इस अंक के रचनाकार

इस अंक के रचनाकार आलेख खेती-किसानी ले जुड़े तिहार हरे हरेलीः ओमप्रकाश साहू ' अंकुर ' यादें फ्लैट सं. डी 101, सुविधा एन्क्लेव : डॉ. गोपाल कृष्ण शर्मा ' मृदुल' कहानी वह सहमी - सहमी सी : गीता दुबे अचिंत्य का हलुवा : राजेन्द्र प्रसाद काण्डपाल एक माँ की कहानी : हैंस क्रिश्चियन एंडर्सन अनुवाद - भद्रसैन पुरी कोहरा : कमलेश्वर व्‍यंग्‍य जियो और जीने दो : श्यामल बिहारी महतो लधुकथा सीताराम गुप्ता की लघुकथाएं लघुकथाएं - महेश कुमार केशरी प्रेरणा : अशोक मिश्र लाचार आँखें : जयन्ती अखिलेश चतुर्वेदी तीन कपड़े : जी सिंग बाल कहानी गलती का एहसासः प्रिया देवांगन' प्रियू' गीत गजल कविता आपकी यह हौसला ...(कविता) : योगेश समदर्शी आप ही को मुबारक सफर चाँद का (गजल) धर्मेन्द्र तिजोरी वाले 'आजाद' कभी - कभी सोचता हूं (कविता) : डॉ. सजीत कुमार सावन लेकर आना गीत (गीत) : बलविंदर बालम गुरदासपुर नवीन माथुर की गज़लें दुनिया खारे पानी में डूब जायेगी (कविता) : महेश कुमार केशरी बाटुर - बुता किसानी/छत्तीसगढ़ी रचना सुहावत हे, सुहावत हे, सुहावत हे(छत्तीसगढ़ी गीत) राजकुमार मसखरे लाल देवेन्द्र कुमार श्रीवास्तव की रचनाएं उसका झूला टमाटर के भाव बढ़न दे (कविता) : राजकुमार मसखरे राजनीति बनाम व्यापार (कविता) : राजकुमार मसखरे हवा का झोंका (कविता) धनीराम डड़सेना धनी रिश्ते नातों में ...(गजल ) बलविंदर नाटक एक आदिम रात्रि की महक : फणीश्वर नाथ रेणु की कहानी से एकांकी रूपान्तरणः सीताराम पटेल सीतेश .

गुरुवार, 25 मई 2017

रिसते घाव

बूटा सिंह
         और सलमा छोटी और क्वाँरी। वह मेरे साल.सवा साल के बच्चों को उठाए रहती और मुझसे कुछ बड़ी लगती। साथ ही मेरी शक्ल.सूरत और कद बिल्कुल अम्मी.जान की तरह था। हाय! अम्मी को तो नजर लग गयी, नहीं तो वह अभी कहाँ मरने वाली थी।
       सलमा ने मेरा लड़का उठाया हुआ था। यही उसका आसरा था और इसी में वह व्यस्त रहती थी। अकेली औरत को लोग लावारिस माल समझते हैं। बच्चा कुछ भी न कर सकता हो पर माँ उसे आदमी से कम नहीं समझती। सलमा बिल्कुल हिन्दू औरत लगती। उसने बुरका नहीं पहना हुआ था और मैंने काले बुरके के पल्ले को सिर पर फेंका हुआ था। इससे मेरा मुँह और नक्श और भी सुन्दर लग रहे थे। सलमा की ओर कोई नहीं देखता था, पर जो भी मेरे पास से गुजर जाता वह एक बार फिर मुड़ कर मेरी तरफ देखता।
        मैं दुआएँ माँगती-' रब के आगे प्रार्थना करती कि हम दोनों सही.सलामत अब्बा जान के पास पहुँच जाएँ। मुद्दत बीत गयी थी अब्बा जान को देखे। वे कैसे होंगे। उनकी शक्ल बदल गयी होगी। वे अपनी साहिबंजादियों को पहचानेंगे भी या नहीं। हाय मेरा अल्लाह।
      हमारे दिल डर से भरे हुए थे, पता नहीं किस समय क्या हो जाये जबकि अलीगढ़, दिल्ली, लखनऊ और हैदराबाद में हमारे घर थे। चाँदनी चौक में चाचा अब्बा की दुकान थी। जब भी कोई छोटी.मोटी छुट्टी होती, हम सब दिल्ली चले आते थे और चाचा अब्बा अपनी पर्दों वाली बग्घी भेज देते थे। वे पुराने ख्‍यालों के जो थे।
