इस अंक के रचनाकार

इस अंक के रचनाकार आलेख खेती-किसानी ले जुड़े तिहार हरे हरेलीः ओमप्रकाश साहू ' अंकुर ' यादें फ्लैट सं. डी 101, सुविधा एन्क्लेव : डॉ. गोपाल कृष्ण शर्मा ' मृदुल' कहानी वह सहमी - सहमी सी : गीता दुबे अचिंत्य का हलुवा : राजेन्द्र प्रसाद काण्डपाल एक माँ की कहानी : हैंस क्रिश्चियन एंडर्सन अनुवाद - भद्रसैन पुरी कोहरा : कमलेश्वर व्‍यंग्‍य जियो और जीने दो : श्यामल बिहारी महतो लधुकथा सीताराम गुप्ता की लघुकथाएं लघुकथाएं - महेश कुमार केशरी प्रेरणा : अशोक मिश्र लाचार आँखें : जयन्ती अखिलेश चतुर्वेदी तीन कपड़े : जी सिंग बाल कहानी गलती का एहसासः प्रिया देवांगन' प्रियू' गीत गजल कविता आपकी यह हौसला ...(कविता) : योगेश समदर्शी आप ही को मुबारक सफर चाँद का (गजल) धर्मेन्द्र तिजोरी वाले 'आजाद' कभी - कभी सोचता हूं (कविता) : डॉ. सजीत कुमार सावन लेकर आना गीत (गीत) : बलविंदर बालम गुरदासपुर नवीन माथुर की गज़लें दुनिया खारे पानी में डूब जायेगी (कविता) : महेश कुमार केशरी बाटुर - बुता किसानी/छत्तीसगढ़ी रचना सुहावत हे, सुहावत हे, सुहावत हे(छत्तीसगढ़ी गीत) राजकुमार मसखरे लाल देवेन्द्र कुमार श्रीवास्तव की रचनाएं उसका झूला टमाटर के भाव बढ़न दे (कविता) : राजकुमार मसखरे राजनीति बनाम व्यापार (कविता) : राजकुमार मसखरे हवा का झोंका (कविता) धनीराम डड़सेना धनी रिश्ते नातों में ...(गजल ) बलविंदर नाटक एक आदिम रात्रि की महक : फणीश्वर नाथ रेणु की कहानी से एकांकी रूपान्तरणः सीताराम पटेल सीतेश .

शुक्रवार, 17 नवंबर 2017

बदबू

हरिभटनागर

आपके लिए यह घटना गैरज़रूरी, कान न देने वाली, हो सकती है। लेकिन मेरे लिए इसकी अहमियत है। यही वजह है कि मैं इससे बेचैन हूँ और इसके तले मेरा दम घुटा जा रहा है।
इस घटना के बारे में सोचता हूँ जो मेरे साथ घटी, तो समझ में आता है कि इसका संबंध उस बदबू से था जो दो दिन से मेरी नाक में दम किए हुए थी।
लेकिन वह बदबू न माँ को महसूस हो रही थी और न पत्नी - बेटे को। अजब हाल था। मैं बेचैन था। गुस्से से भरा। बेहद गालियाँ बकता हुआ जो थमने का नाम नहीं ले रही थीं।
उस दिन सुबह - सुबह जब मुझे तीखी बदबू महसूस हुई बाहर और बैठके में जहाँ मैं सोता हूँ, कुछ नज़र नहीं आया, तो मैंने माँ से पूछा।
माँ ने अगल - बगल सूँघते हुए मुझे देखा और कहा कुछ तो नहीं है!
माँ पर मुझे गुस्सा आया। बुढ़िया, पत्नी की बुराई तुरंत सूँघ लेती है और इस पर चिटकती रहती है। बदबू के लिए कह रही है। कुछ तो नहीं है! बहुत ही कमीन है रांड!!!
