इस अंक के रचनाकार

इस अंक के रचनाकार आलेख खेती-किसानी ले जुड़े तिहार हरे हरेलीः ओमप्रकाश साहू ' अंकुर ' यादें फ्लैट सं. डी 101, सुविधा एन्क्लेव : डॉ. गोपाल कृष्ण शर्मा ' मृदुल' कहानी वह सहमी - सहमी सी : गीता दुबे अचिंत्य का हलुवा : राजेन्द्र प्रसाद काण्डपाल एक माँ की कहानी : हैंस क्रिश्चियन एंडर्सन अनुवाद - भद्रसैन पुरी कोहरा : कमलेश्वर व्‍यंग्‍य जियो और जीने दो : श्यामल बिहारी महतो लधुकथा सीताराम गुप्ता की लघुकथाएं लघुकथाएं - महेश कुमार केशरी प्रेरणा : अशोक मिश्र लाचार आँखें : जयन्ती अखिलेश चतुर्वेदी तीन कपड़े : जी सिंग बाल कहानी गलती का एहसासः प्रिया देवांगन' प्रियू' गीत गजल कविता आपकी यह हौसला ...(कविता) : योगेश समदर्शी आप ही को मुबारक सफर चाँद का (गजल) धर्मेन्द्र तिजोरी वाले 'आजाद' कभी - कभी सोचता हूं (कविता) : डॉ. सजीत कुमार सावन लेकर आना गीत (गीत) : बलविंदर बालम गुरदासपुर नवीन माथुर की गज़लें दुनिया खारे पानी में डूब जायेगी (कविता) : महेश कुमार केशरी बाटुर - बुता किसानी/छत्तीसगढ़ी रचना सुहावत हे, सुहावत हे, सुहावत हे(छत्तीसगढ़ी गीत) राजकुमार मसखरे लाल देवेन्द्र कुमार श्रीवास्तव की रचनाएं उसका झूला टमाटर के भाव बढ़न दे (कविता) : राजकुमार मसखरे राजनीति बनाम व्यापार (कविता) : राजकुमार मसखरे हवा का झोंका (कविता) धनीराम डड़सेना धनी रिश्ते नातों में ...(गजल ) बलविंदर नाटक एक आदिम रात्रि की महक : फणीश्वर नाथ रेणु की कहानी से एकांकी रूपान्तरणः सीताराम पटेल सीतेश .

गुरुवार, 22 फ़रवरी 2018

छत्तीसगढ़ी पारंपरिक लोकगीतों का सामाजिक संदर्भ, लोकगीतों में लोक आकांक्षा - परंपरा की अभिव्यक्ति

- कुबेर

समग्र साहित्यिक परंपराओं पर निगाह डालें तो वैदिक साहित्य भी श्रुति परंपरा का ही अंग रहा है। कालांतर में लिपि और लेखन सामग्रियों के आविष्कार के फलस्वरूप इसे लिपिबद्ध कर लिया गया क्योंकि यह शिष्ट समाज की भाषा में रचा गया था। श्रुति परंपरा के वे साहित्यए जो लोक.भाषा में रचे गये थेए लिपिबद्ध नहीं हो सकेए परंतु लोक.स्वीकार्यता और अपनी सघन जीवन ऊर्जा के बलबूते यह आज भी वाचिक परंपरा के रूप में लोकमानस में गंगा की पवित्र धारा की तरह सतत प्रवाहित है। लोकमानस पर राज करनेवाले वाचिक परंपरा की इस साहित्य का अभिप्राय निश्चित हीए और अविवादित रूप सेए लोक.साहित्य ही हो सकता है।

लोक क्या हैघ्
लोक क्या हैघ् इस संबंध में डॉण् हजारी प्रसाद द्विवेदी को उद्धृत करते हुए डॉण् जीवन यदु कहते हैं . ष्ष्लोक शब्द का अर्थ जनपद या ग्राम्य नहीं हैए बल्कि नगरों और गाँवों में फैली हुई वह समूची जनता हैए जिनके व्यावहारिक ज्ञान का अधार पोथियाँ नहीं हैं।ष्ष्1 यही लोक है।

