डॉ. कृष्ण कुमार सिंह ' मयंक '
1.
कभी बहार की रंगत, कभी खि़ज़ां का मिज़ाज।
कब एक जैसा रहा गर्दिशे - जहाँ का मिज़ाज।।
ग़ुरुरे - वक़्त से कह दो कि होश में आये,
जमीन पूछने वाली है कहकशां का मिज़ाज।
हमारे क़द की बुलंदी को नापने वालो,
हमारा हैसला रखता है आसमां का मिज़ाज।
नई बहार की ये दोरुख़ी अरे तौबा,
गुलों से मिलता नहीं सहने - गुलसितां का मिज़ाज।
समझने वाले मेरे दिल का मुद्दआ समझें,
है लफ्ज़ - लफ्ज़ से ज़ाहिर मिरी ज़बां का मिज़ाज।
' मयंक ' मंजि़ले - मक़सूद का खुदा हाफि़ज़,
है कारवां से अलग मीरे - कारवां का मिज़ाज।
कब एक जैसा रहा गर्दिशे - जहाँ का मिज़ाज।।
ग़ुरुरे - वक़्त से कह दो कि होश में आये,
जमीन पूछने वाली है कहकशां का मिज़ाज।
हमारे क़द की बुलंदी को नापने वालो,
हमारा हैसला रखता है आसमां का मिज़ाज।
नई बहार की ये दोरुख़ी अरे तौबा,
गुलों से मिलता नहीं सहने - गुलसितां का मिज़ाज।
समझने वाले मेरे दिल का मुद्दआ समझें,
है लफ्ज़ - लफ्ज़ से ज़ाहिर मिरी ज़बां का मिज़ाज।
' मयंक ' मंजि़ले - मक़सूद का खुदा हाफि़ज़,
है कारवां से अलग मीरे - कारवां का मिज़ाज।
2
अब मुहब्बत के हों या हों जंग के यारो महाज।
हमने देखे हैं बहुत से रंग के यारों महाज।।
फि़तनाकारों के इरादे मिल गए सब ख़ाक में,
संग से तोड़े गए जब संग के यारो महाज।
भाई की गर्दन पे भाई ही की शमशीरें तनें,
क्या करोगे जीत कर इस ढंग के यारो महाज।
अपने हों या ग़ैर हों, होली में मिलते हैं गले,
आपने देखे नहीं हुड़दंग के यारों महाज।
जिस्म या धरती पे हमला तो सुना ऐ ' मयंक ',
अब सभी कहने लगे हर अंग के यारो महाज।
3
तड़प - तड़प के ही गुज़रेगी जिंद़गी शायद।
मेरे नसीब में लिक्खी नहीं खुशी शायद।।
सुलूक देख के लोगों का ऐसा लगता है,
वफ़ा की रस्म ज़माने से उठ गई शायद।
ज़माना क्या है ये मैंने समझ लिया लेकिन,
समझ न पाया ज़माना मुझे भी शायद।
किये हैं मैंने जो एहसान भूल जाएंगे,
मेरी वफ़ा का सिला देंगे वह यही शायद।
गुलों के रंगे - तबस्सुम से ऐसा लगता है,
उड़ा रहे हैं मेरे ग़म की ये हंसी शायद।
उदास - उदास जो चेहरे है अह्ले महफिल के,
उन्हें भी खलने लगी है मेरी कमी शायद।
गुनह का लेके सहारा ' मयंक ' दुनिया में,
ज़मीर बेच के आया है आदमी शायद।
मेरे नसीब में लिक्खी नहीं खुशी शायद।।
सुलूक देख के लोगों का ऐसा लगता है,
वफ़ा की रस्म ज़माने से उठ गई शायद।
ज़माना क्या है ये मैंने समझ लिया लेकिन,
समझ न पाया ज़माना मुझे भी शायद।
किये हैं मैंने जो एहसान भूल जाएंगे,
मेरी वफ़ा का सिला देंगे वह यही शायद।
गुलों के रंगे - तबस्सुम से ऐसा लगता है,
उड़ा रहे हैं मेरे ग़म की ये हंसी शायद।
उदास - उदास जो चेहरे है अह्ले महफिल के,
उन्हें भी खलने लगी है मेरी कमी शायद।
गुनह का लेके सहारा ' मयंक ' दुनिया में,
ज़मीर बेच के आया है आदमी शायद।
4
यूँ लगा हो लाचारी विरोध।
क्या यही होता है सरकारी विरोध।।
हाथ जोड़े और नत्मस्तक भी है,
कर रहे हैं आज दरबारी विरोध।
मसअला हल ही न पाएगा कभी,
एक मुद्दत से तो है जारी विरोध।
अब समर्थन कोई करता ही नहीं,
बन गया है अब महामारी विरोध।
एक दिन ख़ामोश हो जाएंगे सब,
चार दिन का है ये अख़बारी विरोध।
आम जन बोले, कि यह है इन्क़लाब,
मंत्री बोले है ग़द्दारी विरोध।
इतना सच क्यों बोलते हो तुम ' मयंक' ,
जल्द ही झेलोगे तुम भारी विरोध।
पता
ग़ज़ल 5 / 507, विकास खण्ड
गोमती नगर, लखनऊ - 226010
मोबा. : 09415418569
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