       मुझे अच्छी तरह याद है जब मैं घर से चाचा अब्बा की दुकान पर आती तो सबसे पहले बाहर टँगा बड़ा.सा बोर्ड पढ़ती अनायत उल्लाह एंड सन्स। चाचा अब्बा मुझे देखते ही कुर्सी से हिल जाते। उन्हें ग्राहकों का खयाल नहीं रहता और कहते - मेरी बेटी नईम आ गयी हैं, वे मुझे अपने पास बैठाते। प्यार करते और रुपया निकाल कर कहते - मेरी बेटी नईमी क्या खाएगी, कुल्फी या फलूदा। यह देख मेरे साथ आया उनका बेटा अकरम नारांज हो जाता। पता नहीं क्यों। क्या पता था कि मैंने अकरम की ही बीवी बनना है। मैं सुन्दर थी। चाँदनी रात की तरह और उसके मुँह पर चेचक के दाग थे। हाय अल्ला.तेरी रंजा ----।
       दिल्ली, लखनऊ, अलीगढ़ हमारे घर थे। अब सब पराये हो गये हैं। मुझे कोई ऑंखें बाँध कर भी छोड़ देता तो भी अब्बा की दुकान ढूँढ़ लेती। सुना है अब उस दुकान पर ओम बूट हाउस का बोर्ड लगा है। अब सारी दुनिया पराई लगती है। विलाप करने के सिवा और कोई कर भी क्या सकता है। छोड़ी हुई जगह भुलती भी तो नहीं। जब स्वप्न में वे स्थान आते हैं तो डर से रूह भी काँप जाती है। जैसे किसी अजींज की रूह मिल गयी हो।
         मेरे अब्बा जान डॉक्टर असलम अलीगढ़ विश्वविद्यालय में प्रोंफेसर थे। पता नहीं हम पाँच भाई.बहन कैसे पैदा हो गये। हमने कभी अब्बा जान को अम्मी जान के साथ हँसते हुए नहीं देखा था। हर समय पढ़ाई, हर समय लिखाई। यदि कभी अम्मी जान कहती - खान साहिब चाय तैयार है, तब वे अम्मी जान की तरफ देख ऐसे '' हाँ '' कहते जैसे ऊँघ रहे हों।
       कई बार हमारी अम्मी जान को हँसी आ जाती और अधिकतर गुस्सा और वह तमक कर कहती - '' खान साहिब, नवाबजादी ने कुछ कहा है।''
- हाँ ... हाँ ....। 
- '' क्या ''
- '' बेगम, आओ बैठो। मैं आपको कब से याद कर रहा हँ।'' 
- '' छोड़ो भी, मैं हुई आपके घर की खरीदी हुई बाँदी। आंखिर मौत के दिन तो पूरे करने हुए।'' 
- '' बेंगम क्यों नारांज होती हो आंखिर। 
- '' आंखिरकार क्या मेरी जिन्दगी का भी कोई मकसद है। मैं जानवर तो नहीं हँ। नवाब साहब ने मुझे कहाँ बाँध दिया। फरमाया करते थे - महिरो तेरा शौहर आलम आदमी है। बाप दादा से अलीगढ़ यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर और प्रिंसिपल रहे हैं। बड़ा खानदानी घर है। पर नवाबजादी को उन्होंने कसाई घर में भेज दिया। नवाबों की शहंजादी मदरसों के घर आ गयी।'' 
         मेरी अम्मी अब्बाजान के पास खड़ी बातें करती ओर रोती जाती। वे उसकी सौ - सौ खुशामदें करते तो नवाबंजादी मुस्करा कर लाड से कहती - '' हुजूर को इस तरह तो नहीं करना चाहिए।'' 
- हाँ ... हाँ तुम ठीक कहती हो।
        जिस दिन अब्बा जान को फुरसत नहीं मिलती और वे अम्मी जान के साथ ठीक से बात नहीं करते उस दिन नवाब जादी का पारा चढ़ जाता। कौन था फिर उनके सामने खड़ा होने वाला।
        नवाब जादी साहिबा तिल्ले वाला हैदराबादी कुर्ता पहना होता और गरारा पहन हुआ होता। कसे हुए कुर्ते से उसका शरीर फूट - फूट पड़ता, ऑंखों में खून उतर आता। मुँह एकदम लाल हो जाता और वह पुकारते हुए कहती - ओ शिब्बो, अरी शिबन, कहाँ मर गयी। अल्लाह रख्खा, ओ अल्लाह रख्खा, हरामंजादे, पता नहीं किधर चले जाते हैं। सूअरों को मार - मारकर अधमरा कर दूँगी।'' वह हाथों में चाबुक उठा लेती ओर हवेली के लॉन में नवाब जादी ऐसे घूमती, जैसे पिंजरे में बन्द भूखा शेर घूमता है। डरता हुआ कोई सामने न आता। आखिर वह भी नवाबजादी थी, नवाब बदरो दीन खान की इकलौती बेटी। हंटर मार कर नौकरों की चमड़ी उधेड़ देती। हुक्म अदूली की सजा इतनी ही नहीं, मौत भी हो सकती है।