लोक.जीवन में लोक.साहित्य की परंपरा केवल मन बहलावए मनोरंजन अथवा समय बिताने का साधन मात्र नहीं हैय इसमें लोक.जीवन के सुख.दुखए मया.पिरीतए रहन.सहनए संस्कृतिए लोक.व्यवहारए तीज.त्यौहारए खेती.किसानीए आदि की मार्मिक और नि:श्छल अभिव्यक्ति होती है। इसमें प्रकृति के रहस्यों के प्रति लोक की अवधारण और उस पर विजय प्राप्त करने के लिए उसके सहज संघर्षों का विवरणय नीति.अनीति का तथ्यपरकए अनुभवजन्य अन्वेषण और लोक.ज्ञान का अक्षय कोष निहित होता है। लोक.साहित्य में लोक.स्वप्नए लोक.इच्छा और लोक.आकांक्षा की स्पष्ट झलक होती है। नीतिए शिक्षा और ज्ञान से संपृक्त लोक.साहित्य लोक.शिक्षण की पाठशाला भी होती है। यह श्रमजीवी समाज के लिए शोषण और श्रम.जन्य पीड़ाओं के परिहार का साधन है। यह लिंगए वर्गए वर्ण और जाति की पृष्ठभूमि पर अनीति पूर्वक रची गई सामाजिक संरचना की अमानुषिक परंपरा के दंश को अभिव्यक्त करने काए इस परंपरा के मूल में निहित अन्याय के प्रति विरोध जताने का शिष्ट और सामूहिक लोकविधि भी है।

जीवन यदि दु:खए पीड़ा और संघर्षों से भरा हुआ है तो लोक.साहित्य इन दु:खोंए पीड़ाओं और संघर्षों के बीच सुख काए उल्लास का और खुशियों का क्षणिक संसार रचने का सामूहिक उपक्रम है। लोक.साहित्य सुकोमल मानवीय भावनाओं की अलिखितए मर्मस्पर्शी अभिव्यक्ति हैए जिसमें कल्पना की ऊँची उड़ानें तो होती हैए चमत्कृत कर देने वाली फंतासी भी होती है। यही कारण है कि लोक साहित्य का नायक आवश्यक नहीं कि मानव ही होय इसका नायक कोई मानवेत्तर प्राणी भी हो सकता है।

लोक.साहित्य मानव सभ्यता की सहचर है। इसकी उत्पत्ति कब और कैसे हुई होगीए यह अनुमान और अनुसंधान का विषय हैए परंतु एक बात तय है कि इसकी उत्पत्ति और विकास उतना ही प्राकृतिकए सहजए और अनऔपचारिक है जितना कि मानवीय सभ्यता की उत्पत्ति और विकास। लोक.कथाएँए लोक.गाथाएँए लोक.गीत तथा लोकोक्तियाँए लोक.साहित्य के विभिन्न रूप हैं। लोक.साहित्य में लोक द्वारा स्वीकार्य पौराणिक एवं ऐतिहासिक प्रसंगों काए पौराणिक पात्रों सहित ऐतिहासिक लोक.नायकों के अदम्य साहसए शौर्य और धीरोदात्त चरित्र काए अद्भुत लोकीकरण भी किया गया है। शिष्ट साहित्य का लोकसाहित्य में यह संक्रमण सहज और लोक इच्छा के अनुरूप ही होता है।

लोकगीतए लोककथाए लोकगाथाए कथाकंथलीए हाना ;मुहावरे और लोकोक्तियाँद्धए बुझउलाए बिसकुट्टक आदि लोकसाहित्य की ही विधाएँ हैं। फुगड़ीए खुड़वा जैसे विभिन्न लोक खेलों में भी खेल के साथ गीत गाये जाते हैं। इन खेल गीतों को भी लोक साहित्य की भिन्न विधा के रूप में मान्य किया जाना चाहिए। रातभर नाचा देखकर लौटा हुआ लोक चैपाल में अपने साथियों के बीच बैठकर बड़े मानोयोग से उस नाचा दल की विभिन्न प्रस्तुतियों की समीक्षा करता है। लंबी यात्रा से लौटा हुआ लोक अपनी यात्राए यात्रा के  अनुभवों और देखे गये स्थलों का सिलसिलेवार विवरण प्रस्तुत करता है। लोक की पुरानी पीढ़ी अपनी नयी पीढ़ी के समक्ष गाँव.समाज के किसी दिवंगत प्रभावशाली व्यक्तिए अपने पूर्वजों आदि के व्यक्तित्व और कृतित्व के किस्से सुनाता है। क्या इसे आज की आधुनिक शिष्ट साहित्य की भाषा में आलोचनाए संस्मरणए रेखाचित्रए यात्रावृत्तांतए जीवनीए आत्मकथा और व्यंग्य नहीं कहा जायेगाघ् जाहिर हैए आधुनिक शिष्ट साहित्य की गद्य की इन समस्त विधाओं का स्रोत भी लोकसाहित्य ही है। हिंदी साहित्य में इन विधाओं का विकास आधुनिककाल में हुआ है परंतु लोक में यह आदिकाल से प्रचलित रही हैए अब भी प्रचलित हैए यद्यपि लोकसाहित्य के रूप में इन्हें अब तक पहचान नहीं मिल पाई है।