माँ पर मेरा गुस्सा बढ़ता गया और मैं उसे गंदी - गंदी गालियाँ देने लगा। उसी रौ में पहले मैंने बैठके को उलट - पुलट डाला। जितनी बड़ी माँ की कुठरिया है जिसमें सिर्फ  माँ की खाट आती है। उतना ही बड़ा मेरा बैठक है। जिसमें एक चर्राता तखत पड़ा है। तखत के नीचे घर भर के सूखे - ऐंठे जूते -चप्पलों का हुजूम है। कई सारे मसहरी के डंडे, खाट की पाटियाँ, पुराना स्टोव, कनस्तर, जंग खाए डिब्बे, झाड़ू, कूँची के अवशेष। बैठके की कुल जमा पूँजी थी जिसे मैंने छितरा डाला। बदबू का सुराग न मिला। मिला तो सिर्फ  तीखी गंध का भभका जिससे मेरे नथुनों में बेतरह खुजाल पड़ गई।
जब सुराग न मिला तो गुस्से को बढ़ना था। गालियों की रफ्तार अब अपने चरम पर थी। चीखते हुए मैंने माँ की कुठरिया को खखोना चाहा।
अब आप यह देखिए कि लम्बे अरसे के बाद, अगर इसकी गणना की जाए तो पाँच -छै: साल का समय तो निकल ही गया होगा। मैं माँ की कुठरिया में झाँक रहा हूँ। इस कुठरिया में माँ अपनी दुनिया बसाए है और उसी में मगन है। एक खाट जो गड़हे की शक्ल ले चुकी है, दो टीन के टूटे - पिचके बकसे हैं जो इंर्टों के ऊपर रखे हैं। जिन पर माँ की पुरानी धूल खाई घिसी धोतियाँ पड़ी हैं। चारों तरफ  भगवान के कैलेण्डर गंजे हैं, जो धूल और धुएँ को गले लगाए हैं जिन्हें दीवाल अपने से दूर करना चाह रही है और वे हैं कि दीवाल छोड़ना नहीं चाह रहे हैं। सिर के ऊपर एक गाँठदार डोरी है जिस पर गूदड़ होते रजाई - कम्बल और कपड़े झूल रहे हैं।
अपनी दुनिया में माँ मुझे घुसने नहीं दे रही है। मैं हूँ कि जबरन घुस आया हूँ और सुराग को पकड़ लेना चाह रहा हूँ और सुराग है कि अंगूठा दिखला रहा है।
बकसों को धकियाने पर माँ उतना नहीं किड़किड़ाई जितना खाट के खींचे जाने पर। वह चीख पड़ी जोरों से जैसे नोंच खाएगी नासपीटे टूट जाएगी! कहाँ लेटूँगी मैं। तेरी छाती पर!!!
माँ की मैंने एक न सुनी और खाट को खींच के खड़ा कर दिया। जब से कुठरिया में खाट पड़ी थी, शायद पहली बार अब खड़ी की जा रही थी। जालों, असंख्य मकड़े - मकड़ियों, भुरभुरी सीली मिट्टी के अलावा वहाँ कुछ न था।
मैं बाहर आ खड़ा हुआ। अंदर माँ अपनी फूटी किस्मत को टोकती और मुझे कोसती हुई अपनी बिगड़ी दुनिया को पुरानी शक्ल दे रही थी।
अब पत्नी की कुठरिया की तरफ  मेरी निगाह थी जो सोने की जगह भी थी और चौका भी।
कुठरिया की छत धुएँ से काली, मोर्चा खाई थी। जिसमें पपड़ियाँ उधड़ रही थीं जिसमें वह अपने दुखी, भयावने कुनबे को छुपाए थी। कुनबे के सदस्य थे कि झाँकने से बाज नहीं आ रहे थे और उसमें से निकल पड़ना चाह रहे थे। दीवारें सीलन से ओदी थीं कि छूने से सहम जाएँगी।
जमीन पर एक कोने में स्टोव था और उसके गिर्द रात के ढेर सारे जूठे बर्तन जो झूठे जैसे नहीं लग रहे थे। शायद ये बता रहे थे कि दाल - रोटी की तंगी का गुस्सा। उनको बेरहमी से खंगाल के उतारा गया है।
