव हो सकती है!                      

पता - 
आर.डी.एस काॅलेज
सालमारी, कटिहार। मेल - sksnayanagar9413@gmail.com
रचनात्मक उपलब्धियाँ-
हंस, कथादेश, वागर्थ, आजकल, पाखी, वर्त्तमान साहित्य, पाखी, साखी, 
कहन कला, किताब, दैनिक हिन्दुस्तान, प्रभात खबर आदि पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित।

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