लोकगीत लोक.जीवन के सर्वाधिक निकट होते हैं। लोकगीतों की जड़े लोक.संस्कृति की उर्वर भूमि से पोषित होती हैं इसी उर्वर भूमि से ये लयात्मकता का सुंदर स्वरूप और रागात्मकता की प्राण ऊर्जा पाती हैं।

लोकगीत क्या हैघ्
लोकगीत को परिभाषित करते हुए डॉण् जीवन यदु कहते हैं . ष्ष्लोकगीत लोक की आंतरिकता का लय और संगीतबद्ध रेखांकन हैं।ष्ष्2 यह ष्ष्सामाजिक व्यवस्थाओं की देन हैष्ष्3 लोक का ज्ञान अनुभव आधारित और व्यावहारिक होता है। यह वर्तमान और आधुनिकता का तिरस्कार नहीं करता अपितु उसे स्वीकार करता है। लोकगीतों में वर्तमान और आधुनिकता का समावेश होने के कारण यह गतिमान होता है। लेकगीतों की उपर्युक्त विशेषताओं को समझने के लिए ददरिया के निम्न पदों को देखा जा सकता है .

बागे बगीचा दिखे ल हरियर
दुरूग वाला नई दिखे बदे हव नरियर
मोर झूल तरी
मोर झूल तरी गेंदा इंजन गाड़ी सेमर फूलगे
सेमर फूलगे अगास मन चिटको घड़ी नरवा मा
नरवा मा अगोर लेबे ना

नवा सड़किया रेंगे ल मैना
चार दिन के अवईया लगाये महीना
मोर झूल तरीण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्

गाय चराये हियाव करिले
दोस्ती मा मजा नईये बिहाव करले
मोर झूल तरीण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्
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हे बटकी में बासीए अउ चुटकी में नून
में गावाथंव ददरिया तें कान देके सुन वो चना के दार
हाय चना के दारए हाय चना के दार राजाए चना के दार रानीए
चना के दार गोंदलीए तड़कत हे वो
टुरा हे परबुधियाए होटल में भजियाए झड़कत हे वो।

तरी फतोईए ऊपर कुरताए हाय ऊपर कुरता
रहि.रहि के सताथेए तोरेच सुरता।
होय चना के दारण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्

कांदा रे कांदाए केंवट कांदाए हाय केंवट कांदा
हे ददरिया गवईया केए नाम दादा।
होय चना के दार ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्

उद्धृत गीतों में . बाग बगीचाए सेमर का फूलनाए गाय चरानाए दोस्ती के प्रति अनास्था और विवाह में आस्थाए बटकी में बासी अउ चुटकी में नूनए तरी फतोई ऊपर कुरताए कांदा रे कांदा केंवट कांदाए में यहाँ के लोक स्ंस्कृति की अभिव्यक्ति हुई है परंतु इंजन गाड़ीए नवा सड़किया और होटल में भजियाए झड़कत हेए में लोक जीवन में आधुनिकता का समावेश और उसकी लोक स्वीकृति की अभिव्यक्ति हुई है।

बाग बगीचा दिखे ल हरियर
दुरूग वाला नई दिखे बदे हव नरियर
मोर झूल तरी
ददरिया छत्तीसगढ़ का श्रृंगार गीत है। उपरोक्त पंक्तियों का सौंदर्य देखिए। पति परदेश गये हैं। लौटने की तिथि बीत चुकी है। अब तो बाग.बगीचे भी हरे.भरे हो गये है। ;सावन भी बीत रहा है।द्ध विलंब होने के पीछे किसी अनिष्ट की आशंका है। इस कारण नायिका का धीरज टूट रहा है। अत: पति के सकुशल लौट आने की कामना करते हुए वह अपने ईष्ट से नारियल का बदना ;मनौतीद्ध बदी हुई है। यहाँ लोक के निश्छल और सरल आस्था की अभिव्यक्ति का सुंदर दृश्य अभिव्यंजित हो रहा है।