       सभी नौकर एक कोने में लग जाते। कोई भी सामने आने की हिम्मत न करता। सभी अल्ला रख्खा ;हिजड़े की खुशामद करते जो खुद को अल्लाह.रख्खा कहलवा कर खुश होता था। नवाब साहिब,नाना अब्बा ने साहिबजादी के साथ अल्लाह रख्खा को दहेज में दिया था।
- ओ अल्लाह रख्खे के बच्चे कहाँ मर गया है, सूअर के बच्चे:...।''
- '' हाय अल्लाह!'' नवाब जादी साहिबा इस तरह से क्यों कहती हो,मैं सदके जाऊँ। मैं मर जाऊँ। खुदा कसम सारा बाजार रंडा हो जाएगा। सभी कहते हैं अल्लाह रख्खी मेरे साथ निकाह कर ले। कसम अपनी जान की। '' वह अपने सिर पर हाथ रख कर कहता - मुझे अलीगढ़ का एक आदमी भी पसन्द नहीं। कहाँ लखनऊ के नवाब और कहाँ यह घसियारे ...खुदा कसम, नवाबंजादी साहिबा हजूर की खैर हो। मुझे अल्लाह रख्खा मत कहा करो। मैं तो अल्लाह रख्खी हूं, हजूर की बाँदी। उठाओ अपना चाबुक और उधेड़ दो चमड़ी... । मुझे लखनऊ छोड़ आओ ... नवाब साहिब खुद किसी अच्छे साहिब जादे के साथ मेरा निकाह कर देंगे ... ।हाय अल्लाह, मरूँ तो नवाबों के शहर, जहाँ मेरी कबर पर कोई आशिक आकर फूल चढ़ाये।''
        अल्लाह रख्खी अम्मी जान की बलाएँ लेती। ऑंखों से ऑंसू बहते तो नवाब जादी का हाथ ढ़ीला पड़ जाता।
यह देखकर फिर अल्लाह रख्खी कहती '' हाय अल्लाह, दो मिनट नईम बेटी के साथ क्या खेलने लगी कि मेरी आंफत आ गयी। हजूर बताओ, क्या हुक्म है ... । नवाब जादी साहिबा आपके बिना यहाँ मेरा कौन है''
- ''नवाबंजादी की बच्ची .... हरामजादी ....।''
- हाँ .... हाँ नवाब जादी की बच्ची!'' अल्लाह रख्खी सिर हिला, ऑंखों में ऑंसू लाकर कहती और अम्मी जान के पैर पकड़ लेती। उन पर अपना सिर रख देती। अपनी चुनरी से अम्मी जान के पैर झाड़ती।
       नवाब जादी को चुप खड़ा देख डरते.- डरते शिब्बो और बाकी के नौकर भी आ जाते और हाथ जोड़ कर माफी माँगते। अल्लाह रख्खी का ड्रामा घर में फिर चहल - पहल ले आता।
       मैं बता रही थी कि मेरी अम्मी पाँच बच्चों की माँ होते हुए भी बहुत सुन्दर थी। अब्बा हजूर की ंजरा.सी नारांजगी घर में कयामत ले आती थी।
अम्मीजान को याद कोई बेगम साहिबा कह देता तो वह गले पड़ जाती थी। अम्मीजान को अपने मायके पर अभिमान था। वह नवाब बदरो दीन खान की साहिबंजादी और नवाबंजादी थी।
नवाब बदरो दीन खान की क्या बातें थीं। उन्हें दोनों बेटों से बेटी ज्यादा प्यारी थी। जब हमने लखनऊ जाना होता तो अम्मीजान तीन.तीन हफ्ते पहले से तैयार करतीए उधर नवाब साहिब नौकरों को आदेश देतेश्श्याद रखोए नवाबंजादी तशरींफ ला रही है। उसकी खातिर में कमी नहीं आनी चाहिए।श्श्
श्श्कल्लनण्ण्ण्घ्श्श्
श्श्जी हजूर।श्श्
श्श्काले साँसी को मेरी तरफ से हुक्म देनाए नवाब हजूर ने याद ंफरमाया है। जंगली तीतरों का इन्तंजाम कर ले। नवाबंजादी तशरींफ ला रही है।श्श्
श्श्कल्लू को हुक्म दो कि हर दूसरे दिन दो दर्जन बटेर लाये।श्श्
श्श्हाँण्ण्ण्हाँ एक और बात सुनोए सारे काम भूल मत जाना। सरदार जाफर को कहना नवाबंजादी आ रही है। मुर्गाबिए जरूर भिजवा देए एक.आध हिरनए जंगली मुर्गे मिल जाएँ तो बहुत अच्छा है।श्श्
नवाब साहिब को पचास रुपये वजीफा मिलताए पर उनके शुगल बहुत थे। लाखों की जमीन इन शुगलों में ही जा रही थी।
दीवानखाने के बाहर लॉन में लम्बे बेंच पर हर समय दो.चार आदमी बैठे ही रहते।
