इस अंक के रचनाकार

इस अंक के रचनाकार आलेख खेती-किसानी ले जुड़े तिहार हरे हरेलीः ओमप्रकाश साहू ' अंकुर ' यादें फ्लैट सं. डी 101, सुविधा एन्क्लेव : डॉ. गोपाल कृष्ण शर्मा ' मृदुल' कहानी वह सहमी - सहमी सी : गीता दुबे अचिंत्य का हलुवा : राजेन्द्र प्रसाद काण्डपाल एक माँ की कहानी : हैंस क्रिश्चियन एंडर्सन अनुवाद - भद्रसैन पुरी कोहरा : कमलेश्वर व्‍यंग्‍य जियो और जीने दो : श्यामल बिहारी महतो लधुकथा सीताराम गुप्ता की लघुकथाएं लघुकथाएं - महेश कुमार केशरी प्रेरणा : अशोक मिश्र लाचार आँखें : जयन्ती अखिलेश चतुर्वेदी तीन कपड़े : जी सिंग बाल कहानी गलती का एहसासः प्रिया देवांगन' प्रियू' गीत गजल कविता आपकी यह हौसला ...(कविता) : योगेश समदर्शी आप ही को मुबारक सफर चाँद का (गजल) धर्मेन्द्र तिजोरी वाले 'आजाद' कभी - कभी सोचता हूं (कविता) : डॉ. सजीत कुमार सावन लेकर आना गीत (गीत) : बलविंदर बालम गुरदासपुर नवीन माथुर की गज़लें दुनिया खारे पानी में डूब जायेगी (कविता) : महेश कुमार केशरी बाटुर - बुता किसानी/छत्तीसगढ़ी रचना सुहावत हे, सुहावत हे, सुहावत हे(छत्तीसगढ़ी गीत) राजकुमार मसखरे लाल देवेन्द्र कुमार श्रीवास्तव की रचनाएं उसका झूला टमाटर के भाव बढ़न दे (कविता) : राजकुमार मसखरे राजनीति बनाम व्यापार (कविता) : राजकुमार मसखरे हवा का झोंका (कविता) धनीराम डड़सेना धनी रिश्ते नातों में ...(गजल ) बलविंदर नाटक एक आदिम रात्रि की महक : फणीश्वर नाथ रेणु की कहानी से एकांकी रूपान्तरणः सीताराम पटेल सीतेश .

गुरुवार, 22 फ़रवरी 2018

अनुत्तरित


- राकेश भ्रमर

आज फिर उसके पोते ने पूछ लिया था - बाबा, मेरे पिता कहां हैं? गिरधारी ने चौंककर अपने दस साल के पोते को देखा। उसकी मासूम आँखों में एक चमक थी,जो यह जानने के लिए उत्सुक थी कि उसका पिता कौन है ? वह कैसा दिखता है? क्या उसके जैसा ? और वह उसके साथ क्यों नहीं रहता है?
गिरधारी के पास अपने पोते के प्रश्न का उत्तर था, परंतु वह दे नहीं सकता था। देना भी नहीं चाहता था। आज शायद तीसरी या चौथी बार यह प्रश्न उसके पोते ने उससे किया था। हर बार वह इस प्रश्न को टाल जाता था, परंतु अब लग रहा था, बहुत दिनों तक वह इस प्रश्न को टाल नहीं सकता था। पोता बड़ा ही नहीं, समझदार भी होने लगा था। रिश्तों को पहचानने लगा था। उसे अपने प्रश्न का उत्तर चाहिये था।
बहू ने बताया था कि अजय दिन में कई बार उससे भी अपने पिता के बारे में पूछता रहता था। बहू के पास बहाने कम पड़ गए थे। अपने अबोध और मासूम बच्चे के सवालों से वह परेशान हो जाती थी। उसके दु:खी मन को उसके बेटे के सवाल और ज़्यादा दु:खी कर देते थे। वह खीझ जाती थी,परंतु अपने मन को कन्ट्रोल कर लेती कि गुस्से में कहीं कमजोर पड़कर बेटे के सामने सच न उगल दें।
गिरधारी ने अजय के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा - बेटे, अभी तुम बहुत छोटे हो। जब बड़े और समझदार हो जाओगे तो सब कुछ बता दूँगा।
- आप मुझे बहका रहे हैं। अब मैं दस साल का हो चुका हूँ। मेरे सभी दोस्तों के पापा हैं। वह उनके साथ रहते हैं। मेरे पापा हमारे साथ क्यों नहीं रहते। न तो मम्मी कुछ बताती हैं, न आप। कोई न कोई गलत बात जरूर है, जो आप दोनों मुझसे छिपा रहे हो। वह जोर देकर कहता।