लोक गीत लोक की सांस्कृतिक यात्रा का साक्षी होता है
लोकसाहित्य ष्ष्लोक की सांस्कृतिक यात्रा का साक्षी है।ष्ष्4 निम्न ददरिया का अवलोकन कीजिए। पति व्यापार करने परदेश गये है। घर में अकेली पत्नी सासए ननद और देवर द्वारा निरंतर प्रताड़ित हा रही है। पति अब अपने गाड़ी में चढ़कर ;सवार होकरद्ध सकुशल लौट आये हैं। आनंदित पत्नी थारी सजाकर उसका आरती उतार रही है।
सास गारी देवेए ननंद मुंह लेवेए देवर बाबू मोर।
संइया गारी देवेए परोसी गम लेवेए करार गोंदा फूल।
केरा बारी में डेरा देबो चले के बेरा हो।

आए बेपारी गाड़ी म चढिके।
तोर आरती उतारव थारी म धरिके हो।

लोकगीतों में आधुनिकता का समावेश
सामाजिक.राजनीतिक बदलावों के कारण उत्पन्न परिस्थियाँ लोक में सहज स्वीकार्य होकर लोक साहित्य में अभिव्यक्त होने लगती हैं।
टिकली रे पइसा ल बीनी लेइतेंव।
मोर सइकिल के चढ़इया ल चिन्ही लेइतेंव ग।
पहिरे ल पनही खाये ल बीरा पान।
मोर रइपुर के रहइया चल दिस पाकिस्तान ग।

नायिका का प्रेमी सायकिलवाला है। वह पनही पहनता हैए पान खाता है। वह सायकिलवालों की भीड़ में उसे पहचानने की कोशिश करती है यह जानते हुए भी कि अब लौटने की कोई संभावना नहीं है क्योंकि देश का विभाजन हो गया है और अब वह पाकिस्तान चला गया है।

लोकदृष्टि लौकिक होती है
लोकसाहित्य लोकसंस्कृति का अंग है। छत्तीसगढ़ की लोकसंस्कृति कृषि आधारित है इसीलिए यहाँ के लोकसाहित्य में कृषि संस्कृति रची.बसी है। पौराणिक पात्रों का भी आगमन लोक में कृषक के रूप में ही होता है। इसका कारण है .  ष्ष्लोक साहित्य में मानवीय संबंधों का रूपांकन सरलतम विधि से होता है।ष्ष्5 परिणामस्वरूप लोकसाहित्य में पौराणिक पात्रों और अवतारी पुरुषों का भी सामान्यीकरण कर दिया जाता है। लोक साहित्य में अवतारी राम और सीता भी सामान्य मेहनतकश कृषक नर.नारी के रूप में आते हैं। जाहिर हैए लोकदृष्टि लौकिक होती है .
ष्ष्राम गिस नांगर फांदेए सीता लेगिस बासी।
बिन बीजा के साग लानेए हमू खाबों बासी।।ष्ष्6
लोकसाहित्य में अलौकिकए अतीन्द्रियए और चमत्कारपूर्ण कार्य सामान्य लौकिक पात्र भी कर सकता है।