तखत पर पत्नी चित्त पड़ी सो रही थी किसी गुड़ी - मुड़ी सड़ी कथरी जैसी। अगर कोई उसे देखे तो कथरी और उसमें फ$र्क नहीं कर पाए। पता नहीं क्यों पत्नी हर व$क्त थकी टूटी उनींदी रहती और ज़्यादातर तखत पर पड़ीं सोती रहती जैसे कि अभी सोई पड़ी है। सुबह - शाम किसी तरह चाय बना देने या रोटी पाथ के रख देने के अलावा उसकी दिनचर्या निढाल पड़े रहने की थी। बेटा भी हर व$क्त उससे चिपटा रहता।
पत्नी मुँह बाएं खर्राटे भरती, खुली आँखों छत देख रही थी मानों छत के कुनबों से राज की बात कर रही हो। बाल उसके छितरे थे और तकिये से होते हुए फर्श की तरफ  मुँह किए थे। काले रंग का फीता उनमें उलझा था जो गिरने - गिरने को था। पत्नी के बगल, दीवाल की तरफ बेटा सो रहा था। गिरने के भय से शायद पत्नी उसे दीवाल की तरफ लिटा लेती थी।
सहसा मेरे दिगाम में आया कि पत्नी से मेरी कब बात हुई थी और बेटे से? कोई ऐसा पल पास न था जो जाग रहा हो! क्या मैं किसी सराय में हूँ, जिसमें किसी से कोई लेना - देना नहीं! ये तो हद है! यह सोचते ही बदबू के तीखे झोंके ने मेरा बुरा हाल कर दिया, लेकिन ताज्जुब था कि पत्नी और बेटा, दोनों आराम से, बेसुध - से सो रहे थे। जाहिर है, बदबू का एहसास उन्हें न था।
बदबू के सुराग के लिए जब मैं जोरों से किड़किड़ाया तो पत्नी ने घबराकर आँखें खोलीं और उठकर बैठ गई और उबासियों के बीच बोली - चाय बनाऊँ? रोटी पका दूँ?
मुझे गुस्सा छूटा। मन हुआ कि खैंच के एक थबाड़ा दूँ रांड को। चाय और रोटी के अलावा कुछ सूझ नहीं रहा है हरामखोर को! गुस्से के बावजूद मैंने अपने पर नियंत्रण रखा। थबाड़ा न सही गालियाँ तो बरसती रहीं और उसी के साथ तखत के नीचे झाँकने लगा। बारीक जर्रों के अलावा सामने कुछ न था। संभव है, पायताने कुछ हो। इसी विचार के तहत मैंने बेटे को खिसकाया तो वह टस से मस न हुआ। गहरी नींद में था।
मैं अपना नियंत्रण खो बैठा और बेटे को जोरों से थबाड़ा मारा।
दुखद था कि बेटे पर थबाड़े का जरा भी असर न था। वह पूर्ववत सोता रहा। दाँत पीसते हुए मैंने मुट्ठी में उसके बाल भरे, झिंझोड़ दिया और चटाक से फिर थबाड़ा मारा।
बेटा फिर भी बेअसर रहा।
यकायक पत्नी जो कुछ क्षण पूर्व उठकर बैठ गई थी और तुरंत ही लेटकर खर्राटे भरने लगी थी। थबाड़े की आवाज से शायद फिर उठ बैठी और उसने वही सवाल किया - चाय बना दूँ? रोटी पका दूँ?
मैंने उसे घूरकर देखा। उसने मेरी तरफ  देखा भी नहीं और फिर लेट गई और पलक मींचते खर्राटे भरने लगी।
होंठ चाभते हुए मैंने कहा - मुझे न रोटी खानी है न चाय पीनी है रांड! तू पड़ी - पड़ी सुसा और तेरा यह कमीन चेंचड़ा भी...।
और फिर मैंने कुठरिया के सारे सामानों को उलट - पुलट डाला।
लेकिन सुराग मिला तो मिला नहीं! नतीजा था कि मेरा गुस्सा फिर बढ़ा और बढ़ता चला गया। यह दु:खद ही था कि मेरे गुस्से की किसी को तनिक परवाह न थी। माँ अपनी दुनिया दुरुस्त करके पूजा - पाठ करने और घंटी टुनटुनाने में लग गई थी। और पत्नी चाय बनाने और रोटी पाथने में!
