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शुक्रवार, 17 नवंबर 2017

भारतीय रंगमंच में प्रसाद के नाटकों का योगदान

शोधार्थी : आशाराम साहू 

आचार्य भरतमुनि ने नाट्यशास्त्र में रंगमंच के स्वरूप तथा रंगमंच की कला का विस्तृत वर्णन किया है। उसके अनुशीलन से स्पष्ट है कि भरतमुनि के पूर्व ही रंगमंच का पर्याप्त विकास हो चुका था जिसके आधार पर उन्होंने शास्त्रीय दृष्टि से रंगमंच का विवरण प्रस्तुत किया है। इसके अतिरिक्त जन - रंगमंचों का भी उन्होंने उल्लेख किया है, जिनके प्रतिरूप आज नौटंकी, रामलीला, रासलीला, भाण आदि के रूप में हमें देखने को मिलती है। जिस रंगमंच पर हिन्दी नाटकों का अभिनय प्रारंभ हुआ, उसे हम सीधे संस्कृत रंगमंच परम्परा का ही सोपान नहीं कह सकते, बल्कि उस पर पाश्चात्य प्रभाव भी पर्याप्त सीमा तक दिखाई देता है। हिन्दी रंगमंच के समय संस्कृत युगीन रंगशालाएँ ध्वस्त हो चुकी थी तथा मुस्लिम शासन व्यवस्था ने भी इसकी ओर विशेष ध्यान नहीं दिया। भारत में यूरोपीय जातियों के प्रवेश से ही थियेटरों की स्थापना को बल मिला और धीरे - धीरे यह भारत के विभिन्न प्रान्तों में स्थापित होने लगा। पारसी रंगमंच व्यवसायिक रूप से फलने - फूलने लगे जिनका मुख्य उद्देश्य मनोरंजन के माध्यम से केवल धन अर्जित करना था। जिसमें अश्लीलता एवं कुरूचिपूर्ण भाव - भंगिमाओं का समावेश होता था। नाटक की कथावस्तु अधिकतर पौराणिक होती थी क्योंकि रंगनिर्देशक यह निश्चित रूप से जानते थे, कि हिन्दू जनता में ऐसे ही कथानक पसन्द किये जाते हैं। गीतों की मात्रा भी अधिक होती थी, और ये गीत साहित्यिक नाटकों के गीतों से भिन्न होते थे।
नि:संदेह पारसी रंगमंच से नाट्यकला,अभिनयकला आदि का विकास तो हुआ लेकिन भारतीय जनता की सांस्कृतिक अभिरूचि पर गहरा आघात भी पहुँचा। ऐसे में पारसी रंगमंच की अश्लीलता के फलस्वरूप ही हिन्दी जगत का ध्यान रंगमंच कला की ओर आकृष्ट हुआ, तथा भारतेन्दु एवं उनके युगीन नाटककारों ने भारतीय संस्कृति के संरक्षण में अपने नाटकों के माध्यम से महत्वपूर्ण कार्य किया। भारतेन्दु एवं उनके सहयोगी नाटककारों ने अभिनेयात्मक दृष्टिकोण से नाटकों का निर्माण किया। भारतेन्दु युगीन नाटककार सफल अभिनेता भी थे, इसी कारण इस युग में हिन्दी रंगमंच सर्वाधिक सक्रिय रहा। भारतेन्दु युगीन रंगमंच ने प्रचलित परंपरा का अनुकरण करते हुए भी सुरुचि एवं गंभीरता की रक्षा की, नाटकों में साहित्यिक एवं रंगमंचीय अनिवार्यताओं को यथाशक्ति संग्रहित करने का प्रयास भी किया। भारतेन्दु युग के पश्चात् द्विवेदी युग में नाटक उन ऊँचाईयों तक नहीं पहुँच पाया। हाँ, इतना जरूर है इस युग में नाटककारों की संख्या कुछ कम जरूर हो गई और अपेक्षाकृत कुछ अच्छे नाटककार इस क्षेत्र में आये, जिनमें बालकृष्ण भट्ट, किशोरीलाल गोस्वामी,माखनलाल चतुर्वेदी,चतुरसेन शास्त्री,मैथिलीशरणगुप्त, गोविन्दवल्लभ पंत आदि। इस युग के नाटकों में नवोत्थान एवं सुधारवादी दृष्टि हावी रही, फिर भी प्रहसनों की दिशा में इस युग में विशेष प्रगति हुई, जिसमें बदरीनाथ भट्ट का 'कुरू वदन दहनÓ, मैथिलीशरणगुप्त का 'चन्द्रहासÓ सुदर्शन का 'अंजनाÓ माखनलाल चतुर्वेदी का 'कृष्णार्जुन-युद्धÓ आदि उल्लेखनीय है। फिर भी नाटकों की साहित्यिक उपलब्धि सीमित ही रही। इस युग में मौलिक नाटकों की अपेक्षा अनुवादित नाटक विशेष रूप से चर्चित रही, जिसमें लाला सीताराम बी.ए. द्वारा शेक्सपियर का अनुवादित नाटक, एवं सत्यनारायण 'कविरत्नÓ द्वारा 'उत्तमरामचरितÓ एवं 'मालती माधवÓ का अनुवाद आदि प्रमुख रूप से प्रसिद्ध रही। द्विवेदी युगीन नाटककारों के संदर्भ में डॉ. नगेन्द्र लिखते हैं-''इनमें कोई दूर तक जाने वाला वैशिष्ट्य नहीं। अत: इनका प्रभाव अपने तक ही सीमित रहा। ''1