लोकगीतों की आंतरिक बुनावट में असंगतता भी होती है
ष्ष्लोकगीतों की आंतरिक बुनावट में विरोधाभास ;असंगत कथनद्ध को नजर अंदाज नहीं किया जा सकता।ष्ष्7 इसका मूल कारण लोक की लौकिक दृष्टि ही है। लोक बरछी धारण करनेवाला है अत: उसका धनुर्धारी राम भी बरछी ही धारण करेगा।
राम धरे बरछी लखन धरे बान।
सीता माई के खोजन बर निकलगे हनुमान ग।
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लोकगीतों में लोक प्रतिरोध के स्वर भी होते हैं .
मित्रों! कहना न होगा कि छत्तीसगढ़ राज्य लोकसाहित्य के मामले म अत्यंत समृद्ध है। आप सब जानते ही है कि साहित्य अभिव्यक्ति का माध्यम होता है। हृदय का प्रेम.विषाद्ए हर्ष.उल्लास और सुख.दुखए की अभिव्यक्ति तो साहित्य के माध्यम से होता ही हैए इनके अलावा मन की सहमति.असहमतिए सामाजिक और धार्मिक शोषणों के प्रति विरोध.प्रतिरोध के स्वर और वे सभी बातें और कार्याभिव्यक्ति जिसे लोक अपनी सीमाओं और मर्यादाओं तथा सामाजिक तथा धार्मिक रूढ़ियों और दबावों के कारण क्रियात्मक रूप मे प्रत्यक्ष रूप से कह नहीं पाता हैए वे सभी प्रतिरोधात्मक वृत्तियाँ लोकसाहित्य के माध्यम से अभिव्यक्त होते हैं। इस तरह की अभिव्यक्ति के मामले में लोक और लोकसाहित्य की बराबरी शिष्ट साहित्य नहीं कर सकता। लोकसाहित्य के माध्यम से लोक अपनी असहमति और प्रतिरोध.विरोध को इतनी मारकए सुंदर और कलात्मक रूप में व्यक्त करता है कि उसके मन की भड़ास भी निकल जाती है और शोषकों और लक्षित लोगों को चुभती भी नहीं है। इन्हें भी सुननेवालों को भी केवल रसानुभूति ही होती है। कुछ उदाहरण देखिए .
 वैसे तो सुवा गीत के माध्यम से नारी.मन के हर्ष.उल्लासए व्यथा और करुणा की अभिव्यक्ति होती है परंतु यह गीत प्रमुख रूप सेे पुरूष प्रधान समाज द्वारा नारी उत्पीड़न के विरोध में नारी.मन की सामूहिक अभिव्यक्ति का ही गीत है। एक पद देखिए .
ष्ठाकुर पारा जाइबे तंय घुम.फिर आइबेए
तंय घुम.फिर आइबेए
कि सेठ पारा झन जाइबेए
रे सुवा नए कि सेठ पारा झन जाइबे।
सेठ टुरा हे बदन इक मोहनीए
बदन इक मोहनीए
कि कपड़ा म लेथे मोहाय।
रे सुवा नए कि कपड़ा म लेथे मोहाय।ष्

विचार करेंए सेठ वर्ग को शोषक वर्ग का पर्याय माना गया है। परंतु लोक के मन में इस वर्ग के प्रति कोई दुर्भावना नहीं है। सुआ गीत के इस पद में इस शोषक वर्ग के प्रति प्रतिरोध को जिस सौम्यताए शिष्टता और कलात्मक सौन्दर्य के साथ व्यक्त किया गया है वह कला और सौन्दर्यए दोनों की पराकाष्ठा ही तो हैघ् हमारा लोकसाहित्य इसी प्रकार के प्रतिरोध के अनेक कलात्मक स्वरों से भरे पड़े हैं। एक हाना देखव . ष्खेत बिगाड़े सोमनाए गाँव बिगाड़े बाम्हना।ष्

ब्राह्मण वर्ग लोक में चाहे जितना पूज्य और मान्य होए परंतु उसका शोषक रूप न तो लोकदृष्टि से बच सकता है और न ही उसके प्रतिरोध से। सोमना एक प्रकार का खरपतवार हैै जो देखते ही देखते खेतभर में फैल जाता है और फसल को बर्बाद कर देता है। इसी तरह जिस गाँव में ब्राह्मण परिवार होता हैए वह गाँव बिगड़ जाता है। उस गाँव के लोग सदा शोषित होते रहते हैंए गाँव में कभी एकजुटता और समृद्धि नहीं आ पाती। ददरिया गीत का एक पद है .
ष्ष्करे बिहावे पठोये नेवता
नाता.गोता नइ चीन्हें बाम्हन देवता।ष्ष्
;हे सखि! इन ब्राह्मणों के आमंत्रण ;बुलावेद्ध पर कभी मत जाना। ये नाते.रिश्ते नहीं पहचानते। इनकी नजरों में नारी केवल भोग्या है।द्ध
देवार जाति के लोग अपने लइकों.बच्चों का नाम रखते हैं . पुलिसए कप्तानए तहसीलदारए श्रीदेवीए आदि। सोचिएए यह क्या हैघ् इसी प्रकार राऊत नाच में भी अनेक दोहे कहे जाते हैं। एक उदाहरण इस प्रकार है .

