डॉ सुशील शर्मा
कितने औपचारिक
हो गए हम।
अहं कुहासा
घेरे हरदम
आत्मीय रिश्ते अब हैं सपने।
सब औपचारिक हो गए अपने।
बदली जीवन की परिभाषा।
अंदर घुटती मन अभिलाषा।
फिर भी जीते जाने क्यों हम।
साँझ के वो झिलमिल अंधियारे।
गाँव के वो प्यारे गलियारे।
वो पड़ोस का प्रिय अपनापन
अपनी मिटटी का वो सोंधापन
सोच - सोच कर आँखे होती नम।
जब से मैं इस शहर में आया
खुद को भी मैं लगूँ पराया।
जटिल कलुष से भरे हुए मन।
हर पल शंकित बीते जीवन।
नहीं मित्र कोई न हमदम।
घूम रहे सब हाथ ले खंजर।
चारों तरफ घृणा के मंजर।
मुख पर अपनापन के चित्र।
अंतस घृणा भरी विचित्र।
दीप बुझाता दिखता तम।
पर्वत जैसी है ख़ामोशी
शब्दों पर छाई मदहोशी
नेह के शीशे दरक रहें हैं।
रिश्ते नीचे सरक रहें हैं।
दो मुँह के व्यवहार रखें हम।
कितने औपचारिक
हो गए हम।
अहं कुहासा
घेरे हरदम
आत्मीय रिश्ते अब हैं सपने।
सब औपचारिक हो गए अपने।
बदली जीवन की परिभाषा।
अंदर घुटती मन अभिलाषा।
फिर भी जीते जाने क्यों हम।
साँझ के वो झिलमिल अंधियारे।
गाँव के वो प्यारे गलियारे।
वो पड़ोस का प्रिय अपनापन
अपनी मिटटी का वो सोंधापन
सोच - सोच कर आँखे होती नम।
जब से मैं इस शहर में आया
खुद को भी मैं लगूँ पराया।
जटिल कलुष से भरे हुए मन।
हर पल शंकित बीते जीवन।
नहीं मित्र कोई न हमदम।
घूम रहे सब हाथ ले खंजर।
चारों तरफ घृणा के मंजर।
मुख पर अपनापन के चित्र।
अंतस घृणा भरी विचित्र।
दीप बुझाता दिखता तम।
पर्वत जैसी है ख़ामोशी
शब्दों पर छाई मदहोशी
नेह के शीशे दरक रहें हैं।
रिश्ते नीचे सरक रहें हैं।
दो मुँह के व्यवहार रखें हम।
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