श्श्कल्लन खानए नवाब हजूर को हमारा सलाम देना। कहना फज्जू पहलवान खिदमत में हाजिर हुआ है।श्श्
श्श्काम।श्श्
श्श्काम बहुत जरूरी है। मेरा पट्ठा तैयार है। वह हसनखान के बटेर के साथ लड़ेगा। खुदा कसम कल्लनए बटेर क्या हैए शहजादा है। उसका एक पंजा भी कोई नहीं सहार सकता। बहुत खूँख्वार है। दाने की जगह किशमिश और सोने के वर्क खिलाये हैं उसेए बादाम और ऑंवले का मुरब्बा।। दिल देख जवान काण्ण्ण्।श्श्
श्श्पहलवानए आजकल नवाब हजूर को फुर्सत नहीं। नवाबंजादी साहिबा तशरींफ लाने वाली हैं।श्श्
श्श्दोस्तए हमारा सलाम तो दो नवाब साहिब कोए इन रुस्तमों की लड़ाई देखने के लिए अब लखनऊ में रह भी कितने आदमी गये हैंण्ण्ण्।श्श्
मुझे अब भी याद है लखनऊ पहुँचने से एक हंफ्ता बाद फज्जू पहलवान के बटेर की लड़ाई हुई। मैं उस समय बहुत छोटी थीए पर अब तक मुझे सारी बातें याद हैं।
दीवान.ए.आम के बाहर लॉन में इसी काम के लिए एक तख्तपोश पड़ा हुआ था। उसके साथ उतने ही ऊँचे दीवान पर काली पड़ा था। मसनद लगाकर नाना अब्बा आकर बैठ गये थे। हुक्के की गोल नली उनके हाथ में थी और हुक्का दीवान से कुछ हटकर एक तिपाई पर सजाकर रखा गया था। मैं नाना अब्बा हजूर के कालीन पर बैठी थी। एक.दो और नाना अब्बा की उम्र के नवाब बैठे पुरानी बातें कर रहेथे।
सामने मेज पर सफेद चादर बिछी थीए जिस पर लड़ाई होनी थी और उसके चारों तरफ दोनों पार्टियों के लोग बैठे हुक्म की प्रतीक्षा कर रहे थे।
श्श्हजूरए हुक्म हो तो दंगल शुरू हो!श्श् फज्जू पहलवान ने उठकर फर्शी सलाम करते हुए कहा।
श्श्हुक्म हैए कोई आदमी शोर.शराबा मत करे।श्श् नाना अब्बा ने हुक्के की नली उँगलियों में थामते हुए कहा।
बिछी हुई चादर पर थोड़े से दाने बिखेरे गयेए और दोनों धड़ों के बीच एक और चादर तान दी गयी।
श्श्कोई आदमी हल्ला.गुल्ला नहीं करेए नहीं तो दंगल बन्द कर दिया जाएगा ओर लोगों को बाहर निकाल दिया जाएगा। कल्लनण्ण्ण्
श्श्बीच की चादर ध्यान से खींचना कोई पट्ठा डर नहीं जाये। हमसे बेइन्साफी नहीं हो सकती।श्श्
श्श्जी सरकार।श्श्
चादर खींचने से पहले बटेरों को छोड़ा गया। उन्होंने एक.आध दाना.चुगने के बाद पंख फड़फड़ाये और चादर खींच ली गयी।
मैं क्या बताऊँ नाना अब्बा के शुगलघ् वे मुनसफ आदमी थेए भेड़ों की लड़ाई केए मुर्गों की लड़ाई केए बारहसिंगे भी लड़ाए जाते थे। बटेरबाज से लेकर कबूतर.बाज तक सभी नवाब अब्बा के हजूर में सलाम करने आते। चाय.शर्बत चलते रहतेए पर क्या मजाल कोई नाना अब्बा के हुक्के को हाथ भी लगा जाये।
इन कामों में नाना अब्बा ने लाखों की जायदाद गँवा दी थीए पर दरवांजे से मेहमान भूखा नहीं जाने देते थे।
मेरे अब्बाजान डॉक्टर असलम साहिब को नाना अब्बा के साथ बहुत चिढ़ थी। पर मेरी माँ अपने अब्बाजान पर फख्र करती थी। वह नवाबंजादी जो थी। पर अभी नवाबंजादी को दुरूख के दिन देखने बाकी थे।
अलीगढ़ वाली हवेली भी एक केन्द्र ;मरकजद्ध बन गयी। जो भी आता यही पूछताश्श्डॉक्टर साहिब कहाँ हैंण्ण्ण्।श्श्
श्श्काम।श्श्
श्श्काम उन्हीं के साथ है।श्श्
नवाबंजादी इतने ंफजूल आदमियों की आवभगत से खीझ जाती और पूछतीश्श्खान साहिब ये कौन लोग हैंण्ण्ण्घ्श्श्
श्श्बेंगमए हर बात औरतों को बताने वाली नहीं होतीए तुम अपना काम कियाकरो।श्श्
हमारी अम्मी को बहुत गुस्सा आताए पर उसकी पेश नहीं चलती थी।