ष्कोलकी.कोलकी बइला रेंगेए बइला के सींग म माटी।
ठाकुर घर जोहारे ल गेंवए बुचुवा हँड़िया म बासी।ं।ष्

तथा
ष्कोलकी.कोलकी बइला रेंगेए बइला के सींग म माटी।
ठाकुर पहिरे सोना.चांदीए इकुरइन पहिरे घांटी।।ष्

ठाकुर अर्थात मालिक के घर में बासी को ष्बुचुवा हँड़ियाष् में रखा जाता हैए और ठकुराइन गले में घंटी पहनती हैए ऐसा कहना मालिक की इज्जत और रुतबे का मर्दन करना है। सामान्य स्थिति में यह मालिक का घोर और असहनीय अपमान है। इस प्रकार का अपमान करनेवाला दण्ड से बच नहीं सकता। परंतु यह विशेष लोकपर्व पर गाया जानेवाला लोक गीत है। मालिक जानता है कि इस दोहे में संदर्भित मालिक की कोई व्यक्तिगत पहचान नहीं है। यह एक सामान्यीकृत मालिक है। संसार का हर मालिक एक जैसा होता है। और मालिक इस अपमानजनक दोहे को सुनकर भी सम्मान का ही अनुभव करता है। यह एक प्रकार का लोक प्रतिकार है और यह लोकगीतो की अनन्य विशेषता भी है। लोकसाहित्य में निहित लोक प्रतिकार और लोकप्रतिरोध के स्वर को स्वयं शोषक भी नहीं समझ पाता है। समझकर भी वह इससे असंपृक्त बना रहता है। लोकसाहित्य में लोक प्रतिरोध की सबसे बड़ी विशेषता यही है।
प्रतिरोध के उपर्युक्त पदों में विचारणीय तथ्य यह है कि सेठ वर्ग तो शोषक के रूप में जगजाहिर है हीए ठाकुर वर्ग ;मालिकद्ध भी शोषक वर्ग ही है परंतु ठाकुर ;मालिकद्ध सुख.दुख का साथी भी हैए इस नाते वह आपना ही हैं। इनका विश्वास किया जा सकता है। सेठ वर्ग श्रेष्ठ और शिष्ट वर्ग है। परदेशी है। इनका विश्वास कैसे किया जा सकता हैघ् ये अपने और हम इनके अपने कैसे हो सकते हैंघ्
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लोकगीतों में लोक परंपराओं की अभिव्यक्ति होती है .
लोकगीतों में बिहाव गीत में लोक परंपराओं की अभिव्यक्ति सर्वाधिक मुखर रूप में होती है। बिहाव एक संस्कार है। अन्य लोक त्यौहारों और लोक परंपराओं की तरह अब बिहाव संस्कार के स्वरूप में परिवर्तन आ गये हैं। सप्ताहभर चलनेवाला बिहाव समारोह अब तीन दिनों में ही निपट जाता है। बिहाव के विभिन्न नेगों.संस्कारों के समय गाये जानेवाले गीत अब केवल कैसेट तक ही सीमित हो गये हैं। फिर भीए संक्षिप्त रूप में ही सही आज भी बिहाव के सारे नेग संपन्न कराये जाते हैं।
लोक परंपरा में वर को भगवान श्रीरामचंद्र और वधु को माता सीता का रूप माना जाता है। इसी तरह वर का गाँव अयोध्या मेंए वधु का गाँव जनकपुर मेंए वर का पिता राजा दशरथ तथा वधु का पिता राजा जनक के रूप में रुपांतरित हो जाते हैं। तब सुवासिनें वर से पूछती हैं . ष्बाबू! तुम्हारे पिताजी चक्रवर्ती महाराजा हैए फिर भीए अब तक तुम कुंवारे कैसे रहेघ्ष् वर का जवाब तर्कसंगत और सामयिक है। वे कहते हैं . ष्दीदी! हरदी के देश में हरदी मंहगा हो गया है। पर्रा के देश में पर्राए कलसा के देश में कलसा और तेल के देश में तेल मंहगा हो गया है। ऐसे में शादी कैसे हो सकती थी।ष् मंहगाई की समस्या आज की नहीं हैए सनातन और पारंपरिक है।