- नहीं बेटा, कोई गलत बात नहीं है। गिरधारी ने बात को खत्म करना चाहा परंतु अजय ने पैर को पटकते हुए कहा - आप चाहे न बताओ, परंतु मुझे पता चल चुका है कि मेरे पापा ने दूसरी मम्मी कर ली है।
गिरधारी का दिल धक् से रह गया। जो बात वह अजय से छिपाना चाहता था, उसे किसी ने उससे कह दी थी। किसी पड़ोसी ने ही बताया होगा ? मोहल्ले में सबको पता था। अब वह क्या करे ? कैसे अजय की जिज्ञासा को शांत करे। कुछ सोचकर उसने कहा - बेटा यह सच नहीं है। तुम्हारे पापा शहर कमाने गए थे। परंतु फिर अचानक पता नहीं कहां चले गये। उनका पता नहीं चल रहा है। मैंने बहुत खोजा परंतु पता नहीं चला।
- आप झूठ बोल रहे हैं ? अजय ने हाथ - पैर झटकते हुए कहा।
- न बेटा! तू गुस्सा मत कर! छोटा है, इसीलिए तुझसे सच्चाई नहीं बताई। कुछ दिन धीरज रख। फिर तुझसे सारी बात बता दूँगा।
उसने किसी तरह अजय की जिज्ञासा को शांत किया और उसको खेलने के लिए बाहर भेज दिया। फिर घर के बाहर पड़ी चारपाई पर लेट गया। पुरानी यादों के जख्म उभर आए थे।
गिरधारी की पत्नी की असमय मृत्यु कॉलरा से हो गयी। उसकी एक बड़ी बेटी और छोटा बेटा था। सोलह और तेरह वर्ष के। वह कोई चालीस साल का था तब। बेटी आठवीं पास करके घर बैठी थी और बेटा सातवीं का इम्तहान देकर आठवीं कक्षा में गया था।
पत्नी की मौत के बाद गिरधारी की बुद्धि जैसे कहीं गुम हो गयी थी। उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि घर को कैसे संभाले। बेटी और बेटा इतने परिपक्व नहीं हुए थे कि घर की या खुद की जिम्मेदारियों का स्वयं निर्वहन कर सकें।
ऐसी कठिन परिस्थितियों में न केवल नाते - रिश्तेदार, बल्कि गाँव वाले भी उसे यही सलाह देने में लगे थे कि उसे किसी विधवा या परित्यक्ता से विवाह कर लेना चाहिए। बिना गृहणी के घर बिगड़ जाता है। लोग उसे समझाते परंतु जैसे वह कुछ समझ ही नहीं रहा था।
गिरधारी चाहे कुछ निर्णय लेने में असमर्थ था परंतु इतनी समझ उसमें थी कि दूसरे ब्याह से घर में अक्सर मुसीबतें ज़्यादा आती हैं, खुशियां कम। विमाता पहले पति के बच्चों को असली मां का प्यार नहीं दे पाती और बच्चे भी दूसरी मां को अपनी मां मानने को जल्दी तैयार नहीं होते। इसलिए लोगों के समझाने के बाद भी वह अपने मन को दूसरी शादी के लिए तैयार नहीं कर पाया।
वह खुद अपने बच्चों के लिए मां बन गया। सुबह - शाम खाना बनाना, दिन में खेतों में काम करना, घर - बाजार करना, आदि। अपने बच्चों को खुशियां और सुख देने के लिए वह मशीन बन गया। पत्नी की मृत्यु के बाद उसके मुख पर हंसी के चिह्न लगभग गायब हो गये थे परंतु अपने बच्चों का पालन करके उसे असीम खुशी होती थी। अब वह उनके साथ ऐसे हंसता - बोलता था जैसे उसके घर में कभी किसी की मृत्यु नहीं हुई थी। बेटी भी इतनी बड़ी हो चुकी थी कि उसने जल्द ही चूल्हा - चौका संभाल लिया।
बेटी अठारह की हुई तो उसे उसकी शादी की चिंता हुई। गाँव के रिवाज के अनुसार वह शादी के लायक हो चुकी थी परंतु उसकी शादी के बाद घर में फिर से संकट के बादल उमड़ने वाले थे। बेटा दसवीं कक्षा में पढ़ रहा था। उसकी शादी करने का सवाल ही पैदा नहीं होता था।