मैं अंदर - बाहर फटफटाता रहा।
पत्नी ने चाय दी तो देखी न गई। रोटी दी तो उबकाई छूटी।
पूरा दिन मेरा अंदर - बाहर होने, सुराग ढूँढ़ने में निकल गया। दूसरा दिन भी तकरीबन ऐसा ही गुजरा।

तीसरे दिन जब भूख से बेहाल था। नाक बंद करके किसी तरह चाय गटकी और पानी के सहारे दो - तीन कौर निगले और बाहर आ खड़ा हुआ। बदबू का सुराग हाथ आ गया।
बाहर, बगलवाले घर के सामने, ईंटों के ढेर पर मक्खियाँ भिनभिना रही थीं। दूर से उड़ती नहीं दीख रही थीं। मैंने यूँ ही ढेला फेंका तो असंख्य मक्खियाँ उड़ीं। शक हुआ। आगे बढ़ा, देखा तो मक्खियाँ ही मक्खियाँ थीं और कुछ नजर नहीं आ रहा था। आड़े - तिरछे होकर देखा तो ईंटों के ढेर के अंदर कुछ था। पैर से अद्धा हटाया तो कुत्ते का पिल्ला था जिस पर मक्खियों की मारा - मारी थी। पिल्ला कई दिनों का मरा लग रहा था। कुछ - कुछ गला - सा। तीखी बू छोड़ता। लेकिन ताज्जुब कि चिनी ईंटों के अंदर वह था! खैर, मैं बेहद खुश हुआ जैसे किला $फतह कर लिया हो।
माँ से कहा तो उसने मोतियाबिंद से सफेद होती आँखें तरेरीं - क्या करूँ मैं? आरती उतारूँ!!! जानवर कहीं का!!! खाट खींचे जाने का गुस्सा अभी भी माँ पर था!
पत्नी ने कोई जवाब न दिया। सूनी आँखों वह मुझे देखती रही। बेटे से कहने का कोई सवाल न था। स्टोव के सामने वह बैठा था। थाली लिए, भिखारी जैसा, रोटी पाने के इंतजार में।
स्टोव की रोशनी में पत्नी भड़भूजन लग रही थी जो मरी - मरी सी लौ को बढ़ाने के लिए स्टोव में अंधाधुंध हवा भरे जा रही थी और हवा थी कि स्टोव में जाने से इंकार कर रही थी। इस चक्कर में स्टोव से कई बार तवा गिरा। गिरने पर वह हर बार पत्नी की गाली खाता।
पिल्ले को परे हटाकर चैन की साँस लेने की बात सोची तो इसमें दिक्$कत आ खड़ी हुई। जैसे यही कि छत पर तिवारी दिख गया। वह मुझे ऐसे देख रहा था मानों कह रहा हो कि मेरे घर के आगे बदबू क्यों बढ़ा रहा है? अपने घर की बदबू अपने घर रख ... मेरा बढ़ा डण्डा रुक गया और मैं अपने बैठके में आ गया। तखत पर बैठ गया। यह सोचकर कि जैसे ही तिवारी हटेगा, पिल्ला दूर, आगे बढ़ा दूँगा और बस ...।
लेकिन मैंने आड़ से देखा, तिवारी हटने का नाम ही नहीं ले रहा था। उसने पड़ोसी शर्मा को आवाज देकर बुला लिया था।
अब दोनों सामने छत पर थे। आपस में बात करतेए ध्यान मेरी तरफ किए।
थोड़ी देर बाद मैंने देखा तो दोनों छत पर न थे। बाहर निकला तो दोनों सीढ़ियाँ उतरते नीचे आ खड़े हुए। अपने को बातों में मशगूल दिखाते।
मैंने यूँ ही सामने गली पर नजर डाली। गली बहुत ही संकरी थी और बेहद गंदी। हर तरफ  कूड़े - करकट का ढेर था और उसे बिखेरता आहार ढूँढ़ता मुर्गे - मुर्गी, कुत्तों - सुअरों का दस्ता। गली के बीच नाली जाम थी। पानी के बहाव की वजह से कचरा सड़क पर उमड़ पड़ा था और लोग किसी तरह कूँदते - फाँदते निकल रहे थे। जगह - जगह बच्चे पाखाना फिर रहे थे। मुझे गुस्सा आया, तिवारी और शर्मा को यह गंदगी नहीं दिख रही है। सिर्फ मेरा पिल्ले को हटाना दिख रहा है मरदूदों को!!!