तोरे ददा बाबू देसपति के राजा
अउ काहे गुन रहे गा कुंवारा
हरदी के देस दीदी
हरदी महंगा भइगेए अउ परी सुकाल भइगे
इही गुन रहेंव ओ कुंवारा
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रामे.वो.लखन के
रामे.वो.लखन के दाई तेल वो चढ़त हे
दाई तेल वो चढ़त हे
पेरि देबे तेलिया मोर राई सरसो के तेल
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लोक दृष्टि सदैव स्वप्नदृष्टा रही है। जिस वैभाव और आदर्श की प्राप्ति लोक के वास्तविक जीवन में संभव नहीं है उसके लिए न तो उसके मन में कोई पछतावा या मलिनता है अैर न ही उसे प्राप्त कने के लिए वह अव्यावहारिक या अनैतिक मार्ग अपनाता है। यह स्वप्न लोकगीतों में उभरकर सामने आती है और वह भी बड़े तार्किक ढंग से। राम और लखन का विवाह हो रहा है। राजा जनक के घर विवाह का मंडप सजा हुआ है तो जाहिर है आंगन की लिपाई साधारण गाय के गोबर से नहीं होगीए इसके लिए सुरभि गाय का ही गोबर मंगाया जायेगा। चैक मोतियों से पूरा जायेगा और सोने का कलश सजाया जायेगा।
सुरहिन गइया के गोबर मंगाले ओ
हायए हाय मोर दाई खूंट धर अंगना लिपा ले ओ
खूंट धर अंगना लिपा ले ओ
हायए हाय मोर दाई मोतियन चैंक पुरा ले ओ
मोतियन चैंक पुरा ले ओ
हायए हाय मोर दाई सोने के कलसा मंढ़ाले ओ
सोने के कलसा मंढाले ओ
हायए हाय मोर दाई सोने के बतिया लगा ले ओ
सोने के बतिया लगा ले ओ
हायए हाय मोर दाई सुरहिन घीव जला ले ओ
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यहाँ की संस्कृति का आधार कृषि है और उत्पादन के साधनों में गाँव के मरारए कंडराए बढ़ाईए राउत नाई आदि का महत्व लोकस्वीकृत है अत: सामाजिक जीवनए लोकोत्सव और मांगलिक कार्यों में इनकी सहभागिता अनिवार्य और महत्वपूर्ण होता है। इनकी सहभागिता यहाँ की लोकपरंपरा का अभिन्न अंग है। लोकोत्सवों और मांगलिक कार्यों के समय इनकी मान और प्रतिष्ठा को बराबर महत्व दिया जाता है। तेल चढ़ाने के समय गाये जानेवाले इस बिहाव गीत में इस परंपरा की अभिव्यक्ति इस प्रकार हुई है .
कहां रे हरदीए कहां रे हरदी
भई तोर जनामनए भई तोर जनामन
कहां रे लिए अवतार
मरार बारीए मरार बारी
दीदी मोर जनामनए दीदी मोर जनामन
बनिया दुकाने दीदी लिएंव अवतार
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इतिहास से पता चलता है कि स्वयंवर में कन्या द्वारा वरण न किये गये राजा महाराजा सदैव आक्रोशित हो जाया करते थे और चयनित वर को युद्ध की चुनौती का सामना करना पड़ता था। बिना युद्ध शादियाँ संपनन नहीं होती थी। आल्हाखण्ड में भी इस तरह के दृश्यों का वर्णन मिलता है। विवाह मंडप से कन्या को सुरक्षित व्याहकर लाने के लिए युद्ध जीतना जरूरी होता था। अत: माएँ दूल्हे को विजय का आशीर्वाद देती हुई उसका मंगल अभिषेक करती थी और उसे अपने दूध का वास्ता देती थी। यह परंपरा आज भी माँ द्वारा दूल्हे का मउंर सौपने के रूप में प्रचलित है।
पहिरव दाई्
पहिरव दाई हो सोन रंग कपड़ा
हो सोन रंग कपड़ा
सौंपव दाई मोर माथे के मउ
र्मउर सोपत ले्
मउर सोपत ले दाई बंइहा झन डोलय
दाई बंइहा झन डोलय
डोलय दाई मोर माथे के मउ
र्0
यद्यपि दीपावली के समय सुरहोती की रात गौरा.गौरी की पूजा की परंपरा हैए जो कि महादेव.पार्वती के विवाह का लोक रूप हैए परंतु इस परंपरा के साथ गोंड़ आदिवासी समाज में विवाहित बेटियों के मान.सम्मान की परंपरा भी जुड़ी हुई है। इसी तरह भोजली पर्व भी बेटियों की मान.सम्मान का पर्व है।

