~ डॉ.मनोहर 'अभय'
जूड़ा खोले
बाल बखेरे
गजरे बेच रही लड़की।
बाप गाँठता जूते
भैय्या रिक्शा खींचे
गुदड़ी सीती मैय्या
बैठ नीम के नीचे
कड़क ठण्ड सी
झेल रहे सब कड़की।
गली- गली में फिसलन
पाँव नहीं फिसले
मणि वाले नागों के
मुखड़े हैं कुचले
देते रहे मवाली
पग- पग पर घुड़की।
बादल गरजे पानी बरसे
गजरे बेचेगी
घिरे अँधेरे की
लम्बी जुल्फें खींचेगी
रस्ता रोक रही आँधी
तड़क -तड़क बिजली तड़की।
गिन्नी देख इकन्नी
बड़े- बड़े बिक जाते
जी हुजूर की थामे पगड़ी
घुटनों तक झुक जाते
घास -फूँस की बनी रहे छपरी
गरीबी बेच रही लड़की।
◆◆
~ डॉ.मनोहर 'अभय'
नेरुल, नवी मुंबई
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