आक का दोना
खेत में बने झोंपड़े के पास
खेत में बने झोंपड़े के पास
आकड़े की छांव में
निहारता हुआ फसल को
मैं बैठा रहता हूँ देर तक अकेला
कुछ ही समय पश्चात
देखता हूँ कि
हुकमिंग आ रहे है यहीं
कंधे पर तार बंधी
गहरी छीली हुई लकड़ी उठाये
हाथ में लटकाए बोतल
एक भरी पूरी एवडजात के साथ ।
उन्होंने इच्छा प्रकट की
हालांकि सारी इच्छाएं है छलनाएँ
क्या की जाए दो बातें
पहली अपने मे रमती हुई
दूसरी जनतंत्र की जाजम की
जो झुलस रहा है भीड़तंत्र बना ।
बेपर्दा आकड़ो के पास
अग्नि चेतन करते समय
उन्होंने बना ही दी चाय ।
एक गंभीर समस्या उभरी
कि पान कैसे करें?
वे बर्तन गवाड़ी भूल आये
मेरी सहयोग की मन में नही है
पास की आकड़ा हिल - डुला कर
मौन आमंत्रण देता है
बनाया जाता है तत्काल दोना
और पान किया जाता है
षट - रसों से सिरमौड़
त्रिलोकी पसरा प्रेम का ।
2 ये वह रेत नहीं
ये रेत तो है
किंतु वैसी न रही
इसके होने में अहसास नहीं
उभर आई है कृत्रिमता
मुंह उठाकर देखता हूँ तो
ठूंठ थे जहां कभी
उग आए है वहां
कई - कई हाथ लंबे खंभे
जो घूमते रहते है वर्तुलाकार
लगातार कई कई दिन रात
सोख लेते है जो
मेरी जमीं की सारी पवन ।
पिछले बरस की ही बात है कोई
हुआ है अघोषित बंद का एलान
सब मनाही हुई है
उन पवन चक्कियों की ओर जाने की
बच्चे नही जा सकते वहां
पाका, पीलू और सांगरी के बहाने ।
लगा दी गई है लंबी रोक
तमाम नासेटों की
अब जिनावर खोते नहीं
चुरा लिए जाते है
आदम - जानवरों के द्वारा ।
एक गहरा लाल बिंदु
पळपळा रहा है अनवरत
क्षणिक दिखता है क्षणिक ओझल
दूर ऊंचे आकाश में
तारों के ही पास
निहारा जा सकता है उसे
उपेक्षित दृष्टिकोण से ।
रात के सन्नाटे में
अध-खुली सी आंखों से ।
ढाणी के ठीक बीचो- बीच
बिछा रखी है कई तारें
जिनमे चलता है करंट
भागती है बिजलियाँ
आवागमन करती है
तकनीक ढाणी की तरफ ।
पर्दा ओढ़े मां को
खाया जाता है एक डर
सहम जाती है कल्पना से
कहीं ,कभी न कभी
नंगे पांव जमीं नापता
नन्हा धूड़ा चला न जाये
उस करंट से क्रीड़ा करने ।
3 गूगल के देश
दूर तक फैले
दूर तक फैले
अपने असीम और दिंगत फैलाव के साथ
ये रेतीले धोरे
इस जहां के नही है
इन्हें यहां लाया भी न गया
हवाओ के साथ हुई संधि के बाद ।
ये स्वतः उड़ आये है
सरहद पार से
महेंद्रा के देश से ।
इस धोरों में कुछ भी
नयापन जैसा नहीं है
एक स्वर है
कलकल है,निनाद है
मुस्कुराहट है चिर परिचित सी
कोई वैरागी राग है
किसी एक ही स्वर से उलझा
शायद वो संबोधन है कोई
अरे हां, मूमल ।
मैंने सुना था
किसी के मुख से कि
धोरे निर्जीव होते है
अफसोस ! गहरा अफसोस !!
कि मैं सुन न सका
बरसों बीत जाने बाद भी
सांय सांय के सरणाटे संग
घूमते फिरते है जीव
मूमल - महेंद्रा के नाम बांचते।
4.ह़दयंगम
कि घने बरसों तक
उलझनों से उलझकर
मैं कर न सका हृदयंगम ।
द्रुत गति से दौड़ती
मोटर- गाड़ियां और रेल
जैसे सब के सब
मेरे ही तो थे कभी
और फिर छीने गए मुझसे ही
उड़ती धूल के पीछे
पेट की भूख को मैंने
सहजता से किया हृदयंगम ।
कभी देखता हूँ
तेज हवा का एक झोंका
कारी लगे मेरे वस्त्रों से
हो जाता है आर - पार
मानो ! मुझसे पूछता है
प्रगति का सेहरा बांधे
इस नई - नवेली दुल्हन की
कहां आवश्यकता हुई
मुंह - दिखाई में में ही जिसके
छीन लिया संस्कृति का मूल
आखिर कब तक बचाओगे ब्याज ।
थोड़ी दूर चलकर सोचता हूँ
मेरे बापू की झुर्रियों के विषय में
लिपटा पड़ा जिससे संतोष
भीषण लू के थपेड़ों
उजड़ आंधियो के सौतेले व्यवहार
और तो और
तपती रेत से हींये के बाद ।
जिस घर को बचाया
वो तो नवीन सभ्यता के
एक हल्के से झोंके भर से
उड़ गया बहुत दूर,बहुत दूर ।
घर मे रखी हुई है
पिछले बरस की धान की बोरी
सवालात करती है मुझसे
आखिर कब तक रखोगे मुझे
दामों के इंतजार में
बेच क्यों नही देते अब ।
भावनाओ से उलझकर
मानवीय मूल्यों का क्या करोगे
ये छीन लेंगे बहुत जल्द
तुम्हारे सिर की पगड़ी
इससे पहले की धान के भाव गिरे
मुझे बेच डालो
हां, मुझे बेच डालो तुम ।
ग्राम / पोष्ट - सुल्ताना, जिला - जैसलमेर ( राजस्थान )
ग्राम / पोष्ट - सुल्ताना, जिला - जैसलमेर ( राजस्थान )
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