हमारे घर में मीटिंगें होतींए खुंफिया आदमी आतेए पर पता कुछ नहीं लगता।
रावलपिंडी जल रहा हैए लाहौर आग लगी हुई है। हिन्दू.सिख घर छोड़.छोड़कर भाग रहे हैं। मुसलमानों के दुश्मन बस सिख हैं सिख। इन पर काबू पा लिया तो सारा पंजाब हाथ में आ जाएगा। जैसे.जैसे ये खबरें आतींए अब्बाजान के मुँह पर निखार आ जाता। उन्होंने अपनी हवेली के आसपास ही नहींए मुहल्ले के आसपास भी किला.बन्दी करवा दी।
जालन्धरए लुधियानाए अमृतसर सभी सिखों ने उजाड़ दियेए बुर्के फाड़ दिये गये। स्त्रियों का स्त्रीत्व नष्ट कर दिया गयाण्ण्ण्हायण्ण्ण्हायण्ण्ण् छातियाँ काट दी गयींण्ण्ण्नंगे जुलूसण्ण्ण्तौबा तौबा।
मेरे अब्बा के माथे पर पसीना आ गया और उन्होंने हवेली की खिड़की में खड़े होकर विश्वविद्यालय की बड़ी.बड़ी मीनारों को देखकर एक लम्बा साँस लिया।
एक खबर आयी दिल्ली में गड़बड़ हो गयी है। पहाड़गंजए चाँदनी चौक सभी को साफ कर दिया गया है। यह सुन अब्बाजान को महसूस हुआ कि उनकी सारी स्कीमें फेल हो गयी हैं। उन्होंने अपनी ंकब्र को अपने हाथों खोदा है।
अम्मीजान को अपना शृंगार भूल गया और वह भागकर अब्बाजान के गले लगकर रोने लगी।
श्श्हजूर को यह क्या होता जा रहा है। आप बोलते क्यों नहीं। लड़कियाँ जवान हैंए लड़के जवान हैं। सुना हैए लाहौर की तरफ से आये सिख मुसलमानों की लड़कियों को नहीं छोड़तेए लड़कों को झटका देते हैं। किसी की कोई पेश नहीं जा रही। यह वहशी कौम कहाँ से आ गयी।श्श्
अब्बाजान चुप थेए बिल्कुल चुप। उनके माथे पर पसीना आ रहा था। सभी बच्चे उनके आसपास बैठे थे। अल्लाह रख्खी एक कोने में बैठी रो रही थी। शिबन पता नहीं कहाँ चली गयी थी। घर ंकब्रिस्तान बन गया था।
नौकर ने चाय तैयार की। वह पड़ी.पड़ी ठंडी हो गयी। सुबह का खाना भी पड़ा हुआ था। ऐसा लग रहा था कि जैसे रात होते ही घर में डाका पड़ गया हो। इतने में अल्लाह रख्खी दौड़ी.दौड़ी अन्दर आयीश्श्हजूर की ंखैर होए दिल्ली से एक आदमी आया है। वह जनाब को मिलना चाहता है। कहता हैए काम हजूर को ही बताएगा।श्श्
श्श्उसे अन्दर जे आओ।श्श्
जो आदमी अन्दर आयाए उसे हम सभी जानते थे। आदमी चाचा अब्बा का विश्वासपात्र नौकर था। ऐसा लग रहा था कि वह जान पर खेलकर हम तक पहुँचा था। उसने अब्बा हजूर को सलाम करते हुए कहाश्श्खान साहिब ने यह चिट्ठी दी है। मुझे जल्दी वापस जाना है। दिल्ली वाले अपनी जान बचाकर कसमपुरसी की हालत में हुमायूँ के मकबरे में पनाह ले रहे हैं।श्श्
चिट्ठी में लिखा था नवाबंजादी साहिबा और बच्चों को लेकर जल्दी पहुँच जाओ। हमारा कांफिला कराची जाने वाला है। बच्चे हवाई जहाज में पहुँच चुके हैं। दिल्ली बरबाद हो गयी है।
सिख क्याए मुसलमान मुसलमान को खा रहा है। रिश्वत बहुत चल रही है। कराची पहुँचने के लिए हवाई जहाज का इन्तंजाम कर लिया गया है। आदमी चला गया तो हमारे घर मातम छा गया।
अब्बाजान का दिमाग अनेक प्रकार के विचारों से भर गया था। वे चुप थेए जैसे सकता मार गया हो। हम बेघर हो चले थेए जलावतन किये जा रहे थे। सिख मुसलमानों के मुकाबले परण्ण्ण्छातियाँ काट दी गयींए बुकर्ें फाड़ दिये गये। कतारों में नंगी खड़ी की गयी मेरी साहिबंजादियाँए मेरी बेंगमए यह सब मेरे अमालनामे हैंए अब्बाजान हवेली की खिड़की में खड़े बाहर की ओर देख रहे थे। उन्हें ऐसा महसूस हो रहा था जैसे यूनिवर्सिटी की एक मीनार अपने आप गिर गयी हो। फिर उनकी निगाह यूनिवर्सिटी के प्रांगण में गयी! जहाँ सर सैयद अहमद खान के मंजार से कुछ हटकर उनके दादाजान और अब्बा साहिब की ंकब्रें थीं।