- बेटी पराया धन होती है। उसे जितनी जल्दी उसके घर भेज दिया जाय, उतना ही अच्छा होता है। जैसी पुरातन कहावत पर अमल करते हुए गिरधारी ने अपनी बेटी को ससुराल रवाना कर दिया। घर में केवल दो पुरुष प्राणी रह गये - वह और उसका बेटा। उसके कुछ हितैषी दोस्तों और रिश्तेदारों ने उसे फिर से नेक सलाह दी कि किसी संतानहीन विधवा औरत को घर बिठा ले। परंतु उसके दिल ने इस सलाह को गवारा नहीं किया। बेटा अब इतना छोटा नहीं रहा था। अपनी जिम्मेदारी संभाल रहा था। रही बात चूल्हे - चौके की तो गिरधारी खुद ही कर लेता था। पहले भी करता था, अब भी करता था।
बेटे ने इण्टरमीडिएट किया तो रिश्तेदार दौड़ - दौड़ कर अपनी बेटियों के रिश्ते लेकर आने लगे। कई तरफ  से दबाव भी पड़ा। भई, घर को बिना औरत के नहीं छोड़ा जाता, बर्बाद हो जाता है।
गिरधारी सोच में पड़ गया। लड़का अभी अठारह का ही हुआ था। लोग कहते थे कि लड़के की शादी की जायज उम्र 21 वर्ष होती है, परंतु इस देश में कायदे - कानून का पालन शायद ही कभी कोई करता है। एक रिश्तेदार कुछ ज्यादा ही दबाव डाल रहा था। सीधे स्वभाव का गिरधारी भी झुक गया। बिना आगा पीछा सोचे उसने संजीव की शादी रिश्तेदार की बेटी से कर दी। संजीव ने भी तब कोई आपत्ति नहीं की थी। शादी की, पत्नी के साथ कुछ दिन भी बिताये। जिसका नतीजा यह अजय था। इसी बीच उसने डिग्री कॉलेज में आगे की पढ़ाई के लिए एडमीशन ले लिया था।
बेटे ने बी.ए. कर लिया। तब तक सब ठीक था। वह घर आता था, बीवी से बात करता था। एक साल बाद उसके बेटा हुआ था। उसे भी प्यार करता था। परंतु जैसे ही उसकी नौकरी लगी और वह आगरा गया, तभी से पता नहीं कैसे उसका मन बदल गया। किसी को पता भी नहीं चला। नौकरी के एकाध - साल तक उसने घर की खोज - खबर ली। कुछ पैसे भी भेजे, परंतु उसके बाद पूरी तरह से सम्बंध विच्छेद कर लिया, जैसे वह दुनिया में अनाथ था और उसके न तो बाप था न बेटा और बीवी।
घर में खाने - पीने की किल्लत नहीं थी। गिरधारी एक मंझोले कद का किसान था। खेती अच्छी होती थी, पर इस सबका क्या फायदा ? जब घर में एक जवान औरत बैठी हो और उसका पति उसे छोड़कर दूसरे शहर में जा बसा हो। बेटे का भी ख्याल न रखता हो।
प्रभा कुछ कहती तो न थी परंतु रात में चुपके - चुपके रोती थी। गिरधारी बहू का दर्द समझता था, परंतु वह उसका दर्द दूर नहीं कर सकता था। बेटे को कितनी चि_ियां लिखीं परंतु किसी का कोई जवाब नहीं आया। ऑफिस का फोन नंबर पता करके फोन करवाये, परंतु वह कभी फोन लाइन पर नहीं आया। कोई न कोई बहाना बनाकर टाल गया। गिरधारी समझ गया, कहीं न कहीं कोई गड़बड़ है। ऐसे कोई बेटा अपने परिवार से विमुख नहीं होता। उसने ऑफिस के लोगों पूछा। परंतु कोई कुछ सही ढंग से जानकारी नहीं दे पाया। क्या पता बेटे ने ऑफिस के लोगों को कोई पट्टी पढ़ा रखी हो।
अजय बड़ा हो रहा था। अभी तक उसने बाप के बारे में कुछ नहीं पूछा था, परंतु वह सदा अबोध नहीं बना रहेगा। एक न एक दिन बड़ा और समझदार होगा। तब क्या अपने बाप के बारे में नहीं पूछेगा। वह और प्रभा तब उसे क्या जवाब देंगे ?