फिर भी द्विवेदी युगीन प्रभाव को विस्मृत नहीं किया जा सकता क्योंकि हर पूर्ववर्ती युग अपने परवर्ती युग को किसी ना किसी तरह प्रभावित करता ही है। डॉ. सोमनाथ गुप्ता द्विवेदी युगीन नाटक साहित्य के सन्दर्भ में अपना विचार व्यक्त करते हुए कहते हैं ''यह हिन्दी नाट्य साहित्य का महत्वपूर्ण संधिकाल था जिसमें उच्चकोटि के नाटक, साहित्य का निर्माण तो नहीं हुआ, परन्तु उसमें कुछ ऐसी प्रवृत्तियाँ अवश्य उत्पन्न हो गई जो आगे चलकर लोकप्रिय नाटक साहित्य के निर्माण में सहायक सिद्ध हुई और जिनके स्वास्थ्यप्रद प्रभाव ने प्रसाद एवं उनके परवर्तियों के लिए नया मार्ग प्रशस्त किया। ''2 परवर्ती युग में नाटक को एक नई दिशा देने वाले कवि नाटककार जयशंकर प्रसाद के प्रारंभिक नाटक अपने पूर्ववर्ती भारतेन्दु एवं द्विवेदी युग की नाटकों से प्रभावित अवश्य रहा परन्तु बहुत ही जल्दी उन्होंने अपने लिए एक नया मार्ग प्रशस्त किया। प्रसाद ने अपने नाटकों में संस्कृत तथा अंग्रेजी नाट्य शैलियों की समन्वित परंपरा का सूत्रपात किया। प्रसाद ने अपनी सांस्कृतिक चेतना एवं रोमाण्टिक कल्पना के माध्यम से भारतीय रंगमंच को एक नया आयाम दिया। आर्य संस्कृति के प्रति अटूट आस्था एवं गूढ़ चिन्तन उनके नाटकों में हमें दिखाई देती है। प्रसाद की नाट्य शैली में प्राचीन एवं नवीन नाट्य शैली का समन्वय उन्हें अन्य नाटककारों से अलग पंक्ति में लाकर खड़ा कर देती है। प्रसाद ने हर दिशा में समन्वय प्रस्तुत किया। इतिहास का कल्पना से, साहित्य का दर्शन से,और तत्व का तथ्य से। श्री जयनाथ नलिन के अनुसार - ''प्रसाद युग हिन्दी नाटकों के इतिहास में उत्थान या स्वर्ण युग है, इसी युग में प्रसाद ने भारती के मंदिर में दिव्य भेंट चढ़ायी। नाटकों के स्वरूप, साहित्यिक, कलापूर्ण, स्वाभाविक, मौलिक और स्वाधीन रूप देने का सर्वप्रथम श्रेय प्रसाद की प्रतिभा को है। प्रसाद युग में हिन्दी नाट्क - कला शैली, टेक्नीक आदि की दृष्टि से पूर्ण विकास को पहुँचा।''3
हिन्दी नाटक साहित्य के इतिहास में प्रसाद का आगमन एक महत्वपूर्ण घटना साबित हुई। प्रसाद जी की यह उत्कृट अभिलाषा थी कि हिन्दी रंगमंच का उत्थान हो। हिन्दी रंगमंच के विकास की कामना में भी प्रसाद जी का राष्ट्रीय एवं सांस्कृतिक दृष्टिकोण प्रधान था। उनका कहना था ''हिन्दी रंगमंच की स्वतंत्र चेतना को सजीव रखकर रंगमंच की रक्षा करनी चाहिए। केवल नई पश्चिमी प्रेरणाएँ हमारी पथ - प्रदर्शिका न बन जाएँ। हाँ, उन सब साधनों से जो वर्तमान द्वारा उपलब्ध है हमको वंचित न होना चाहिए।ÓÓ4