उन्हें लगा कब्रों में से मिट्टी उड़ रही है। उस मिट्टी ने अनेक व्यक्तित्वों का रूप धारण कर लिया। अब्बाजान ने इन शख्सियतों के बारे में हमें कराची में भी पत्र डाला था और लिखा थामैं बाप.दादा की ंजमीन से अलग नहीं हो सकता। पता नहीं इन रूहों ने अब्बा हजूर से क्या बातें की थीण्ण्ण्फिर खिड़की से अपना मुँह घुमा उन्होंने हुक्म दियाश्श्सभी तैयार हो जाओए बुर्के उतार देनाए कोई मुसल्ला या लाटा न उठाये। अलीगढ़ से हमें चोरों की तरह निकलना होगा।श्श्
श्श्बसीर!श्श्
श्श्जी हजूरण्ण्ण्।श्श्
श्श्तुम मोटर तैयार करोए बेंगमए साहिबजादियों और लड़कों को लेकर तुम भाई साहिब के पास दिल्ली पहुँचो। रास्ते में नहीं ठहरना। रात को वापस पहुँचना होगा। मैं तेरी इन्तजार करूँगा। शाबासए मेरे बहादुर बच्चेण्ण्ण्श्श्
श्श्और हजूर।श्श् नवाबजादी ने तरले से भरी आवांज में कहा।
श्श्मैं भी पहुँचूगा।श्श्
श्श्मैं हजूर के बिना नहीं जा सकती।श्श्
श्श्देखो बेगमए इन बीस वर्षों में मैंने आपको कभी कोई हुक्म नहीं दिया। आज डॉक्टर आलम हुक्म दे रहा हैए तुम तैयार हो जाओए जिद नहीं करो। यह रुपये सम्भालो आपके काम आएँगे।श्श्
नवाबजादी ने घुटनों के बल खड़े होकरए अब्बा हजूर का हाथ चूमा और ऑंसू बहाते हुए कहाश्श्मेरे आंका! बाँदी को धोखा मत देना। यह नवाबजादी नहींए फकीरजादी दरंखास्त करती है। हजूर बिना मैं जिन्दा नहीं रह सकती। मुझे अपने हाथों से मार दोए कौन है जनाब को पूछने वाला।श्श् माँ की इन बातों ने सभी को रुला दिया।
श्श्बेगम उठ।श्श् अब्बा ने नवाबजादी को दोनों कन्धों से पकड़कर उठाया और हमारे सामने ही उन्हें गले लगा लियाए मेरी अम्मा का माथा चूम लिया। पता नहीं इस चुम्बन में कितनी तल्खी और कितने सकून थे।
हमाने दिल्ली से अम्माजान को कितनी ही चिट्ठियाँ डालीं। कितने पैगाम भेजेए पर वे नहीं आये। और न ही कोई जवाब आया। दिल्ली से जाते समय मेरी अम्मी फूट.फूटकर रोयी। महबूब इलाही के मंजार शरींफ की तरफ मुँह करके उन्होंने अपने शौहर के लिए दुआ माँगीसौ.सौ संजदे किये और दिल्ली की खाक को सिर पर लगा रोते हुए कहाश्श्नवाबंजादी ंफकीरंजादी हो गयी हैए है ंखुदा!श्श्
कराची पहुँचते ही हमें अच्छा मकान मिल गया। भाई असगर की कॉलेज में नौकरी लग गयी। हम सभी पाठशाला जाने लगे। हम उदास थेए पर खुश भी। अब हमें कोई सिख नहीं सता सकता था। सिखों की भयानक बातें सुनए कई बार मैं सोते.सोते चीखने लगती थी। अम्मीजान सुबह नमांज पढ़ती तो दुआ करती। उसकी ऑंखों से ऑंसू बहने लगतेश्श्या अल्लाह! मेरे डाक्टर साहब की खैर हो। मेरा सुहाग कायम रहे।श्श्