बहू को एक शंका थी। उसने ससुर से कहा - लगता है, उन्होंने दूसरा ब्याह कर लिया है।
- तुम कैसे कह सकती हो? गिरधारी का मन नहीं माना।
- जब वह कॉलेज पढ़ने गए थे, तभी से कहने लगे थे - पता नहीं मैंने तुमसे शादी करने के लिए कैसे हाँ कह दी। बापू को भी जल्दी पड़ी थी। पढ़ - लिखकर नौकरी करता, तब मैं पढ़ी - लिखी सुंदर लड़की से शादी करता। मेरे साथ ऐसी सुंदर लड़कियां पढ़ती हैं कि तुम उनके सामने पानी भरती नजर आओगी। कभी कहते - तुम्हारे जैसी अनपढ़ - गंवार बीवी के साथ कैसे जिन्दगी गुजरेगी ? मेरा बस चले तो छोड़कर दूसरी शादी कर लूँ। इसीलिए मुझे लगता है, नौकरी मिलने के बाद उन्होंने झूठ बोलकर दूसरी शादी कर ली होगी, वरना घर क्यों न आते। हमारा ख्याल क्यों न करते।
गिरधारी को कुछ न सूझा। हताश भाव से बोला - बताओ बहू, मैं क्या करूँ?
- क्यों न एक बार आगरा जाकर पता करके आओ।
- उसका पता कहां है ?
- ऑफिस का नाम तो मालूम है। वहां से सब पता चल जाएगा।
गिरधारी को बहू की बात जंच गयी। दूसरे दिन ही गिरधारी आगरा के लिए रवाना हो गया। पहले बस से लखनऊ आया। रेलवे स्टेशन पर गया तो पता चला आगरा की गाड़ी रात को है। वह प्लेटफार्म पर इंतजार करता रहा।
दूसरे दिन सुबह - सवेरे ही वह आगरा पहुंच गया था। शहर आने का उसका यह पहला अनुभव था। स्टेशन पर ही पूछकर उसने हाथ - मुंह धो लिया था, फिर पूछता - पूछता वह इनकम टैक्स दफ्तर पहुंचा। संजीव वहीं पर क्लर्क था।
दफ्तर बंद था। वह गेट के पास बैठ गया। नौ बजे के लगभग एक चपरासी आया तो उसने उसी से पूछा - भैया, संजीव बाबू यहीं काम करते है?
- हां, आप कौन हैं ?
गिरधारी को संकोच हुआ, फिर मन को कड़ा करके सच बात बोल दी - मैं उसका बाप हूँ।
चपरासी चौंका। घूरकर गिरधारी की तरफ  देखा। पूछा - क्या कहा ? आप उनके बाप हैं ? ऐसा कैसे हो सकता है। ऑफिस में सबको पता है कि संजीव बाबू के माँ - बाप नहीं हैं। किसी रिश्तेदार ने उनको पाल - पोसकर बड़ा किया और पढ़ाया - लिखाया। तभी तो उनकी शादी में उनकी तरफ  का कोई रिश्तेदार नहीं आया था। सच बताओ, आप कौन हो?
- शादी ...! गिरधारी चौंका - क्या संजीव ने शादी कर ली?
- हां, पिछले साल ही तो हुई है, हमारे ऑफिस के बड़े बाबू की बेटी के साथ ... हाँ, आपने बताया नहीं, आप कौन हैं।
गिरधारी क्या बताता, वह कौन था ? उसकी आत्मा मर चुकी थी। बस शरीर में जान थी। अब संजीव से मिलने का क्या औचित्य था? उसने तो जीते - जी अपने बाप को मार दिया था। जब उसके लिए सगा बाप कोई नहीं था तो बीवी और बेटा को क्यों मानता ? अब तो उसने दूसरी शादी भी कर ली थी। बाप, बेटे और पत्नी के लिए अगर उसके मन में कोई प्यार, स्नेह और ममता होती तो दूसरी शादी ही क्यों करता? दफ्तर के लोगों से झूठ क्यों बोलता।
संजीव से मिलकर क्या करेगा अब ? मिलने से बात बढ़ेगी। लड़ाई - झगड़ा होगा। बात थाने और कोर्ट कचहरी तक जाएगी? मुकदमा चलेगा। क्या पता संजीव की नौकरी ही न चली जाए। वह स्वयं दु:ख उठा सकता था, परंतु बेटे को मुसीबत में नहीं डाल सकता था। रही बात प्रभा और अजय की तो वह उनको अपनी बहू और बेटे की तरह पालेगा। उसे भी तो अपने बुढ़ापे का सहारा चाहिए।
वह बाहर जाने के लिए मुड़ा, तो चपरासी ने फिर पूछा - कहां जा रहे हो बाबा! क्या संजीव बाबू से मिलकर नहीं जाओगे?
- मैं बाद में आ जाऊंगा! उसने बिना मुड़े हुए कहा।
- उनको क्या बता दूँ ?