सब कुछ कचरा होने के बावजूद मैं शर्म - संकोच को ढो रहा था और गहरे असमंजस में था। तभी मैंने वह रास्ता अपनाया जिससे वह घटना घटी जिसने मुझे बेचैन कर दिया था।
हुआ यह जब तिवारी और शर्मा दरवाजे से नहीं हटे और पूरी तरह चौकस रहे तो मैंने राजू मेहतर को बुला लाने का मन बनाया। राजू मेहतर पहड़िया पर झुग्गी में रहता था। वैसे वह नगरपालिका का मेहतर था और मुहल्ले की सफाई उसी के जिम्मे थी। लेकिन ताड़ी के चक्कर में वह कभी - कभार ही काम पर आता था। संभव है, इस वक्त भी ताड़ी में कहीं धुत्त पड़ा हो तो क्या होगा? तब किसी और को पकड़ूँगा इस सोच के तहत मैं पहाड़िया की तरफ  बढ़ा।
धूल - कीच भरी चक्करदार गलियाँ पार करता जब मैं राजू मेहतर की झुग्गी के सामने पहुँचा राजू ताड़ी के नशे में डूबा, धूल में पड़ा था, चित्त।
मुझे देखकर उसने उठने की कोशिश की लेकिन उठ नहीं पाया। चक्कर खाकर धूल में लोट गया।
थोड़ी देर में लटपटाती - नकनकाई आवाज में वह बोला जिसका आशय था कि हुजूर पहली दफे दरवाजे पर आए हैं और वह किसी काबिल नहीं। लेकिन हुजूर जो हुकुम देंगे वह पूरा होगा कहते हुए उसने सिर के ऊपर हाथ जोड़ने की कोशिश की। हाथ जुड़ नहीं पाए। बेकाबू होकर अगल - बगल झूल गए।
उसने लटपटाती आवाज में कहा - हुजूर, चिंता न करें। हमारा यह लौंडा, आपका हुकुम बजाएगा। आप हुकुम करें ...।
राजू ने जमीन पर पड़े - पड़े अधमुँदी आँखों से अपने दस - एक साल के लड़के की तरफ  इशारा किया जो मेरे सामने तना हुआ - सा खड़ा था। कुछ -कुछ ऐसे जैसे उससे विनती करो तभी वह काम के लिए सोचेगा।
मैंने जब काम बताया जो वह गर्दन टेढ़ी करके, होंठों को बिचकाता, तीखी आवाज में बोला - हो जाएगा, पंद्रा रुपये लगेंगे!!!