अम्मी ने खाना.पीना छोड़ दिया। कुछ महीनों में ही कनपटियों पर उनके बाल सफेद हो गये। वह हर हफ्ते अब्बाजान को खत लिखतीए तार डलवातीए पर कोई जवाब नहीं मिला। अम्मीजान पागल.सी विलाप करती। कपड़े फाड़ देती और भिखमंगों की तरह हाथ फैला.फैलाकर डाक्टर असलम की ंखैरियत के लिए दुआ माँगती। कितनी बार अब्बा हजूर को लिखा थाश्श्डाक्टर साहिब! ंखुदा के दरवांजे सदा खुले हुए हैं। मैं हशर के दिन हजूर का दामन पकड़ पुलसरात की कठिन घाटी ऑंखें मींचकर पार कर जाऊँगी। मेरा रहबर मेरे साथ होगा। क्या मेरी जिन्दगी में हजूर के न्याज हासिल नहीं हो सकतेघ् मैं हजूर की बाँदी हँ। मेरे दफनाए जाने से पहले एक बार मेरे महबूब मुझे देख जाते और अपने हाथ से मेरी कब्र पर पत्थर लगवा जाते। नवाबंजादी महिरुल निसा जोंजा डाक्टर असलम आराम फरमा रही है। नहीं तो कयामत के दिन पूछूँगी। मेरा क्या दोष थाए मुझे इतनी बड़ी सजा क्यों दी।श्श्
हमसे माँ का दुरूख देखा नहीं जाता था। मामा साहिब आते। वे डाक्टर थे। अपनी बहन को तसल्ली देते। उनका एक भाई अभी तक हैदराबाद में था। नाना अब्बा लखनऊ से नहीं निकल सकते थे और कुछ वर्ष पहले वहीं वफात पा गये थे। उनके पास अपना कोई अजींज नहीं था।
आदमी को मिट्टी से कितनी मुहब्बत होती हैए वह मर सकता हैए पर उस का मिट्टी से प्यार नहीं टूट सकता। नानाजान ने वह सरंजमीन नहीं छोड़ीए पर मौत कबूल कर ली।
नानाजान ने एक बार हमारी माँ अर्थात् नवाबजादी को लिखा थाश्श्महरोए जब कभी लखनऊ आओए मेरे मंजार पर अपने हाथ से अगरबत्ती जलाना। मैं अकेला रह गया हँ। मेरे साथ सिर्फ कल्लन है। कभी.कभी अमीनाबाद के चौक में जाकर खड़ा हो जाता हँ। अपना कोई भी नजर नहीं आता। महिरोए तुम्हारी मुहब्बत मेरे दिल में बसी हुई है। पर जब मेरी साँस से लखनऊ की मिट्टी की महक आती हैए मेरी ऑंखें मुँद जाती हैं। मेरी जमीन सरकार ने सम्भाल ली है। मेरे लिए हवेली का सामान काफी है। कोई शुगल नहींए आंखिरी दिन की इन्तंजार है। मैं जफर की तरह रोना नहीं चाहताश्दो गज जमीन भी न मिली कू.ए.यार में।श्
मौत के बाद भी मुझे कोई इस जमीन से अलग नहीं कर सकता। तुझे मिलने की एक तड़प बाकी है।
अब्बाजान बिलकुल चुप हो गये थे। पर माँ को नाना अब्बा के खतों से मालूम चल गया था कि डाक्टर असलम क्यों नहीं आ रहे।
मुसलमान मूर्तिपूजक नहीं होता। मेरी अम्मी मूर्तिपूजक हो गयी। यह उसकी मुहब्बत की बहिशत का नतीजा था। पता नहीं किसने अलीगढ़ विश्वविद्यालय की पत्रिका उन्हें दीए जिसमें डाक्टर अब्बा की तस्वीर थी। वे रंगीन गाउन और चौड़ी टोपी पहन कन्वोकेशन के जुलूस में जा रहे थे। नीचे लिखा था डाक्टर एम।असलमए वाइस चाँसलर।
अब्बाजान की ठोढ़ी पर की छोटी.सी दाढ़ी बिल्कुल सफेद हो चुकी थी। जब अम्मी ने तस्वीर देखी तो फूट.फूटकर रोने लगी। उसको दंदल पड़ गयी। मामाजान आये हुए थे। नवाबजादी की हालत देख उनकी ऑंखों में भी ऑंसू आ गये। डाक्टर भाई साहिब और प्रोंफेसर भाई साहिब तथा हम तीनों बहनें पास थे। डाक्टर भाई साहिब माँ को होश में लाने की कोशिश कर रहे थे तथा साथ खुद भी रोते जा रहे थेया अल्लाह फजल करो।
अम्मीजान ने अब्बाजान की तस्वीर को शीशे में जड़वाकर मेज पर रख लिया। मेज मगरब की तरफ थी। अम्मीजान नमाज पढ़ जब सिंजदा करती तो डाक्टर अब्बा की तस्वीर सामने होती। ऐसा लगता कि जैसे वे अपने देवता को सिजदा कर रही हो। अम्मा कई.कई घंटे मुसल्ले से न उठती। वह अपने महबूब से बातें करती रहती। कई बार हम चुपचाप उसके पीछे खड़े हो जाते पर उसको इसकी कोई खबर न होती।
घर में सब कुछ था। मेरा विवाह चाचा अब्बा के घर हो चुका था। सलमा एम।ए। कर चुकी थी। और अब्बाजान की यादें धुँधली पड़ती जा रही थींए पर अम्मा का घाव वैसे ही रिस रहा था। उसमें अब प्राण नंजर नहीं आ रहे थे।