- बता देना कि उसका वही रिश्तेदार आया था, जिसने उसे पाल - पोसकर बड़ा किया। पढ़ा - लिखाया और इस लायक बनाया कि वह अपनी मर्जी से अपना घर - परिवार बसा सके।
उसने यह नहीं देखा कि चपरासी के मुख पर क्या प्रतिक्रिया थी।
घर लौटकर उसने सारी बात प्रभा को बताई तो वह न रोई न गायी। बस इतना ही कहा - मुझे यही शक था।
- अब तुम क्या करोगी?
- कुछ नहीं बापू, मेरा एक बेटा है, इसे ही पाल - पोसकर बड़ा करूंगी।
गिरधारी ने उसका मन टटोलने के लिए पूछा - बहू तुम जवान हो। बड़ी लंबी उम्र पड़ी है। आगे कैसे करोगी?
- बापू, आप उसकी चिंता न करें। अगर आप मुझे जगह देंगे, तो यहीं पड़ी रहूंगी। आपकी सेवा करूंगी।
- बहू, कैसी बातें करती हो। तुम मेरी बहू हो। मैं तुम्हें क्यों घर से निकालूंगा। बेटा नालायक है तो इसमें बहू - पोते का क्या दोष? उनकी जिन्दगी मैं क्यों बर्बाद करूंगा? मैं तो इसलिए पूछ रहा था कि बिना पति के तुम कैसे गुजारा करोगी। अगर तुम दूसरा ब्याह करना चाहो तो मैं रोड़ा नहीं बनूंगा।
- बापू, न तो मैं विधवा हुई हूँ, न मेरे पति ने मुझे तलाक दिया है। बस मुझे छोड़कर अलग घर बसा लिया है। मैं अभी भी इस घर की बहू हूँ।
- बहू, तुम समझदार हो, जैसा उचित समझो, करो।
तब से लगभग आठ - नौ साल बीत गए हैं। संजीव ने कभी अपने बाप बेटे और पत्नी की खबर नहीं ली। गिरधारी ने इसकी परवाह नहीं की। बहू और पोते के साथ जीवन - यापन करता रहा। परंतु अब अजय बड़ा हो गया था। वह अपने बाप के बारे में सवाल करने लगा था।
गिरधारी मानसिक रूप से परेशान था। अजय के सवालों का जवाब उसे एक न एक दिन देना ही होगा। वह स्कूल में पढ़ रहा है। कल को कॉलेज जाएगा। जगह - जगह उससे पिता का नाम पूछा जाएगा। कागजातों, फार्मों में लिखवाया जायेगा, तब क्या उसके मन में यह सवाल नहीं उठेगा कि उसका पिता अगर जिन्दा है, तो कहां है ? कब तक वह मन के सवालों को मन के अंदर ही दबाकर रखेगा।
अजय अभी तक बाहर से खेलकर नहीं आया था।
गिरधारी ने तय किया, इस सवाल का उत्तर अभी खोजना होगा, वरना दिन ब दिन यह कैन्सर की तरह बढ़ता ही रहेगा। फिर इसका जवाब देना मुश्किल हो जाएगा।
उसने बहू से बातचीत की - बहू, अब तो पानी सर से ऊपर होने लगा है। अजय की जिज्ञासा बढ़ती जा रही है। वह रोज - रोज पिता के बारे में पूछता है। मेरी समझ में नहीं आ रहा है, उसे क्या जवाब दूँ।
- बापू, मैं भी उसके सवालों से बहुत परेशान हो गयी हूँ। दिन तो किसी तरह कट जाता है, परंतु रात में जब तक नींद नहीं आती। खोद - खोदकर पिता के बारे में पूछता रहता है। कहां तक बहाने बनाऊँ ?
- मेरी भी समझ में नहीं आता, उसको कैसे चुप कराऊँ। गाँव के लोग भी उसके कान में तरह - तरह की बातें भरते रहते हैं। सच्चाई को छुपाना हमारे लिए मुश्किल है।
- तो फिर क्या करें ?
- यहीं तो मेरी भी समझ में नहीं आ रहा है। गिरधारी ने हाथ मलते हुए कहा।
बहू ने कहा - क्यों न हम उसे सच्चाई बता दें?
- बता दें, तब क्या वह अपने बाप से मिलने की जिद्द नहीं करेगा।
- हाँ, वह तो करेगा।
- तो फिर ...।
- बापू, मेरी मानो तो अब कहानी को खत्म ही कर दो। उसे ले - जाकर एक बार उसके बाप से मिला दो। उसकी समझ में बात आ जाएगी।
- परंतु क्या वह अपने बेटे से मिलेगा?