- क्या!!! पंद्रा रुपये! जरा - से काम के पंद्रा रुपये!!! तेरी तो ... शब्दों को चबाते अंदर ही अंदर खाक होते मैंने लड़के की ओर देखा। गाली बकते हुए।
लड़का घिसी - घिसी सी काफी पुरानी जीन्स की चुस्त पैंट पहने था जिसकी आगे की जेबों में वह दोनों हाथों की उंगलियाँ खोंसे हुए मुझे ऐसे देख रहा था जैसे कह रहा हो कि पंद्रा रुपये में हवा ढीली हो गई तो खुद कर लो! उसकी पैंट के पाँयचे उधड़े थे और उसके डोरे काँतर जैसे चिपके थे। पाँव में हवाई चप्पल थी जो नल के नीचे ब्रश से चमचमाई गई थी। पैंट के ऊपर काली टी -शर्ट थी जिसमें चमकीले बटन लगे हुए थे। गले में गोल धागा था जो माला की तरह पड़ा था जिसका छोर टी - शर्ट में अंदर दबा था। वह अभी - अभी नहाकर आया था। आगे को उंछे हुए बालों में पानी चमक रहा था।
उसकी हुलिया पर नजर डालते मैंने उसे मन में भद्दी गालियाँ दीं। कमीना, पंद्रा लेगा। पंद्रा जूते मारूँगा। भूल जाएगा सारी हेकड़ी ऊपर से मुस्कुराते हुए लाड़ जताया चल तो सही, पैसे मिल जाएँगे! कहीं भाग नहीं रहे हैं!!!
- नईं, पेले बोलो! वह सख्त होकर बोला।
पंद्रह रुपये अखर रहे थे। अफसोस में सिर हिलाता बोला - पाँच में तो तेरा बाप कर दे!
- बाप की छोड़ो। वह मुफ्त भी कर सकता है। अपुन करेगा तो पूरे पैसे लेगा। क्या ...? उसने कंधे झटके।
मैंने राजू की तरफ  देखा जो करवट लेकर खर्राटे भरने लगा था, मुँह उसका खुला था जिसमें से राल टपक रही थी। फिर इस शोख लौंडे को जो बाप से बिलकुल उलट था चाल - ढाल और व्यवहार से! जरा भी लिहाज नहीं। निगाहों से छेदता मैं बोला - कह तो दिया, दूँगा। काहे हुज्जत कर रहा है!
- कित्ते दोगे? पेले ये बताओ। लड़के की भवें तनी थीं।
- वही जो कहा।
- वही जो क्या?
सोचा कि कहने में क्या जाता है, कह दो। काम होने पर पाँच दो। ज़्यादा चें - चें करे तो गधे की पिछाड़ी... मुस्कुराते हुए कहा - पंद्रा और क्या!
- सच कह रहे हो?
- तो क्या झूठ! हद्द है!!! झूठे अफसोस में मैंने सिर हिलाया। लड़का खुश हुआ। काम के लिए मेरे आगे - आगे मुस्तैदी से चला।
घर के पास पहुँचकर वह ईंटों के ढेर पर चढ़ - सा बैठा। शिकारी कुत्ते की तरह वह शिकार को सूँघने लगा। जब कुछ हाथ न लगा तो वह ईंटों को हटाने लगा। ईंटों के हटते ही पिल्ला सामने था। वह खुश हुआ। जहरीले साँप को जैसे सँपेरा मिनटों में पकड़ लेता है, ठीक उसी तरह इस लड़के ने बहुत ही फर्ती से सामने पड़ी रस्सी का फंदा बनाया और पलक झपकते बिना हाथ लगाए, पिल्ले को फंदे में फँसा लिया। तिरछी नजरों से मुझे देखा, मुस्कुराया जैसे कह रहा हो कि ऐसे काम होता है और अपुन इसी का पैसा माँगता था! रस्सी को उसने कलई में लपेटा, पिल्ले को भद्दी गाली दी जैसे कह रहा हो कि तेरे खलास होने की जगह नाला है। यहाँ क्यों निबटा। चल वहीं, चील कौवे तेरे इंतजार में हैं! अपनी बड़ी आँखों से मुझे देखता। कुत्ते को घिर्राता वह आगे बढ़ा। मानों कहना चाह रहा हो कि बस अभी आया। रफूचक्कर मत हो जाना।
पिल्ले के साथ बदबू खत्म हो जानी चाहिए थी। लेकिन वह घर में घर बना चुकी थी। थू - थू करता मैं बाहर आया। लड़का सामने था। पिल्ले को वह नाले में फेंक आया था और भौंहों को मटकाकर उंगलियों के इशारे से पैसे माँग रहा था।
मैंने पाँच का नोट हथेली पर रखा तो उसे मेरी ओर फेंकता तिड़तिड़ाया जैसे कोई गंदी चीज आ गई हो - पाँच!!! पंद्रा चाहिए!!!