इस प्रकार प्रसाद ने अपने नाटकों के माध्यम से भारतीय रंगमंच को एक नई ऊँचाई के साथ - साथ एक नई दिशा भी प्रदान की तथा भारतीय सांस्कृतिक गौरवगाथाओं को आधुनिक समस्याओं के संदर्भ में नाटकीय रूप प्रदान करने का भागीरथ प्रयत्न किया। भारतीय रंगमंच के उत्थान में प्रसाद के नाटकों का योगदान अतुलनीय है। प्रसाद ने अपने नाटकों के द्वारा,बदलते सामाजिक मूल्यों की रक्षा, विधवा विवाह, अन्तर्जातीय विवाह,नारी शिक्षा,नारी स्वातन्त्रय एवं पुरुषों के समक्ष स्त्रियों को अधिकार दिलाने का पुरजोर समर्थन अपने नाटकों में किया है।
डॉ. गिरीश रस्तोगी के अनुसार ''जयशंकर प्रसाद हिन्दी नाटक और रंगमंच को गंभीर मोड़ देने वाले नाटककार हैं। उन्होंने भारतीय शास्त्रीय और सांस्कृतिक परम्पराओं को आत्मसात करते हुए समूचे राष्ट्रीय संघर्ष,चरित्र और आधुनिक मानवीय द्वन्द्व को नवीन सौन्दर्य बोध के साथ नाटक में अभिव्यक्त किया।''5
प्रसाद ने अपने ऐतिहासिक नाटकों के माध्यम से भारतीय रंगमंच को नयी शैली एवं नया विजन प्रदान किया। अतीत को वर्तमान संदर्भ में प्रस्तुत करके हमें इतिहास के उन अनदेखे - अनछुए पहलुओं का दिग्दर्शन कराया जो महज हमारे लिए एक गाथा बन कर रह गई थी। प्रसाद के अलावा और भी ऐतिहासिक नाटककार हुए, लेकिन प्रसाद जी के नाटकों की भाँति ऐतिहासिकता का संरक्षण उनके नाटकों में हमें दिखाई नहीं देता।
रंगमंच का प्रश्न लेकर 'प्रसादÓ के नाटक विवादग्रस्त जरूर रहे। इस संदर्भ में  प्रसाद का अपना मन विचारणीय है ''मेरी रचनाएँ तुलसीदत्त, शैदा या आगाहश्र की व्यावसायिक रचनाओं के साथ नहीं नापी तौली जानी चाहिए। मैंने उन कम्पनियों के लिए नाटक नहीं लिखे हैं, जो चार चलते अभिनेताओं को एकत्र कर कुछ पैसा जुटाकर, चार पर्दे मंगनी मांग लेती है और दुअन्नी - अठन्नी के टिकट पर इक्के वाले, खोमचे वाले और दुकानदार को बटोरकर जगह - जगह प्रहसन करती फिरती है। ....यदि परिष्कृत बुद्धि के अभिनेता हो, सुरुचि - सम्पन्न सामाजिक हो और पर्याप्त द्रव्य काम में लाया जाए तो ये नाटक अभीष्ट प्रभाव उत्पन्न कर सकते हैं।ÓÓ6
अत: हम अगर प्रसाद की दृष्टि से देखें उनकी ही दृष्टि से इनका मूल्यांकन करें, तो इनके नाटक रंगमंचीयता की कसौटी पर पूर्णत: खरा उतरती हैं। रही बात भाषा की, तो प्रसाद जी का स्पष्ट अभिमत है ''सरलता और क्लिष्टा पात्रों के भावों और विचारों के अनुसार ही होगी और पात्रों के भावों और विचारों के ही आधार पर भाषा का प्रयोग नाटकों में होना चाहिए।ÓÓ7
अत: प्रसाद के नाटकों का सही मूल्यांकन हम प्रसाद की दृष्टि से ही कर सकते हैं एवं भारतीय रंगमंच में उसके योगदान को भी समझ सकते हैं।
संदर्भ
1. मोहन डॉ. नरेन्द्र ''समकालीन हिन्दी नाटक और रंगमंचÓÓ पृ. 67, वाणी प्रकाशन,नई दिल्ली, आवृत्ति संस्करण-2014
2. वही, पृष्ठ-67
3. 'गुंजनÓ शर्मा, गिरीराज ''हिन्दी नाटक:मूल्य संक्रमणÓÓ पृष्ठ 29, संघीप्रकाशन, 1978
4. मल्होत्रा, सुषमापाल ''प्रसाद के नाटक तथा रंगमंचÓÓपृष्ठ 165, राजपाल एण्ड सन्स, नई दिल्ली प्रथम संस्करण 1974
5. रस्तोगी, डॉ. गिरीश: ''बीसवी शताब्दी का हिन्दी नाटक और रंगमंच,
पृष्ठ-85, भारतीय ज्ञानपीठ नई दिल्ली, प्रथम संस्करण 2004
6. मल्होत्रा सुषमापाल, ''प्रसाद के नाटक तथा रंगमंचÓÓ पृष्ठ 166,
राजपाल एण्ड सन्स, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण 1974
7. वही, पृ. 165

इं.क.सं.वि.वि. खैरागढ़ ,
जिला - राजनांदगांव (छ.ग.)
मो. 9575229842

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