लोकगीतों में लोक आकांक्षाओं की अभिव्यक्ति
लोकगीतों में लोक आकांक्षाओं की भी अभिव्यक्ति होती है। भिलाई स्पात संयंत्र की स्थापना के समय सरकार ने यहाँ के लोगों को संपन्नता के खूब सब्जबाग दिखाये थे। इसी सपने को आधार बनाकर यहाँ के लोग अपनी उम्मीदों को अपनी लोककलाओं के विभिन्न माध्यमों के द्वारा व्यक्त करते रहे। परंतु जल्द ही उन्हें समझ आ गया कि वे छल लिये गये हैं। संयंत्र स्थापना हेतु जिन गाँवों को उजाड़ा गयाए जिन किसानों की जमीनोंए और खेतों को अधिग्रहित किया गयाय उनके लिए बड़े.बड़े वादे किये गये। पर वे अब कहाँ और किस हालत में हैंए कोई नहीं जानता। यहाँ की नदियों में बहनेवाले जल से यहाँ के खेतों की सिंचाई के लिए बारहों महीने पानी दिया जा सकता था। तब यहाँ के किसान और खेतिहर मजदूर पंजाब के किसानों की तरह समृद्ध और खुशहाल होते। परंतु स्पात संयंत्र बनने से यहाँ की नदियों का अधिकांश जल स्पात कारखाने में और स्पात नगरी के लोगों के टायलेटों में खप जाता है। छत्तीसगढ़ में केवल वर्षा आधारित खरीफ की खेती हो पाती है। प्रचुर जल संपदा के रहते छत्तीसगढ़ को हर साल सूखे की स्थिति का सामना करना पड़ता है। स्पात नगरी में अन्य प्रांत से आकर बसनेवाले लोगों ने यहाँ की समृद्ध लोक परंपराओं काए यहाँ की भाषा का मजाक उड़ाने में कोई कमी नहीं की। यहाँ के लौह अयस्क का दोहन करके जो स्पात बनाया जाता है वह छत्तीसगढ़ियों के लिए नहीं है। भिलाई स्पात संयंत्र छत्तीसढ़ और छत्तीसगढ़ियों के लिए अभिशाप के अलावा और कुछ भी साबित नहीं हुआ। इससे चाहे देश समृद्ध हुआ होगाए परंतु यहाँ के लोग केवल शोषत हुए हैं। संयत्र स्थापित होते समय छत्तीसगढ़ियों का दिखाये गए सपने की अभिव्यक्ति भी यहाँ के लोकगीतों में हुई है। ददरिया का यह पद देखिए .
ष्का साग रांधे टुरी लोहा के कड़ाही में।
तोर.मोर भेट होही दुरुग.भिलाई में।।ष्
;प्रेम करनेवाले नायक.नायिका की आर्थिक स्थिति असमान है। नायिका की रसोई में सब्जी लोहे की कड़ाही में बनती है। लोहे की कड़ाही  में सब्जी का बनना संपन्नता का प्रतीक है। नायक गरीब है। इसीलिए दोनों के मिलने की संभावना कम है। परंतु अब भिलाई में स्पात का कारखाना बन रहा है। सरकार ने कहा है कि यहाँ के सभी गरीबों को वह कारखाने में नौकरी देगी। नायक भी वहाँ नौकरी पायेगा। नौकरी पाकर खूब पैसा कमायेगा। उसके पास भी लोहे की कड़ाही होगी। तब नायिका से मिलन में कोई बाधा नहीं होगी। इसीलिए उन्होंने नायिका से वादा किया है कि अब उनकी अगली भेंट दुरुग.भिलाई में ही होगी।द्ध

संदर्भ .
1 लोकस्वप्न में लिलिहंसाए डाण्ॅ जीवन यदुए श्रीप्रकाशन दुर्गए छण्गण्ए संस्करण 2007ए पृष्ठ 7 ।
2 वही ए पृष्ठ 37 ।
3 वही ए पृष्ठ 37 ।
4 वही ए पृष्ठ 39 ।
5 वही ए पृष्ठ 8 ।
6 वही ए पृष्ठ 9 ।
7 वही ए पृष्ठ 42 ।

9407685557
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