- जा नहीं, सही कर दूँगा। सख़्त आवाज में ऐंठकर मैंने कहा।
- क्या सही कर देंगे? अकड़ता - सा वह बोला।
- तेरी हुलिया!!!
अपुन की हुलिया राइट है साब, अपनी देखिए और अपुन का मेहनताना दीजिए!
- पंद्रा रुपये नहीं दूँगा। मैंने स्पष्ट कहा।
- क्यों नहीं दोगे?
- काम पाँच रुपये का था!
- अच्छा, बात कित्ते की हुई थी?
- होने से क्या होता है? पचास - सौ की भी हो सकती है। क्या मैं दे दूँगा, चूतिया हूँ क्या?
कमर पर हाथ रखे वह हैरत.सा मुझे देखने लगा। गोया पैसे हासिल करने की नई चाल के बारे में सोच रहा हो।
- उठा पैसे। मैंने कहा और फूट यहाँ से!
- फूट यहाँ से! वह आश्चर्य में था पैसे, नईं दोगे। कमर पर मुट्ठी टिकाकर गहरी साँस छोड़ता वह बोला। आँखें फाड़े।
बिलकुल नहीं। पहाड़ की तरह अचल होकर मैंने जवाब दिया।
- क्यों नईं दोगे साब?
- इसलिए कि तू गलत पैसे माँग रहा है!
- फिर आपने हामी काहे भरी थी!
- मैंने हामी नहीं भरी थी!
- झूठ काहे बोलते हो साब! दस रुपए में ईमान काहे गलाते हो? उसने मेरी मजबूती में सूराख बनाना चाहा।
- ईमान मैं गला रहा हूँ कि तू?
अचानक छत पर तिवारी दिखा जो संभवत: पुरानी रंजिश निकालना चाह रहा था, इसलिए हमारी बातें सुनते हुए कमीनेपन से हँसा। चहक कर। जैसे कह रहा हो कि भंगी तक के पैसे मार रहा है कमीना! थंू तेरी जात पर!!! लेकिन जाहिर तौर पर दिखा रहा था कि बेटी की किसी बात पर हँसा है! शर्मा भी उसके पास था। वह भी जोर - जोर से हँसे जा रहा था। ताली बजाते, मटकते हुए। उसने लड़की को अब कंधे पर बैठा लिया और क्या खूब है क्या खूब है कमाल है। जोरों से चीखता गाना - सा गा रहा था।
मुझ पर घड़ों पानी पड़ गया। काटो तो खून नहीं। फिर यकायक दाँत पीसता, फाड़ खाता लड़के से बोला - आँख निकालता है। जाता है कि करूँ बम्बू तेरी ...।
लड़का पहुँचा खिलाड़ी था। तिवारी और मेरी स्थिति को अच्छी तरह ताड़ गया था। तिवारी और शर्मा के अलावा पूरे मुहल्ले को सुनाता शेर होता दहाड़ा एक  तो पूरे पेसे नइंर् दे रहे, उस पर बम्बू की धमकी! तेरे जैसा अब अपुन भी सुलूक करेगा, पिल्ला अभी यहीं डाले जाता हूँ। देखता हूँ क्या करते हो। किस मेहतर को बुलाते हो कहता होंठ चाभता, रोष में भरा, पैर पटकता वह नाले की तरफ  बढ़ा। दौड़ता हुआ - सा।
तिवारी की इस पर हँसी गूँजी और शर्मा की क्या खूब है, कमाल है, की तीखी बरछी जैसी मार!
मैं दाँव हार गया था। लड़का हाथ से निकल गया था। गला फाड़कर उसे बुलाना चाह रहा और पूरे - पूरे पैसे देना। लेकिन मुँह से आवाज़ नहीं फूट रही थी। जैसे जबान न हो।
बदबू से बड़ी बदबू के तले दबा जा रहा था मैं!!!

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