- नहीं मिलेगा तो और अच्छी बात है। अजय को असलियत का पता तो चल जाएगा। बहू ने दृढ़ स्वर में कहा।
- तुम भी साथ चलोगी।
- नहीं, मैं उनका मुंह नहीं देखना चाहती। प्रभा के स्वर में तल्खी के साथ नफरत भी थी। गिरधाारी उसके मन की दशा समझ सकता था। बिना किसी गल्ती के कोई मर्द अगर अपनी पत्नी को बेसहारा छोड़ दे, तो उसके दिल पर क्या गुजरती होगी। यह केवल वही औरत समझ सकती थी। गिरधारी ख़ुद अपने बेटे से नहीं मिलना चाहता था परंतु मजबूरी थी। पोते के लिए उसे अपने बेटे से मिलने के लिए जाना ही पड़ेगा।
गिरधारी ने जब पोते को बताया कि कल वह दोनों उसके पिता से मिलने जा रहे हैं तो अजय की खुशी का ठिकाना न रहा। वह खुशी के अतिरेक में किलकारी मारकर उछलने - कूदने लगा। गिरधारी उसकी खुशी देखकर पहले तो हल्के से मुस्कराया, फिर उदास हो गया। प्रभा घूँघट की ओट में अपने आँसू पोंछने लगी। अजय की यह खुशी क्या सदा ऐसी ही रहेगी, या गरीब की खुशी की तरह जल्द ही तिरोहित हो जाएगी।
अजय ने पूछा - पापा कहाँ रहते हैं ?
- आगरा में! गिरधाारी ने उसे सब कुछ बता देना उचित समझा।
- वह हमसे मिलने क्यों नहीं आते ?
- वह पापा से ही पूछ लेना। हम लोग कल उनसे मिलने चलेंगे।
रात भर उसे नींद न आई। माँ से बार - बार पूछता रहा - मम्मी, पापा क्या हम सबसे नाराज हैं, जो हमसे मिलने नहीं आते। हम लोग उनके साथ क्यों नहीं रहते ? आप क्या कभी आगरा गयी हैं ? आदि -आदि। अजय के सवालों का अंत नहीं था और प्रभा दु:ख के सागर में डूब - उतरा रही थी। वह आने वाले दिनों के बारे में सोच रही थी। क्या उसका पति अजय को अपना बेटा मानेगा? उसे प्यार देगा? उसे सन्देह था। अजय का पापा से मिलन कहीं दु:खद संयोग में न बदल जाय।
गिरधारी अगले दिन ही अजय को लेकर आगरा के लिए निकल पड़ा। इस बार उसे ज़्यादा परेशानी नहीं उठानी पड़ी। बस और ट्रेन के सफर की उसे जानकारी थी। अंतर बस इतना था ही अब की बार आठ - नौ साल बाद जा रहा था। इतने वर्षों में मनुष्य के अंदर बहुत परिवर्तन आ जाते हैं। प्रकृति में बदलाव आ जाता है। वह स्वयं बूढ़ा हो चुका था।
पूरे रास्ते अजय बड़े - बड़े मकानों और पीछे भागते पेड़ों के बारे में तरह - तरह के सवाल करता रहा। गिरधारी यथासंभव उनके जवाब देता रहा। रात में ट्रेन में भी वह बहुत थोड़ा ही सोया। उसे अपने पिता से मिलने की बहुत जिज्ञासा और उत्सुकता थी।
सुबह स्टेशन पर ही फारिग हो लिए थे। इतिहास स्वयं को दोहरा रहा था। गिरधारी को अपनी पहली आगरा यात्रा की यादें कचोट रही थीं। पिछली बार वह बेटे से बिना मिले लौट आया था। इस बार ऐसा नहीं कर सकता था। उसे संजीव से मिलना ही पड़ेगा। अजय को जो उससे मिलाना था।
इस बार भी वह दफ्तर बहुत जल्दी पहुंच गया था। वह दोनों सड़क पर टहलते रहे। जब चपरासी आया, तब भी गिरधारी ने उसे नहीं टोंका। बस बाहर से आकर गेट के अंदर लॉन में बैठ गया था। चपरासी अंदर चला गया था।
साढ़े नौ बजे के लगभग कर्मचारी और अधिकारी आने लगे थे। इसके अतिरिक्त कुछ अन्य व्यक्ति भी अपने काम से गेट के अंदर प्रवेश कर रहे थे। गिरधारी एक - एक व्यक्ति को गौर से देख रहा था। वह चाहता था, संजीव से बाहर ही मुलाकात हो जाये। दफ्तर के लोगों के बीच में संजीव शायद उसे पहचानने से ही इंकार कर दे और उसके ऊपर चीखने - चिल्लाने लगे। वह कोई हंगामा खड़ा नहीं करना चाहता था।
दस बजे के लगभग एक मोटरसाइकिल गेट के अंदर आई। उस पर बैठा व्यक्ति उसे जाना - पहचाना लगा। उसने गौर से देखा। वह संजीव ही था। थोड़ा मोटा हो गया था। अपने जीवन से सुखी लग रहा था। बिल्डिंग के एक तरफ संजीव अपनी मोटर साइकिल खड़ा कर रहा था। तभी गिरधारी अजय का हाथ पकड़े उसके पीछे पहुंचा और धीमें स्वर में पुकारा - संजीव बेटा!