वह तरले करती कि अलीगढ़ जाएए वह मिन्नतें करतें कि लखनऊ जाकर देखेए हैदराबाद जाकर बड़े भाई साहिब को मिले। पर मेरे दोनों भाई साहब उन्हें जाने नहीं देतें थे। उन्हें हिन्दुस्तान से चिढ़ थी और ंखासकर सिखों से। श्अलीगढ़ में फिर फसाद हो गये हैं। यह सिख कितनी घटिया कौम हैए औरतों का भी लिहांज नहीं करते। अम्मीजान आप बहुत कमंजोर हो गयी हैं।श् मेरी अम्मी अलीगढ़ की मिट्टी के लिए तरसती हुई चल बसी।
एक दिन अम्मी ने मुझे अपने घर बुलाकर कहा थाश्श्नईम बेटीए तुम अब समझदार हो गयी होए बहादुर भी। मेरा आखिरी समय आ गया है। एक बार अलीगढ़ जाना और डाक्टर साहब को मेरा सलाम देना। और कहनाए हजूर मेरी अम्मी को मांफ कर देनाए वह बड़ी गुनाहगार थीए मेरे लिए दुआ करें और महशिर वाले दिन मेरा हाथ पकड़ लें।श्श्
अम्मी चिल बसीए पर अब्बाजान की तरफ से कोई खत नहीं आया। हम दोनों बहिनें हिन्दुस्तान जाने के लिए तैयार हो गयी थीं। माँ की बातें हमारे कानों में गूँज रही थीं। फिर कौन रोक सकता थाघ्
मैं पहले ही बता चुकी हँ कि मैं बड़ी थीए पर सलमा से छोटी लगती थी। वह विवाहिता और मैं क्वाँरी लगती। साथ में उसने मेरा बच्चा जो उठाया हुआ था। वह बिना बुरके की और मैं बुरकेवाली। हमने सीमा पार की। हमारा रंग पीला पड़ गया। मोटे.मोटे सिखए बड़ी.बड़ी पगड़ियों और बिखरी हुई दाढ़ी वालेण्ण्ण्जिन्नण्ण्ण्अल्लाह तेरा फंजल। हम दिल्ली पहुँचींण्ण्ण्हमारी साँस.में साँस आयी। दिल्ली स्टेशन उसी तरह था जैसे आज से चौबीस साल पहले था। कुछ मुसलमानों की शक्लें नंजर आयीं तो हमारी साँस.में.साँस आयी। मैंने लम्बी साँस लेते हुए सलमा की तरफ मुँह करते हुए कहा
श्श्अभी तक वो गलियाँ हसीनो.जवाँ हैं
जहाँ हमने अपनी जवानी लुटा दी।श्श्
सलमा यह सुनकर मुस्करा पड़ी। उसकी मुस्कराहट में ंजहर घुला हुआ था। उसने कहाश्श्हम तो ऐसे नहीं।
अभी तक वो गलियाँ हसीनो.जवाँ हैं
जहाँ हमने अपने है बचपन को खोया।श्श्
हम बहुत खुश थे कि अलीगढ़ के स्टेशन पर अब्बा हजूर हमें लेने के लिए आये होंगे। पर वे कहीं नंजर नहीं आये। हमारे पास आकर एक बूढ़े.से मुसलमान ने पूछाश्श्बेटी नईम है।श्श्
श्श्हाँण्ण्ण्हाँण्ण्ण्।श्श्
और वह रोता हुआ हमारे सिरों पर हाथ फेरता रहा श्श्बिस्मिल्लाह! बिस्मिल्लाह! मेरी बेटियाँ आ गयी हैं।श्श् यह हमारा पुराना नौकर बसीर था जो अब काफी बूढ़ा हो चुका था।
श्श्खान साहब आपका इन्तंजार कर रहे हैं। वे स्टेशन पर नहीं आ सकते।श्श्
हम बहुत खुश थीं। वर्षों बाद अपने घर आयी थीं। अब्बा हजूर अन्दर थे और हमारा मन कर रहा था कि दौड़कर जाएँ और उन्हें बाँहों में ले लें। हम अन्दर गयीं तो डर गयींए हमारे रंग पीले पड़ गये। अब्बा हजूर के बिलकुल पास एक सिख खड़ा था और उसके साथ एक सुन्दर लड़की। अब्बा हजूर ने हमें कसकर गले से लगा लिया और सरदार की तरफ इशारा करते हुए कहाश्श्मेरे मुहाफज और अपने भाई साहब जोगिन्दर सिंह से मिलो।श्श् हम हिल न सकीं। पर सरदार जी ने हमारे सिरों पर प्यार दिया और उनको पासा खड़ी उनकी बीवी ने हम दोनों बहनों को गले लगाते हुए कहाश्श्हम कितने दिनों से आपका इन्तजार कर रहे थे। आओ मेरे बेटे अपनी मामी के पास।श्श् मेरे बेटे को उठाते हुए उसने कहा।

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