संजीव चौंका, पलटा और गिरधारी को देखकर उसके चेहरे पर ऐसे भाव आए, जैसे उसने भूत देख लिया हो। उसके मुँह से तत्काल कोई आवाज नहीं निकली। मुँह खुला रह गया। गिरधारी को देखने के बाद उसने उसके साथ खड़े अजय को देखा और एकबारगी लगा जैसे वह अपने बेटे को पहचान गया था, परंतु फिर तत्क्षण उसके चेहरे के भाव बदल गए। आश्चर्य की जगह उसके चेहरे पर विरक्ति और घृणा के भाव उपज आए। वह तल्खी से बोला - यहां क्या करने आए हैं? क्या कोई तमाशा। उसने अपने बाप के पांव तक नहीं छुए।
- तमाशा? गिरधारी ने भी उतनी ही तल्खी के साथ कहा - वह भी भरा हुआ बैठा था - मैं तमाशा खड़ा करने आया हूँ। बेटा, मैं तुम्हारा बाप हूँ। तुम्हें पाल - पोसकर बड़ा करने और पढ़ाने - लिखाने में मैंने जो कष्ट उठाये हैं, वह तुम क्या महसूस करोगे। मैं तुम्हें कोई कष्ट देने नहीं आया हूँ। यहीं करना होता तो कब का अदालत में जाकर तुम्हें दूसरी शादी के जुर्म में जेल भिजवा देता। नौकरी से हाथ धोते वह अलग से ... इसका कोई अहसास तुम्हें नहीं है। उल्टे मुझे ही दोष दे रहे हो। अरे बेटा, मैं तो कभी यहां नहीं आता लेकिन मजबूरी में आना पड़ा। यह तुम्हारा बेटा है। उसने अजय की तरफ देखकर कहा। - यह बड़ा होकर तुम्हारे बारे में सवाल करने लगा तो मजबूरन इसे तुम्हारे पास लेकर आना पड़ा। मुझे तो तुम्हें बेटा कहने में भी शर्म आती है। कहते - कहते वह हांफने लगा था, जैसे मीलों दौड़कर आया हो।
गिरधारी का लंबा -चौड़ा व्याख्यान सुनकर संजीव की रूह कांप गयी। उसके चेहरे पर भय और खौफ  के चिह्न स्पष्ट रूप से दिखाई दे रहे थे। उसने भयभीत निगाहों से अपने इर्द - गिर्द देखा। शुक्र था कि कोई उन्हें नहीं देख रहा था। संजीव ने हड़बड़ाकर कहा - आओ, बाहर चाय की दुकान पर बात करते हैं। और वह बिना देखे कि वह दोनों पीछे आ रहे हैं या नहीं। गेट से बाहर निकल गया। गिरधारी भी अजय का हाथ पकड़े - पकड़े बाहर की तरफ  चल पड़ा।
अजय की समझ में नहीं आ रहा था कि वहां क्या हो रहा था। वह तो सोच रहा था, उसका पापा उसे देखते ही गोद में उठा लेगा। उसकी चुम्मी लेगा। प्यार करेगा और वह उसकी गोद में चिपक जाएगा। फिर उतरेगा ही नहीं, परंतु वहां तो ऐसा कुछ नहीं हुआ था। उसका नन्हा दिल रुआंसा - सा हो गया था।
सड़क पर गुमटीनुमां चाय की कई दुकानें थीं। संजीव एक चाय की दुकान के बाहर पड़ी बेंच पर बैठ गया। गिरधारी से कहा - कुछ खाया - पीया कि नहीं। फिर उसने चायवाले को चाय और टोस्ट का ऑर्डर दिया।
गिरधारी खड़ा ही रहा। बोला - हम यहां खाने - पीने नहीं आए हैं, न कोई सवाल - जवाब करने कि तुमने अपने बाप - बीवी और बच्चे को क्यों त्याग दिया और क्यों दूसरा घर बसा लिया ? मैं तो बस इसलिए आया हूँ कि यह तुम्हारा बेटा है। इससे प्यार के दो शब्द बोल सको तो बोल दो। फिर हम चले जाएंगे और दुबारा नहीं आएंगे।
संजीव ने गिरधारी की बात पर ध्यान न देते हुए कहा - इसमें सारा दोष तुम्हारा है। या तो तुम मुझे कॉलेज तक पढ़ाते नहीं और अगर पढ़ाना था तो जल्दी शादी न करते। तुमको क्या पता, कॉलेज में मेरे साथ पढ़ने वाले सभी लड़के कुंवारे थे और मैं अकेला शादीशुदा। मुझे उनके बीच में कितनी शर्मिंदगी उठानी पड़ती थी। और कॉलेज की लड़कियां, वो भी मेरा मजाक उड़ाती थीं। दूसरे लड़कों से दोस्ती करतीं, और मुझसे दूर भागतीं। मेरे मन में हीनभावना घर करती गयी।
- तो अपनी हीन भावना दूर करने के लिए तुमने दूसरी शादी कर ली।
- शायद यही कारण रहा हो। अब मैंने नई दुनिया बसा ली है। मेरा घर परिवार है, दो बच्चे हैं। मैं अपने बीवी - बच्चों के साथ सुखी हूँ।
- मैं भी तो तुम्हारा बाप हूँ। बिना बाप के कोई बेटा नहीं होता। यह भी तुम्हारा बेटा है जो तुम्हारी बांहों में झूलने के लिए मचलता है। तुम्हारे प्यार के दो बोल सुनने के लिए तरसता है। इसी जिद्द पर मैं इसे तुमसे मिलाने के लिए लाया था परंतु लगता है तुम पत्थर हो गए हो। और वह जो घर में बैठी है, वह तुम्हारी ब्याहता है। सारी उमर रहेगी। तुम भले ही सब कुछ तोड़ दो, परंतु खून का रिश्ता कभी नहीं टूटता है। तुमने कभी अपने मन की बात कही होती तो कोई अच्छा रास्ता भी निकल सकता था, परंतु नहीं लगता है, मेरे ही पालने - पोसने में कोई कमी रह गयी थी। अब हम चलते हैं परन्तु चलते - चलते तुमसे एक विनती है। यह तुम्हारा बेटा है। हमसे कितने भी नाराज हो, परंतु अजय के सिर पर एक बार हाथ तो फेर हो सकते हो।
संजीव ने एक बार अजय की तरफ  देखा। वह आँखों में चाहत की आशा लिए अपने बाप की तरफ  देख रहा था। संजीव ने अपना सिर नीचा कर लिया, परंतु अजय की तरफ  उसके हाथ नहीं उठे।
गिरधारी समझ गया। उसने कहा - चलो बेटा। और अजय का हाथ थामकर एक तरफ चल दिया। उसका हृदय चकनाचूर हो गया था। लड़के बिगड़ जाते हैं, मां - बाप से जुदा हो जाते हैं, परन्तु मां - बाप नालायक से नालायक बेटे को भी घर से नहीं निकालते। यहां तो संजीव ने एक अलग ही मिसाल कायम की थी।
गिरधारी के पैर मन - मन के हो रहे थे। इस सारे घटनाक्रम पर अजय एक बार भी नहीं बोला था। पता नहीं वह कितनी बात समझा था, कितनी नहीं। परंतु वह बिल्कुल खामोश था जैसे उसके दिल को बहुत बड़ा सदमा पहुँचा था।
चलते - चलते गिरधारी ने अजय के सिर पर प्यार से हाथ फेरते हुए कहा - बेटा, जब तुम बड़े हो जाओगे। तब अपने पापा से मिलने आना। तब वह तुमसे जरूर प्यार से मिलेंगे। अभी हम से नाराज हैं न! इसलिए तुमसे बात नहीं की।
अजय अचानक रुक गया। गिरधारी भी रुका। अजय ने चेहरा ऊपर उठाकर अपने बाबा की तरफ  देखा। अजय की आँखों न जाने कैसे भाव थे, जिन्हें गिरधारी ठीक से समझ नहीं पाया ... नफरत, क्रोध या वितृष्णा के ... परंतु अजय की बात उसे बहुत स्पष्ट सुनाई पड़ रही थी .... बाबा, अब और कितना झूठ बोलोगे मुझसे। मेरा बाप मर चुका है।
गिरधारी सन्न् रह गया।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें